क्या कंगना रनोट संसद जाएंगी? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :30 अगस्त 2017
एनडीटीवी पर 'क्वीन' कंगना ने रवीश कुमार के प्रश्नों के उत्तर दिए। प्राय: रवीश कुमार महाभारत में वर्णित यक्ष की तरह प्रश्न पूछते हैं और कभी-कभी वे पोस्टमार्टम कर रहे सर्जन की तरह भी हो जाते हैं। उन्होंने कई खुर्राट नेताओं को अपने प्रश्नों से परेशान किया है। कॅरिअर में पहली बार वे फिल्म सितारे से प्रश्न पूछ रहे थे। कंगना ने तो सरेआम बिना सहूलियत के क्लोरोफार्म के अपने पोस्टमार्टम की इजाजत दी। जितना पूछा गया, उससे अधिक खुलासे उन्होंने किए। उन्होंने मंद-मंद मुस्कुराते हुए अपनी जुल्फों से अधिक आंके-बांके उत्तर दिए। उसकी जुल्फें ही नहीं, उसके व्यक्तित्व में भी घना घुंघरालापन है। इस कार्यक्रम में फिल्मकार हंसल मेहता भी शामिल थे परंतु प्रश्नोत्तर के अग्नि बरसाने वाले माहौल में वे सहमे-सिमटे से रहे। अगर महाभारत के रूपक को ही आगे बढ़ाएं तो वे दासी मर्यादा के पुत्र विदुर की तरह थे। केवल दासी की कोख से जन्म लेने के कारण उन्हें सिंहासन पर नहीं बैठाया गया यद्यपि ऐसा होता तो कुरुक्षेत्र का युद्ध टाला जा सकता था।
बहरहाल, क्वीन कंगना रनोट ने बताया कि जब वे छोटी थीं तो उनके दादा ने उन्हें थप्पड़ मारा और उन्होंने जवाबी हमला बोल दिया। यह घटना भारत में जिस अतार्किक ढंग से बच्चों का लालन-पालन होता है, उस पर प्रकाश डालती है कि प्रश्न मत करो, अपनी बुद्धि का प्रयोग मत करो और बुजुर्ग की हर मनमानी को आज्ञा मानकर उसका पालन करो। यह विज्ञान द्वारा सिद्ध किया जा चुका है कि न्यूनतम संख्या में लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हैं और इस अपार शक्तिशाली ऊर्जा का उपयोग ही नहीं हो पाता। कभी संस्कार के नाम पर सत्य को दबाया जाता है, कभी तहजीब के नाम पर तर्कशक्ति को मात्र तथाकथित सभ्यता के भद्र कालीन के नीचे ही नहीं वरन् दो गज जमीं के नीचे दफ़्न कर दिया जाता है। सत्य एवं सौंदर्य को कभी घूंघट के पीछे छुपाया जाता है, कभी बुर्के से ढंक दिया जाता है। कहते हैं कि केवल वैज्ञानिक आइंस्टीन ने अपनी बुद्धि के चौदह प्रतिशत का इस्तेमाल किया था। अधिकतम लोग तो न्यूनतम ही इस्तेमाल कर पाते हैं। सूर्यग्रहण कभी-कभी लगता है परंतु हमने जीवन की संरचना कुछ ऐसे की है कि बुद्धि और तर्क पर सदैव ही सूर्यग्रहण लगा रहता है और हम पूरा जीवन खग्रास अवस्था में गुजार देते हैं।
कंगना रनोट हर किस्म के घूंघट, बुर्का और परदेदारी के खिलाफ हैं। वे मनुष्य के स्वाभाविक अधिकारों के पक्ष में खड़ी रहती हैं। वे जानती हैं कि रिश्तों में दादागिरी समाज में फैली दादागिरी की तरह भयावह है। उम्र में बड़े व्यक्ति को अपने आचरण से छोटों के लिए पथ प्रशस्त करना चाहिए, न कि उम्र को राजदंड की तरह प्रयोग करना चाहिए। हमने जीवन को अजायबघर बना दिया है जबकि कंगना रनोट उसको प्रयोगशाला मानती हैं। उन्होंने अपने जीवन में प्रयोग किए हैं और वे अपने सत्य स्वयं खोजती हैं। कंगना रनोट ने कहा कि भारत में अंग्रेजी बोलना व्यक्ति को विशिष्ट बनाता है। आज भी प्रतिभा की लहरें अंग्रेजी के पथरीले किनारों पर सिर फोड़कर लहूलुहान होती रहती है। हंसल मेहता और कंगना रनोट की नायिका केंद्रित फिल्म का नाम 'सिमरन' रखा गया है और सिमरन आदित्य चोपड़ा की 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' फिल्म की नायिका का नाम भी था जो अब मुंबइया सिनेमा का किलेरो बन चुका है, फॉर्मूला हो चुका है। हाल यह है कि पात्र का नाम न सूझे तो उसे सिमरन कहकर पुकार लो। एक लंगड़ी-लूली सफाई यह दी गई है कि आदित्य चोपड़ा की सिमरन गुजश्ता सदी के अंतिम दशक की जागरूक महिला थी और 2017 की सिमरन उसका नवीनतम एवं अत्यंत प्रखर स्वरूप है। दरअसल, आनंद एल. राय इजाजत नहीं देते वरना 'तनु' सिमरन के मुकाबले कहीं अधिक साहसी टाइटल है। सिमरन तो शिफॉन में लिपटी प्यारी-सी निष्प्राण गुड़िया है, परंतु सिमरन तो परम्परा की तनी हुई प्रत्यंचा से निकले तीर की तरह है या होनी चाहिए। गुलशन नंदाई लिज़लिज़ी चाशनी में पंख फंस जाए, ऐसी तितली कंगना रनोट नहीं है। वह तो ऐसा फूल है, जिससे भौंरा भी खौफ खाता है।
रवीश कुमार के कार्यक्रम में कंगना रनोट कुछ ऐसी नज़र आईं कि उनका संसद में होना आवश्यक लगता है। विरोध पक्ष में कंगना रनोट बैठे तो हुक्मरान के घुटने कांपने लगेंगे। नरगिस पहली नामजद सदस्या थीं परंतु कंगना रनोटको नामजद करें तो लगेगा संसद में नरगिस नहीं वरन् उनकी मां जद्दनबाई संसद में आ विराजी हैं। जद्दनबाई अत्यंत साहसी और दो टूक बात करने वाली बेबाक कद्दावर महिला थीं। जद्दनबाई गजल के अंदाज में गालियां अदा करती थीं।