क्या कपड़े मनुष्य को पहनेंगे? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या कपड़े मनुष्य को पहनेंगे?
प्रकाशन तिथि : 24 दिसम्बर 2019


फिल्म निर्माण कंपनी में वेशभूषा विभाग होता है। स्टूडियो में एक मिस्त्री और कपड़े सीने वाला भी होता है। लोकप्रिय सितारों के अपने डिजाइनर होते हैं। इस क्षेत्र में निर्माता को काफी नुकसान होता है। डिजाइनर चार रुपए का माल 40 में टिकाता है। कुछ फिल्मकार सितारों को खुश करने के लिए डिजाइनर अंडरवियर भी खरीद लाते हैं। चरित्र भूमिकाएं अभिनीत करने वाले कलाकारों की वेशभूषा का चुनाव निर्माता द्वारा चुना गया विभाग करता है। भीड़ के दृश्य के लिए भी विभाग ही वेशभूषा बनाता है। इसका एक पक्ष यह भी है कि किसी दौर में चरित्र कलाकारों और भीड़ के वस्त्र एक 'मदन ड्रेसवाला' बनाया करता था। इतिहास प्रेरित फिल्म में जूनियर कलाकार और भीड़ के लिए भी उस कालखंड में लोकप्रिय वस्त्र बनाने होते थे।

चरित्र भूमिकाएं करने वाले कलाकारों के मामले में एक दिलचस्प घटना यह है कि सलीम खान को 1500 रुपए देने का प्रस्ताव दिया गया। वे ढाई हजार की मांग पर अड़े रहे और वह मांग केवल इसलिए स्वीकार की गई कि निर्माता की विगत फिल्म में उनके लिए एक सूट बनाया गया था। किसी अन्य कलाकार को लेने पर उसके नाप का नया सूट बनवाना महंगा पड़ सकता था। ज्ञातव्य है कि जावेद के साथ पटकथा लेखन के काम से पहले सलीम खान ने अभिनय क्षेत्र में प्रवेश के प्रयास किए थे। शम्मी कपूर अभिनीत इस फिल्म में वे ड्रम बजाते नजर आए थे। फिल्म में दावत के दृश्य के लिए उन जूनियर कलाकारों को ही चुना जाता है, जिनके पास अपना सूट होता है। पुरानी फिल्मों में 24 इंच की मोहरी देखकर दर्शक को अजीब सा लगता था। कुछ फिल्मकारों ने बीच का रास्ता अपनाकर पात्रों की पोशाक को अतिरेक से बचाए रखा। 'आवारा' का खलनायक के.एन.सिंह अपनी लुंगी पर चमड़े का बेल्ट बांधता है और सीना खुला रखता है। अमरीश पुरी ने अपनी फिल्मों में कमीज नहीं पहनी। आज सलमान खान अभिनीत फिल्मों में उसके कमीज उतारने का कम से कम एक दृश्य अवश्य होता है।

संजीव कुमार अभिनीत 'लेडीज टेलर' मनोरंजक फिल्म साबित हुई थी। हमारी कुछ फिल्मों में पात्र ओवरकोट पहनते हैं। भारत जैसे देश में शीत ऋतु में भी कभी-कभी ही इतनी ठंड पड़ती है कि व्यक्ति ओवरकोट पहने। विदेशी फिल्मों से प्रेरित भारतीय फिल्मकार कपड़ों के मामले में भी नकल करते हैं।

शिक्षा संस्थाओं में यूनिफॉर्म रखने का व्यापारिक पहलू यह है कि जिस दुकान से यूनिफॉर्म खरीदा जाता है, उस दुकान से स्कूल संचालक को कमीशन मिलता है। अधिकांश शिक्षा संस्थाएं लाभ के व्यापारिक मंत्र से संचालित की जाती हैं। शादी के मौसम में बाजार जगमग करने लगते हैं। दूल्हा-दुल्हन सात फेरों को लेने के लिए भारी-भरकम महंगे कपड़े बनवाते हैं। जिन्हें वे अपने जीवन में दोबारा नहीं पहनते। यहां तक कि दूल्हा अपने दूसरे विवाह के समय भी नई पोशाक बनवाता है। शादी के अवसर पर पूरा परिवार ही नए कपड़े बनवाता है, परंतु वे चमक-दमक वाले कपड़े बाद में काम नहीं आते। कभी-कभी फैशन के कारण किफायत के मूल्य जीवन में प्रवेश कर जाते हैं। मसलन जींस को महीने-दो महीने में एक बार ही धुलना पड़ता है। जाने कैसे घुटने के पास जींस का फटा होना फैशन में शुमार हुआ कि नई जींस से घुटने के पास एक हिस्सा काटा जाने लगा। फिल्म 'श्री 420' में लॉण्ड्री में काम करने वाला युवा हैंगर पर टंगे सूट के पीछे खड़ा है और नायिका को लगता है कि वह सूट पहने है। अगले ही क्षण नायक अपने फटे-पुराने कपड़ों में नायिका के सामने आता है। उस दृश्य का एक संवाद है कि मनुष्य कपड़े पहनता है, कपड़े आदमी को धारण नहीं करते।

बहरहाल नागरिकता के रजिस्टर का विरोध हो रहा है। व्यवस्था का अगला चरण देश में ड्रेस कोड लागू करना है। सभी लोग एक से कपड़े पहनेंगे। हर जगह आधार कार्ड दिखाकर अपनी पहचान बतानी होगी। ड्रेस कोड लागू होने पर पहले से ही कमजोर पड़ा कपड़ा उद्योग कोमा में चला जाएगा। व्यवस्था के हाथ चुनाव जीतने का कीमिया लग गया है और वे जानते हैं कि आर्थिक व्यवस्था के भंग हो जाने से भी उनका वोट बैंक नहीं टूटेगा।