क्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जातिवादी और साम्प्रदायिक थे? / प्रेम कुमार मणि
आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर एक बार फिर चर्चा शुरू हुई है. मुझे यह अच्छा लगता है कि हमारे सांस्कृतिक-साहित्यिक जीवन में यह दम है कि वह इन बातों पर बार-बार बहस-विमर्श करे. इस बार आवाज एक युवा कवि की ओर से उठी है कि रामचंद्र शुक्ल का इतिहास जातिवादी और सांप्रदायिक है और इसका विकल्प ढूँढने की कोशिश होनी चाहिए. यह भी कि इसे संग्रहालय में रख देना चाहिए.मुझे युवाओं के ऐसे स्वर में साहस और संकल्प का भाव दिखता है. मैं इनकी प्रतीक्षा करता हूँ. बूढी-बासी-उबाऊ बातें सुनते-सुनते जब थक जाता हूँ, और ऐसी कोई धड़कती-कड़कती आवाज सुनाई पड़ती है, तब मेरी बाँछे खिल जाती हैं. मैं इस युवा स्वर के साहस को रेखांकित करते हुए, उस पर विचार करना चाहता हूँ. लेकिन कुछ लोग हैं जो ‘मूर्धा ते विपतिश्यत’ (जिह्वा काट ली जाएगी) भाव से धमकी जारी करते हैं. किसी को भी ब्रह्म या ईश्वर का दर्जा देने और उसे विमर्श से बाहर रखने का इनका आग्रह होता है. यही पुरोहितवाद है, ब्राह्मणवाद है. आप गाँधी पर कोई बहस नहीं कर सकते, मार्क्स पर नहीं कर सकते, आंबेडकर पर नहीं कर सकते. उनके चेले-चपाटी आपका मस्तक-भंजन कर देंगे. हिंदी- साहित्य में यही दर्ज़ा रामचंद्र शुक्ल, निराला और प्रेमचंद को मिला हुआ है. आप इनकी पूजा कीजिए, इनकी समीक्षा मत कीजिए. यह भला क्या बला है!
मेरी दृष्टि में किसी की प्रशस्ति के मुकाबले उसे नकारना मुश्किल होता है. ईश्वर की पूजा करना सरल है, लेकिन उसे नकारने के लिए बुद्ध और डार्विन होना पड़ता है. गांधीवादियों ने गांधी की पूजा कर-कर के उन्हें मूरत अर्थात बेजान बना दिया, लेकिन नेहरू-आंबेडकर ने उनकी आलोचना की. और सच पूछा जाय तो अपने जीवन के आखिर दौर में गाँधी इन्ही दो में भारत का भविष्य देख रहे थे. गांधी ने हस्तक्षेप करके नेहरू को प्रधानमंत्री और आंबेडकर को संविधान निर्मात्री समिति का अध्यक्ष बनवाया था. इसलिए कि वह गांधी थे. कुछ लोग सवाल उठाने वालों को सूली पर चढ़ाते हैं. यही लोग अपने नायक को पूजा की चीज बना देते है, देवता बना देते हैं और अंततः एक पंथ बन जाता है. इसके साथ ही मठ और मठाधीश भी बन जाते हैं. गांधी के नाम पर मठ बनाने की अनेक लोगों ने कोशिश की. गाँधी शांति प्रतिष्ठानों के रूप में कुछ मठ स्थापित भी हो चुके हैं. रामचंद्र शुक्ल के साथ भी ऐसा हुआ. उनके पंथ के भी मठ और महाधीश हुए. ये लोग स्वयं को शुक्ल जी का ध्वजवाहक समझते हैं. लेकिन, रामचंद्र शुक्ल की यदि कोई परंपरा है तो उसे हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध और नामवर सिंह जैसे लोगों ने समृद्ध किया. समृद्ध शब्द में ही एक ख़ारिज करने की प्रवृति या शक्ति होती है. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी को उसे ख़ारिज अथवा पराजित करने के अर्थ में ही समृद्ध करती है. वह पिता और गुरु अभागा होता है, जो अपने पुत्र और शिष्य से पराजित नहीं होता. रामचंद्र शुक्ल की परंपरा यदि कोई है, तो इसी रूप में होनी चाहिए. मैं साहित्य का विधिवत छात्र नहीं रहा, इसलिए शायद आधिकारिक स्तर पर बात करने का पात्र न होऊं, लेकिन चर्चा तो कर ही सकता हूँ. यही कारण है, मैंने इस आलेख
का शीर्षक चर्चा रखा है, विमर्श नहीं. विमर्श के लिए जो विद्वता अपेक्षित है वह मुझ में नहीं है. रूचि के आधार पर चर्चा तो की ही जा सकती है. यह कहने के लायक अवश्य हूँ कि रूचि के साथ शुक्ल जी को मैंने भी पढ़ा है. उन्हें जब तक मूल रूप से नहीं पढ़ पाया था, तब तक उन्हें लेकर कई तरह की बातें मेरे मन में थी. एक दफा इस विषय पर डॉ. रामविलास शर्मा को एक लम्बा प्रतिवाद-पत्र लिख भेजा. उन्होंने एक पंक्ति का जवाब दिया कि पत्र पढ़ लिया है. रामविलास जी से जब मिला, तब उस पत्र की चर्चा की, लेकिन मेरे प्रश्नों पर कुछ नहीं बोले. उनका व्यक्तित्व निश्चय ही आकर्षक था लेकिन मैंने अनुभव किया कि वह विद्वान तो हैं, लेकिन उस स्तर के चिंतक शायद नहीं हैं. चिंतक होने के लिए विद्वान होना आवश्यक नहीं है. कबीर बड़े चिंतक थे, तुलसी बड़े विद्वान. विश्लेषणात्मक-प्रतिभा के अभाव में चिंतन- प्रवृति का विकास असंभव होता है. मैंने जब शुक्ल जी को पढ़ा, तब यह अनुभव किया कि उनके बारे में अनेक गलत समझदारियाँ उनके ऐसे ही चेलों द्वारा विकसित हुई. उन्हें अनेक 'विद्वान' अनुयायी मिले थे. ऐसे अनुयायी अधिकांश मामलों में गुरु का बँटाधार ही करते हैं. उन्नीसवीं सदी के रुसी आलोचक चेर्नीशेव्स्की कहते थे, किसी लेखक को जानने के लिए उसके जीवन को जानना आवश्यक होता है. शुक्ल जी के जीवन को जाने बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल होगा. 