क्या आप ‘डालडा’ शब्द का अर्थ जानते हैं? / बुद्धिनाथ मिश्र
जिनके लिए विदेश-यात्रा का मतलब सिर्फ़ सैर-सपाटा और मौज-मस्ती नहीं है, उनके लिए वहाँ, उस देश के जन-जीवन में तमाम आकर्षक चीजें बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें वे स्थानीय शब्दों की जान-पहचान से ही पा सकते हैं। उज़्बेक एयरलाइन्स में जो गृह-पत्रिका हम यात्रियों को दी गयी थी, वमन-थैली और सुरक्षा-निर्देशिका के साथ, वह द्विभाषी थी, यानी उज़्बेक और अंग्रेज़ी में। मैं रूस में कुछ दिन रह चुका हूँ, इसलिए रूसी लिपि (साइरिलिक, स्लाव वर्णमाला) को थोड़ा-बहुत पहचान लेता हूँ। मैंने गौर किया कि उज़्बेक भाषा की लिपि वही साइरिलिक है, जो रूसी भाषा की है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की आधिकारिक लिपि तो वही साइरिलिक रही, जिसका निर्माण ईसाई प्रचारक दो ग्रीक भाई साइरिल और मेथोडिअस के अनुयायियों ने पुरानी ग्रीक लिपि में नये संयुक्ताक्षर और नये स्वर पुरानी ग्लैगोलिटिक वर्णमाला से जोड़कर किया था।
उज़्बेक भाषा मूलतः तुर्की भाषा है, जिसको बोलनेवाले लगभग दो करोड़ लोग हैं, जो मुख्यतः उज़्बेकिस्तान में और गौणतः रूस, कज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उक्रेन आदि देशों में हैं। पहले उज़्बेक भाषा का नाम ‘चगताई’ था, जो चंगेज़ खान के एक बेटे के नाम पर था। (बहुत सम्भव भारतीय लेखिका इस्मत चुगताई का भी सम्बंध उसी वंश से हो। ) चौदहवीं सदी में जब यह साहित्यिक भाषा के रूप में उभरी, तब इसकी लिपि अरबी थी। सन् 1927 में अरबी की जगह लैटिन वर्णमाला का प्रयोग होने लगा , लेकिन सन् 1940 में उसकी जगह साइरिलिक वर्णमाला ने ले ली। इस समय उज़्बेकिस्तान में उज़्बेक और रूसी दोनो भाषाओं का प्रयोग होता है। इसी तरह लिपि भी साइरिलिक और लैटिन --ये दोनो लिपियाँ साइनबोर्डों पर दिखाई पड़ती हैं। इसलिए ताशकन्द शहर में घूमते हुए साइनबोर्डों को पढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई।
हमारी भाषाओं में अरबी-फारसी के तमाम शब्द हैं, यह तो सभी बता देंगे, मगर हमारे इन पड़ोसी देशों के न जाने कितने शब्द भारतीय जन-जीवन में प्रचलित हैं, इसका कोई लेखा-जोखा अभी तक नहीं हुआ है। भारत में जितने वर्षों तक अंग्रेज़ों ने राज किया, उससे कई गुना ज्यादा वर्षों तक मंगोलों ( मुगलों) ने राज किया। मध्यकाल का वह दौर ‘वीरभोग्या वसुन्धरा’ का दौर था। जिसकी बाजू में जितनी शक्ति थी, उतना बड़ा साम्राज्य उसने स्थापित किया। कहते हैं कि घोड़े की पीठ पर तलवार भाँजते हुए तैमूर लंग पेरिस तक पहुँच गया था। भारत तो आक्रान्ताओं के लिए हरिण की भाँति आसान और स्वादिष्ट शिकार था। राजकीय पद पर पहले प्रतिष्ठित वैष्णव धर्म और बाद में बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज को निरस्त्र और निरीह बना दिया था। इसलिए, आक्रान्ताओं की छोटी-सी सैन्य टुकड़ी को भी हमारे राजाधिराज झेल नहीं पाते थे और बड़े से बड़े चक्रवर्ती राजा अपने बाहुबल से अपनी रनिवास की इज़्ज़त को भी बचा नहीं पाते थे, प्रजा की जान-माल क्या बचाते!
