क्या, वह रघुनाथ नहीं था / कुबेर
बीस-पचीस साल पहले की बात है।
गड्ढों से अटी-पड़ी, कच्ची सड़क पर बुरी तरह हिचकोलें खाती और पीछे धूल का बादल छोंड़ती हुई बस अंततः भोलापुर के बस अड्डे पर आकर रुकी। बस का यह अंतिम पड़ाव था और इसे यहीं पर रात्रि विश्राम करना होता था। अशोक ने अपना सामान समेटा और नीचे उतर आया। सामान के नाम पर कंधे पर लटकाकर चलने वाले एक बड़े बैग के सिवा और कुछ न था।
नवंबर का प्रथम सप्ताह था और चार दिन बाद ही दीपावली का त्यौहार आने वाला था। नीचे उतरते ही ठंडी हवाओं का एक झोंका आया और बदन को कंपा गया। उसने अपना स्वेटर ठीक किया, मफलर कंसा और बैग को कंधे पर लटकाते हुए आस-पास का मुआयना किया। अपनी कलाई घड़ी की ओर देखा, पर रात के अंधेरे की वजह से वह समय नहीं पढ़ पाया। उन्होंने अंदाजा लगाया, आठ से ऊपर तो हो ही गया होगा।
कुछ ही कदमों की दूरी पर विमला का पान ठेला था। कुछ समीप जाकर उसने पान ठेले की दीवार पर टंगी दीवार घड़ी के डायल पर कांटों की स्थितियाँ देखी। आठ बजकर पंद्रह मिनट हो चुके थे। गाँव-देहात के हिसाब से काफी रात हो चुका था। यहाँ से डेढ़-दो किलोमीटर सुनसान और जंगली रास्ते पर पैदल चलकर गाँव तक पहुँचना आसान काम नहीं था; तब तो बिलकुल भी नहीं जब कोेई हमसफर भी न हो और रास्ते पर एक बरसाती नाला पड़ता हो जिसमें अभी भी घुटनों तक पानी बह रहा होगा; और एक मरघट पड़ता हो जहाँ महीने दो महीने में एक न एक चिता जरूर जलाई जाती हो, और जिसके बारे में भूत-प्रेत और ब्रह्म राक्षसों से संबंधित अनेक डरावनी कहानियाँ प्रचलित हो। उसे रघुनाथ पर क्रोध आया। हमेशा अपनी सायकिल लेकर सेवा में उपस्थित रहने वाले रघुनाथ ने आज अच्छा धोखा दिया था।
रघुनाथ उसी के गाँव का रहने वाला और उसके बचपन का मित्र है। अशोक पढ-़लिखकर शिक्षक हो गया है परंतु रघुनाथ अपनी गरीबी की वजह से प्रायमरी से अधिक पढ़ नहीं पाया और गाँव में ही कृषि-मजदूरी करके अपनी आजीविका चलाता है। बहुत मेहनती, निडर और बहुत जिंदादिल इंसान है वह और बहुत रोचक बातें करता है। उसे पच्चीसों लोककथाएँ याद हैं। भूत-प्रेत की दसियों कहानियाँ भी उसे याद हैं। गाँव और आसपास की घटनाओं की अनेक रोचक संस्मरण भी याद हैं उसे। कहानियों और घटनाओं को प्रस्तुत करने का उनका अपना ही अंदाज है। अंदाज ऐसे कि कपोलकल्पित बातों को भी आप यथार्थ मानने के लिये मजबूर हो जायें। मजेदार इतनी कि हँस-हँसकर आप लोटपोट हो जायें। उसके साथ रहकर, उसकी बातें सुन-सुनकर कभी कोई बोरियत महसूस नहीं कर सकता। उनकी बातें सुनने के लिये तरसते हैं लोग। उनके साथ में होने से समय कैसे कटता है, रास्ता कैसे कटता है, पता ही नहीं चलता। पर आज अशोक को अकेले ही रास्ता तय करना था। उन्होंने बैग को कंधे पर लटकाया। गढ़माता मैया को मन ही मन स्मरण किया, छोटी सी यह यात्रा सकुशल पूरी हो जाय, इसके लिये मनौती मांगी और अंधरे, सुनसान, कच्ची सड़क पर गाँव की और चल पड़ा।