1994 में शुक्ल जी की प्रपौत्री मुक्ता जी से अचानक की मुलाकात हुई थी. दूरदर्शन के दिल्ली केंद्र पर उन्होंने मेरा इंटरव्यू किया था. दलित साहित्य पर भी सवाल थे. साक्षात्कार की औपचारिक बातचीत समाप्त होने के बाद में उन्होंने अपना परिचय दिया. उपरांत वार्ता में शुक्ल जी के बारे में कुछ बातें जानने को मिली. मेरी कुछ जिज्ञासा थी और
उनके समुचित जवाब मुझे मिले. बाद में अनेक जीवनियों के साथ उनके द्वारा लिखी शुक्ल जी की जीवनी भी पढ़ पाया. शुक्ल जी का सामाजिक चिंतन क्या था, इसे प्रतिपादित करना सरल नहीं है. उनके साथ उनके समय की सोच और सीमायें थी, लेकिन वह पक्के तौर पर रूढ़िवादी नहीं थे. बल्कि इससे विपरीत ज़माने के हिसाब से कुछ अधिक आधुनिक थे. इन प्रवृतियों को उनके पहनावे, खान-पान, या फिर घरेलू और लोक व्यवहारों में देख सकता था. उनके पिता चन्द्रबली शुक्ल अफसर थे और विचारों से हिन्दुत्व के प्रति संशयवादी थे. अपने पहनावे और विचारों से वह इस्लाम की ओर आकृष्ट थे. उनके गाँव अगौना में ब्राह्मणों की कोई आबादी नहीं थी. रामचंद्र शुक्ल की विधवा दादी ने अपने कुल-गाँव भेंड़ी से अपमानित हो कर केवल सात साल के बेटे के साथ गृहत्याग कर दिया था और अगौना में वहां की रानी से कुछ बीघे जमीन हासिल कर खेती-बाड़ी शुरू कर घर-घरौंदा बसाया था. इस नए गांव में उनके गोतिया- बिरादर का कोई नहीं था. इस पृष्ठ-भूमि से आये रामचंद्र में अपने किस्म की एक अक्खड़ता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनी रही. अपनी दादी से उनकी अधिक पटती थी. उनसे वह रामायण का वह प्रसंग हमेशा सुनते थे, जिसमें सीता को वनवास मिला था. दादी स्वयं को इसी रूप में आंकती थीं. इस प्रसंग का पाठ करते उनकी दादी रोने लगती थीं. बालक रामचंद्र उनके आंसू पोछते हुए स्वयं रोने लगते थे. तुलसीकृत रामायण में सीता वनगमन प्रसंग नहीं है. इससे ज्ञात होता है, रामचंद्र शुक्ल की दादी वह रामायण पढ़ती थीं, जिसमें लव-कुश कांड भी है. लव-कुश कथा के बिना रामायण अधूरा है. इसी अध्याय में
राम का रावणीकरण होता है और विरथ लवकुश के साथ रथी राम की लड़ाई होती है. राम पराजित होते हैं और सरयू में डूब मरते है, या डुबा दिए जाते हैं. रामचंद्र शुक्ल में तुलसीदास पर जब विमर्श किया, उन्हें महिमा मंडित किया, तब अपनी दादी को भूल गए. यह गलती तो उनसे हुई. यदि उन्होंने अपनी दादी के नजरिये को बचाया होता, तो रामकथा में रामराज्य वर्णन को फालतू और लवकुश द्वारा रामराज्य के विध्वंस को रामायण का मूल स्वीकार कर लिया होता. लोकमंगल वगैरह की अवधारणा से उनकी मुक्ति हो जाती और वर्णवाद के समर्थन की तोहमत उन्हें नहीं झेलनी होती. रामकथा का वर्णवादी अध्याय रामराज में ही आरम्भ होता है. रामचंद्र शुक्ल का जीवन देखने से पता चलता है कि सनातन धर्म की अपेक्षा उनकी रूचि बौद्ध धर्म में अधिक थी, जो वर्णाश्रम धर्म का विरोधी था. शुक्ल जी ने एडविन अर्नाल्ड की प्रसिद्ध पुस्तक लाइट ऑफ़ एशिया का 'बुद्धचरित' नाम से हिंदी पद्यानुवाद किया था. उन्होंने प्रसिद्ध जर्मन जीवविज्ञानी एर्न्स्ट हैकेल (1834-1919) की किताब रिडल्स ऑफ़ द यूनिवर्स का 'विश्व-प्रपंच' नाम से अनुवाद किया था. हैकेल की किताब 1899 में आई थीं और पूरी दुनिया में उसने कुछ वैसा ही महत्व पाया था, जैसा डार्विन की किताब 'ऑन द ओरिजिन ऑफ़ स्पेसीज' ने. शुक्ल जी ने 'विश्व-प्रपंच' नाम से जो अनुवाद किया है, उसके पन्द्रहवें प्रकरण में 'ईश्वर और जगत' विषय पर विशद और विस्तृत चर्चा है. यह न केवल ईश्वर के अस्तित्व को, बल्कि उसके पाखंडों की भी पोल खोलता है. यह सब समझने वाला आदमी वर्ण व्यवस्था का समर्थन कैसे कर सकता है? लेकिन यह अंतर्विरोध तो कुछ जगहों पर दिखता है.
