क्या आप ग्रेसी राफेल से मिलना चाहेंगे? / सूरज प्रकाश
चर्चगेट। मुंबई में पश्चिमी रेलवे में उपनगरीय ट्रेनों का अंतिम पड़ाव। आप जब वहाँ पहुँचेंगे तो स्टेशन के अहाते से बाहर निकलने के लिए तीन तरफ़ के लिए तीन-चार रास्ते मिलेंगे। दायीं तरफ, बायीं तरफ और सामने नाक की सीध में। सीधे चलने पर बायीं तरफ खुलने वाला रास्ता पश्चिमी रेलवे के मुख्यालय और फ़ांउटेन की तरफ़ जाता है। वहीं एक तरफ कैमिस्ट की दुकान है, और स्टेशन के अहाते से बाहर आने के लिए तीन-चार चौड़ी सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं। वहीं वे आपको नज़र आयेंगी। उम्र पचपन के आस पास। बिखर हुए, खिचड़ी बाल। रंग गोरा और चेहरा साफ़। कभी वे बहुत खूबसूरत रही होंगी लेकिन अब उनके चेहरे पर और पूरे शरीर पर लम्बी थकान की भुतैली छाया है। साड़ी पुरानी और अक्सर थिगलियाँ लगी हुई। पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें। सामान के नाम पर उनके पास दो बड़े बड़े झोले हैं जिनमें पता नहीं क्या क्या अल्लम गल्लम भरा हुआ है। पास में एक मोटा सा सोंटा। कुत्ते भगाने के लिए। यही उनकी पूरी गृहस्थी है। पिछले बीस बरस से। और यही उनका ठीया भी है। इतने ही बरस से। सर्दी, गरमी, बरसात, कोई भी मौसम हो, कोई भी समय रहा हो, दिन रात, आप उन्हें यहीं पर, हमेशा यहीं पर पायेंगे। अगर वे वहाँ नहीं होती तो भी उनकी खाली जगह देख कर साफ महसूस होता है कि वे कहीं आस पास ही हैं और दो चार मिनट में ही लौट आयेंगी। अपने ठीये पर। वैसे भी उन्हें कहीं नहीं जाना होता। कहीं भी तो नहीं। कई बार हमारी ग़ैर मौजूदगी ही हमारी मौजूदगी की चुगली खाने लगती है। हम किसी बंद दरवाज़े की घंटी बजाते हैं तो घंटी की आवाज़ हमारे पास जस की तस लौट आती है और हम समझ जाते हैं कि घर में कोई भी नहीं है। और कई बार ऐसा भी होता है कि हम घंटी बजाते ही समझ जाते हैं कि अभी थोड़ी देर में कोई जरूर ही दरवाज़े तक आयेगा और हमारे लिए दरवाज़ा खोलेगा। कई बार ऐसा भी होता है कि हम किसी मरीज से तीसरी चौथी बार मिलने के लिए अस्पताल जाते हैं और उसका खाली, साफ़ सुथरा बिस्तर देख कर एक पल के लिए चौंक जाते हैं और तय नहीं कर पाते कि हमारा मरीज चंगा हो कर अस्पताल से रिलीव हो गया है या इस दुनिया से ही कूच कर गया है। हमारी असमंजस की हालत देख कर साथ वाले बिस्तर पर लेटा मरीज हमें संकट से उबारता है कि चिंता न करें, मरीज घर ही गया है। हमारी साँस में साँस आती है और हम वहाँ से लौट आते हैं।
तो मैं बात कर रहा था मिसेज़ ग्रेसी राफेल की। मिसेज़ ग्रेसी राफेल लगभग बीस बरस पहले जब पागल खाने से छूट कर आयीं थीं तो उनके सामने पूरी दुनिया थी लेकिन ऐसी कोई भी जगह नहीं थी जिसे वे अपना घर कह कर साधिकार जा सकतीं। रही भी होंगी ऐसी जगहें कभी, तो वे भी उनकी अपनी नहीं रही थीं। उनके दिमाग से सब नाम, रिश्ते, घर, मकान, शहर धुल पुंछ चुके थे और जो बाकी बचे भी थे, वहाँ उन्हें जाना नहीं था। आखिर वहीं से तो वे पागल खानों में भेजी गयी थीं। पता नहीं, वे भी बचे थे या नहीं। अब उनके सामने पूरी दुनिया थी और अपना कहने को कोई भी नहीं था।
पागल खाने से बाहर आयी ठीक ठाक औरत कहाँ जाती और किसके पास जाती। सचमुच पागल होती तो सोचने की जरूरत ही नहीं थी, लेकिन वे पूरे होशो हवास में थीं और जानती थीं कि वे औरत हैं, अकेली हैं, अभी जवान हैं और बेसहारा हैं। शुरू शुरू में सुरक्षित और स्थायी ठीये की तलाश में इधर उधर भटकती रहीं। उस समय उनकी उम्र पैंतीस के आस पास थी। अलग अलग पागल खानों में सात आठ बरस गुजारने के बाद और तथाकथित रूप से पागल करार दिये जाने के बावजूद उनमें इतनी समझ बाकी थी कि वे कहीं भी रहें, दिन तो कैसे भी करके गुजारा जा सकता था लेकिन लावारिस, अकेली और जवान औरत के लिए घर से बाहर कहीं भी, खुली जगह में और सार्वजनिक जगह पर रात गुजारना कितना मुश्किल और संकटों से भरा और असुरक्षित हो सकता है, वे इस बारे में सतर्क और सचेत होने के बावजूद भटकती रही थीं। सब जगह ए ही डर था। वे कहीं भी सुरक्षित नहीं थीं। जुबान तो वे कब से खो चुकीं थीं। वे अकेले के बल बूते पर इस मोर्च पर कुछ भी नहीं कर सकती थीं। वे कई दिन तक इधर उधर डरी सहमी बिल्ली की तरह भटकती रहीं थीं। अलग अलग ठिकानों पर गयी थीं। धर्मशालाओं में, स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर लेकिन कहीं भी वे अपने आपको सुरक्षित नहीं पा सकी थीं। सब जगह देह नोचने और फाड़ खाने वाले ही तो थे। मौका मिलते ही अपने और उनके कपड़े उतारने लगते थे। ऐसे लोगों के लिए पागल, गरीब, बीमारी, बच्ची, बूढ़ी किसी में तब तक फर्क नहीं था जब तक वह मादा हो नरपशु को तथाकथित यौन सुख देने कि स्थिति में हो। पागल और भूखी मादा तो उनके लिए और भी बेहतर थी क्योंकि उसका विरोध का स्तर उसे दो रोटी देकर बंद किया जा सकता था। जहाँ लोग बीमार, अपने तन की हालत से बेसुध नंगी घूम रही पागल औरत तक को नहीं बख़्शते थे और दो रोटी के लालच में उनके साथ पशुवत कुकर्म करके उन्हें गर्भवती तक बना डालते थे, मिसेज़ राफेल तो फिर भी जवान खूबसूरत थीं। लोग उनके पीछे कुत्तों की तरह जीभ लपलपाते घूमते रहते। वे सुरक्षित नहीं थीं। कहीं भी नहीं। औरतों में बेशक एक प्राकृतिक जन्मजात गुण होता है कि किसी भी तरह के शारीरिक यौन हमले के संकेत उन्हें पहले से ही मिलने शुरू हो जाते हैं और वे सतर्क हो जाती हैं। पागल की सी हालत में होने के बावजूद सबसे बड़ी खिलाफ सबसे बड़ी बात यह थी कि वे औरत थीं, जवान थीं, अकेली थीं और हर समय घर से बाहर थीं, असहाय थीं, और इन सारी चीजों के चलते यह मान लिया जाता था कि वे पुलिसवालों के लिए, चोर उचक्कों के लिए, प्लेटफार्मों पर सोने वालों के लिए, कुलियों, उठाईगीरों के लिए, निट्ठलों के लिए सर्वसुलभ थीं। वे रात भर सहमी सहमी गठरी बनीं जगती रहतीं और एक जगह से दूसरी जगह, शहर दर शहर भटकती फिरीं थीं।