जंगल तो अब कट चुके हैं, जंगली जानवर के नाम पर अब तो एक लोमड़ी भी दिखाई नहीं देती; इनका कैसा डर? रह गई बात श्मशान से बाबस्ता लोगों के बीच प्रचलित भूत-प्रेत की घटनाओं की; सो ये भी निरा कपोलकल्पित बातें ही होती है।
चलते-चलते अशोक को पिछली बार की बातों का स्मरण हो आया। एक बार जब ऐसे ही रात में रघुनाथ उसे लेने आया था तब उसने कह था - “अशोक गुरूजी, भूत-प्रेत का होथे जी? कोनों देखे हें का? सब बनावल बात ए।”
अशोक ने कहा था - “पिछले साल भोलापुर की मंडाई के दिन मरघट्टी के सेमल पेंड़ पर रात भर टोनही ’बरती’ रही, भय के मारे गाँव का कोई भी आदमी उस दिन नाचा देखने जा नहीं सका था। तुम कहते हो कि ये सब कपोलकल्पित बातें हैं?”
अशोक की बातें सुनकर एक लंबा ठहाका लगाया था और काफी देर तक हँसता रहा था रघुनाथ। अशोक ने कहा - “अबे फोकू इसमें इतना हँसने की क्या बात है? सब जानते हैं इस घटना के बारे में कि सेमल की पेड़ पर उस रात घंटे भर तक टोनही ’बरती’ रही, आग के गोले उसके मुँह से निकल-निकल कर टपकते रहे, और तू हँसता है?”
“अरे मितान, पेड़ तीर जा के भला कोनों देखिन का, कि का जिनिस ह बरत हे? दुरिहच् ले देख के वोला टोनही कहि दिन।” हँसते-हँसते रघुनाथ ने कहा था।
अशोक ने कहा था - “वाह! ऐसे बोल रहे हो कि केवल तुम ही इसकी हकीकत जानते हो?”
रघुनाथ - “अउ नइ ते का?” और फिर टोनही ’बरने’ की इस घटना के पीछे की हकीकत जो उन्होंने बताई तो हँस-हँसकर अशोक का भी बुरा हाल हो गया था। दरअसल, उस रात लोगों को डराने के लिये इन्होंने ही सायकिल की एक पुरानी टायर को जलाकर पेड़ पर लटका दिया था।
अशोक ने कहा - “सो तो ठीक है। मेरे साथ भी एक अजीबोगरीब घटना घटी है। बताओ भला वह क्या था?”
रघुनाथ ने आतुरता पूर्वक पूछा - “का ह?”
अशोक ने अपने साथ घटित उस अजीबोगरीब घटना के बारे में बताना शुरू किया।
जिस गाँव में मैं पदस्थ हूँ वहाँ शाला परिसर से लगा हुआ ही शिक्षकों के लिये क्वार्टर्स बने हुए है। आहाता विहीन इस परिसर के सामने की ओर खेल का बडा़ सा मैदान है, जहाँ शाला लगने के दौरान बच्चे खेला करते हैं। बाकी तीन ओर खेत और झाड़ियाँ हैं। दूरस्थ अंचल स्थित, पहुँच विहीन इस गाँव में तास की पŸिायाँ ही मनोरंजन का एकमात्र साधन होती हैं। मैं अविवाहित था, अतः रात्रि भोजन के बाद अन्य शिक्षक साथी मेरे ही क्वार्टर पर तास खेलने के लिये जुट जाते थे। सितंबर-अक्टूबर का महीना रहा होगा। एक तो आसमान में हल्के-हल्के बादल थे और अमावस की रात थी, अतः बाहर अंधेरा कुछ अधिक ही घना था। झाड़ियों की ओर खुलने वाली खिड़की के पास ही मेरा बिस्तर लगा हुआ था जिसमें बैठकर हम चार मित्र लालटेन की धुंधली रोशनी में तास खेल रहे थे।
तास की पत्तियों को व्यवसिथत करते हुए मैंने बिड़ी की गड्डी में से चार बीड़ियाँ निकालकर दियासलाई से सुलगाया और साथियों की ओर बढा़ दिया। हम सब बीड़ियों का कश लेने लगे। एक मित्र ने कहा - “अबे, तुम्हीं लोग पियोगे, मुझे नहीं दोगे?”
