क्या करें क्या न करें / मनोहर चमोली 'मनु'
‘वैसे दुनिया में क्या नहीं मिलता, हां। मगर आसरा नहीं मिलता।’ जो चाहो वो कभी नहीं मिलता। वैसे भी जो चाहा ही नहीं होता वो मिल जाता है। कहा भी गया है कि ‘गँजे को नाखून नहीं मिलते।’ सुनते हैं कि ‘जहां नाक है वहां सोना नहीं है।’
वैसे अपने यहां तो कुछ भी कर लो। आदमी की हवस पूरी होती नहीं है। हवस भी यहां कई प्रकार की हैं। भूख की, टका जमा करने की, जमीन-जायदाद इकट्ठा करने की। काम-वासना की भूख ने तो कई सल्तनतें लुटा दीं।
आजकल हवस के प्रकार बड़ी तेजी से बदले हैं। सूचना तकनीक का युग है। एक रिक्शावाला क्या, सब्जीवाला क्या, बेरोजगार क्या और आठवीं में पढ़ने वाले बच्चे क्या। सबकी जेबों में एक नहीं दो-दो मोबाइल रखे हुए हैं। ये ओर बात है कि चाहे दोनों में कॉल करने के लिए अठन्नी के बराबर का बेलेन्स न बचा हो। वैसे भी इस मँहगाई के जमाने में कोई कितना भी कमा ले, उसका पूरा हो ही नहीं सकता। पूरा न होने की हवस भी तो बढ़ती जा रही है। ये दुनिया तो दिखावे पे मरती जा रही है। ‘घर में नहीं है दाने, अम्मा चली भुनाने’ की कहावत चरितार्थ हो रही है। घर में दो वक्त का चूल्हा नहीं जलता मगर सबके घर के सामने गाड़िया खड़ी हैं। ये ओर बात है कि गाड़ी की किश्त के लिए भी यार-दोस्त के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं।
बात यही खत्म हो जाती तो अच्छा था, मगर ‘बात है कि निकलती है तो दूर तक जाती है।’ यहां तो अजीव ही लीला है। मेरा एक पड़ोसी है। आज ही की बात है। सिर मुंडा हुआ था। मैंने पूछा तो पता चला कि उनके पिताजी का स्वर्गवास हो गया है। तेरहवें दिन उन्होंने भोज कराया। बारह प्रकार की सब्जियां बनी थी। पूछा तो पता चला कि उनके पिताजी को ये बारह प्रकार की सब्जियां पसंद थी। ये ओर बात है कि शायद उन्हें अपने पूरे जीवनकाल में वे बारह सब्जियां एक से अधिक बार चखने को क्या ही मिली होंगी। खैर उनके पीछे ग्यारह ब्राह्मणों को एक दिन चटखदार भोज तो मिला। पिफर इन महाशय ने श्रम में तो पूरा क्षेत्र ही बुला दिया। सबने कूच कर गई आत्मा को मन ही मन ध्न्यवाद दिया। ये पड़ोसी हर साल वार्षिक श्रम करने लगे हैं। इस तरह हजारों परिवार में साल में सालाना श्रम दिवसों में सैकड़ों को एक दिन तो अच्छा खाना खाने को मिल ही जाता है।
विडंबना देखिए न। जो परिवार आजीवन अपने बूढ़ों को हर रोज दाने-दाने के लिए तरसातें हों, वे उनके परलोक सिधारने पर कितने आडंबर रचते हैं। ये ओर बात है कि वे ऐसा करके अपना परलोक सिधारने की आस्था के चलते ऐसा करते होंगे।
अब इसका दूसरा पक्ष भी है। जो बड़ा ही भयावह है। ऐसे श्रवण कुमारों की कमी नहीं है, जो अपने बूढ़ों की आजीवन सेवा करते हैं। उनकी अपनी जान से ज्यादा संभाल करते हैं। लेकिन जिस परिवार ने कभी जिंदगी भर नया कपड़ा नहीं खरीदा हो, वो अपने बूढ़ों की शव यात्रा के लिए नई चादर खरीदते हैं। यही नहीं उनके घरों में शायद ही कभी दीवाली में दिये जगे हों, लेकिन कर्मकाण्डों के लिए वे घी के दिए जलाते हैं। घर का अजीज तो गया, लेकिन साथ में ऐसी पीड़ा दे गया जो सालों तक सालती होगी। आदमी मन से चाहे कितना ही अमीर हो, भावनाएं कितनी ही सच्ची और अच्छी हों। लेकिन भावनाओं और मन के उल्लास से इस समाज का मन नहीं भरता। इस समाज को तो दावतें चाहिए। चाहे वे किसी के मरने की हो या किसी बीमार के इलाज में तीमारदारी करते समय जुटी भीड़ का पेट भरने की हो।
याद कीजिए, आपने भी कभी न कभी बहती गंगा में हाथ जरूर धोया होगा। आप भी किसी की शवयात्रा में जरूर गए होंगे। लाश ढंग से जली भी नहीं होती, और उधर आलू-पूरी न्यौती जाती है। शवयात्रा में गए सौ-पचास लोगों में शायद ही इक्का-दुक्का कोई होता होगा, जो न खाता होगा। हम इतने बेशरम हो जाते हैं कि जिसका मरा हुआ है उसका खर्चा कराने में हमें तनिक भी लाज नहीं आती। शायद ही कोई होता है जो मरने वाले के घर-परिवार की तत्काल मदद करता होगा।
मदद तो आजकल कोई किसी की कर ही नहीं रहा है। मदद करने की परिभाषा भी बदल गई है। आजकल तो दूसरे को कैसे और कितना नुकसान पंहुचाना है। इस मामले में मदद करने को लोग तैयार हो जाएंगे। किसी की फसल या घर पर आग लगानी हो, इसके लिए लोग तैयार हो जाते हैं। तोड़-पफोड़ और मार-पीट करने में मदद करने वाले हजारों मिल जाते हैं।
कोई कुछ भी कहे। लेकिन अब आदमी और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रह गया है। भूख, भय, नींद और काम पशु और मानव दोनों में होती है। लेकिन मानव मानवीय संवेदनाओं का पक्षधर होता है।
मानव आत्मसम्मान, रिश्तेदारी और भावनात्मक पहलूओं को महसूस करता है। यही कारण है कि उसे पशुओं से अलग माना जाता रहा है। लेकिन आज तेजी से बदल रहे समाज के चलते ये अन्तर भी सिमट गया है। एक कहावत चल पड़ी है कि साँप का काटा तो बच सकता है लेकिन आदमी का काटा हुआ नहीं बच सकता। ये कहावत यूं ही नहीं बनी। इसके पीछे बेहद ठोस तर्क हैं। जरा सोचिए तो।