क्या उत्तरकाण्ड रामचरितमानस में प्रक्षिप्तांश है? / कमलेश कमल
" शील-शक्ति-मर्यादा के प्रकृष्टतम प्रमाण हैं राम।
ऐसे ही नहीं घर-घर पूजे जाते हैं प्रभु राम॥"
श्रीरामचरितमानस केवल एक महाकाव्यात्मक ग्रंथ ही नहीं है जिसके साथ धार्मिक आस्था सन्नद्ध है; वरन् यह तो मनुष्य जाति के आत्यन्तिक शुभ की सम्यक् परिकल्पना है।
युग-युगांतर के लिए मनुष्य की स्मृति में अत्युत्तम आदर्श का प्रकाशस्तंभ हैं राम। चारित्रिक औदात्य, पूर्ण-चेतना, आलोचनात्मक विवेक एवं दार्शनिक मूल्यानुभूति के पूर्ण-परिपाक हैं श्रीराम।
मानस का सातवाँ काण्ड, उत्तरकाण्ड तुलसी की सर्जनात्मक कल्पना का वैभव भा-स्वर है। यह असाधारण अर्थ-गांभीर्य से युक्त है एवं लोकमंगल विधायिनी चेतना का ऊर्जस्वित् स्वर है।
यह विडम्बना ही है कि कतिपय विद्वान् इसे प्रक्षिप्तांश बता रहे हैं। यद्यपि तर्क के धरातल पर ऐसी निष्पत्ति निर्मूल ही प्रतीत होती है, प्रत्युत तथ्यात्मक और तर्कपरक निकष पर इसे कसने से पूर्व समीचीन होगा कि अभिव्यक्ति के अर्क रूप में श्रीरामचरितमानस एवं उत्तरकाण्ड के संज्ञा-वैशिष्ट्य को देखें!
रामचरितमानस है-राम के चरित को हर मानस में उद्भासित-अवस्थित करने का मानवता के इतिहास का सर्वोत्तम प्रयास! उत्तरकाण्ड है-राम के चरित स्थापन के आलोक में समवर्ती-सह-परवर्ती कालीन अवस्था कि उच्छ्वासित अभिव्यक्ति एवं समष्टिगत चेतना का अनुस्यूत स्वर।
अब बिंदुवार रीति से देखते हैं कि कैसे उत्तरकाण्ड प्रक्षिप्त नहीं है-
1. ध्यातव्य है कि रामचरितमानस 'श्रुति परम्परा' की कृति नहीं है। यह तो निर्विवाद है कि 16वीं सदी इस महान् ग्रंथ का रचनाकाल है। इसमें उत्तरकाण्ड के माध्यम से तुलसीदास ने राजनीतिक-पारिवारिक-सामाजिक-आध्यात्मिक जीवन के उच्च आदर्शों को प्रस्तुत कर विशृंखलित हिन्दू समाज को सूत्रबद्ध करने का महनीय प्रयास किया है। ऐसे में उस समय या उसके बाद की कोई विभूति इस महान् ग्रंथ में इसे जोड़ दे और उसकी कोई चर्चा, कोई नामोल्लेख कहीं न मिले-यह बात गले नहीं उतरती। उस समय के अनेकानेक विद्वानों की चर्चा लिखित में है, ऐसे में यह प्रक्षिप्तकार अनाम कैसे रह गया?
2. कहते हैं कि श्रीरामचरितमानस के एक दोहे या एक चौपाई की बराबरी कर लेना अगर असंभव नहीं तो अतिकठिन अवश्य है। ऐसे में इतनी चौपाई और इतने दोहे किसी और ने अज्ञात रहकर कैसे जोड़ दिया? पूर्वकालीन युग में यह संभव था, जबकि लेखन-परंपरा नहीं थी, लेकिन तुलसीदास के युग तक आते-आते परिस्थितियाँ बदल गई थीं।
3.उत्तरकाण्ड में जो विषय हैं, वे अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं-भरत विरह, राम जी का स्वागत, राज्याभिषेक, रामराज्य का वर्णन, पुत्रोत्पत्ति, श्रीराम जी का प्रजा को उपदेश, शिव-पार्वती संवाद, गरुड जी के सात प्रश्न तथा काक भुशुण्डि जी के उत्तर। ये वे प्रसंग हैं जो कि रामचरितमानस की प्रासंगिकता को सर्वयुगीन बनाते हैं। जिस रामराज्य की हम कल्पना आज भी करते हैं, वह उत्तरकाण्ड में ही है। इसके बिना रामचरितमानस का मन्तव्य ही अधूरा रह जाता है। ऐसे में यह असम्भव प्रतीत होता है कि तुलसीदास जी से यह सब छूट गया जिसे किसी महान् पर अनाम कवि ने चुपके से जोड़ दिया, वह भी उनके लिखने के तुरंत बाद।