मैंने कहा - “अबे, तुझे भी तो दिया हूँ , मजाक क्यों करता है।”
लेकिन सच यही था कि उसने बिड़ी नहीं ली थी। हमें आश्चर्य हुआ कि आखिर वह चौंथी बिड़ी गई कहाँ? किसने ली?
हमारी दिनचर्या और आदतें रूढ़ होकर मश़़्ाीनी हो जाती हैं। अगले दिन फिर वही महफिल सजी। मैंने फिर बिड़ी सुलगाई, लेकिन उस दिन मैं चौकन्ना था। बिड़ी बाँटते वक्त मैं बराबर निगरानी कर रहा था और कल वाली चालाकी को पकड़ना चाहता था। बाकी तीनों साथी इन बातों से बेखबर अपने-अपने पत्तों में व्यस्त थे। तभी एक हाथ पहाड़ी तरफ वाली खुली हुई खिड़की से अंदर आया। जाहिर था कि उसे भी बिड़ी चहिये थी। आश्चर्य के साथ मैंने खिड़की से बाहर खड़े उस आदमी की ओर ध्यान केद्रित किया। बाहर अंधेरा घना था और कमरे के अंदर जल रहे लालटेन की पीली, मद्धिम रोशनी में उस व्यक्ति को पहचानना संभव नहीं था। लेकिन सहसा उसके चेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देखकर मैं एक बारगी कांप गया। मैंने उसके हाथ पर सुलगी हुई एक बिड़ी रख दी। बिड़ी लेकर वह हाँथ और जलती हुई दोनों आँखे गायब हो गई।
स्कूल के आसपास रात में किसी जिन्न की उपस्थिति की चर्चा गाँव में अक्सर होती रहती थी, और इसी भय के चलते अंधेरा घिरने पर लोग इधर आने से भय खाते थे; और अक्सर हम लोगों को भी इस संबंध में हिदायतें देते रहते थे। खिड़की के अंदर बिड़ी के लिये आया किसी का हाथ और बाहर उसके वेहरे पर जलती हुई दोनों आँखों को देख कर मेरे मस्तिष्क में उसी जिन्न का भय घर कर गया। मित्रों के अंदर भी यह भय व्याप्त न हो जाय, इसलिये उस वक्त इस घटना का जिक्र मैंने किसी से नहीं किया।
तथाकथित जिन्न के भय से उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया, यद्यपि रात में ऐसी-वैसी, और कोई घटना नहीं घटी। सुबह मित्रों से मिलने पर सबसे पहले मैंने इसी बात का जिक्र किया और एक दिन पहले बिड़ी गायब होने के रहस्य पर से परदा उठाया। मित्रों के चेहरों पर भय की रेखाएँ साफ दिखने लगी थी।
काफी सोच-विचार करने के बाद हम लोगों ने निर्णय लिया कि बात हम चारों के बीच ही रहे, इस घटना का जिक्र और किसी से न किया जाय, क्योंकि पहली बात - गाँव के लोग पहले ही इस स्कूल परिसर के आसपास इस तरह की घटना पर विश्वास करते आ रहे हैं, इससे उनका विश्वास पक्का हो जायेगा। अपने अंधविश्वास के चलते वे स्वभाविक रूप से भूत-प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास करने वाले होते हैं इसीलिय इससे गाँव में दहशत फैलने में समय नहीं लगेगा। या फिर दूसरी बात - हो सकता है हमें डराने के लिये किसी ने शरारत किया हो; और यदि एैसा हुआ तो हम सब उपहास का पात्र बनेंगे। कोई भी कदम उठाने के पहले घटना की हकीकत समझना जरूरी है।