हिंदी साहित्य के इतिहास में भी और चिंतामणि के कतिपय निबंधों में भी. हालांकि, ह्वेनसांग वाले लेख में वर्ण व्यवस्था का सीधा विरोध वह करते हैं. सब से अधिक विरोध उनके द्वारा कबीर को उचित सम्मान नहीं दिए जाने और उन्हें (कबीर को) गँवार कहे जाने पर है. इसकी भी एक पृष्ठभूमि है. गँवार शब्द का उपयोग शुक्ल जी के पिता खूब करते थे. जरा-सा भी उनकी रूचि के अनुरूप नहीं रहने वाले को वह गँवार कहते थे. रामचंद्र शुक्ल जिन्हें घर में झिनकू कहा जाता था, दलित बच्चों के साथ खेलते थे, और यह उनके अफसर पिता को ख़राब लगता था. वह फटकार लगाते थे कि गंवार बच्चों के साथ मत खेलो. यह शब्द मानो उनके अवचेतन का हिस्सा हो गया. कालांतर में, रामचंद्र शुक्ल इसका व्यवहार अपनी पत्नी के लिए करने लगे जब तब उन्हें झिड़की देते कि क्या गँवार बनी रहती हैं. स्वाभाविक था, इस शब्द को उन्होंने कबीर के साथ भी चस्पां कर दिया. कबीर को समझने में उन्हें वक़्त लगा. इसकी एक अलग कथा है. शुक्ल जी में यह अंतर्विरोध क्यों और कैसे है ? इस पर जैसी चर्चा होनी चाहिए थीं, नहीं हुई है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी शब्द- सागर, जिसकी भूमिका रूप में 'हिंदी साहित्य का इतिहास' है, का लेखन उन्होंने स्वतंत्र रूप से नहीं, एक प्रोजेक्ट के रूप में किया था. इस पर श्यामसुंदर दास जी की छत्रछाया थी. इसलिए शुक्ल जी यहां वैचारिक रूप से स्वतंत्र नहीं थे. शुक्ल जी पर काम करने वालों ने इस बिंदु पर भी कोई ध्यान नहीं दिया. लेकिन शुक्लजी का लेखन तुलसी तक ही सीमित नहीं है. उनका लेखन बहुआयामी है. मात्रा के हिसाब से भी उन्होंने बहुत लिखा है. सब पर विचार करते हुए, इस विषय पर हमें कोई निर्णय करना चाहिए. जहाँ तक वर्णधर्म -विषयक विमर्श है, उस
पर भी हमें उस पूरे ज़माने के सापेक्ष हो कर विचार करना चाहिए. शुक्लजी का जीवन 1884-1941 के बीच का है. कम उम्र से ही वह लिखने लगे थे. जब उन्होंने लिखना आरम्भ किया, तब हिंदी का अपना कोई वैचारिक परिदृश्य नहीं था. जुबान अभी खड़ी हो रही थी. ब्रजभाषा का प्रभाव हिंदी पद्य-साहित्य पर गहरा था. खड़ी बोली जरूर हिंदी भाषा का रूप लेने लगी थी. सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में हिंदी प्रदेश की कोई उल्लेखनीय पहचान नहीं थी. उस वक़्त के बड़े जुझारू नेता लाल-बाल- पाल हिंदी इलाके से बाहर के थे. लाहौर में आर्य समाजियों द्वारा और इलाहाबाद में कतिपय कायस्थ और ब्राह्मण बुद्धिजीवियों द्वारा 'सत्यसभा' नाम की एक वैचारिक संस्था के माध्यम से सनातनी रीति-रिवाजों पर कुछ प्रश्न उठाये जा रहे थे. आर्य समाज का तो आमजन से जुड़ाव था, लेकिन इलाहाबाद की सत्य सभा का दायरा विलायत-पलट लोगों तक ही सीमित था और इस रूप में यह ब्रह्मो समाज से भी अधिक संकरे घेरे में कैद था. बनारस तो कुल मिला कर गाल-बजाऊ पंडितों का बौद्धिक अखाड़ा था, जहाँ अध्ययन-मनन कम, एक दूसरे की टांग-खिंचाई अधिक होती थी. काशीदार पण्डित दो सुखों के बीच पेंडुलम की तरह डोलते रहते थे- एक था निंदा-सुख और दूसरा आलस-सुख. ऐसे ही मस्त माहौल में भारतेन्दु हरिश्चंद्र और बद्रीनारायण चौधरी उपाध्याय प्रेमघन जैसे अमीर सुहृदय साहित्य का अखाडा जमाये बैठे होते थे. शुक्ल जी के समय भारतेन्दु जी तो नहीं थे, लेकिन प्रेमघन जी का सान्निध्य कुछ समय तक उन्हें भी मिला था. प्रेमचंद ने लिखना आरम्भ किया था और समृद्ध वेग से चर्चित हो रहे थे. जयशंकर प्रसाद और गुप्त जी का साहित्य आकार लेने लगा था. निराला ने हाजिरी लगा दी
थी. महावीर प्रसाद द्विवेदी कुव्वत भर हिंदी को संवार रहे थे. यही हिंदी का हाल था. बंगला, गुजराती, मराठी आदि का साहित्य और सामाजिक- विमर्श बहुत आगे था. सब मिला कर यहां एक अल्हड किस्म की देशभक्ति थी, जिसके ऊपर 1857 के विद्रोह की चादर लिपटी थी. राजनीतिक स्तर पर यह इलाका तिलक के राष्ट्रवाद से प्रभावित था, जिसकी अपनी सीमाएं थीं. जिन लोगों ने उस वक़्त के मॉडरेट और रेडिकल पॉलिटिक्स का अध्ययन-विश्लेषण किया है, वे समझ सकते हैं कि गुत्थी कहाँ उलझी हुई थी. मॉडरेट पक्ष का मानना था कि सामाजिक रूप से प्रगतिशील हुए बिना हम राजनीतिक स्तर पर प्रगतिशील नहीं हो सकते. लोकतान्त्रिक समाज के लिए पुराने सामाजिक सोच को बदलना होगा. स्त्रियों और निम्न वर्गीय बहुजनों की सामाजिक मुक्ति के बिना हम राजनीतिक मुक्ति की बात नहीं कर सकते. तिलक और दूसरे तथाकथित 'गरमदली' मॉडरेट मंतव्यों से सहमत नहीं थे. वे उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक संघर्ष को आगे और सामाजिक मुक्ति के प्रश्नों को गौण या फ़िलहाल निलंबित रखने के पक्ष में थे. गाँधी ने जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौट कर भारत भूमि को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, तब उनके सामने भी यह प्रश्न था. गाँधी ने एक मॉडरेट नेता गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरु माना था, लेकिन 1920 में तिलक की मृत्यु के पूर्व मिल कर उनका समर्थन भी हासिल किया था. जाहिर है वह इन दो ध्रुवों के बीच संतुलन बनाने की जुगत में थे. विरुद्धों के बीच सामंजस्य स्थापित करना राष्ट्रीय संघर्ष के लिए आवश्यक होता है. देश में अस्मिताओं के प्रश्न पर आवाजें सुनाई देने लगी थीं. सांस्कृतिक क्षितिज पर कोई आदिवासी आवाज़ तो नहीं उठी