और आखिर उन्हें यही जगह मुफीद लगी थी। इसका कारण यह था कि चर्चगेट स्टेशन लगभग रात एक डेढ़ वजे तक जागता रहता था और दो ढाई घंटे की कच्ची पक्की नींद लेकर साढ़े तीन बजे तक सवेरे की सवारियाँ उठाने के लिए फिर जाग जाता और अपने काम धाम पर लग जाता था। वे अपने आपको यहाँ काफी हद तक महफूज़ समझ सकती थीं। बेशक शुरू शुरू के कई बरस तक वे यहाँ भी लगातार डरी हुई हालत में रात भर दुबकी बैठी रहती थीं। उस पर भी उन्हें चैन न लेने दिया जाता। वहीं खुले आसमान के तले रहने को अभिशप्त बूट पालिश वाले, निठल्ले सारी रात उन्हें परेशान करते, उनका सामान बिखेर देते, लालच देते, धमकियाँ देते, मारते, उन पर पानी गिरा देते, उनका सारा समान कई कई बार गायब कर देते, इधर उधर फेंक आते, रेलवे रिज़र्व पुलिस वाले उन्हें बचाने के बजाये आये दिन उन्हें वहाँ से खदेड़ देते, या थाने ले जाने के बहाने उन्हें अंधेरे कोनों में ले जाने की फ़िराक़ में रहते ताकि बहती गंगा में खुद भी हाथ धो सकें। वे अपना सारा का सारा ताम झाम उठाये अपने आपको बचाने की हर चंद कोशिशें करतीं। उन्हें गालियाँ देतीं, शोर मचातीं और उनके आगे हाथ पैर जोड़तीं। सुनवायी कहीं नहीं थी। पुलिस वालों के जाते ही हौले हौले वहीं आ बैठतीं। शुरू शुरू में उन्हें सताने का आलम यह था कि उठाईगीरे उनका समान उठा न ले जायें इस डर से उन्हें स्टेशन पर ही बने बाथरूम तक जाने के लिए दो चार मिनट के लिए ही सही, अपना सारा सामान अपने साथ ढो कर बाथरूम तक ले जाना पड़ता। बेशक वे खुद भी नहीं ही जानती होंगी कि इन बड़े बड़े थैलों में क्या भरा हुआ है और कब से भरा हुआ है। काम का है भी या नहीं, लेकिन अब ये सब उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन चुका है।
बाद में बाथरूम की भंगिनों ने जब उन्हें पहचान लिया और उनके अस्तित्व को वहाँ स्वीकार भी कर लिया तभी जा कर उनकी समस्याएँ कुछ हद तक कम हुई थीं। और इस बात में ही कई बरस बीत गये थे कि उन्हें चर्चगेट पर स्थायी रूप से रहने वाले लोगों के बीच नागरिकता दे दी गयी थी और लोग बाग उनकी मौजूदगी को सहज रूप से स्वीकार कर पाये थे। कई बार हमें पूर उम्र लग जाती है अपने अस्तित्व को स्वीकार करवाने में। हम मौजूद होते हैं लेकिन देखने, जानने और महसूस करने के बावजूद हमारी मौजूदगी को हमेशा नज़रअंदाज़ किया जाता है। हम हैं या नहीं हैं लोग इस बात को अपनी सुविधा के अनुसार तय करते हैं। हमारी सारी कोशिशों के बावजूद।
वैसे तो वे हर समय ही फ़ुर्सत में होती हैं। कभी बैठती होती हैं तो कभी लेटी, और कई बार सचमुच सो भी रही होती हैं। लेकिन जब वे अच्छे मूड में होती हैं, खास कर शाम के वक्त तो आप उन्हें कस भी सुघड़ गृहिणी की तरह, अपने खुद के धोये कपड़ों की तह लगाते, हौले हौले कुछ गुनगुनाते देख सकते हैं। उनके सारे काम, दिनचर्या के सारे के सारे काम स्टेशन पर, यहीं पर पूरे होते हैं। वे वहीं नहाती धोती, खाती पीती, सोती जागती और अपने नित्यकर्म निपटाती हैं। इसके अलावा तो उन्हें और कोई काम होता ही नहीं है।
यह मुबंई की ही खासियत है कि यहाँ सारी चीज़ें एक बार तय हो जायें तो हमेशा वैसे ही चलती रहती हैं। बिना किसी व्यवधान के। बरसों बरस। भीख या दान या ख़ैरात देने वाले और लेने वाले भी तय हैं। लोग बरसों बरस उन्हीं भिखारियों को या जरूरतमंदों को भीख देते चले आते हैं। लगभग उसी समय के आस पास आते हैं, सवेरे ऑफ़िस जाते समय या वापिस आते समय वे रुकते हैं या गाड़ी रोकते हैं, और अपने तयशुदा भिखारी या जरूरतमंद को खाने के पैकेट, बिiस्कट के पैकेट, वड़ा पाव या कुछ और चुपचाप देकर आगे बढ़ जाते हैं। बिना कुछ भी बोले। ऐसा अरसे तक चलता ही रहता है।
ग्रेसी राफेल का गुजारा भी इसी तरह से चलता है। उन्हें चाय पिलाने वाले तय हैं। खाना खिलाने वाले तय हैं और उन्हें कपड़े लत्ते देने वाले भी तय हैं। कुछ लोग उन्हें नकद पैसे भी दे जाते हैं। वे बरसों से वहाँ हैं। लाखों लोग स्टेशन से रोजाना दोनों वक्त गुज़रते हैं, उन्हें वहाँ देखते हैं। बिना आँख मिलाये या बात किये भी उनकी मौजूदगी स्वीकार करते हैं तय यह अहसास पनपने लगता है कि हम चीजों को एक समय के बाद जस का तस स्वीकार कर लेते हैं। ऑफ़िस जाने वाली महिलाएँ जाते समय पुरानी साड़ियाँ, पुराने कपड़ों, शालों, या अंडर गार्मेंट्स के पैकेट उन्हें चुपचाप थमा कर आगे बढ़ जाती हैं। कोई उनके जीवन में नहीं झाँकता और न ही किसी किस्म का सवाल ही पूछा जाता है। बस, मौन की भाषा और इतना सा लेनदेन। यही सिलसिला शाम के वक्त भी चलता है। महिलाएँ अक्सर उन्हें त्यौहार के दिनों में कोई पकवान या खाने की दूसरी चीज़ें भी दे जाती हैं। वे ये सारी चीज़ें चुपचाप अपने पास रख लेती हैं और देने वाले की तरफ देखती भी नहीं। किसी किस्म कोई प्रतिक्रिया नहीं। कई बार देर रात तक उनके ठीये के पास पाव भाजी के स्टाल लगाने वाले उन्हें पाव भाजी या वड़ा पाव वगैरह दे देते हैं या कोई ग्राहक ही उनके लिए पाव भाजी खरीद देता है और वे खा लेती हैं। लेकिन वे न तो किसी से कुछ माँगती हैं और न ही किसी की दी हुई चीज को ठुकराती ही हैं।
और इसी तरह से चल रही है ज़िन्दगी ग्रेसी राफेल की। अरसे से, निरुद्देश्य, अर्थहीन। खाली खाली दिन, खाली खाली रातें, किसी से कोई भी संवाद नहीं, सम्पर्क नहीं, लेन-देन नहीं, कहीं आना जाना नहीं, कोई काम नहीं। शायद वे कभी किसी से बात करती हों, या कोई उनसे संवाद करता हो। वे किसी के सुख दुख में शामिल नहीं हैं और उनके दुख? वे तो किसी ने जाने ही नहीं। वे कहीं भी किसी की ज़िन्दगी में नहीं हैं और न ही उनकी ज़िन्दगी में ही कोई बचा है। वे बीस बरस से इसी तरह का जीवन जीती चली आ रही हैं। आगे भी इसी तरह का निचाट जीवन उन्हें जीते जाना है। बेकार सा, बेमतलब सा और बेरौनक सा। उनकी स्मृति में कुछ भी बाकी नहीं बचा है। न अच्छा न बुरा। जो था भी, उसे वे कब का भुला चुकी हैं। वे सिर्फ़ वर्तमान में जी रहीं हैं। वर्तमान भी कैसा? जिसे न ढोया जा सकता है न त्यागा। कितनी अजीब बात है कि दुनिया में करोड़ों लोग बेकार की, बेमतलब की कई बार बेहद तकलीफ भरी ज़िन्दगी जीते चले जाते हैं लेकिन जीना छोड़ता कोई भी नहीं। जो जैसा चल रहा है, चलने दो, जब तक चलता है चलने दो। भविष्य कैसा है ये तो वे पिछले बीस बरस से देख रही हैं। जो है, उसमें बेहतरी की गुंजाइश ही कहाँ बची है।
