क्या दाऊद की आत्मकथा लिखी जाएगी ? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या दाऊद की आत्मकथा लिखी जाएगी ?
प्रकाशन तिथि : 17 मई 2013


निखिल आडवाणी की फिल्म 'डी डे' शूटिंग के अंतिम दौर में है। प्राय: डी डे आजादी के दिन के लिए या लड़ाई के निर्णायक दौर के लिए प्रयुक्त होता है, परंतु बदनाम दौर में मुंबई में डी का अर्थात दाऊद इब्राहिम - संगठित अपराध का सरगना हो गया था और रामगोपाल वर्मा ने 'डी कंपनी' नामक रोमांचक एवं सफल फिल्म बनाई थी। विगत सदी के आखिरी डेढ़ दशक की बात है, जब फिल्म उद्योग में अनेक लोग अपने आपको 'डी' का आदमी बताकर लोगों को डराते थे। उन दिनों फिल्म उद्योग पर 'डी' का बड़ा दबदबा था। सितारों को धमकाकर फिल्में अनुबंधित कराई जाती थीं और पैसे भी मांगे जाते थे। बड़े सितारे की फिल्मों के विदेश अधिकार छद्म कंपनियों को दिलाने के लिए दबाव डाला जाता था। राकेश रोशन द्वारा इनकार किए जाने पर उन्हें गोली मारी गई, परंतु समय पर ऑपरेशन के कारण वे बच गए। उन्हीं दिनों 'टी सीरीज' कंपनी के मालिक गुलशन कुमार की नृशंस हत्या हुई और गुलशन राय के निर्देशक बेटे पर भी आक्रमण हुआ। बहरहाल, यह आरोप गलत है कि दाऊद फिल्मों में धन लगाता था। अपराध जगत केवल धमकी देकर पैसे लेते थे, पूंजी उनका काम नहीं है। हमारे अनेक उद्योगपतियों की कार्यशैली भी अपराध जगत वाली रही है और वे पूंजी निवेश करते हैं। हमारे देश में अनेक शहरों में सक्रिय भू माफिया कानून की धज्जियां उड़ाकर अन्य उद्योगों में पूंजी निवेश करते रहे हैं।

निखिल आडवाणी की फिल्म में केंद्रीय पात्र ऋषि कपूर को दाऊद की वेशभूषा और कपड़ों इत्यादि से दाऊद का प्रभाव उत्पन्न करने की चेष्टा की गई है, परंतु यह 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' या रामगोपाल वर्मा की 'डी कंपनी' की तरह दाऊद तथा हाजी मस्तान की काल्पनिक कहानी नहीं है। एक निर्माणाधीन फिल्म में अक्षय कुमार भी दाऊद की काल्पनिक जीवन कथा में काम कर रहे हैं। 'वन्स अपॉन ए टाइम' में हाजी मस्तान का पतन व दाऊद के उत्थान की कथा थी और उसी की अगली कड़ी में इमरान हाशमी द्वारा अभिनीत दाऊद को अब अक्षय कुमार निभाने जा रहे हैं। भारत में अपराध कथाएं हमेशा बनती रही हैं, परंतु शिखर सितारे नकारात्मक भूमिकाएं करते थे। सलीम-जावेद की अमिताभ अभिनीत 'दीवार' ने खेल बदल दिया। दीवार के नायक में हम हाजी मस्तान के जीवन की झलक देख सकते हैं। उनका उदय भी समुद्र तट की गोदी से हुआ था। सलीम-जावेद के प्रेरणास्रोत 'मदर इंडिया' के बिरजू और 'गंगा-जमना' के गंगा रहे हैं। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र के डाकू को महानगर में तस्कर बना दिया और उसके आक्रोश को बीहड़ से उठाकर महानगर में रोपित किया, जिसे संगठित अपराध सीमेंट का बीहड़ बनाता है। नए 'बीहड़ों' के निर्माण की कहानी ही 'औरंगजेब' भी है।

ऋषि कपूर ने 'अग्निपथ' में लाला करीम नामक अपराधी से प्रेरित पात्र किया था और 'औरंगजेब' के बाद वे अब दाऊद प्रेरित भूमिका कर रहे हैं। एक रोमांटिक छवि वाले का यह कायाकल्प आश्चर्यजनक है। अब वे इस दौर के अमरीशपुरी या गब्बरसिंह होने जा रहे हैं, परंतु अंतर तो चरित्र चित्रण में है। अब खलनायक मोगेंबो या गब्बर की तरह बर्बर होते हुए भी 'कॉमिक्स' का प्रभाव डालते हैं। आज का खलनायक महानगरीय जीवन शैली में रसा रमा हुआ सोफिस्टिकेटेड व्यक्ति है। अब बुराई ने आकर्षक मुखौटा लगा लिया है। वह बुद्धि से वार करता है और अवाम के बीच स्वच्छंद घूमते हुए आप उसे पहचान नहीं पाते। खलनायक का वह दौर गया, जब उसकी वेशभूषा ही उसके चरित्र का बयान करती थी और अब गरजदार आवाज में वह घोषणा नहीं करता कि 'मोगेंबो खुश हुआ' या 'अरे ओ सांभा कितने आदमी थे?' आज आप किसी मल्टीनेशनल के मालिक को देखकर नहीं कह सकते कि इसके हाथों कितने स्वप्न ध्वस्त हुए हैं, कितने लोग अभाव में मरते हुए जी रहे हैं। दरअसल, स्वप्न का कत्ल किसी अपराध कानून के अधीन कोई जुर्म नहीं है।

संगठित अपराध कथाओं पर फिल्म निर्माण अमेरिका के बीसवीं सदी के तीसरे दशक में आर्थिक मंदी के दौर में शुरू हुआ। अभाव और पिचके हुए पेट रोटी छीनकर खाना चाहते हैं। शैतान दिमाग में उत्पन्न हिंसा का साधन बन जाता है भूखा व्यक्ति। हिंसा व्यापार के माध्यम से सौदों द्वारा होती है और कौन बेच रहा है, यह बिकने वाले को भी नहीं मालूम पड़ता। सारा खेल महीन धागों की जमावट का है। यह कबीर के बुने मोटे कपड़े से अलग है, परंतु उसकी उलटबासी इस ढोंग को समझने में आज भी मदद कर सकती है।

बहरहाल, संगठित अपराध और दाऊ पर बहुत फिल्में बनी हैं और बन रही हैं। दाऊद एक पुलिस कांस्टेबल का पुत्र था और निहायत ही मुफलिसी में जवान हुआ था। अगर उसके अपराधी बनने की प्रक्रिया को उस दौर की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में शोध करके लिखा जाए तो वह अनेक अंधेरे कोने पर रोशनी डाल सकता है। राजनीतिक प्रश्रय ने उसे कामयाबी दिलाई। दाऊद पर एक फिल्म इस तरह भी बन सकती है कि आज वह भारत आकर अपने गुनाह कबूल करना चाहता है और अपने जीवन के सारे तथ्य उजागर करना चाहता है, तो अनेक शक्तिशाली लोग उसके इस फैसले से घबरा जाएंगे और मार्ग में ही उसके कत्ल के प्रयास किए जाएंगे। कल्पना कीजिए कि एक खुली अदालत लाल किले के पास लगी है, जहां १५ अगस्त का झंडा फहराया जाता है और दाऊद अपना सच्चा बयान देता है कि किन भारतीय लोगों ने उसकी सहायता की। कितने लोगों के मुखौटे गिर जाएंगे। इस तरह की फिल्म हॉलीवुड वाले ही बना सकते हैं।