थी, लेकिन 1914 में ही हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत' सरस्वती में प्रकाशित हुई. खड़ी बोली का शीर्षक लिए भोजपुरी जबान की ऐतिहासिक कविता. मुल्क का पहला दस्तावेजी दलित सांस्कृतिक स्वर. ठीक दो साल बाद देश से बाहर एक यूनिवर्सिटी में बैठ कर युवा आंबेडकर ने 'कास्ट इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट' शीर्षक से महत्वपूर्ण निबंध (1916)लिखा. 1920 में ही देश के बाहर कुछ लोगों ने बैठ कर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी बना डाली. 1920 से ही कांग्रेस का गाँधी युग आरम्भ हुआ. गाँधी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आंदोलन की शुरुआत कर दी. कुल मिला कर यह कि युवा रामचंद्र एक उथल-पुथल वाले ज़माने से गुजर रहे थे. बिना किसी समृद्ध वैचारिक पृष्ठभूमि के इतने बड़े सामाजिक- राजनीतिक झंझा वात को झेलना एक चिंतनशील युवा के लिए निश्चय ही उलझाव पैदा करने वाला रहा होगा. रामचंद्र शुक्ल इन सब के बीच क्या कर रहे थे, इसे देखना दिलचस्प होगा. इस बीच अंग्रेजी में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ 'नॉन को- ऑपरेशन एंड नॉन मर्केंटाइल क्लासेज'. यह संभवतः 1921 में प्रकाशित हुआ था. इस लेख में असहयोग आंदोलन को उन्होंने वर्गीय नजरिये से देखने की कोशिश की. बनियों के बेटे अपने व्यापार नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन गैर-व्यापारी तबकों के बेटे अपनी नौकरियां छोड़ रहे हैं. यह क्या माजरा है? शुक्ल जी सवाल उठाते हैं. और इस आवाज से ऐसी खलबली मचती है कि गाँधी इस लेख को ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं. 1923 में अपने बनारस प्रवास में गाँधी ने रामचंद्र शुक्ल से मिलने की इच्छा जतलाई. मदनमोहन मालवीय जी ने शुक्लजी को बुलवाया. बातें की. बातचीत में शुक्ल जी ने गांधीजी से आग्रह किया कि कांग्रेस से
व्यापारियों को निकालें, क्योंकि स्वराज मिलने पर ये शासन व्यवस्था को अपने प्रभाव में ले लेंगे, उसमें हिस्सेदारी चाहेंगे. इन व्यापारियों के कारण स्वराज का स्वरुप ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह का हो जायेगा. गांधीजी ने शुक्ल जी को आश्वस्त किया कि किसी कीमत पर वह ऐसा नहीं होने देंगे. यह भी कि आज़ाद भारत किसानों और मिहनतक़शों के हाथ में होगा. समकालीनों ने जैसा लिखा है, शुक्लजी ने यह भी सवाल उठाया कि आपके आंदोलन में केवल शिक्षित लोग आ रहे हैं, लेकिन देश में अशिक्षित कामगारों की संख्या अधिक है. उनकी भागीदारी नहीं हुई तब स्वराज मुट्ठी भर लोगों का हो जायेगा. गाँधी जी इस आशंका से सहमत थे और उन्होंने इस विषय पर भी उन्हें आश्वस्त किया कि ऐसा नहीं होगा. गांधीजी ने शुक्ल जी को आश्वस्त करते हुए कहा था कि वे इन वंचित तबकों पर ध्यान देंगे, आप लोगों को भी स्वतंत्रता आंदोलन को साथ देना चाहिए. 'लेकिन आपने तो मेरे भाषण को ही 'हाफ रिलीजस हाफ पोलिटिकल' कह दिया. मैं स्वीकार करता हूँ, लेकिन आंदोलन में अधिक लोगों की भागीदारी के लिए यह करना पड़ता है. ('मुक्ता - कुसुम चतुर्वेदी द्वारा लिखित शुक्ल जी की जीवनी में इस प्रकरण की विस्तृत चर्चा है.) हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि स्वयं गाँधी ने कई अवसरों पर खुल कर वर्णाश्रम धर्म और जातिप्रथा का समर्थन किया. इस मुद्दे पर गाँधी और टैगोर का चर्चित वैचारिक संग्राम हुआ. 1930 के दशक के शुरू में गाँधी की वैचारिक मुठभेड़ आंबेडकर के साथ होती है. गाँधी खुद को बदलने की कोशिश करते हैं. इसी बीच उन्होंने अछूतों के लिए हरिजन नाम रखा और कांग्रेस की सक्रियता से किनारा कर के दलितोद्धार कार्यक्रम में लग गए. स्वयं को परिवर्तित करने या बदलने
की सुविधा हर किसी को मिलनी चाहिए. इसे ही तो रैखिक विकास कहते हैं. शुक्ल जी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में आ गए थे. हिंदी साहित्य के इतिहास, जिसे पहले उन्होंने विकास कहा था, के लेखन का कार्य चल रहा था. 1919 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी और 1920 में उनके राजनीतिक प्रेरणा-स्रोत तिलक का देहावसान हो गया. 1923 में गाँधी जी से मिल कर वह उत्साहित अनुभव कर रहे थे. जाने कितने तरह के गृह-कलह और समस्याएं उनके इर्द-गिर्द थीं. आर्थिक समस्याएं अलग थीं. 1920 से 40 तक यदि हिंदी साहित्य ने बहुत कुछ हासिल किया और बदलाव देखे, तो इस बीच मुल्क की राजनीति ने भी अभूतपूर्व करवट ली. 1925 में कानपुर में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का अधिवेशन हुआ. बंगाल के अनुशीलन समिति के तर्ज पर भगत सिंह और उनके साथियों ने हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातान्त्रिक सेना (हिसप्रस ) बनाई, जो अनुशीलन समिति से वैचारिक स्तर पर कहीं अधिक परिपक्व था. उत्तरप्रदेश में चंद्रशेखर आज़ाद इसे संभाल रहे थे. आज़ाद से शुक्ल जी ने मुलाकात की और उन्हें अपना समर्थन दिया. 1934 में पटना में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ. इसके पूर्व नेहरू और सुभाष बोस ने अपने समाजवादी रुझान को सार्वजनिक कर दिया था. कांग्रेस के भीतर और बाहर जबरदस्त वैचारिक संघनन चल रहा था. ऐसे में शुक्ल जी कहाँ थे ? इसे देखना चाहिए. 1933 में आरएसएस के नेताओं ने मालवीय जी से मिलने की इच्छा जाहिर की. मालवीय जी ने यह कह कर इंकार कर दिया कि अब मैं कांग्रेस के सिवा किसी की बात नहीं सुनूंगा. मालवीय जी के इंकार करने की बात सुन कर शुक्ल जी इतने खुश हुए कि उनकी सराहना करने