उन्हें पता है कि किसी सुबह वे यहीं इसी ठीये पर मरी हुई पायी जायेंगी। बेशक उनके ठीक पास से लाखों लोग रोजाना गुज़रते हैं, काफी देर तक लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि लेटी नहीं, वे यहाँ से हमेशा के लिए जा चुकी हैं। उन्हें पता है उन्हें लावारिस मौत मरना है। और लावारिस मरने वालों का न कोई नाम होता है न धर्म या जाति ही। बीस बरस से उन्होंने जो जगह घेर रखी है, वह जरूर खाली हो जायेगी। शुरू शुरू में आने जाने वालों को अजीब लगेगा लेकिन कुछ दिन बाद वह जगह खाली देखने की लोगों को आदत पड़ जायेगी।
लेकिन वे हमेशा से ऐसी नहीं थीं। उनका भी घर बार था, उनकी ज़िन्दगी में भी कई लोग थे और वे भी कई रिश्ते जी रही थीं। पत्नी, माँ, बेटी, बहन सब के सब रिश्ते उन्होंने भी जीये हैं। और खूब जीये हैं। वे भी एक सम्मानजनक जीवन जी रही थीं और उनका भी अच्छा खासा घर-बार था, सामाजिक दायरा था और वे एक सुघड़ गृहणी के रूप में, एक सफल पत्नी के रूप में और एक आदर्श माँ के रूप में पूरे सात आठ बरस तक रहीं थीं।
उनका नाम था, अपना सर्किल था और पहचान थी। ये सब आगे भी बने रहते अगर...। अगर...। बहुत सारे अगर मगर हैं। कहाँ तक गिनायें। एक कारण से दूसरा जुड़ता चला गया और वे अकेली, असहाय और निरुपाय होती चली गयीं। काश, उनके पिता की असमय मौत न हुई होती, काश, उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में न छोड़नी पड़ती। काश, उन्हें हैदराबाद न जाना पड़ता, न उन्होंने टाइपिंग सीखी होती और न उन्हें मिस्टर राफेल के ऑफिस में नौकरी करनी पड़ती और न ही मिस्टर राफेल पसंद करके ब्याह करके घर ले आते और न ही वे मिस्टर राफेल के शक की शिकार न हो गयी होतीं। इस शक ने एक हँसता खेलता परिवार हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर दिया था और वे अपना घर बार होते हुए भी न केवल बेघर बार हो गयीं थीं बल्कि एक ऐसा अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर हो गयीं थीं जिसके बारे में वे कभी सोच भी नहीं सकतीं थीं कि चेरियन परिवार की यह होनहार लड़की एक दिन चर्चगेट स्टेशन पर इस हालत में बीस बरस कर लम्बे अरसे तक रहने को मजबूर होगी और उससे पहले उसे सात आठ बरस बिना पागल हुए भी पागल बन कर दूसरी पगली औरतों के बीच अलग अलग पागल खानों में गुजारने पड़ेंगे। कब सोचा था उन्होंने कि उनके लिए पूरी दुनिया ही अपरिचित हो जायेगी और उनका किसी से भी, यहाँ तक कि अपने बच्चों से भी हमेशा हमेशा के लिए नाता टूट जायेगा। वे एक ऐसी गुमनाम और बेरहम ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त हो जायेंगी जिसमें कभी किसीसे भी एक भी संवाद की गुंजाइश ही न बचे। पता नहीं, उन्होंने आखिरी बार किससे, कब और क्या बात की होगी।
आज की ग्रेसी राफेल चेरियन हुआ करती थीं। वे कई बार अपने स्कूल की बेस्ट स्टूडेंट का खिताब पा चुकी थीं और स्कूल के स्पोट्र्स डे पर सबसे ज्यादा ईनाम बटोर कर लाना उनके लिए बायें हाथ का खेल था। वे स्कूल की शान थीं और तय था, अपने घर में, रिश्तेदारी में और अपने समाज में उन्हें हमेशा एक ऐसी लड़की के रूप में देखा और सराहा जाता था जो चेरियन परिवार का नाम खूब रौशन करेगी। वे कर ही रही थीं और आगे भी तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़तीं। बचपन में वे खूब हँसती थीं। खुद भी हँसती और सारे घर में हँसी बिखेरती रहतीं। उनकी हँसने की आदत का यह आलम था कि बात बेबात पर जब देखो खिड़खिड़ कर रही हैं। घर वाले उनकी हँसी से परेशान हो कर कोसते कि जब ससुराल जायेगी तो सारी हँसी धरी की धरी रह जायेगी। वे जवाब देतीं कि तब की तब देखी जायेगी। कई बार मज़ाक में कही गयी बातें भी किस तरह से भविष्यवाणियाँ बन जाया करती हैं। उनकी हँसी पर भी नज़र लग गयी और वह हमेशा के लिए थम गयी।
अभी वे ग्यारहवीं में ही पढ़ रही थीं कि उनके पिता को व्यापार में घाटा होने लगा। घर का आर्थिक ग्राफ एकदम नीचे आ गया और घर में खाने के भी लाले पड़ने लगे। एक दिन अचानक उनके पिता नींद में ही चल बसे और किसी को कुछ करने या सोचने का मौका ही न मिला। ग्रेसी भाई बहनों में सबसे बड़ी थी इसलिए उसी को अपनी पढ़ाई अधबीच में ही छोड़ देनी पड़ी। एक बसा-बसाया घर देखते ही देखते भुखमरी के कगार पर आ गया।
घर में कोई भी कमाने वाला नहीं बचा था। नारियल और रबड़ की थोड़ी बहुत खेती थी लेकिन उससे न तो कर्ज़ पट सकते थे और न ही घर का खर्च ही चल सकता था। जैसे-तैसे घर की गाड़ी खींची जा रही थी। कुछ दिन वे हैदराबाद में अपनी चचेरी बहन के पास भी रहीं थीं। उनकी चचेरी बहन और जीजा दोनों ही एक सरकारी संस्थान में काम करते थे और उनकी बहन की डिलीवरी होने वाली थी। डिलीवरी से पहले बहन की सेवा करने और बाद में नवजात बच्चे की देखभाल करने के लिए किसी की जरूरत थी। ग्रेसी की पढ़ाई वैसे भी छूट चुकी थी और यही उचित समझा गया क उन्हें वहाँ भेज दिया जाये। उनका दिल भी लगा रहेगा और वे कुछ न कुछ सीख कर ही लौटेंगी। निश्चित ही इसके पीछे आर्थिक समीकरण भी काम कर ही रहे थे। और इस तरह ग्रेसी को हैदराबाद भेज दिया गया था। उस समय उनकी उम्र मात्र सत्रह बरस थी और हैदराबाद जाने के साथ ही उनका घर हमेशा के लिए छूट गया था।
हैदराबाद में दीदी के घर रहते हुए ही उन्होंने टाइपिंग सीखी थी और जीजा जी ने उन्हें अपने एक परिचित मिस्टर राफेल के ऑफिस में टाइपिस्ट की नौकरी दिलवा दी थी। ग्रेसी ने अपनी मेहनत के बल पर ऑफिस में एक खास जगह बना ली थी और वे खासी लोकप्रिय हो गयी थीं। और यही मेहनत और लोकप्रियता उनके लिए जी का जंजाल बन गयी थी। आर्थिक मोर्चे पर आत्म निर्भर हो जाने को बाद उनका आत्म विश्वास भी बढ़ा था और वे घर पर भी पैसे भेजने लगीं थीं ताकि भाई बहनों की पढ़ाई का कोई सिलसिला बन सके।
कम्पनी के मैनेजर मिस्टर राफेल के टी राफेल अक्सर उन्हें अपने केबिन में बुलवाने लगे थे और ऑफिस के बाद भी देर तक किसी न किसी काम में उलझाये रहते। इधर उधर की बातें करते और किसी न किसी बहाने ग्रेसी के पहनावे की, काम की और खूबसूरती की तारीफें किया करते। वे इन तारीफ़ों का मतलब खूब समझती थीं और उनकी आँखों में लपलपाती काम वासना को साफ साफ पढ़ सकती थीं। वे शर्म से लाल हो जातीं लेकिन जानते बूझते हुए भी कुछ न कह पातीं। एक तो वे अपने खुद के घर पर नहीं थीं और दूसरे कम्पनी के मैनेजर उनके जीजा के दोस्त थे। वे किसी को भी नाराज़ करने की स्थिति में नहीं थीं और कुल मिला कर उनकी उम्र अभी उन्नीस बरस भी नहीं हुई थी, जबकि राफेल कम से कम पैंतीस बरस के थे। वे उनके और उनकी पारिवारिक स्थिति के बारे में कुछ भी नहीं जानती थीं। वे अपना काम खत्म करके जितनी जल्दी हो सके, केबिन से बाहर आने की कोशिश करतीं।