4.उत्तरकाण्ड को पढ़ते समय प्रवाह में कोई बाधा नहीं आती, काव्यात्मक औदात्य वही है, संवेदनात्मक अन्वेषण वही है, सब मौलिक है। सबसे बड़ी बात कि अभिव्यक्ति का कोई दुहराव नहीं है।
हर दोहे, हर चौपाई में सरस्वती-तत्त्व है। विचारणीय है कि रचनाकार के बदल जाने से यह युति कदापि नहीं बनती, कोई-न-कोई कमी रह ही जाती। कुछ-न-कुछ फाँक रह ही जाता। मानस के सुधी अध्येता यह जानते और मानते हैं कि उत्तरकाण्ड में भी सबकुछ उतना ही समृद्ध, उतना ही श्रेष्ठ है, पूर्ववर्ती काण्डों से यह इनमें से किसी स्तर पर यह कमतर नहीं है।
5.वस्तुतः उत्तरकाण्ड में आकर तुलसी ने परम्परित युगधर्म को नवीन वैज्ञानिक संदर्भ एवं दर्शन दे दिया है।
कलिवर्णन को देखें, तो यह बात स्फटिक की तरह स्पष्ट होती है। उस समय जो उन्होंने गर्हित सामाजिक मूल्यों का फैलाव देखा, उस पर उन्होंने लिखा और ख़ूब लिखा। वे प्रतिपादित करते हैं कि सभी कालखण्डों में चारों युगों के तत्त्व विद्यमान रहे हैं। किसी भी युग का सत्त्विक पुरुष सतयुग का है और कुत्सित व्यक्ति कलि का-
" सुद्ध तत्त्व समता विग्याना।
कृत प्रभाव प्रसन्न मन माना॥
सत्त्व बहुत रज कछु रति कर्मा।
सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्त्व कछु तमसा।
द्वापर धर्म हरष भय मनसा॥
तामस बहुत रजोगुण थोरा।
कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥"
6.हम यहाँ देखते हैं कि यह कलिवर्णन मिथकीय या ऐतिहासिक कम है, वर्तमान कालिक अधिक है।
कहना चाहिए कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक घटनाओं और युगीन संस्कृतियों की जीवंत कथा है। यह तो तुलसीदास जी का वैचारिक गौरीशंकर है कि उन्होंने कराल कलिकाल के बारे में पहले ही लिख दिया। भूत और वर्तमान तो कोई भी लिख सकता है, जो भविष्य लिख दे, वही महान्।
7.उत्तरकाण्ड में लेखकीय चिंतन का परिपाक किसी भी पूर्ववर्ती काण्ड से कम नहीं है। देखिए जब इसमें मनुष्य जीवन की गरिमा का सम्यक् महत्त्व बताया जाता है-
" बड़े भाग मानुष तन पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न तेहिं परलोक सुधारा॥"
इसी को गरुड-भुशुण्डि संवाद से और अधिक स्पष्ट किया। गरुड जी प्रश्न करते हैं-
" प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा।
सबसे दुर्लभ कौन सरीरा॥"
अब भुशुण्डि जी कहते हैं-
" नर तन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत सेही॥
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।
ज्ञान विराग भगति सुख दैनी॥"
8.आगे लेखकीय दृष्टि देखिए कि इसमें न केवल मानव तन की महिमा का स्थापन हुआ है, अपितु इसके दुःख सुख एवं कारणों का समीचीन मूल्यांकन हुआ है-
" नहिं दरिद्र सम दुःख जग माँही।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥"
अब इसी कड़ी में संत और असंत के लक्षण का निरूपण देखिए-
" संत सहहिं दुःख पर हित लागी।
पर दुख हेतु असंत अभागी॥
भूर्ज तरु सम संत कृपाला।
पर हित नित सह बिपति बिसाला॥
सन इव खल पर बंधन करई।
खल कढ़ाई बिपत्ति सहि मरई॥"
इन चौपाइयों के आलोक में प्रश्न उठता है कि क्या मानस की किसी भी चौपाई से इसका भाव अथवा शिल्प सौष्ठव कमतर है? नहीं, कदापि नहीं!
