क्या थोड़ा-सा दूध मिल जाएगा? / कंसतन्तीन पउस्तोवस्की / अनिल जनविजय

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जंगलों से बीच से गुज़रने वाली सड़कों पर बने चौराहों पर बलूत की टहनियाँ जोड़कर बनाई गई कुछ झोपड़ियों के पास कुछ झण्डियों के साथ कई लड़कियाँ खड़ी थीं, जो वहाँ से गुज़रने वाले सैन्य-वाहनों को रास्ता दिखा रही थीं और हमारे लायसेंस व दूसरे दस्तावेज़ों की जाँच कर रही थीं।

ट्रैफ़िक पुलिस का काम कर रही उन लड़कियों से हमारी मुलाक़ात जंगल में बने मैदान में उस जगह पर हुई थी, जहाँ बड़ी तेज़ गति से बहने वाली एक नदी के ऊपर नदी पार करने के लिए पुलनुमा एक राहदारी बनी हुई थी। ये लड़कियाँ यहाँ हर मौसम में काम करती थीं, चाहे बारिश हो रही हो या तेज़ हवा चल रही हो। चाहे सिर पर तेज़ सूरज तप रहा हो या धूलभरी आँधी चल रही हो। चाहे उत्तरी इलाकों जैसी काली रात का घुप्प अन्धेरा छाया हुआ हो या भोर की ठिठुरन में शरीर कँपकँपा रहा हो। ख़राब मौसम और तेज़ हवा की मौसम से बदहाल हुए अपने चेहरों के साथ वे हमेशा अपनी ड्यूटी पर तैनात रहती थीं। रंग उड़ी उनकी टोपियों से उनकी कठोर आँखें झाँकती रहती थीं। एक रात घने जंगल में ऐसी ही एक लड़की ने हमारी गाड़ी रोकी और हमसे पूछा :

— क्या आपके पास थोड़ा सा दूध नहीं होगा ?

— अरे, हम तो मोर्चे से वापिस आ रहे हैं। किसी दूधवाले के पास से वापिस नहीं लौट रहे हैं, — हमारी गाड़ी के ड्राईवर ने बेरूखी से जवाब दिया।

— हमें अपनी गाय को दुहने का समय ही नहीं मिला, — रायफ़ल पकड़े हुए एक जवान ने थोड़ा मज़ाकिया लहज़े में कहा — बात ये भी है कि हमारी हर टुकडी को दूध देने वाली गायें नहीं मिलती हैं।

— अरे मज़ाक क्यों कर रहे हैं, — लड़की ने थोड़ा नाराज़गी से कहा — आप कितने सयाने हैं, यह जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। तो, आप लोगों के पास दूध नहीं है ?

— भई, क्या बात है ? — मेजर ने बाहर आते हुए कहा। मेजर के पीछे-पीछे वो जवान भी गाड़ी से नीचे उतर आया था।

ट्रैफ़िक पुलिस का काम कर रही उस लड़की ने बताया कि पूरी लड़ाई के दौरान इस बार वो पहली बार इतनी बुरी तरह से डरी है। तोपों ने रात में ही आग उगलना शुरू कर दिया था। जंगल में तोपों की आवाज़ भयानक लगती है। जब शान्ति होती है तो युद्ध का पता नहीं लगता। जंगल में पड़ी कोई टहनी भी अगर किसी सैनिक के जूते के नीचे आ जाती है, तो उसकी खरखराहट सुनाई देने लगती है। अपनी सैन्य-टुकड़ियों से बिछड़कर पीछे रह गया कोई जर्मन सैनिक आपको अजूबा नहीं लगेगा। लेकिन जब रात को तोपें गरज़ती हैं, तो न सिर्फ़ कान के परदे फटने लगते हैं, बल्कि अन्धेरे में जैसे आँखें भी अन्धी हो जाती हैं।

वह लड़की रात के अन्धेरे में चौराहे पर खड़ी अपनी ड्य़ूटी कर रही थी। अचानक किसी ने पीछे से उसके पैरों को जकड़ लिया था। लड़की चीख़कर एक और हट गई और उसके हाथ अपनी बन्दूक पर जा पहुँचे थे। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। वह इतनी ज़ोर से धड़क रहा था कि उसे अपने पैरों के पास से फूटती रोने की आवाज़ भी सुनाई न दी। फिर रुलाई की आवाज़ सुनकर उसने अपनी टॉर्च जलाई और रोशनी में उस ओर देखा।