तभी एक दिन मिस्टर राफेल ने खुद उनके घर आ कर ग्रेसी के जीजा जी से ग्रेसी का हाथ माँग लिया था। भला जीजा को क्या एतराज़ हो सकता था। उन्होंने अपनी ड्यूटी पूरी कर दी थी। ग्रेसी को काम धंधे से लगा ही दिया था। ग्रेसी की मम्मी से औपचारिक सहमति ले ली गयी थी और इस तरह ग्रेसी चेरियन स्टार एंटरप्राइजेज की मामूली टाइपिस्ट से रातों रात मैनेजर की ब्याहता बन गयी थीं।
वे समझ नहीं पायी थीं कि उन्हें इस तरक्की पर खुश होना चाहिये या अफ़सोस मनाना चाहिये। उनके बस में है ही क्या कि चीजों का विरोध कर सकें। उनका बस चलता तो वे खूब पढ़ना चाहतीं, राष्ट्रीय स्तर की एथलीट बनना चाहतीं और एक शानदार ज़िन्दगी जीना चाहतीं। अब उनके हिस्से में अपनी पसंद का कुछ भी नहीं रहा था। हँसना तो वे कब से भूल चुकी थीं अब बोलना भी छूटने लगा था। घर छूट चुका था और वे अब वही कुछ स्वीकार करने को मजबूर थीं जो दूसरे उनके लिए तय करें।
उन्होंने इस शादी के लिए एक ही शर्त रखी कि उन्हें कुछ दिन अपनी पगार का कुछ हिस्सा घर पर भेजने की अनुमति दी जाये ताकि भाई बहन अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। बाकी जो जैसा हो रहा है होने दो। लेकिन वायदे का भी कुछ मतलब नहीं रहा था क्योंकि जल्दी ही उनकी नौकरी छुड़वा दी गयी थी। लड़ने का सबसे बड़ा हथियार आर्थिक आधार होता है और इसी मामले में उन्हें कमजोर कर दिया गया था।
शादी के बाद ही उन्हें पता चला था कि उनके पति हद दरजे के शराबी आदमी हैं और चरित्र के भी कमजोर हैं। उनकी ज़िन्दगी में अक्सर लड़कियाँ आती जाती रहती हैं। ग्रेसी ने तब यही सोचा था कि शादी से पहले वे जैसे भी रहें हों, अब तो घर बार बस जाने के बाद उनकी जीवन शैली बदलेगी ही और उनका भटकाव कम होगा। लेकिन ये उनका भ्रम था। शादी के बाद भी उनकी जीवन शैली में कोई भी फर्क नहीं आया था। वे खूब पीते थे और कोई शाम ऐसी नहीं गुजरती थी जब वे धुत्त होने के स्तर तक न पी लेते हों। शुरू शुरू के कुछ दिन तक तो वे बिलकुल ठीक रहे और वक्त पर घर आते रहे लेकिन जल्दी ही वे अपने रंग में आ गये थे। वे बाहर से भी पी कर आते थे और घर पर फिर से बोतल खोल कर बैठ जाते। अकेले ही। बेशक ग्रेसी की अब तक खूब तारीफ़ करते रहे थे और उन्हें खुद पसंद करके लाये थे फिर भी कुछ ऐसा था कि जिसे भीतरी खुशी नहीं कहा जा सकता था। कोई उमंग नहीं, खुशी नहीं और नयापन नहीं। जैसे वे ग्रेसी को घर लाने के बाद उन्हें भूल ही गये थे। घर में लाये किसी भी सामान की तरह। नौकरी तो उनकी तुरंत ही छुड़वा दी गयी थी। ग्रेसी उनकी शराब की आदत को ले कर या देर रात घर आने को लेकर कुछ कहना चाहतीं तो वे झिड़क देते कि मुझे किसी की भी कोई भी बात सुनने की आदत नहीं है। मैं अपना काम कर रहा हूँ और तुम अपना काम करो। घर संभालो।
ग्रेसी सारा दिन खाली बैठी बैठी बोर होतीं। दीदी जीजा भी ऑफिस गये होते इसलिए उनके घर जाने का भी मतलब न होता। उन्होँने अपने आपके पूरी तरह घर के लिए समiप्¥त कर दिया था लेकिन घर की जरूरतें इतनी कम थीं कि उनके पास सारा दिन बोर होने के अलावा कुछ भी न होता। उन्होंने एक बार दबी ज़बान में राफेल से कहा था कि वे आगे पढ़ना चाहती हैं और हो सके तो काम भी करना चाहती है, लेकिन राफेल को दोनों ही बातें मंजूर नहीं थीं। एक बार फिर झिड़क कर मना कर दिया। वे कट कर रह गयीं। ऐसी शादी क्या कि पति से कोई संवाद ही नहीं। वे कब जाते हैं, कब आते हैं और कितना घर पर रहते हैं और जब घर पर रहते हैं तो बीवी से कितनी देर बात करते हैं इस बारे में ग्रेसी को न कुछ कहने का हक था न सवाल करने का। कई बार वे सोचतीं कि इससे तो अच्छा वे कुँवारी ही थीं। कम से कम जीवन अपने तरीके से जीने का हक होता था। यहाँ तो वे उनकी कीमत राफेल के घर में एक सामान से ज्यादा नहीं थी। बस, राफेल की जरूरतें पूरी करते रहो और घर में सारा दिन बन्द हो कर घुटते रहो। बेकार दिन गुजारने के बाद बेकार रातों का इंतज़ार करो।
इस बीच उनके दो बच्चे हुए थे। दोनों लड़के सिर्फ दो बरस के अंतराल पर। तेईस बरस की उम्र में वे दो छोटे छोटे बच्चों की माँ बन चुकी थी। इससे उनके जीवन में बदलाव भी आया था और ठहराव भी। समय भी बेहतर गुजरने लगा था। सारा दिन बच्चों की देखभाल में कब गुज़र जाता, पता ही न चलता।
तभी राफेल का दिल्ली ट्रांसफर हो गया था। ग्रेसी को लगा था कि शायद यहाँ आ कर उनके जीवन में बदलाव आयेगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि वे पहले की तुलना में और अकेली हो गयीं थीं। हैदराबाद में कम से कम आसपास मलयालम या अंग्रेजी बोलने समझने वाले कुछ तो लोग थे, कुछ रिश्तेदार और दीदी, जीजा वगैरह तो थे ही, यहाँ वे बिल्कुल अकेली पड़ गयी थीं। कोई बात करने वाला नहीं था। दिल्ली आने को बाद राफेल की दिनचर्या और व्यस्त हो गयी थी और उनका समय और ज्यादा बाहर गुज़रने लगा था। वे सारा दिन अपने आपको बच्चों में उलझाये रहतीं। बहुत हुआ तो कभी बाल्कनी में आकर खड़ी हो जातीं और नीचे सड़क पर चल रहे ट्रैफिक को देखती रहतीं।
तभी उन्होंने पाया था कि जब भी वे बाल्कनी में खड़ी होती हैं, उनके ठीक सामने वाले घर में खिड़की में परदे के पीछे से एक चेहरा छुप कर उन्हें देखता रहता है। स्मार्ट सा, गोरा चिट्टा आदमी। उम्र चालीस के आस पास। वे लज्जावश अंदर आ जातीं और जब वे दोबारा किसी काम से या यूँ ही वहाँ खड़े होने के मकसद से बाल्कनी में जातीं तो पातीं कि वह तब भी उन्हीं की तरफ देख रहा होता। वे समझ न पातीं कि वह लगातार उन्हीं के घर की तरफ क्यों देखता रहता है। एक बार निगाह में आ जाने के बाद तो जब वे देखती, उस शख़्स को अपनी तरफ ही देखता पातीं। वे हैरान होतीं इस आदमी को और कोई काम भी है या नहीं, जब देखो, खिड़की पर ही टंगा रहता है। पहले तो वह उन्हें देखता ही रहता, अब कुछ दिन से उन्हें देख कर मुस्कुराने भी लगा था।