घटना की हकीकत समझने के लिये अगली रात हम लोग पूरी तैयारी से बैठे। अन्य दिनों की तरह ही हमने खिड़की खोल दी। रोशनी की कमी को पूरा करने के लिये लालटेन की संख्या बढ़ा दी गई। जैसे ही मैंने बीड़ी जलायी, खिड़की से वह हाथ फिर अंदर आया। हम सबकी निगाहें खिड़की के बाहर खड़े उस व्यक्ति के चेहरे पर जम गई। काले खुरदुरे चेहरे के बीच उसकी जलती हुई आँखों को देखकर हमारे शरीर पर भय की झुरझुरी दौड़ गई, रोएँ खड़े हो गए। एक ने टॉर्च उठा ली, परंतु मैंने उसे मना कर दिया। बिड़ी लेकर वह चला गया।
अब तो रोज इस घटना की पुनरावृत्ति होने लगी।
लगभग सप्ताह भर बाद की बात है। उस दिन हमारा एक साथी किसी काम से बाहर गया हुआ था और हम तीन लोग ही तास खेल रहे थे। सहसा हवा के झोंके की तरह वह आदमी खिड़की से होकर अंदर आया और चौथे साथी की जगह पर बैठ गया। सामान्य व्यक्ति इस तरह खिड़की से होकर अंदर नहीं आ सकता था क्योंकि उसके चौखटे पर लोहे की मजबूत सलाखें लगी हुई थी। उसके शरीर पर सफेद वस्त्र थे जो मटमैला हो गया था। आँखें रोज की तरह जल रही थी। इतना तो तय था कि वह मानव सदृष्य, कोई मानवेत्तर प्राणी था और कम से कम इस गाँव का रहने वाला नहीं था।
अब तक उसने हम में से किसी को भी किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुँचाया था अतः उसकी ओर से हमारे अंदर का भय काफी हद तक समाप्त हो चुका था फिर भी इस घटना के लिये हम में से कोई भी तैयार नहीं था और एक बार फिर हम सब अंदर तक कांप गए। डर के कारण हम बोल भी नहीं पा रहे थे। अगली बार उसे भी पत्ते बांटे गये। मैंने बीड़ी सुलगा कर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा - “आ गए काका?”
मेरी बातों का उसने न तो कोई जवाब दिया और न ही उसके चेहरे पर किसी तरह के भाव ही आये। उस रात हमने अपना खेल जल्दी ही समेट लिया। वह व्यक्ति किसी से बिना कुछ कहे उसी खिड़की के रास्ते बाहर चला गया।
यद्यपि उसने अब तक हममें से किसी को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचाया था, फिर भी इस तरह की घटना का जारी रहना उचित नहीं था। अगले दिन इस समस्या से निजात पाने के लिये हम लोगों ने काफी विचार-विमर्श किया।
निष्कर्श में जाहिर था कि वह कोई मनुष्येŸार प्राणी ही था, पर स्वभाव से भला था। गाँव वालों के अनुसार कुछ साल पहले गाँव के किसी व्यक्ति की अचानक मौत हो गई थी। उसी की आत्मा आसपास भटकती थी। यह वही हो सकता था। अंतिम निष्कर्श यह निकला कि उसे बिड़ी पीने की आदत है और बिड़ी की चाह में हम तक आता है।
एक मित्र ने कहा - “उसे ताश का भी शौक है। आप लोगों ने शायद ध्यान नहीं दिया होगा, वह खिड़की के बाहर से ही हमें ताश खेलते हुए देखता रहता है।”