उनके घर पहुंच गए. 1933 में काशी की नवगठित साहित्यिक संस्था प्रसाद परिषद् के अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को लेखकों के बीच बोलने के लिए आमंत्रित किया. नेहरू सपत्नीक आये. तिलक के वैचारिक शिष्य ने गाँधी के वैचारिक शिष्य के लिए स्वयं मानपत्र लिखा और संस्था के अध्यक्ष के नाते उसका स्वयं पाठ किया. यह निश्चय ही रेखांकित करने योग्य घटना है. कूपमंडूक बनारसी लेखकों ने इस गोष्ठी का बहिष्कार किया था. इसे लेकर हिंदी साहित्य में महीनों बहस चली और सामाजिक प्रतिक्रियावादियों की ओर से शुक्ल जी की खूब आलोचना हुई. अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इस प्रसंग को विस्तार से लिखा है. वह तस्वीर मैंने देखी है जिसमें नेहरू के साथ शुक्ल, प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद बैठे हैं. कमला नेहरू भी हैं. नेहरू ने हिंदी लेखकों की तंगदिली और वैचारिक दरिद्रता पर अपना भाषण केंद्रित किया था. सम्पूर्णानद ने नेहरू जी को आश्वस्त किया कि हिंदी साहित्य के ये तीन धुरंधर आपके विचारों के ही पैरोकार हैं. शुक्ल जी पर बाल गंगाधर तिलक के व्यक्तित्व और विचारों का प्रभाव था. लेकिन अजीब बात है कि वह इस का अधिक प्रकटीकरण नहीं करते. इस प्रभाव का आप अनुमान ही लगा सकते हैं. यूँ भी शुक्लजी अपने लेखन में राजनीतिक नेताओं की बहुत चर्चा नहीं करते. साहित्य से ही उन्हें फुर्सत कम मिलती थी. उनका पहला लेख 'कविता क्या है' था. कहा जाता है सम्पूर्ण जीवन वह इसी की व्याख्या करते रहे. उनकी अपनी प्रवृत्ति थी, जिसे बहुत कम लोग समझ पाते थे. साहित्य में वह रहस्यवाद का चाहे जितना विरोध करें, अपने व्यक्तित्व में वह रहस्याच्छादित थे. उनकी घनी मूछें निश्चय ही इसमें सहायक रही होंगी. मैंने उनके व्यक्ति चित्र के बारे में जितना
पढ़ा- जाना है, उसके अनुसार वह अंतर्मुखी, मितभाषी और परिश्रमी थे. उन्होंने आलोचना-विवेचना का जो काम चुना था, उसमें समाज से अधिक पोथियों को पढ़ना था. इसलिए किसी रचनाकार लेखक के मुकाबले उनके व्यक्तित्व की तुलना किसी साधक से करनी होगी. प्रेमचंद या प्रसाद रचनाकार थे. उनके व्यक्तित्व को समझना अपेक्षाकृत आसान है, रामचन्द्र शुक्ल को समझना आसान नहीं है. वहाँ परत-दर- परत है. आप कोई एक निर्णय लेते हैं, तब तक आपको अनुभव होगा, शुक्लजी ने तो अमुक जगह ऐसा लिखा है. कुछ अंतर्विरोध अनेक बार दिख जायेंगे. ऐसे अंतर्विरोध तिलक में भी दिखते हैं, यही कारण है एक तरफ वह बोल्शेविक नेता लेनिन का ध्यान खींचते हैं, भारतीय कम्युनिस्टों को प्रभावित करते हैं और दूसरी तरफ आरएसएस के सभी संस्थापक सदस्यों के दादागुरु भी पाए जाते हैं. अपने छात्र-जीवन में जवाहरलाल नेहरू तिलक से ही प्रभावित थे. उनके इस प्रभाव को उनके पिता के साथ हुए वैचारिक संवाद ने ख़त्म किया. इसे नेहरू के जीवनीकार बलराम नंदा ने अपनी किताब में स्पष्ट किया है. इस विमर्श को विस्तार देना विषयांतर होना होगा. मैं आपको उस विषय पर लाना चाहूँगा, जिस पर सब से अधिक विवाद है. शुक्ल जी की सामाजिक चेतना और उनकी साहित्येतिहास- दृष्टि. उनकी सामाजिक चेतना पर कुछ बातें मैंने पहले की है. इस चेतना के निर्माण में जिन तत्वों की भूमिका होती है, उसकी भी चर्चा की है. हमारे हिंदी साहित्य संसार में भी लम्बे समय से इस पर चर्चा हो रही है; और संभवतः आगे भी होगी. इससे केवल इस विषय की महत्ता का ही अनुमान किया जा सकता है .
'हिंदी साहित्य का इतिहास' का पहली दफा प्रकाशन 1929 में हुआ. फिर संशोधित-परिवर्धित रूप 1941 में प्रकाशित हुआ. उन्होंने कोई डींग नहीं मारी. विनम्रता से कहा- 'मुझे अपने साहित्य का एक पक्का और व्यवस्थित ढाँचा खड़ा करना था, न कि कवि-कीर्तन करना.' इस साफगोई अथवा खरे वक्तव्य में शुक्ल जी का दृढ़ व्यक्तित्व कोई भी देख सकता है. एक बेघर आदमी घर बनाता है, तो उसकी जिद होती है कि घर बन तो जाये. उनकी दादी ने अगौना गांव में मिहनत से मिटटी का घर बनवाया था. यह सब कहानी उन्होंने अपनी दादी से सुनी थी. मिहनत, धैर्य और साहस का काम होता है, घर बनाना. जिन्हें केवल मीन-मेख निकालना होता है, छिद्रान्वेषण करना होता है, वे कुछ और होते हैं. शुक्ल जी ने लिखा-'प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन होता चला जाता है. आदि से अंत तक इन्हीं चित्त वृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ सामंजस्य दिखाना ही 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है. जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक और धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है . ...इस दृष्टि से हिंदी-साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रूचि-विशेष का संचार-पोषण किधर और किस प्रकार हुआ.' किसी खास समय में जनता की विशेष अभिरुचि किस ओर है, उसके मद्देनज़र साहित्य का विवेचन होना चाहिए. इसका तात्पर्य यह भी है कि विवेचना के कोई कोई स्थायी औजार नहीं हैं और न ही विवेचन