डर को मारे उन्होंने बाल्कनी में जान ही कम कर दिया था लेकिन वे अपने कमरे के भीतर से छुप कर भी देखतीं तो उस आदमी को अपने घर की तरफ ही देखता पातीं। वे बहुत डर गयी थीं। कहीं राफेल ने उसे देख लिया तो उन्हें कच्चा चबा ही जायेगा, सामने वाले को भी ज़िंदा नहीं छोड़ेगा। वैसे उन्हें यह देख कर मन ही मन अच्छा भी लगता कि कोई तो है भले ही अनजान, अपरिचित ही सही, उनकी तरफ तारीफ भरी निगाह से देखता तो है। राफेल ने तो शादी के छ: बरसों में कभी भूले से भी उनकी तारीफ नहीं की थी। सोचा था ग्रेसी ने, कुछ माँगता थोड़े ही है, बस इस तरफ देखता ही रहता है। देखने दो। उस खिड़की में उनके अलावा और कोई चेहरा कभी भी नज़र नहीं आता था।
लेकिन यहीं उनसे चूक हो गयी थी। हालाँकि अब वे उस चेहरे की तरफ से उदासीन हो गयी थीं और पहले की तरह बाल्कनी में जाने लगी थीं, लेकिन यह इतना आसान नहीं था। उस तरफ न देखते हुए भी वे जानती थीं कि खुली खिड़की में से या परदे के पीछे से एक जोड़ी आँखें उन्हीं की तरफ लगी हुई हैं।
एकाध दिन ऐसे ही चला था। वे बाल्कनी में जातीं, उस तरफ देखती भी नहीं और लगातार महसूस करती रहतीं कि उन आँखों की आँच बिन देखे भी उन तक पहुँच रही है। तभी अचानक उस तरफ निगाह घूमाने पर उन्होंने पाया था कि खिड़की तो बंद है।
पहले तो उन्होंने इसकी तरफ़ ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब दिन में कई बार देखने पर भी जब उन्होंने खिड़की को बंद ही पाया तो वे परेशान हो उठीं। कहाँ चला गया वो शख़्स। बेशक कुछ कहता नहीं था लेकिन उसकी मौजूदगी ही एक सुखद अहसास देने लगी थी। बेशक वे उसे जानती नहीं थी, कौन है, क्या करता है, उसके घर में और कौन कौन है, उन्हें कुछ भी नहीं मालूम था फिर भी एक नामालूम सा खालीपन उन्हें महसूस होने लगा था।
खिड़की पूरे सात दिन तक बंद रही थी। इस बीच ग्रेसी ने सैंकड़ों बार बाल्कनी में आकर उस तरफ देखा होगा लेकिन हर बार खिड़की के पल्ले बंद पा कर उनके दिल में एक हूक सी उठती। पता नहीं कहाँ गया वो आदमी। कहीं बीमार वीमार तो नहीं हो गया।
आठवें दिन ग्यारह बजे के आसपास का समय होगा। वे घर के कामकाज निपटा कर गीले कपड़े धूप में डालने के लिए बाल्कनी में आयी ही थीं कि उन्होंने बिल्डिंग के नीचे एक टैक्सी को रुकते देखा। तभी उन्होंने देखा कि टैक्सी वाला एक आदमी को सहारा दे कर टैक्सी से बाहर निकाल रहा है और हौले हौले सहारा देता हुआ इमारत के अंदर ला रहा है। उस आदमी ने ऊपर उनके घर की तरफ देखा। वे देख कर हैरान रह गयीं। वही आदमी था। बीमार, थका हुआ और एकदम कमजोर। चलने में भी उसे तकलीफ़ हो रही थी। लेकिन उनसे आँखें मिलते ही उसके चेहरे पर फीकी सी हँसी आयी थी।
वे लपक कर भीतर आ गयी थीं। इसका मतलब उनका शक सही निकला। वह आदमी जरूर बीमार रहा होगा तभी तो टैक्सी वाला उसे सहारा दे कर भीतर ला रहा था। काफी देर तक बा्कनी में जाने की हिम्मत नहीं हुई। उन्हें धुकधुकी लगी हुई थी मानों उन्हें ही कुछ हो गया हो। टैक्सी जा चुकी थी।
काफी देर को बाद जब वे बाल्कनी में गयी थीं तो खिड़की हमेशा की तरह खुली हुई थी और वह वहाँ खड़ा था। बेहद कमजोर, दाढ़ी बढ़ी हुई और चेहरे पर थकान। वह उन्हें देखते ही मुस्कुराया। वे एकदम चौंक गयीं। वह उन्हें इशारा करके बुला रहा था। उनकी साँस फूल गयी और वे अचानक तय नहीं कर पायीं कि वे कैसे रिएक्ट करें। यह आदमी तो शराफत की सारी सीमाएँ लाँघ रहा है। दिन दहाड़े उन्हें अपने घर में बुला रहा है। बीमार है तो क्या हुआ, आदमी को शर्म लिहाज तो होनी चाहिए, न जान न पहचान, अपने घर में इस तरह से इशारे करके बुलाने का क्या मतलब।
वे बाल्कनी से वापिस लौट आयीं और कमरे में आकर लेट गयीं लेकिन भीतर आने के बाद भी उन्हें चैन नहीं था। लगता, बेचारा बीमार है, अस्पताल वगैरह से आया होगा, घर में खाने को कुछ नहीं होगा या दवा वगैरह की जरूरत हो सकती है। जा कर देखने में कोई हर्ज नहीं है। वे काफी देर तक इसी उथल पुथल में अंदर बाहर होती रहीं कि क्या करें। लेकिन हिम्मत न जुटा पायीं। वे फिर बाहर बाल्कनी में आयीं तो देखा, खिड़की बंद हो चुकी थी और फिर वह शाम तीन चार बजे तक न खुली। अब ग्रेसी की बेचैनी बहुत बढ़ गयी कि वे करें तो क्या करें। वहाँ जाने की हिम्मत तो नहीं थी उनकी लेकिन चैन भी नहीं आ रहा था कि शायद बेचारे को दवा की ही जरूरत होगी इसीलिए बुलवा रहा होगा। अकेला ही रहता है। पता नही घर में पीने का पानी भी हो या नहीं।
जब दोपहर के वक्त काम वाली बाई आयी तो तभी उन्हें सूझा कि इसे भेज कर सही बात का पता लगाया जा सकता है। लेकिन इसे विश्वास में कैसे लिया जाये। कैसे बताया जाये कि सामने की बाल्कनी वाला आदमी आज बीमारी की हालत में अस्पताल से वापिस आया है और उसे मदद की जरूरत है। काफी उधेड़बुन के बाद जब उनसे रहा नहीं गया तो आखिर उन्हें बाई को विश्वास में लेना ही पड़ा। एक मनगढ़ंत किस्सा बताया कि जब टैक्सी वाला उन्हें ऊपर छोड़ कर वापिस आ रहा था तो वे उस वक्त बाजार से लौट रही थीं। टैक्सी वाल किसी को बता रहा था कि साहब बहुत बीमार हैं और उनकी देखभाल करने वाला कोई भी नहीं है। तू जा कर देख कर आ ना बेचारे को, शायद दवा वगैरह की जरूरत हे। बाकी बात बाई ने खुद ही संभाल ली - “हमें मालूम है मेमसाब, वो बहुत शरीफ़ आदमी है। कई दिन से बहुत बीमार है बेचारा। अकेला रहता है। कोई नहीं है दुनिया में उसका। खाना भी होटल में खाता है। मैं जा के देखती हूँ।”
जब तक बाई वहाँ से वापिस नहीं आ गयी, ग्रेसी का मन तरह तरह की आशंकाओं से घिरा रहा। वे लगातार अंदर बाहर होती रहीं। बाई जब वापिस आयी तो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। हाथ में कुछ कागज़ और पैसे थे। बताने लगी - “साब की हालत को बहुत खराब है। डाक्टर ने पता नहीं क्यों अस्पताल से घर भेज दिया। न कोई देखने वाला, न दवा देने वाला। घर में खाने को भी कुछ नहीं। ये पैसे दिये हैं दवा और कुछ संतरे वगैरह लाने को। मेम साब क्या करूँ मैं? मुझे तो पता नहीं, कौन सी दवा लानी है और कितनी लानी है। इत्ते सारे कागज़ दे दिये मुझे।”
“दरवाज़ा खुला था क्या?”