एक मित्र ने उपाय सुझाया कि किसी तांत्रिक की मदद ली जाय और परिसर के चारों ओर मांत्रिक सुरक्षा कवच का घेरा बनवा दिया जाय।
मैं तांत्रिक के पक्ष में नहीं था क्योंकि स्कूल परिसर में इस तरह की हरकत से पढ़ने वाले बच्चों की मानसिक स्थिति पर बुरा असर पड़ता और प्रशासन को इसकी भनक लगने से हम पर कार्यवाही भी हो सकती थी। अचानक मेरे मन में एक उपाय सूझी। मेैंने कहा - “क्यों न आज हम उस व्यक्ति की समाधि पर बिड़ी का कट्टा और माचिस अर्पित करके हाथ जोड़ ले।”
तीनों मित्र मेरे इस उपाय पर सहर्ष सहमत हो गए।
दूसरे ने कहा - “साथ में ताश की एक गड्डी भी रख देंगे।”
इस सुझाव पर भी हम सब सहर्ष सहमत हो गए।
शाम को हमने ऐसा ही किया।
हमारी तरकीब काम कर गई। उस रात वह नहीं आया। हमने राहत की सांस ली।
एक मित्र ने तर्क दिया कि बिड़ी खत्म होने पर वह फिर आ सकता है इसलिये बिड़ी चढ़ावे का यह क्रम हमें बनाये रखना चाहिये।
उसका यह सुझाव भी मान लिया गया और रोज शाम उस समाधि पर बिड़ी और माचिस-चढ़ावे का क्रम शुरू हो गया।
एक दिन गाँव के किसी व्यक्ति ने हमें उस समाधि पर बिड़ी चढ़ाते हुए देख लिया। उसने इसका कारण पूछा। विवश होकर उस दिन हमने उसे पूरी घटना के बारे में बता दिया। बात गाँव भर में फैल गई और उस दिन से उस समाधि पर गाँव वाले भी बिड़ी-माचिस चढ़ाने लगे।
उसे हमने फिर कभी नहीं देखा।
रघुनाथ अशोक की बातों को पूरे समय तक पूरी एकाग्रता पूर्वक सुनता रहा। घटना सुनाने के बाद अशोक ने पूछा - “बताओ भला! यह क्या है?”
रघुनाथ ने कहा - “लोगन रघुनाथ ल गप्पी कहिथें। तंय ह कब ले गप मारे के शुरू कर देस?”
अशोक ने कहा - “यह गप्पबाजी नहीं है, हकीकत है।”
तब तक वे लोग घर पहुँच गये थे और बात वहीं अधूरी रह गई थी।
बीच में पड़ने वाले नाले के पास पहुँच कर अशोक के विचारों का क्रम टूटा। अंधेरा पक्ष चल रहा था, अंधेरा घना था, परंतु उसके पास टार्च थी और उसे नाला पार करने में अधिक कठिनाई नहीं हुई। नाला पार करने के बाद अशोक पुनः यादों में खो गया।
रघुनाथ जब पिछली बार उसेे गाँव से भोलापुर छोड़ने आया था तब उसने पूछा था - “अब तो दिवारी तिहार आने वाला हे, के तारीख के आबे बता दे रहा, तोला लेगे बर आ जाहूँ।”
अशोक ने कहा था - “अबे गप्पू, देवारी तिहार अभी डेढ़ महीना बचा है। पर हाँ इस साल तिहार के दिन हम दोनों एक जैसे कपड़े पहनेंगे। नांदगाँव से लाऊँगा, तेरे लिये और मेरे लिये,, जींस और टी शर्ट, बिलकुल एक जैसा।”
“कपड़ा लाबे कि झन लाबे, मिठाई जरूर लाबे भई। नांदगाँव के मिठाई ह गजब सुहाथे।” रघुनाथ ने कहा था।
चलते-चलते अशोक ने बैग में टटोल कर देखा, कपड़े भी थे और मिठाइयाँ भी थी।