कर्ता की व्यक्तिगत रुचि का कोई मूल्य होना चाहिए. यदि उसकी व्यक्तिगत अभिरुचि है भी, तो उसे जनता की अभिरुचि और समय-काल अथवा युग धर्म के नियंत्रण-निदेशन में होना चाहिए. इस आधार पर हर विशेष ज़माने में जनता की विशेष अभिरुचि को ध्यान में रख कर साहित्य का पुनर्मूल्यांकन होते रहना चाहिए. इसलिए यह कहा जाना फिजूल है कि हिंदी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखे जाने की जरुरत है. शुक्लजी मना कहाँ करते है! वह तो इसकी सिफारिश करते हैं, प्रोत्साहित करते हैं. उन्होंने स्वयं बड़े स्तर पर संशोधन 1941 वाले संस्करण के पूर्व किया. उनके बाद भी अनेक लोगों ने अपने तरीके से संशोधन-परिवर्धन का यह कार्य किया. करना ही चाहिए. लेकिन इससे शुक्लजी का महत्व कम कैसे हो सकता है? उनका समर्थन करें अथवा विरोध; उन्हें आधार तो बनाना ही होगा. यही शुक्ल जी का महत्व है. हिंदी-साहित्य के इतिहास का उन्होंने काल-विभाजन किया. लगभग नौ सौ साल के इतिहास को उन्होंने आदिकाल, पूर्व मध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा. फिर इनका ज़माने की अभिरुचि के आधार पर साहित्यिक नामकरण भी किया. आदिकाल को वीरगाथाकाल, पूर्वमध्यकाल को भक्तिकाल, उत्तरमध्यकाल को रीतिकाल और आधुनिक काल को गद्यकाल कहा. आदिकाल को तो उन्होंने प्राक- इतिहास की तरह लिया, लेकिन भक्ति, रीति और आधुनिक काल पर उनकी गहरी विवेचना हुई. उन्होंने रीतिकाल को सामाजिक-साहित्यिक दृष्टिकोण से प्रतिगामी बतलाया और भक्तिकाल में कबीर-रैदास की परंपरा के कवियों की रहस्यवादी कह कर उपेक्षा की. इसके मुकाबले सूफी कवि मल्लिक मोहम्मद जायसी को उन्होंने तुलसी और सूर के साथ प्रतिष्ठित किया. आधुनिक काल में उद्दाम राष्ट्रवादी कवियों के
मुकाबले उन्होंने सुमित्रानंदन पंत और जयशंकर प्रसाद के छायावादी रुझानों में अधिक रूचि ली, जो रहस्यवाद का ही एक रूप है. शुक्लजी का तर्क है, छायावाद काव्य का क्षेत्र है, जबकि रहस्यवाद साधना का. रहस्यवाद की वह उपेक्षा करते हैं. भक्तिकाल के निर्गुनिये कवियों और उनके साहित्य को वह इसी कोटि में रखते हैं. उनका कहना है ये भौतिक जीवन से भागने वाले लोग हैं. रहस्यवाद जीवन से दूर ले जाने वाली प्रवृत्ति है. इसके मुकाबले सगुन भक्ति कवियों में से एक तुलसीदास पर स्वयं को इस तरह केंद्रित करते हैं कि शेष सब पीछे छूट जाते हैं. शुक्ल जी यहीं उलझ जाते हैं. तुलसीदास जीवन के कवि हैं और कबीर रहस्य और वैराग्य के यह कोई कैसे स्वीकार कर सकता है ! तुलसीदास ने अपनी पत्नी के 'महाभिनिष्क्रमण' के उपरांत गृहत्याग किया था. लेकिन कबीर तो कभी घर नहीं छोड़ते. उनकी पत्नी हैं, बच्चे हैं. उन्होंने आखिर तक अपना पेशा भी नहीं छोड़ा. बुनकर बने रहे. चदरिया बुनते रहे. रैदास ने इसी तरह अपनी मोचीगिरि कभी नहीं छोड़ी. निर्गुण परंपरा के अधिकतर कवि अपने पेशे से जुड़े रहे. तुलसीदास ने कभी कोई शारीरिक श्रम किया हो, उत्पादन के ढाँचे से जुड़े हों, इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती. वह मांग कर खाने वाले थे. 'मांगी के खैबो, मसीत में सोइबो.' परजीवी-पराश्रित थे. और शायद इसलिए थे कि वर्णाश्रम समाज-व्यवस्था में उनके लिए कोई शारीरिक कार्य तय नहीं था. यही शास्त्रीय विधान था. वर्णवादी-मनुवादी समाज-व्यवस्था की पहली शर्त है कि व्यक्ति के पेशे का चुनाव स्वयं व्यक्ति नहीं, समाज करेगा. द्विज समाज इसे अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से जनित संततियों को प्रोत्साहित और दण्डित करने के ख्याल से करता है. दम्पतियों की सजा संततियों को झेलनी पड़ती है.
उत्पादन प्रक्रिया से दूर रहना द्विज होने की पहली शर्त होती है. भक्ति का दासत्व और दरिद्रता स्वीकारने के बाद भी तुलसीदास और दूसरे द्विज कवियों में शारीरिक श्रम का संस्कार विकसित नहीं हो सका. इससे वह परहेज करते रहे. इसके अनेक परिणाम निकले. इसीलिए हम देखते हैं, व्यक्ति और काव्य दोनों स्तर पर तुलसी के यहाँ भीषण हाहाकार है. उनके यहां हाय-हाय मची होती है. उल्लास का चिर अभाव होता है. इसके मुकाबले कबीर के यहाँ जीवन की मस्ती और उल्लास अधिक है. यह श्रम का उल्लास है, आत्मनिर्भरता का उल्लास है. और जिस लोक-मंगल की बात शुक्लजी करते हैं, वह भी ठोस रूप में है. तुलसी का लोक उनका द्विज मंडल है, उनका रामराज द्विजहितकारी है. कबीर के यहाँ रामराज के मुकाबले अमरदेश है, जहाँ कोई वर्णधर्म और जात-पात नहीं है. उनका लोकमंडल विस्तृत है. तुलसीदास के रामराज में 'वर्णाश्रम निज निज धरम निरत वेद पथ लोग' हैं, तो कबीर के अमरदेस में बिना श्रम किये किसी का प्रवेश ही संभव नहीं. यहां सबको अपनी बुनी चदरिया ही ओढ़नी पड़ती है. दूसरे की बुनी चादर और दूसरे का अर्जित भोग रामराज में चलता है. यह दोनों का स्पष्ट अंतर है. शुक्लजी भक्तिकाल की इन गुत्थियों को क्यों नहीं समझ सके ? शायद इसलिए कि उत्पादन के साधनों और तबकों के संस्कृति पर प्रभाव को वह नहीं आँक सके और दूसरे कि तुलसीदास की कथित लोकप्रियता के झांसे में वह आ गए. लोकप्रियता के परिमंडल और उसकी प्रकृति-प्रवृत्ति की अपेक्षित मीमांसा वह नहीं कर सके. दो रामों के संघर्ष में वह 'जगत-पसारा 'राम को त्याग' दसरथ घर जाया' राम के साथ खड़े हो गए. रीतिकाल के दरबारी साहित्य को जिन
कारणों से उन्होंने ख़ारिज किया था, उससे अधिक तत्व तुलसीदास को ख़ारिज करने के लिए थे. इसके विपरीत कबीर और निर्गुण धारा के कवियों में जो उन्हें रहस्यवाद दिख रहा था, दरअसल वह दस्तकार तबकों की आध्यात्मिकता थी, जिसकी जरुरत उन्हें श्रम और कारीगरी को नियमित करने के लिए आवश्यक होती है. कविता में यह उनकी मुक्ति-आकांक्षा बन जाती है. जिस तरह निर्गुण भक्ति धारा के कवियों ने जाति और वर्ग भेद (ऊंच-नीच ) को नाकारा था, वैसे ही, बल्कि उनसे अत्यंत न्यून स्तर पर आधुनिक काल के छायावादी कवियों ने मुक्ति- आकांक्षा की थी. भक्तिकालीन निर्गुण-धारा के कवियों की मुक्ति- आकांक्षा सामाजिक थी, छायावादी कवियों की मुक्ति-आकांक्षा व्यक्तिगत. लेकिन, छायावाद का समर्थन और रहस्यवाद के विरोध में गहरा अंतर्विरोध है. शुक्ल जी बुद्धि-विवेकवादी थे. यह बुद्धि-विवेकवाद तुलसी की अपेक्षा कबीर में अधिक घना है. उनका सब कुछ जीवन के अनुभव और विवेक से लिया हुआ है, अर्जित किया हुआ है. तुलसीदास पुस्तकीय ज्ञान की बातें अधिक करते हैं, जिसे वह शास्त्र-निगम कहते हैं. वहाँ जो जीवन है, उस पर गाढ़ी रामनामी है. वहाँ रहस्यवाद से अधिक उलझाव है. लेकिन, यह होता, तो यह होता तो फिजूल की चर्चा है. शुक्ल जी ने जो लिखा है, जो उपलब्ध है, जिसकी मान्यता है, वही सच है. और वह है, जैसा कि गजाननमाधव मुक्तिबोध ने अपने निबंध 'मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू' में लिखा है 'पंडित रामचंद्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवादग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक- दूसरे से ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्लजी (जिनके प्रति हमारे मन में अत्यंत आदर है) सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हों.
तुलसीदास को पुरातनवादी कहा जायेगा कबीर की तुलना में, जिनके विरुद्ध शुक्ल जी ने चोटें की है.'शुक्लजी के प्रति अत्यंत सम्मान वाली बात मुक्तिबोध की है, मेरी नहीं. मुक्तिबोध की तरह अनेक लोग हैं जो उनके प्रति गहरा सम्मान रखते हुए उनके मत के प्रति अपना विरोध दर्ज करते हैं. यही तरीका है. पूर्व के ऋषि-चिंतकों के मत का निषेध करना उनके प्रति असम्मान प्रदर्शित करना नहीं है और उनके मत का पहलवानी के तरीके से समर्थन करना भले ही किसी को उनकी पूजा लगे, वस्तुतः उनकी परंपरा को प्रदूषित करना है. एक बड़े समादृत आलोचक ने यही किया है.
हम जातिवादिता के आरोप को भी देखना चाहेंगे. शुक्लजी ने कबीर पर चोटें की. यह सच है. लेकिन इसमें जातिवाद कहाँ है? शुक्लजी के समय तक जो जानकारी थी, उसके अनुसार कबीर और तुलसी समान सामाजिक पृष्ठभूमि के थे. उस वक़्त तक कबीर का 'दलितीकरण' नहीं हुआ था. तत्कालीन जनश्रुतियों के अनुसार दोनों का जन्म ब्राह्मण परिवारों में हुआ था. कबीर 'विधवा ब्राह्मणी' के पुत्र थे, तो तुलसी का जन्म हुलसी-आत्माराम दुबे के घर हुआ था. कबीर को जन्मते यदि लहरतारा सरोवर किनारे रख दिया गया था, तो तुलसी भी उन्हीं के शब्दों में 'माता-पिता जग जाइ तज्यौ' थे. एक का पालन नीमा जुलाहे के घर हुआ, तो दूसरे का पालन चुनिया दासी के घर. दोनों कुजात ब्राह्मण. यदि कोख और जन्म की अपेक्षा जीवन का परिवेश प्रधान है, तो दोनों निम्नजातीय. यह अलग बात है कि तुलसी में द्विज बनने की आकांक्षा इतनी बलवती है कि वह रामचरित मानस में वर्णवाद के
समर्थन में खड़े दिखते हैं. जब वह विफल होते हैं, कवितावली में उनका विद्रोह उठ खड़ा होता है. तुलसी के इन अंतर्विरोधों पर हरिशंकर परसाई ने एक संक्षिप्त टिप्पणी की है. शुक्लजी ने तुलसी को इस नजरिये से नहीं देखा. लेकिन उन्होंने उन्हें ब्राह्मण कवि के रूप में देखा, यह कहना शायद सही नहीं होगा. उनकी किताब त्रिवेणी के तीन कवियों में दो तो स्पष्टतः गैर द्विज हैं, तीसरे तुलसी हैं. और शुक्लजी में जातिवाद देखने वालों से विनम्रता पूर्वक कहना चाहूँगा कि जिस रीतिकाल को उन्होंने सिरे से ख़ारिज किया, उसमें क्या केवल अद्विज रचनाकार थे? दरबारों में किस तबके का प्रवेश संभव था? रीतिकाल के सबसे समादृत कवि केशवदास की बिरादरी क्या थी? तुलसी के समर्थन और कबीर की उपेक्षा का आधार जाति नहीं, बल्कि वह अभिरुचि थी, जिससे शुक्लजी अपने आरंभिक दौर में बंधे थे. मेरी समझ से यह अभिरुचि उनके समय की भी अभिरुचि थी. इसकी गहराई में जाने के लिए हमें उस हिंदी नवजागरण की तहों में जाना होगा, जिनकी कुछ समय पहले तक हमारे यहाँ खूब चर्चा थी. इस नवजागरण ने उत्तरप्रदेश के अवध इलाके में फूली-फली उस साँझा-संस्कृति की जड़ें हिला दी, जिस पर आज भी कुछ लोग मोहित हैं. यह साँझा-संस्कृति उच्चवर्गीय मुसलमानों की संस्कृति के साथ कश्मीरी पंडितों और कायस्थों के एक तबके का हेलमेल अथवा सांस्कृतिक समर्पण था. यह हिन्दुओं के एक उच्चवर्गीय और पढ़े-लिखे हिस्से का फ़ारसी लिपि और उर्दू जुबान, शेरो-शायरी, मुस्लिम पहनावे और खानपान से जुड़ाव था. यही गंगा-जमुनी अथवा साँझा संस्कृति थी. हिन्दुओं के एक संभ्रांत हिस्से ने इससे बगावत की. नागरी लिपि और हिन्दू संस्कृति की बात की. यह आंदोलन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में चला, लेकिन बीसवीं सदी के आरम्भ यानि कम से कम