“नहीं, बड़ी मुश्किल से दरवाज़े तक चल के आये।”
“फिर”
“मैंने सहारा देकर बिस्तर पर लिटाया, पानी पिलाया और तब वो बोले कि किसने भेजा है।”
“तो क्या बोली तू?”
“क्या बोलती मैं, मैं यही बोली कि टैक्सी वाले ने बताया था कि आपको दवा ला के देनी है।”
“ठीक किया तूने। चल एक काम करती हूँ। मैं तेरे साथ चल कर ये दवाएँ दिलवा देती हूँ। तू जा कर दे देना और पूछ भी लेना अगर उन्हें और कोई काम हो या किसी काम वाली बाई की जरूरत हो तो।”
“मैं पूछूँगी।”
तब ग्रेसी बाई के साथ कैमिस्ट के पास गयी थी। जब सारी दवाएँ मिल गयीं तो पैसे देते समय ग्रेसी ने कैमिस्ट से यूँ ही पूछ लिया था कि ये सब किस बीमारी की दवाएँ हैं।
“कैंसर की। क्यों, आप दवा लेने आयी हैं और आप ही को पता नहीं।”
ग्रेसी का कलेजा मुँह को आ गया था। वे बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाओं को बाई और कैमिस्ट से छुपा पायी थीं। उस दिन बेशक बाई ही जा कर दवाएँ दे आयी थी और कमरा वगैरह भी साफ कर आयी थी, उसका बिस्तर ठीक से लगा आयी थी, लेकिन घर आते आते ग्रेसी की बुरी हालत हो गयी थी। अब उन्हें समझ में आ रहा था कि वे अब तक एक बीमार, मरते हुए आदमी की हँसी ही देखती आ रहीं थीं। चुक रहे आदमी की हँसी, जिसका मन की खुशी से कोई नाता नहीं होता।
ग्रेसी की बाई ने वहाँ का काम हाथ में ले लिया था। सफाई, खाना बनाना और जूस वगैरह बना देना, पीने के लिए पानी उबाल देना, दवा दे देना, और जरूरत पड़ने पर दूसरे काम कर देना। उस आदमी ने अपने घर की एक चाबी बाई को ही दे दी थी ताकि उसे बार बार उठने की जहमत न उठानी पड़े। बाई चूँकि ग्रेसी के घर काम करने के बाद वहाँ जाती इसलिए चाबी उसने ग्रेसी के पास ही रखवा दी थी। बताती थी बाई ग्रेसी को उसके बारे में- “साब बहोत शरीफ़ है। सारा दिन लेटा रहता है। किताबें पढ़ता रहता है। मुझे इतने पैसे दे देता है कि कहीं और काम करने की जरूरत ही न पड़े। कहता है, आज तक उसकी किसी ने इतनी सेवा नहीं की जितनी मैं करती हूँ।”?
अब खिड़की खुलती तो थी, लेकिन वह चेहरा नजर नहीं आता था। अब ग्रेसी के घर की तरफ कोई नहीं देखता था लेकिन ग्रेसी जानती थीं कि वह शख़्स सारा दिन लेटे लेटे जरूर उनका इंतज़ार करता होगा। लेकिन वे सब कुछ जानते हुए भी वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं। एकाध बार उनके मन में आया कि मिस्टर राफेल को बाई के हवाले से उस आदमी की बीमारी के बारे में बतायें और उन्हें वहाँ जा कर उसे देख आने के लिए कहें लेकिन वे राफेल को जानती थीं। किसी भी बात का गलत अर्थ लगाने में उसे जरा भी देन न लगती और मुसीबत उन्हीं की होती। बेशक बाई से उसकी सेहत के बारे में, दिनचर्या के बारे में जानने को बेचैन रहतीं। बाई भी बिला नागा उसकी सेहत का बुलेटिन प्रसारित कर जाती।
उस दिन बाई काफी देर तक नहीं आयी थी। रोजाना आठ बजे आ कर पहले उसके नाश्ते पानी का इंतजाम करती और बाद में ग्रेसी के घर का काम करती। ग्रेसी ने अपने घर का काम तो निपटा लिया था लेकिन उन्हें लगातार इस बात की चिंता लगी हुई थी कि उसने अब तक नाश्ता भी नहीं किया होगा, पता नहीं, खाली पेट दवा कैसे लेगा। ग्रेसी का मन बहुत बेचैन था लेकिन कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वे क्या करें। बच्चे स्कूल जा चुके थे नहीं तो उनके हाथ ही कुछ खाने के लिए भिजवा देतीं। बच्चे दो बजे लौटते थे और अभी सिर्फ ग्यारह ही बजे थे। बेचारा सुबह से भूखा होगा। पता नहीं बाई को भी आज क्या हो गया।
जब ग्रेसी से और नहीं रहा गया तो उन्होंने एक गिलास गाजर का जूस तैयार किया, हलका सा नाश्ता बनाया, हिम्मत करके चाबी उठायी और चल दीं - जो भी होगा देखा जायेगा। आखिर किसी के जीवन मरण का प्रश्न है। सिर्फ़ खाने की बात नहीं है, दवा की भी बात है। वे मन कड़ा करके उसके दरवाज़े पर पहुँचीं, दरवाजे में चाबी घुमायी ओर हलके से दरवाज़ा धकेला।
वह सामने ही लेटा हुआ था। आँखें बंद। दाढ़ी कई दिन से बढ़ी हुई और चेहरा एकदम निस्तेज। बहुत कमजोर हो गया था वह। दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से उसकी नींद खुली और उसने मुड़ कर देखा - उन्हें देख कर चेहरे पर फीकी चमक आयी। कुछ कहना चाहा उसने लेकिन खुश्क होंठों से कोई शब्द बाहर नहीं आये। और वह सूनी आँखों से अपने मेहमान को देखता रह गया। उसने जीभ अपने पपड़ाये होंठों पर फिरायी। ग्रेसी समझा गयी कि उसे प्यास लगी है।
ग्रेसी ने सामान एक तिपाई पर रखा और एक गिलास पानी भर कर उसके पास लायीं। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन उठ नहीं पाया। ग्रेसी थोड़ी देर तक संकोच में खड़ी रहीं फिर सहारा देकर उसे बिठाया, पानी पिलाया और तौलिये से उसका मुँह पोंछा।
पानी पीकर उसे थोड़ी राहत मिली। दोनों की आँखें मिलीं। उसकी आँखों में बहुत डरावना सन्नाटा था जिसे देख कर ग्रेसी एक बारगी तो डर ही गयी थीं। वे एक मरते हुए आदमी की आँखें थीं जिनमें बेपनाह मुहब्बत की भीख थी। उसे नाश्ता पानी कराके, दवा दे कर और पानी का गिलास सिरहाने रख कर जब ग्रेसी लौटने लगीं तो उस आदमी की निगाहों में जो चमक ग्रेसी ने देखी तो उन्हें लगा उन्हें बहुत पहले उसके पास आना चाहिये था और कुछ दिन उसकी सेवा करनी चाहिये थी।