दूर से ही श्मशान में दहक रहे चिते की अंगारों को देख कर अशोक का मन खिन्न हो उठा। गाँव में आज फिर किसी की मौत हुई थी। भरी दीवाली में पता नहीं किस परिवार के ऊपर वज्रपात हुआ था। श्मशान के नजदीक पहुँचने पर चिते की दहकते अंगारों की पीली रोशनी में उसने देखा, बीच सड़क पर कोई आदमी खड़ा है। और नजदीक पहुँचने पर अशोक ने उसे पहचान लिया, वह रघुनाथ ही था। अशोक ने सोचा, किसी वजह से उसे लेट हो गया होगा और वह भोलापुर तक नहीं पहुँच पाया होगा। उसने राहत की सांस ली; घर पहुँचने पर माँ की डाँट से अब वह बच सकता था। रात में इस तरह अकेले आने पर अशोक को हमेशा माँ की डाँट खानी पड़ती थी। अशोक ने कहा - “अबे गप्पू, आज लेट कैसे हो गया? तेरी सायकिल कहाँ है? और तूने अपनी ये कैसी हालत बना रखी है। इतनी ठंड में केवल गमछा लपेट कर चला आया है।”
उसने कोई जवाब नहीं दिया।
बिड़ी सुलगा कर अशोक ने उसकी ओर बढ़ दिया। उसने चुपचाप बिड़ी ले ली और कश खींचने लगा।
उसने फिर हाथ बढ़ाया। अशोक समझ गया, अब उसे मिठाई चाहिये थी। उसने टटोलकर बैग से मिठाईयों का डिब्बा निकाला। डिब्बा उसके हाथों में देते हुए उसने कहा - “अब कपड़े मत मांगना, वह तो तिहार कि दिन ही मिलेंगा।”
चलते हुए अशोक ने कहा - “अब चलो भी, यहीं खड़े रहोगे।”
उसने कुछ नहीं कहा और चुपचाप अशोक के पीछे-पीछे चलने लगा। उसकी चुप्पी पर आज अशोक को हैरत हो रही थी। चलते-चलते उससे उसने बहुत सारे सवाल पूछे कि जल रही चिता किसकी है? फसल कैसी है? पर उसने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया। केवल अशोक ही बकबक किये जा रहा था और वह चुपचाप सुने जा रहा था। उसकी चुप्पी पर अशोक को गुस्सा आ रहा था। उसे डाँटने के लिये उसने अगल-बगल देखा। अशोक को आश्चर्य हुआ, पता नहीं वह कब और कहाँ गायब हो गया था।
घर पर अशोक की ही प्रतीक्षा हो रही थी। पहुँचते ही माँ की डाँट शुरू हो गई कि कितनी बार कहा है, रात-बिकाल अकेले मत चला करो।
अशोक ने कहा - “अकेला कहाँ था माँ, रघुनाथ लेने गया था न।”
रघुनाथ का नाम सुनते ही माँ नरम हो गई। उसने कहा - “काबर लबारी मारथस रे बाबू, वो बिचारा ह अब कहाँ ले आही?”
“का हो गे हे रघुनाथ ल? अभी तो मोर संग म आइस हे।” अशोक ने कहा।
“मरघट्टी म चिता बरत होही, नइ देखेस बेटा।” माँ ने लगभग रोते हुए कहा।
तो क्या वह चिता रघुनाथ की है? अशोक सहम गया। उसको सहसा विश्वास नहीं हुआ। कुछ देर पहले देखा हुआ उसका खुला बदन, मौन और भावशून्य चेहरे पर उसकी जलती हुई आँखें उसकी नजरों में कौंध गई। निढाल होकर वह कुर्सी पर पसर गया। आँखों से आँसू बहने लगे।
रघुनाथ के मरने की सारी कहानी माँ ने उसे सुना दी।
दूसरे दिन सुबह अशोक ने भारी मन से उसके लिये खरीदी गई जींस और टी शर्ट को बैग से निकाला और उसकी बुझ चुकी चिता के पास रख आया।