तीन दशकों तक इसका प्रभाव बना रहा. शुक्लजी का इससे प्रभावित होना दिखता है.१९२२में उनके द्वारा अनूदित एक उपन्यास 'शशांक' मैंने पढ़ा है, जो बंगला लेखक राखालदास बंद्योपाध्याय के उपन्यास का हिंदी अनुवाद है. इस की भूमिका भी शुक्लजी ने लिखी है. वह लिखते हैं- 'मुसलमानी या फारसी तमीज के कायल इसमें यह देख सकते हैं कि हमारी भी अलग शिष्टता थी, अलग सभ्यता थी, पर वह विदेशी प्रभाव से लुप्त हो गयी. वे राजसभाएँ न रह गईं. हिन्दू राजा भी मुसलमानी दरबारों की नक़ल करने लगे; प्रणाम के स्थान पर सलाम होने लगा. हमारा पुराना शिष्टाचार अन्तर्हित हो गया और हम समझने लगे कि हम में कभी शिष्टाचार था ही नहीं.' यह मंतव्य शुक्लजी का है और इस वक्तव्य में उनकी पीड़ा समझी जा सकती है. साँझा-संस्कृति में उच्चवर्गीय मुसलमानों और वैसे ही हिन्दुओं की जो सांस्कृतिक एकता बनी थी, वह कालांतर में हमारी तथाकथित सेक्युलर सोच की बुनियाद बन गयी. सेक्युलरवाद भी उच्चवर्गीय हिन्दुओं और मुसलमानों का एक साँझा मंच बन कर रह गया. इससे दलित और बहुजन तबका कभी नहीं जुड़ सका. यह सोचने की बात है कि आम्बेडकर जैसे महत्वपूर्ण नेता, जिन्होंने दलित प्रश्न को राजनीति के केंद्र में लाया, सेक्युलरवाद पर कभी जोर क्यों नहीं देते? इस परिप्रेक्ष्य में यह समझा जा सकता है कि शुक्लजी के वैचारिक आवेग क्या थे. यही आवेग उन्हें तुलसी के नजदीक ले गया. उन्हें महसूस हुआ कि तुलसी के द्वारा आमजनों में एक स्वतंत्र हिन्दू सभ्यता-संस्कृति का विकास संभव है. प्रेमचंद के नेतृत्व में कबीर की परम्परानुसार हिन्दू-मुस्लिम किसानों और कारीगरों की मिली-जुली
संस्कृति की प्रस्तावना अभी आरंभिक दौर में थी, इसलिए शुक्लजी ने तुलसीदास का महिमा-मंडन किया.
प्रेमचंद ने तो तुलसीदास को पढ़ने की जरूरत भी नहीं समझी थी. बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा कोलकाता में आयोजित एक तुलसी जयंती समारोह में उन्होंने जाने से इंकार कर दिया था. बनारसीदास जी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने बतलाया है कि मैं तुलसीदास पर नहीं बोलना चाहता. लगभग इन्हीं दिनों की बात होगी जब शुक्लजी को कबीर के महत्व का अनुभव हुआ होगा. इसका पता मुक्ता-कुसुम चतुर्वेदी द्वारा लिखी शुक्लजी की जीवनी में वर्णित एक प्रसंग से मिलता है. उनके ज़माने में भी एक बार अयोध्या की बाबरी-मस्जिद पर हमला हुआ था. यह १९३४ की बात है. कुछ लोगों ने उक्त मस्जिद के एक स्तम्भ को तोड़ डाला था. शुक्लजी के ज्येष्ठ पुत्र केशवचन्द्र शुक्ल फैज़ाबाद में ही डिप्टी कलेक्टर थे. उनसे जब विस्तृत जानकारी मिली, तब वह आहत हुए. सांप्रदायिक झगड़ों से आज़ादी की लड़ाई बाधित होगी, देश कमजोर होगा, जैसे ख्याल उन्हें परेशान कर रहे थे. अब वह बहुत कुछ बदल चुके थे. मुल्क की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों ने उन्हें प्रभावित किया था. गांधीजी को समर्थन का आश्वासन देने वाले, अपने से पाँच साल छोटे जवाहरलाल नेहरू को मानपत्र देने वाले रामचंद्र शुक्ल ने भावुक हो कर अपने बेटे से कहा- 'अब कबीर पर लिखने का समय है.' लेकिन अफ़सोस कि उसके बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता चला गया. २ फ़रवरी १९४१ को मात्र चौबीस घंटे की
बीमारी में वह अचानक चल बसे. तो क्या, शुक्ल जी बिलकुल खारिज कर दिए जाने योग्य है? यह यह कर उन्हें ख़ारिज कर दिया जाय कि साहित्य का गलत इतिहास लिख कर उन्होंने हमें भटका दिया, जैसा कि कुछ लोग आज नेहरू को यह कहते हुए ख़ारिज करने में लगे हैं कि उन्होंने देश को रसातल में ला दिया. ऐसा कहना शायद अपराध होगा. मैं शुक्लजी के लिखे पर न थोथी दलील देने के पक्ष में हूँ, न ही उन्हें नज़रअंदाज़ करने के. वह आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह हैं, और रहेंगे. हम उनके लिखे की बार-बार मीमांसा करेंगे. उन्हें उलट-पुलट देंगे, लेकिन उनके महत्व को नकारना स्वयं को नकारना होगा. उन्होंने रीतिकाल के मुकाबले भक्तिकाल को रेखांकित कर एक दिशा दे दी. सब कुछ उन्हें ही नहीं कर देना था. बाद की पीढ़ियों को भी कुछ करना था. यही परंपरा है, या होनी चाहिए. आधुनिक यूरोपीय दर्शन परंपरा में हेगेल के भाववादी दर्शन को कार्ल मार्क्स ने व्यवस्थित किया. मार्क्स ने कहा- हेगेल का दर्शन सिर के बल खड़ा था, मैंने उसे पैर के बल खड़ा कर दिया. हेगेल था, इसीलिए मार्क्स संभव हुआ. विकास का सिलसिला ऐसे ही चलता है.