जब वे लौटीं तो उन्हें बहुत संतोष था। अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने पहली बार कई चीज़ें एक साथ देखी थी। तिल तिल मरता हुआ आदमी, उन मरती हुई आँखों में भी बेपनाह मुहब्बत थी और शायद पहली बार हो रहा था कि किसी अनजान आदमी की पहली ही मुलाकात में उन्होंने इतनी सेवा की थी और संतोष अनुभव किया था। बेशक दोनों में एक भी संवाद का आदान प्रदान नहीं हुआ था और दोनों ही एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते थे। वे खुद उसके लिए दवाएँ लायी थीं लेकिन पर्ची पर उसका नाम देखने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी उन्हें।
उसके बाद वे कई बार उसके कमरे में गयी थीं। उसे चुपचाप खाना खिलाया था, दवा दी थी और...धीरे धीरे उसे ठीक होते देखा था। संवाद अभी भी दोनों ओर से एक बार भी नहीं हुआ था।
तभी एक दिन हंगामा हो गया था। मिस्टर राफेल ने उन्हें उसकी दलहीज से बाहर निकलते देख लिया था। उनके हाथ में खाने के बरतन थे। वे उसे खाना खिला कर आ रहीं थीं। घर पहुँचते ही कड़े स्वर में पूछा था राफेल ने - “कब से चल रहा है ये चक्कर?”
'कौन सा चक्कर?', मिसेज़ राफेल ने पलट कर पूछा था।
'ये रंगरेलियाँ मनाने का चक्कर और कौन सा चक्कर, साली बदज़ात, एक तो दिन दहाड़े अपने यार से मिलने उसके घर पर जाती है और पूछती है कौन सा चक्कर?'
'आप यह क्या कह रहे हैं।', ग्रेसी ने दबी जबान में विरोध किया था- 'उसे कैंसर है और उसे दवा देने वाला भी कोई नहीं है। बेचारा..'
राफेल ने उसे बात पूरी नहीं करने दी थी और बिना सोचे समझे उन पर लात घूँसों की बरसात शुरू कर दी थी। ग्रेसी को मालूम या, एक न एक दिन ये नौबत आनी ही थी, इसलिए बे बिना उफ भी किये पिटती रहीं। उन्हें पिटते हुए भी इस बात का संतोष या कि वे किसी के काम आ सकीं थीं। वे गालियाँ बके जा रहे थे और उन पर ऐसे ऐसे आरोप लगा रहे थे जिनके बारे में व कभी सोच भी नहीं सकती थीं। उन्हें पता था, विरोध का एक भी शब्द राफेल के गुस्से को और बढ़ायेगा और उनकी और ज्यादा पिटायी होगी।
लेकिन ग्रेसी ने ज़िद ठान ली थी कि जब तक वह आदमी पूरी तरह से चंगा नहीं हो जाता, वे उसकी जितनी भी हो सके, देख भाल करती रहेंगी। राफेल से पिटने को बावजूद। राफेल ने इसी बात पर कई बार उन्हें पीटा था। बच्चों के सामने और एक बार तो रात के वक्त घर से बाहर भी निकाल दिया था। वे अब उनकी पूरी तरह से जासूसी करने लगे थे और पता नहीं कहाँ कहाँ के पुराने बखेड़े ले कर बैठ गये थे। मिस्टर राफेल ने एक बार भी इस बात की जरूरत नहीं समझी कि जिस आदमी के शक में वे इतने दिनों से अपनी बीवी को पीटे जा रहे हैं और उसका जीना मुहाल किये हुए हैं, कम से कम एक बार जा कर देख तो लें कि उसकी ऐसी हालत है भी या नहीं जिसके साथ रंगरेलियाँ मनायी जा सकें। लेकिन राफेल अपना गुस्सा ग्रेसी पर ही उतारते रहे। पता नहीं कितने दिनों का और किस किस बात का गुस्सा था कि खत्म होने में ही नहीं आता था। वे इन दिनों जैसे पागलपन के दौर में थे और बात बेबात ग्रेसी पर बरस पड़ते। घर पर ताला लगा कर जाते और उन्हें भूखा रखते। इतने पर भी संातोष न होता तो घर से निकालने की धमकियाँ देते।
तिलमिलायी थीं कि इससे ज्यादा पागलपन क्या हे सकता है कि एक मरते हुए आदमी की दवा तक छीन कर नाली में फेंक दी जाये। उन्हें बहुत गुस्सा आया था लेकिन वे खून के घूँट पी कर रह गयी थीं। राफेल के सामने विरोध करने का कोई मतलब नहीं था।
ये कई बरसों के बाद हो रहा या कि आजकल राफेल रोज शाम को ही आकर घर में जम जाते और कई बार आफिस ही न जाते। सिर्फ जासूसी करने को लिये।
तभी बाई से उन्हें पता चला था कि उसकी तबीयत और खराब हो गयी थी। बाई ने उसके पड़ोसियों को खबर कर दी थी कि उसकी हालत खराब है और वह दर्द से बेहाल है।
ग्रेसी को पता नहीं चल पाया था कि उस आदमी को एक सुबह कहाँ ले जाया गया था और क्यों ले जाया गया था। बाई बता रही थी कि जब वह हमेशा की तरह काम करने गयी थी तो वहाँ ताला लगा हुआ था और किसी को पूरी तरह से पता नहीं था कि उन्हें किधर ले जाया गया था। उसके बाद उन्हें उसकी कभी भी कोई भी खबर नहीं मिल पायी थी। वे उसे आखरी बार देख नहीं पायीं थीं और उसकी दवाएँ उस तक न पहुँचाने का मलाल उन्हें कई दिन तक सालता रहा था।
ग्रेसी ने तब सोचा था कि जितनी भी हो सकी, उन्होंने अपनी तरफ से उसकी सेवा की थी और अब राफेल को कम से कम शक की आग में और नहीं जलना पड़ेगा। ये कैसा नेह था जो ग्रेसी ने उस अनजान आदमी को दिया था। न उसका नाम पूछा था न अपना नाम बताया था। वह क्या था जिसने उन दोनों को जोड़ा था बिना एक भी संवाद बोले और उस मरते हुए आदमी की आँखों में कुछ पलों के लिए उम्मीदों के चिराग जल उठे थे। ग्रेसी ने उस अरसे में एक भरपूर जीवन जी लिया था। बेशक वे उसके जीवन में कुछ जोड़ नहीं पायीं थीं फिर भी यह अहसास तो था ही कि कुछ तो दिया ही था।
तब राफेल ने एक दूसरा खेल शुरू कर दिया था। पता नहीं इसमें बदले की भावना काम कर रही थी या वे सचमुच उस छोकरी से प्यार करने लगे थे। जब राफेल ने देखा कि वह आदमी अब यहाँ से जा चुका तो फिर से उन्होंने देर से आना शुरू कर दिया था। ग्रेसी को कुछ लोगों ने बताया था कि आजकल उनका अपने ऑफिस की किसी लड़की से अफ़ेयर चल रहा है। ग्रेसी इन सारी बातों की कभी भी परवाह नहीं करती थीं। इस तरह के अफ़ेयर उनके अक्सर चलते ही रहते थे। उनके हिस्से में उनका पूरा पति आज तक आया ही नहीं था कि उसे खोने से डरतीं। संकट तब शुरू हुआ जब उसे ले कर वे घर आने लगे और ग्रेसी से उम्मीद करने लगे कि वे उसकी सेवा करें। वह अति साधारण लड़की थी और पता नहीं किस लालच में राफेल से चिपकी हुई थी। सब कुछ जानते बूझते हुए भी। ग्रेसी ने इस बात को भी स्वीकार कर लिया था। अगर उनके पति को ही अपने बच्चों और बीवी का, अपने अड़ोसियों पड़ोसियों की आँखों का लिहाज नहीं है तो उन्हें क्या पड़ी है। मरने दो। वैसे भी कौन सा सुख दे रहे थे जो छिन जाता और इस दुख के लिए शिकायत करतीं।