— मैंने देखा कि फटी हुई फ़्रॉक मे एक छोटी-सी लड़की मेरे पास खड़ी है। लड़की बहुत छोटी है और वह बड़ी मुश्किल से मेरे घुटनों तक पहुँच रही है। उसे देखकर जैसे मेरी ज़ुबान ही सूख गई । कुछ बोलते नहीं बन रहा था। लड़की ने फिर से मेरे दोनों पैरों को जकड़ लिया और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए अपना सर मेरे दोनों घुटनों के बीच धँसाने लगी।। मेरी आँखों से भी आँसू बहने लगे। मैं उसके ऊपर झुकी और मैंने सुना कि वो बार-बार एक ही शब्द दोहरा रही है — माँ,,, माँ ...। वो लगातार इस तरह से इस शब्द को फुसफुसा रही थी, जैसे मैं ही उसकी असली माँ हूँ। मैं उसे झोंपड़ी में ले गई और उसे अपने कोट में लपेट दिया। अब वो सो रही है। उसी के लिए दूध चाहिए। जब सोकर उठेगी तो उसे दूध देना होगा।

— हाँ, यह भी मुसीबत ही है, — मेजर ने कहा, — कितनी बड़ी है ?

— यही कोई तीन साल की होगी। अच्छा-भला बोल लेती है। उसे जो कुछ भी मालूम था, उसने मुझे बता दिया है। जंगल के उस पार किसी झोंपड़ी में रहती थी। उसकी बस्ती में आग लग गई, जिसमें उसकी झोंपड़ी भी जल गई। जर्मन सैनिकों ने शायद उसकी माँ को मार दिया है। बता रही है कि उसकी माँ सो रही है और वो उसे जगाती रही, लेकिन माँ जागी ही नहीं।

— सचमुच, बड़ी परेशानी वाली बात है, — मेज़र ने फिर से अपनी चिन्ता व्यक्त की।

— मेरे पास कण्डेंस्ड मिल्क (गाढ़े दूध) का एक टिन है, — ड्राईवर बड़बड़ाया और अपने पैरों के पास पड़े थैले में वह उसे ढूँढ़ने लगा।

— दूध तो ठीक है, तुम उसे पिला दोगी, लेकिन बेहतर हो कि उसे किसी ठिकाने पर पहुँचा दिया जाए।

— मुझे उस पर बहुत तरस आ रहा है, — ट्रैफ़िक पुलिस वाली लड़की ने कहा।

— अरे, तुम क्या उसे अपने साथ रखने की बात सोच रही हो?,— तुम्हें ऐसा करने की इजाज़त कौन देगा? बच्ची की देखभाल करने की ज़रूरत पड़ेगी। उसे तो किसी बालवाड़ी या आश्रम मे भेजना ही ठीक रहेगा।

— हाँ, यह बात मैं भी समझती हूँ, — लड़की ने कहा, — लेकिन मैं उसे आप लोगों को नहीं सौंपना चाहती।

— अरे, छोड़ो भी, क्या बात कर रही हो ! — हम उसे ले जाएँगे तो किसी ढंग की जगह पर ही छोड़ेंगे।

यह सुनकर ट्रैफ़िक पुलिसवाली लड़की उस बच्ची को लाने के लिए अपनी झोंपड़ी की तरफ़ भागी।

— कैसी-कैसी घटनाएँ घटती हैं ! — जवान ने कहा, — मैं लड़ते-लड़ते स्तालिनग्राद से ब्र्यांस्क तक आ पहुँचा हूँ, लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था।

— जर्मनों ने मुझे ख़ुद से यानी नाज़ियों से नफ़रत करना सिखा दिया है, — ड्राईवर फिर से बड़बड़ाया।

— और मुझे भी ये सिखा दिया — जवान ने कहा, — अब तक मैं पचहत्तर जर्मनों को जहन्नुम में भेज चुका हूँ।