कई सदियों तक भारत पर जमकर राज करनेवाले मंगोलों के मूलस्थान, वहाँ की संस्कृति, वहाँ की सामाजिक रीति-रिवाज़ और वहाँ की भाषा के बारे में हमलोग कितना कम जानते हैं!यदि हम उसे जानते होते, तो यह भी जानते कि चंगेज़ खान और तैमूर लंग जैसे वीर आक्रान्ताओं को पैदा करनेवाला ताशकन्द और समरकन्द जैसे शहर भी बाहरी आक्रान्ताओं द्वारा बारम्बार ध्वस्त किये गये हैं। आज का ताशकन्द भी तीन हज़ार वर्ष पुराना होने के बावजूद इसलिए बिलकुल नया और तरोताज़ा दिखता है कि इसके भवनों और इमारतों को भी कभी बाहरी हमलावर और कभी भूकम्प भूलुण्ठित करता रहा है। इसी तरह इसके मुहल्लों और रास्तों का नाम भी बार-बार बदलता रहा है। यह एक प्राकृतिक नियम है, जिससे आज न कल भारत को भी रूबरू होना पड़ेगा और एक परिवार के नामों को मिटाकर दूसरे नाम लिखे जाएँगे। हो सकता है, वे नाम ज्यादा युक्तिसंगत और सार्थक हों।
‘उर्दू’ का शब्दार्थ हम लगाते रहे हैं ‘सैनिक छावनी की भाषा’। मगर यह जिस उज़्बेक शब्द से बना है, वह है तुर्की-मंगोल परम्परा का ‘ओर्दा’, जिसका अर्थ है वह ‘दुर्ग’ जहाँ सैनिकों के रहने का बन्दोवस्त किया जाता था। हमारे देश के दुर्ग में राजा, उसका परिवार और उसके परिचर भी रहते थे, मगर ‘ओर्दा’ में केवल सैनिक रखे जाते थे, जो विभिन्न स्थानों के होते थे, इसलिए उनकी भाषा भी खिचड़ी होती थी। एक ओर्दा में दस हज़ार सैनिक और उनके ‘हाकिम’ रहते थे। इस प्रकार का एक प्राचीन शाश-कालीन ओर्दा का अवशेष मिंगुरिक (मिंग=एक हज़ार, उरिक=खुबानी) स्थान पर मिला है। शाश राजाओं की प्राचीन राजधानी मिंगुरिक को सन्713 में अरब आक्रान्ताओं ने ध्वस्त कर दिया था। सत्रहवीं सदी में भी बुखारा के खान ने पूरे ताशकन्द शहर और इसके ओर्दा को नष्ट कर दिया था।
वहाँ हमारी तरह ही मुहल्ला और मौजे हैं। बल्कि वहाँ का ‘महल्ला’ ही हमारे यहाँ ‘मुहल्ला’ या ‘महाल’ बन गया है। ऐसा ही एक ‘जंगगाह मुहल्ला’ है, जो पहले युद्ध-स्थल हुआ करता था। इन मुहल्लों में हमारे शहर के मुहल्लों की तरह ही पूरी सामाजिक संरचना होती थी। बहुत-से मुहल्ले तो1966 के भूकम्प में नेस्त नाबूद हो गये। खास बात यह है कि हमसे कहीं ज्यादा उन शहरों को बाहरी आक्रमण सहना पड़ा। विजेता आये-गये, उन्होने अपने कानून भी लागू किये, मगर ये मुहल्ले अपनी राह पर ही चलते रहे। हर मुहल्ले में गुजर(आवास), मस्ज़िद और उससे संलग्न मदरसे, चायखाना और हौज(कुण्ड) होते थे। हौज का पानी ही मुहल्ले की पूरी आबादी पीती थी। महीने में एक बार हौज का पानी बदल दिया जाता था। दूकानों पर नोवोय(नान), कुर्त(चीज़ का बॉल) नोस्वॉय( तम्बाकू-चूना)जैसी दैनिक वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं। वहाँ बैन्क्वेट हाल को चायखाना कहते हैं। उज़्बेक में ‘बुलन्द’ का माने ‘लम्बा’ होता है, जबतक यह नहीं जानेंगे, तबतक ‘बुलन्द दरबाजा’ का अर्थ ही नहीं खुलेगा। मस्जिदों और रईसों को छोड़कर सामान्य घर कच्ची ईंट के बने होते थे।
आधुनिक काल में इस तरह के घर केवक ‘किश्लाक’(गाँव) में पाये जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वहाँ जब कोई नया घर बनाता है, तो सभी पड़ोसी बारी-बारी से छुट्टी के दिनों में उसकी मदद करते हैं। रोज़ सबेरे की नमाज़ के बाद परिवार के बूढ़े लोग गप्पें लड़ाने चायखाना चले जाते हैं, जवान काम पर और बच्चे गलियों में ‘ओशिक’ और ‘लंका’ खेल खेलते हैं। सूरज की पहली किरण निकलने से पहले ही घर की औरतें और लड़कियाँ झाड़ू-बहारू, बर्तन-बासन, पानी लाना, रसोई बनाना आदि काम में जुट जाती हैं। दोपहर में सिलाई-फराई और फलों का रस निकालने का काम होता था। वहाँ भी दस्तरखान और पुलाव(पिलोव) है। अगर किसी घर के आगे कचरा पड़ा है, तो इसका यही मतलब लगाया जाता है कि या तो गृहिणी घर में नहीं है या बहुत फूहड़ है। मुहल्ला में औरतों की यह भूमिका एपार्टमेंट बनने के बाद बदल गयी है। ताशकन्द के शिल्पकार अतीत में ‘कमानी’(वाण) बनाने के लिए प्रसिद्ध थे। ‘बाबरनामा’ में भी इसकी प्रशंसा की गयी है। मुहल्ले के मदरसे सर्वश्रेष्ठ शिक्षा-संस्थान थे, जहाँ इस्लाम और शरीयत के अलावा साहित्य, गणित, अरबी-फारसी व्याकरण, ज्यामिति, ज्योतिष और नीतिशास्त्र पढ़ाये जाते थे। ताशकन्द के इन मदरसों में कज़ाक, किरगिज़, तातार तथा अन्य सीमावर्ती देशों के बच्चे पढ़ने आते थे।
तीसरे दिन हमलोग ताशकन्द के विभिन्न स्थलों को ही देखते रहे। उनमें सोलहवी सदी का हजरत इमाम परिसर विशेष उल्लेखनीय है, जहाँ संग्रहालय और पुस्तकालय के अलावा सातवीं सदी में लिखी कुरान की प्रति सहयात्रियों ने देखा। इनके अलावा मध्यकाल के कई दर्शनीय स्थल थे। इन स्थानों पर उपहार के रूप में ली जानेवाली वस्तुएँ अपनी रुचि की नहीं थी और बेहद महँगी भी थीं। इसलिए किसीने खरीदारी नहीं की। ज्यादातर तैमूर लंग के कलात्मक चित्र थे, जिससे हम इतना चिढ़े हुए थे कि तैमूर स्क्वेयर दिखाने का कार्यक्रम भी हमारे गाईड ने अनदेखा कर दिया। हाँ, वहाँ खेलते बच्चों के साथ हमलोगों ने जी भार कर खेला।
लेकिन जिस शब्द का अर्थ मैने आपसे पूछा था, वह तो अबतक किसीने बताया ही नहीं। न आपने और न मैंने ही। विकीपीडिया पर अंग्रेज़ी स्रोतों से मिली जानकारी यह कहती है कि बीसवीं सदी के आरम्भ में भारत में हाइड्रोनेटेड वनस्पति तेल का आयात डच कम्पनी ‘डाडा एंड कं’ करती थी। सन् 1933 में जब ब्रिटिश-डच कम्पनी लीवर ब्रदर्स इंडिया लि. (वर्तमान हिन्दुस्तान लीवर लि.) ने स्थानीय स्तर पर हाइड्रोनेटेड वनस्पति तेल का उत्पादन करना चाहा, तब उस कम्पनी ने शर्त रखी कि इसके ब्रांड में उस कम्पनी की झलक होनी चाहिये, सो ‘डाडा’ के बीच ‘लीवर’ का ‘ल’ डाल दिया गया और इस प्रकार जो वनस्पति का उत्पादन शुरू हुआ, उसने अपने विज्ञापनों में अमृत-तुल्य देसी घी से ज्यादा दमखम रखने का दावा किया। फल यह हुआ कि लोग घी को छोड़ ‘डालडा’ की ओर भागे और कुछ ही दशकों में ‘डालडा’ वनस्पति घी का पर्याय हो गया।
बाद में और कम्पनियाँ इस गैर-पारम्परिक क्षेत्र में आगे आयीं और भारतीय बाज़ार में ‘डालडा’ का वर्चस्व टूटा, जिसके बाद हिन्दुस्तान लीवर ने ‘डालडा’ ब्रांड विश्व की सबसे बड़ी बोतलबन्द तेल उत्पादक कम्पनी ‘बुंगे लिमिटेड’ को बेच दिया और आज यही कम्पनी भारत में ‘डालडा’ वनस्पति और तेल का उत्पादन करती है। लेकिन इस प्रकार तो ‘डालडा’ कोई अर्थ नहीं बनता है, जबकि इसका पारम्परिक अर्थ है, जो विकिपीडिया को मालूम नहीं है या वह बताना नहीं चाहता है। ‘डालडा’ शब्द हमारे पड़ोसी देशों का एक बहुत पारम्परिक और लोकप्रचलित शब्द है। उज़्बेक भाषा में इसका अर्थ ‘प्रोत्साहन’ और ‘संवर्धन’ होता है। चूँकि समरकन्द से अफ़गानिस्तान तक भाषाओं के बीच अन्तर्सम्बन्ध है, इसलिए इस सम्पूर्ण क्षेत्र में ‘डालडा’ शब्द सदियों से इन्हीं अर्थों मे प्रचलित रहा है और लीवर ब्रदर्स ने जब दक्षिण एशियाई देशों के व्यंजनों को नयी ऊर्जा देने के लिए नया उत्पादन शुरू किया, तब बहुत सम्भव है कि उसे इस क्षेत्र में प्रयुक्त ‘डालडा’ शब्द का अर्थ मालूम हो।