लेकिन हद तो तब हो गयी जब वे उसे सीधे बेडरूम में ले जाने लगे और ग्रेसी से नौकरानी का सा व्यवहार करने लगे। यह उन्हें नागवार गुज़रा था। अब तक तो सब सहती आयीं थीं, ये उनसे सहन नहीं हुआ। बेडरूम का दरवाज़ा खुला रहता, बच्चे आस-पास मंडराते रहते और राफेल कमरे में सारी सीमाएँ लाँघते नज़र आते। ग्रेसी ने जब इसका दबे स्वरों में विरोध किया तो उन्हीं पर गुर्राने लगे कि अब इस घर में तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं है। या तो खुद घर छोड़ कर चली जाओ या मैं ही घर से निकाल दूँगा। अपने दिन भूल गयी जब दिन दहाड़े अपने यार से मिलने जाती थी। तुझे जाना हो तो जा अपने यार के पास।
उस रात पहली बार ग्रेसी अपने पति पर भड़की थीं। बहुत देर तक शोर मचाती रही थीं। इतना कि राफेल दंग रह गये थे कि इस औरत में इतना ताप है। ग्रेसी अपना आपा खो बैठी थीं। पता नहीं कब से घुटती आ रही थीं और अब मौका मिल गया था अपनी बात कहने का। बदहवासी में उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले थे और सारा सामान बिखेर दिया था। उन्होंने बच्चों की भी परवाह नहीं की थी और सारा घर सिर पर उठा लिया था। कहा था राफेल से -”मैं भी देखती हूँ कि कैसे वह चुड़ैल इस घर में आती है।” बच्चे पहली बार माँ के इस रूप को देख रहे थे। वे डरे सहमे कोने में दुबके खड़े थे।
लेकिन आखिर हार ग्रेसी की ही हुई थी। राफेल उस लड़की को अगले दिन से हमेशा हमेशा के लिए घर पर ले आये थे और ग्रेसी से साफ साफ कह दिया कि इस घर में रहना है तो इसे स्वीकार करना होगा। आखिर बच्चों को अपने घर को अपनी दुनिया को छोड़ कर कहाँ जातीं। ग्रेसी बिस्तर पर पड़ गयी थीं और गहरे डिप्रेशन में चली गयीं थीं। डॉक्टर लगातार आता रहा था और इंजेक्शन देता रहा था। कुछ दिन के बाद बेशक ग्रेसी ठीक हो गयीं थीं लेकन उस लड़की को देखते ही उन पर हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगते और फिर से उनकी तबीयत खराब होने लगती। इंजेक्शनों और दवाओं के असर में वे घंटों सोयी रहतीं और घर के सारे काम वैसे ही पड़े रहते। राफेल इस बात पर बिगड़ते और नित नये झगड़े होते। ग्रेसी समझ नहीं पा रही थीं कि दवा लेते ही उन्हें क्या हो जाता है। लेकिन जो कुछ सामने देखतीं उसे भी सहन करने की ताकत नहीं बची थी उनमें। राफेल ने तो उन्से बात करना भी बंद कर दिया था। उन्हें अपना होश भी न रहता। बच्चे क्या खाते हैं, कोई उन्हें खाना देने वाला भी है या नहीं, या स्कूल जाते हैं या नहीं, उन्हें पता न रहता। जब तबीयत ठीक होती तो थोड़ा बहुत काम कर लेतीं वरना लेटी रहती और अपनी किस्मत को कोसती रहतीं। धीरे धीरे उनकी सेहत खराब होती चली गयी थीं और एक दिन राफेल के डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें पागल खाने पहुँचा दिया गया था।
वैसे देखा जाये तो वे पागल कहाँ हुई थीं। उनके सामने हालात ही ऐसे बना दिये गये थे कि भला चंगा आदमी पागल हो जाये। उन्होंने तो फिर भी पूरे छ: महीने तक सारी स्थितियों को सहन किया था और चूँ तक नहीं की थी और उस लड़की को पूरे छ: महीने तक अपनी छाती पर झेलती रहीं। जब भी उन्होंने विरोध किया या करने की कोशिश की, हिस्से में मार ही आयी और आखिर पागल बना कर उन्हें घर से निकाल ही दिया गया।
उन्हें नहीं पता कि वे कितने अरसे पागलखानों में रहीं और कहाँ कहाँ भटकती रहीं। एक बार जब वे ठीक होकर बाहर आयीं भी, तो उस वक्त राफेल दिल्ली छोड़ कर जा चुके थे। उनके लिए अतीत के सारे दरवाज़े बंद हो चुके थे। वे बहुत छटपटायीं थीं अपने बच्चों से मिलने के लिए। पागलों की हालत में एक शहर से दूसरे शहर में भटकती रही थीं लेकिन उनके शरीर पर दवाओं का इतना गहरा असर था कि बहुत कोशिश करने पर भी पिछली बातें याद न आतीं। शहर याद आता तो कॉलोनी भूल जातीं और कॉलोनी याद आने पर घर का पता भूल चुकी होतीं। थक हार कर उन्होंने कोशिश ही छोड़ दी थी और भटकते भटकते आखिर मुंबई पहुँची थीं और यहाँ, चर्चगेट के इस कोने में अपना डेरा डाल दिया था। तब से यही उनका स्थायी पता है। ऐसा पता, जिस पर न कोई आता है न आना चाहेगा।
आज अगर वे अपने परिवार में होतीं तो उनका बड़ा बेटा 33 बरस का और छोटा बेटा लगभग 31 बरस का होता। वो तो अब भी इसी उम्र के होंगे, बस, उन्हें ही नहीं पता, कहाँ होंगे वे। राफेल को गुज़रे अरसा हो गया है।
कोई बड़ी बात नहीं, उनके दोनों बेटे यहीं मुंबई में ही हों और रोजाना अपने काम पर यहीं से गुज़र कर जाते हैं। होने को तो यह भी हो सकता है कि रोजाना दस बजे के करीब एक लम्बी सी कार में वह जो साँवला सा आदमी आ कर खाने का पैकेट उन्हें दे जाता है और कभी कभी कपड़े भी दे जाता है, मिसेज ग्रेसी राफेल का ही बड़ा या छोटा बेटा हो और अपने परिवार के डर से उन्हें घर ले जाने की हिम्मत न जुटा पाता हो। होने को तो बहुत कुछ हो सकता है मेरे प्रिय पाठक, लेकिन अगर आप कभी चर्चगेट से गुज़रें और आपको मिसेज राफेल से बात करने की इच्छा हो और मौका भी मिल जाये तो वे आपको यही बतायेंगी कि उन्हें कुछ भी याद नहीं है कि उनका कोई बेटा भी था या उनका कभी कोई घर बार भी था।
निश्चित ही वे अपने अतीत के बारे में कोई भी बात नहीं करना चाहतीं।
वे आपसे इस बारे में कोई बात नहीं करेंगी।
मुझसे भी नहीं!!