9.कोई लेखक किसी कृति में युग धर्म का निर्वहन न करे, यह कम ही होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने वस्तुतः इस काण्ड में वर्ण्य-विषय को युगबोध से जोड़ इसे विस्तृति दी है, उदाहरण के लिए इसी काण्ड में कलियुग का हाल देखिए-
" कलिमल ग्रसे ग्रंथ सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दम्भिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥
भये लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ ग्रंथ।
सुन हरिजान ज्ञाननिधि कहौं कछुक कलि धर्म॥"
10.निश्चय ही तुलसीदास का उद्देश्य कलि की कुचालि को दूर करने हेतु श्रीराम के विशद यश का प्रभावोत्पादक वर्णन करना है। इसमें राम कोरे आदर्शवादी नहीं हैं, विलुब्ध व्यवहारवादी भी नहीं हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, उद्धारक रूप में हैं। यह राम उनके पूर्ववर्ती राम से भिन्न है। पूर्व में जिस राम को समन्वय के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण के रूप में वर्णित किया-चौदह वर्षों तक वनवास, दलित-शोषित-वंचित के साथ खड़ा दिखाया, शबरी के जूठे बेर खाता दिखाया, वृद्ध पक्षी जटायु को पिता तुल्य दिखाया, वानरों से प्रेम करते दिखाया,
इस काण्ड में आकर उन्हें प्रजापालक और कुशल प्रशासक के रूप में दिखाया। अगर इसे ही छोड़ देते, तो मानस के लोकग्रन्थ बनने का उद्देश्य ही पूरा नहीं होता।
11.भाव वैविध्य हो या शैली वैविध्य-सब पूरे मानस की भाँति उत्तरकाण्ड में भी विद्यमान् हैं।
शैली-वैविध्य को देखें, तो चरित्र-चित्रण, प्रबंध सौष्ठव, अलंकार-विधान, प्रकृति-वर्णन, दार्शनिकता, लाक्षणिकता, अवधी-ब्रज का प्रयोग, प्रसंगानुकूल संस्कृत का प्रयोग, अभिधा-लक्षणा-व्यंजना का प्रयोग, सब कुछ उसी तरह चला है जैसे पूर्व के काण्डों में। अगर शैली में कुछ भिन्नता है भी तो सुंदरकाण्ड से कम! तो इसे प्रक्षिप्त मानने से पहले सुन्दरकाण्ड को प्रक्षिप्त मानना पड़ेगा।
12.कोई भी रचना पूर्णतः निर्दोष नहीं होती, सर्वोत्तम रूप में भी कुछ-न-कुछ दोष रह ही जाता है।
अगर किसी बिंदु पर उत्तरकाण्ड में कुछ कमी निकाली जा सकती है, तब हर काण्ड में निकाली जा सकती है। इससे बचने के लिए क्या कोई यह तर्क दे देगा कि मानस जो आज है वह तुलसीदास की मूलप्रति है ही नहीं-जो कमी है, किसी और ने प्रक्षिप्त कर दी है।
13. वस्तुतः उत्तरकाण्ड ने श्रीराम के चरित्र को महत्तम ऊँचाई दी है। इसने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के दिव्य उदात्त चरित्र की शाश्वत प्रतिष्ठा करते हुए उन्हें महत्तम मानवीय त्याग, अनुपम प्रजारंजन, प्रबल और प्रखर उद्धारक, भक्त वत्सल, दीन हितकारी के साथ ईश्वरत्व की गरिमा से पूर्ण आराध्य रूप में प्रतिस्थापित किया। यही इसे चरित काव्य की दृष्टि से अत्युत्तम बनाता है तो यह प्रक्षिप्त कैसे हो सकता है? यह तो तुलसी के महनीय योगदान को कम कर आँकना होगा।
14.साहित्य मूल्यानूभूति की प्रक्रिया है और आलोचनात्मक विवेक इसकी व्यंजना को क्षिप्रता देता है। इस निकष पर युगीन मूल्यों की विस्तृत पड़ताल उत्तरकाण्ड में है जो इसे महान् बनाता है। राजा कैसा हो, संत कैसे हों यह सब यहीं मिलता है। 'पंडित सोई जो गाल बाजवा' जैसे चुटीले उध्दरण हों, ज्ञान का संधान हो, या फिर सूक्तिपरकता कि छटा और उद्धरणीयता कि मोहक शैली-उत्तरकाण्ड में सब वैसा ही है जैसे अन्य काण्डों में।
15. आर्ष परंपरा में महानायकीय अथवा दैवीय चारित्र्य हेतु 14 गुण बताए गए हैं-सत्य, धर्म, प्रतिभा, कृतज्ञता, उदारता, चारित्र्य, अनसूया, सात्त्विक क्रोध, आत्मसम्मान, सर्वभूतहित, नीति अनुसरण, अक्रोध एवं वाग्मिता।
अगर इस निकष पर भी देखें तो किसी भी अन्य काण्ड की तुलना में उत्तरकाण्ड में नरश्रेष्ठ श्रीराम के सर्वाधिक गुणों का प्राकट्य हुआ है। ऐसे में इसे प्रक्षिप्त कहना सर्वथा अनुचित है।
उपर्युक्त बिंदुओं के आलोक में यह उद्भाषित होता है कि उत्तरकाण्ड श्रीरामचरितमानस का नवनीत है, इसकी मुकुट-मणि है। इसे प्रक्षिप्त कह देना कोई विवेकपूर्ण साहस नहीं, प्रत्युत इसकी गहराई से अपिरिचित हुए बिना विशुद्ध अटकलबाजी करना है।