क्या तलाश है कुछ पता नहीं / जयप्रकाश चौकसे

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क्या तलाश है कुछ पता नहीं
प्रकाशन तिथि : 19 अप्रैल 2019


बिमल रॉय की किशोर अभिनीत फिल्म 'नौकरी' में कस्बाई युवक नियुक्ति पत्र के लिए महानगर आता है और उसकी जेब कट जाती है। अब उसके पास न तो कंपनी का पूरा पता है और न ही नियुक्ति पत्र है। वह दिनभर तलाश में भटकता है और शाम को अपने ढाबे में आता है, जहां 4 बेरोजगार एक ही कमरे में रहते हैं। ढाबे का सहृदय नौकर नायक के तकिए के नीचे पैसे रख देता है और ऐसा दिखावा करता है कि नायक ही अपने पैसे वहीं रखकर भूल गया है। दोनों सच जानते हैं। बेरोजगारी के साथ लड़ते हुए पात्र अपनी संवेदनाओं का दामन थामे रखते हैं। कभी-कभी पकड़ ढीली होने लगती है तो अपने लालन-पालन की स्मृति उनका सम्बल बन जाती है।

राज कपूर की 'श्री 420' में इलाहाबाद से मुंबई आए हुए नायक के पास शिक्षा के प्रमाण पत्र के साथ ही उसे मिला ईमानदारी का स्वर्ण मेडल भी है। वह एक भिखारी को अपने प्रमाण पत्र और मेडल दिखाते हुए पूछता है कि क्या उस जैसे योग्य युवा को नौकरी मिलेगी। भिखारी कहता है कि उसके पढ़े लिखे, ईमानदार और मेहनती होने के कारण ही उसे नौकरी नहीं मिलेगी क्योंकि धोखाधड़ी के जरिए ही नौकरी मिलती है। गुरुदत्त की 'प्यासा' का शायर भी बेरोजगार है और उसी काल खंड में प्रदर्शित 'जागते रहो' का बेरोजगार युवा किसी और अर्थ में प्यासा है। गुरुदत्त की फिल्म 'मिस्टर एंड मिसेज 55' का कार्टून बनाने वाला नायक बेरोजगार है और एक धनाढ्य औरत उससे पूछती है कि वह हमेशा गुस्साया रहता है तो क्या वह कम्युनिस्ट है? नायक कहता है वह कार्टूनिस्ट है। महिला कहती है कि एक ही बात है कोई फर्क नहीं है।

यह एक लोकप्रिय धारणा है कि भारत में कम्युनिस्ट दर सक्रिय नहीं हैं और उसे मृत ही समझा जाना चाहिए। कुछ समय पूर्व महाराष्ट्र के किसान मुंबई की ओर जुलूस ले जा रहे थे। सायं काल वे मुंबई की सरहद पर पहुंचे। उन्हें ज्ञात हुआ कि अगले दिन स्कूलों में वार्षिक परीक्षा होने वाली है। उनके जुलूस से ट्रैफिक जाम लग सकता था। इसलिए दिनभर पैदल चले थके हारे किसानों ने रात में भी अपनी यात्रा जारी रखी और अलसभोर में वे आजाद मैदान पहुंच गए। ज्ञातव्य है कि किसानों की यह यात्रा भी कम्युनिस्ट दल ने ही आयोजित की थी। इसी तरह केरल बाढ़ के कारण लगभग टूट ही गया था। वहां भी कम्युनिस्ट दल और अवाम ने मिलकर कुछ ही महीनों में केरल को पहले से बेहतर बना दिया। मजबूत विचारधाराएं मरती नहीं, वे सुसुप्त ज्वालामुखी की तरह होती है।

फ्योदोर दोस्तोवस्की की 'क्राइम एंड पनिशमेंट' से इंस्पायर रमेश सहगल की फिल्म 'फिर सुबह होगी' का नायक कानून की पढ़ाई अधूरी छोड़ देता है और बेरोजगार है। साहिर लुधियानवी का गीत है- 'जेबें हैं अपनी खाली क्यों देता है वरना गाली, ये पासबां हमारा, यह संतरी हमारा, जितनी भी इमारतें थीं सेठों ने बांट ली हैं, फुटपाथ है आशियां हमारा, वह सुबह कभी तो आएगी, वह सुबह हमीं से आएगी...

प्रेमजी विश्वविद्यालय के रिसर्च विंग ने जाहिर किया है कि नोटबंदी के कारण 50 लाख लोग बेरोजगार हो गए और जीएसटी की धुंध ने बेरोजगारी की समस्या को और विकराल बना दिया है। कहां तो तय था कि हर घर में चिराग होगा, कहां रोशनी मयस्सर नहीं सारे शहर के लिए, वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए'।

दुष्यंत कुमार, निदा फाजली और विष्णु खरे को भुला पाना आसान नहीं है। युवा लोगों की बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, अस्पतालों की कमी और बीमारों की बढ़ती हुई संख्या यह सभी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

व्यवस्था का ठप हो जाना केवल एक कारण हो सकता है परंतु यह पूरा सच नहीं है। वैचारिक संकीर्णता व असहिष्णुता भी कारण हो सकते हैं। असली कारण यह भी हो सकता है कि दूषित प्रचार तंत्र के कारण पढ़े-लिखे लोग भ्रमित कर दिए गए हैं। वे जानते नहीं हैं कि वे क्या कर रहे हैं? दरअसल असल उद्देश्य अराजकता स्थापित करना है, जिसके लिए विचार करने की प्रक्रिया को ठप करना आवश्यक है। हमारा गणतंत्र अपना सामंतवादी मुखौटा ही बमुश्किल उतार पा रहा था कि अब उसे अराजकता को भी धारण करना होगा। अवाम को विचारहीन बनाने की साजिश है परंतु वे जानते नही हैं कि हम सब सोते हैं तब भी विचार प्रक्रिया जागी हुई होती है।

सपने देखने का अधिकार कोई व्यवस्था छीन नहीं सकती। असहिष्णुता एक नाइटमेयर है और ऐसी कोई रात नहीं जिसकी सुबह न हो। बेरोजगारी, किसान आत्महत्या, छात्र असंतोष सारी समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं परंतु अराजकता लाने की नियत होने पर कुछ नहीं हो सकता। बहरहाल वह सुबह कभी तो आएगी, वह सुबह हमीं से आएगी।