— तुम निशानेबाज़ हो क्या ? — ड्राईवर ने पूछा।

— हाँ, हम यारांस्क के रहनेवाले सभी पक्के निशानेबाज़ हैं।

ट्रैफ़िक पुलिसवाली लड़की बच्ची को लेकर लौट आई थी। बच्ची गहरी नींद में थी।

— आप में से इसे कौन सम्भालेगा ? — ट्रैफ़िक पुलिसवाली ने पूछा।

— मैं पकड़ूँगा, — रायफ़ल वाले जवान ने कहा, — सारे रास्ते ये मेरे पास ही रहेगी।

— देखो, गिरा नहीं देना, — ड्राईवर ने चेतावनी दी, — बड़ी नाज़ुक है, छोकरी।

— अरे, गिरा कैसे दूँगा? — जवान ने अकड़ते हुए कहा — मुझसे गिर सकती है, भला। तुम्हें बताया न कि मैं निशानेबाज़ हूँ। मेरे हाथ बहुत मजबूत हैं। ये तुम्हारा स्टीयरिंग व्हील नहीं है। फिर, गाँव में मेरे भी एक बेटी है, इससे कुछ ही बड़ी होगी। मैं उसे ख़ुद झुलाता-उठाता था।

जवान संकोच से मुस्कुरा रहा था।

— तो ठीक है, पकड़ो इसे, — ड्राईवर ने शान्ति से कहा — वैसे भी मैं गाड़ी बहुत ध्यान से चलाऊँगा। मैं गाड़ी ऐसे चलाऊँगा कि तुम बच्ची को गिरा ही नहीं पाओगे।

जवान बच्ची को उठाकर बड़ी सावधानी से गाड़ी में चढ़ गया। जंगल में पेड़ों की फुनगियों के ऊपर नीला आकाश झलकने लगा था। सुबह की सफ़ेदी अपने पैर फैला रही थी।

— चलो, आगे बढ़ाओ, — मेजर ने कहा।

ट्रैफ़िक पुलिसवाली लड़की ने कुछ लाल होते हुए और अपनी कमीज़ नीची खींचते हुए अपनी मुट्ठियों के बीच से एक मुड़ा-तुड़ा कागज़ बाहर निकाला :

— मेज़र साहब, अगर आप इजाज़त दें तो मैं कहना चाहती हूँ कि मैंने इस काग़ज़ पर अपना पता लिख दिया है। मैं यह जानना चाहूँगी कि आपने इस बच्ची को कहाँ छोड़ा है। आप लिख देंगे तो मेहरबानी होगी।

— अच्छा, लाइए, दीजिए, — मेजर ने कहा — यानी आप इस बच्ची से आगे भी जुड़े रहना चाहती हैं।

— जी, मेजर साहब। आप ठीक कह रहे हैं।

गाड़ी आगे बढ़ गई। पेड़ों के पीछे छूटते ही एक मैदान आया, जिसमें घास ख़ूब ऊपर तक उठ आई थी। सूरज उगना शुरू हो चुका था। सफ़ेद और विशाल सूरज सुबह की नीली धुन्ध में सिर उठाकर झाँकने लगा था। मैदान से जर्मन क़ैदी लाईन बनाकर गुज़र रहे थे। हमारी गाड़ी को रास्ता देने के लिए वे कुछ रुके। अपने लोहे के टोपों के पीछे से अपनी गुस्से भरी कठोर आँखों से वे हमें ताक रहे थे। लेकिन उनमें से एक कटी-फटी मूँछोंवाला जर्मन सैनिक हमें देखकर कुछ ऐसे मुस्कुराया, जैसे वह हमें जानता हो।

ड्राईवर ने जवान की तरफ़ मुड़कर कहा :

— तुमने क्या बताया था। अब तक कुल कितने फ़ासिस्टों को मारा है ?

— पचहत्तर।

— बहुत कम हैं, मुझे लगता है, — ड्राईवर ने कहा।

— अरे, सब कमी पूरी कर दूँगा, — सिपाही बुदबुदाया — अभी इनसे कई मुलाक़ाते होंगी।

1944

मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय