क्या नाम था उसका? / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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अब पानी सिर से ऊपर गुज़र चुका था। लिहाज़ा प्रोफ़ेसर सरोज कुमार के नेतृत्व में कॉलेज के शिक्षक अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए. धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया।

प्रोफ़ेसर सरोज कुमार देश के एक ग़रीब और पिछड़े प्रांत के क़स्बे किशन नगर के सरकारी कॉलेज में पिछले पच्चीस साल से हिन्दी के प्राध्यापक पद पर कार्यरत थे। वे कॉलेज के शिक्षक यूनियन के अध्यक्ष भी थे। आठ साल से अस्थाई पदों पर नियुक्त कॉलेज के दो दर्जन शिक्षकों को पिछले आठ महीनों से वेतन नहीं मिला था। उन सभी शिक्षकों का घर-परिवार था। उनके माँ-बाप, बीवी-बच्चे थे। नियमित वेतन के अभाव में उन सब का अपने परिवारों के लिए दाल-रोटी का बंदोबस्त करना भी मुश्किल होता जा रहा था। उनके जीवन से सभी चटख रंग चले गए थे। अब केवल एक धूसर उदासी उनके इर्द-गिर्द थी।

केबल टी. वी । के युग में परोसी जा रही फूहड़ता और अश्लीलता के बावजूद प्रोफ़ेसर सरोज कुमार उन विरले लोगों में थे जो एक साफ़-सुथरे और अच्छे समाज के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को महत्त्वपूर्ण मानते थे। वे कॉलेज में छात्र-संघ और शिक्षक यूनियन के चुनावों में गुंडा तत्वों के हावी होने का पुरज़ोर विरोध करते रहे थे। कई बार उन्होंने कॉलेज में छात्राओं को छेड़ने वाले गुंडों को अकेले ही ललकारा था। इस प्रक्रिया में वे गुंडों के हमलों में घायल भी हुए थे। पर उन्होंने सही बात का पक्ष लेना नहीं छोड़ा। उनका मानना था कि एक शिक्षक को छात्रों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए जिसका वे अनुसरण कर सकें। वे अपना मतलब निकालने के इस युग में लुप्त होते मानवीय मूल्यों के हिमायती थे। वे अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के प्रबल पक्षधर थे। स्वाधीनता संग्राम के नायकों में वे भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और लाला लाजपत राय को अपना आदर्श मानते थे।

कॉलेज के शिक्षक कई महीनों से बिना वेतन के काम कर रहे थे। ऐसे में जब यह ख़बर आई कि गणित के प्राध्यापक प्रोफ़ेसर शरद ने इस स्थिति से हताश हो कर आत्म-हत्या कर ली है तो शिक्षकों के ग़ुस्से का ज्वालामुखी फट पड़ा। आक्रोश का लावा बहने लगा।

पीड़ित शिक्षकों ने प्रोफ़ेसर सरोज कुमार से मदद की गुहार लगाई. उन्होंने कॉलेज के सभी शिक्षकों को इकट्ठा किया और कॉलेज प्रशासन के विरुद्ध महाभारत का शंख फूँक दिया। कॉलेज प्रशासन को अस्थायी शिक्षकों की नौकरियाँ पक्की करने तथा उनका आठ महीनों का वेतन अदा करने के लिए एक महीने का समय दिया गया। लेकिन आज़ाद भारत में भला बेचारे शिक्षकों को पूछता ही कौन था? वे गुमनामी के अँधेरे में जिएँ या मरें, किसे फ़िक्र थी?

आख़िर अपनी माँगों के समर्थन में शिक्षक हड़ताल पर चले गए. पर कॉलेज प्रशासन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। फिर तय किया गया कि डी.एम. के दफ़्तर के बाहर शिक्षक अपनी माँगें मनवाने के लिए धरना-प्रदर्शन करेंगे। अब पानी सिर से ऊपर गुज़र चुका था।

नियत दिन कॉलेज के शिक्षकों ने एक जुलूस निकाला। नारेबाज़ी करते हुए वे डी.एम. के दफ़्तर पहुँचे। प्रोफ़ेसर सरोज कुमार सहित पाँच शिक्षकों के शिष्टमंडल ने डी.एम. से मुलाक़ात की। डी.एम. को एक ज्ञापन सौंपा गया जिसमें शिक्षकों की माँगें दर्ज़ थीं—शिक्षकों के सभी अस्थायी पद स्थायी किए जाएँ। शिक्षकों का आठ महीनों का वेतन उन्हें अदा किया जाए. मृत शिक्षक प्रोफ़ेसर शरद के परिवार को उचित मुआवज़ा दिया जाए. उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी दी

जाए. शिक्षकों को नियमित रूप से वेतन दिया जाए, आदि।

शिक्षक अपनी माँगों पर तत्काल कार्यवाही का आश्वासन चाहते थे। डी. एम. ने ऐसा करने में असमर्थता ज़ाहिर की। वे चाहते थे कि शिक्षक पहले बिना शर्त अपनी हड़ताल वापस ले लें और अपना धरना-प्रदर्शन बंद कर दें। , उसके बाद वे शिक्षकों का ज्ञापन सरकार को सौंप देंगे।

शिक्षक इस बात के लिए तैयार नहीं हुए. इस मुद्दे पर बातचीत में गतिरोध आ गया। दोनों पक्षों में ठन गई. डी. एम. के दफ़्तर के बाहर ही शिक्षकों का धरना-प्रदर्शन जारी रहा।

प्रशासन ने इस तनावपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए तगड़ा पुलिस बंदोबस्त किया था। साठ-सत्तर शिक्षकों को नियंत्रित करने के लिए तीन-चार सौ पुलिसवाले मौजूद थे। अतिरिक्त पुलिस बल को भी तैयार रहने के लिए कहा गया था। पुलिस बल की कमान स्वयं एस.एस.पी. ने सँभाल रखी थी।

शाम पाँच बजे जब डी.एम. अपने ऑफ़िस से बाहर निकले तो शिक्षकों ने उनकी सफ़ेद अम्बैसेडर कार के पास उन्हें घेर लिया।

इसके बाद क्या हुआ इस बारे में प्रत्यक्षदर्शियों के अलग-अलग बयान

हैं। कुछ प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उत्तेजित शिक्षकों ने डी.एम. साहब के साथ धक्का-मुक्की की जिस पर एस.एस.पी. श्री के.पी.सिंह ने उपद्रव पर उतारू शिक्षकों को तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज का आदेश दे दिया। पर कुछ अन्य प्रत्यक्षदर्शी यह बताते हैं कि डी.एम. साहब के साथ कोई धक्का-मुक्की नहीं हुई

थी। उनके अनुसार दरअसल शिक्षकों की भीड़ में से किसी उत्तेजित शिक्षक ने अपनी चप्पल निकाल कर डी.एम. साहब की ओर फेंकी जो उनके चेहरे पर जा लगी जिससे डी.एम. साहब का चश्मा नीचे गिर कर टूट गया। इससे भन्ना कर स्वयं डी.एम. साहब ने ही शिक्षकों पर लाठीचार्ज का आदेश दे दिया।

हालाँकि अधिकांश प्रत्यक्षदर्शी इन दोनों बयानों का खंडन करते हैं। उनका कहना है कि जब डी.एम. श्री श्यामनारायण अपने दफ़्तर से निकल कर बाहर आए तब शिक्षकों ने उन्हें घेर लिया और वे उनके विरुद्ध नारेबाज़ी करने लगे। इन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह सारी प्रक्रिया शांतिपूर्ण थी। डी.एम. साहब उत्तेजित शिक्षकों को समझाने-बुझाने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे, तभी सड़क पर से गुज़र रही किसी गाड़ी का टायर फट जाने से एक ज़ोरदार आवाज़ हुई. इस पर ड्यूटी के प्रति ज़रा ज़्यादा ही वफ़ादार वहाँ तैनात कुछ पुलिसकर्मियों ने यह समझा कि शिक्षकों ने डी.एम. साहब पर हमला कर दिया है। बस उन्होंने हड़बड़ाकर बिना आदेश के ही शिक्षकों पर ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसानी शुरू कर दीं। कुछ लोगों ने यह भी बताया कि एक-दो पुलिसवालों ने शिक्षकों को डराने के लिए हवा में फ़ायरिंग भी की। डी. एम. के दफ़्तर के पास ही पान-बीड़ी का खोखा लगाने वाले मनोज तिवारी ने भी इस बात की तस्दीक़ की।

"साहब, हम एक ग्राहक को 120 नम्बर का पान लगाकर दे रहे थे तभी एक ज़ोरदार धमाका हुआ। हम घबरा गए और गिलौरी ससुरी हमारे हाथ से छूट के नीचे गिर गई. इस के बाद हम क्या देखते हैं कि सब मास्टर लोगों की पिटाई हो रही है और दो-तीन सिपाही हवाई-फ़ायरिंग कर रहे हैं। हम तो डर के मारे अपने स्टूल के नीचे दुबक लिए. गोली ससुरी को इ थोड़े ही पता होता है कि हम मास्टर नहीं हैं।" बाद में पूरी घटना याद करते हुए तिवारी ने प्रेस वालों को बताया।

सच चाहे जो भी हो, देखते-ही-देखते डी.एम. के दफ़्तर के बाहर की जगह जैसे किसी युद्ध-स्थल में तब्दील हो गई. पुलिस के संरक्षण में डी.एम. तो लाल बत्ती वाली अपनी सफ़ेद अम्बैसेडर कार में बैठ कर घर के लिए रवाना हो गए, पर शिक्षक पुलिसवालों के हाथों पिटते रहे।

बाद में एक प्रत्यक्षदर्शी ने अपना नाम गुप्त रखे जाने की शर्त पर प्रेसवालों को बताया कि उसने स्वयं एस.एस.पी. श्री के.पी.सिंह को सिपाहियों से यह कहते सुना था—"हाथ-पैर तोड़ दो स्सालों के. लीडरी करते हैं!" हालाँकि किसी अन्य स्रोत से इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी।

डी.एम. का दफ़्तर गाँधी चौक के पास स्थित था। वहाँ स्थापित गाँधीजी की मूर्ति इस सारे लोमहर्षक कांड की मूक गवाह थी।

पुलिसवालों की लाठियों की मार से शिक्षकों के हाथ-पैर टूट रहे थे, उनके सिर फूट रहे थे और वे ज़मीन पर गिरते जा रहे थे। प्रोफ़ेसर सरोज कुमार पुलिस की लाठियाँ झेलते हुए अपने सहकर्मियों को एक-एक कर धराशायी होते हुए देख रहे

थे। आक्रोश के आँसुओं से उनकी आँखें जल रही थीं। रोते-रोते अचानक उन्हें स्थिति की विडम्बना पर हँसी आ गई. अपनी नौकरियाँ पक्की करने और अपने आठ महीनों का वेतन पाने की जायज़ माँग के बदले में आज़ाद भारत में प्रशासन प्रोफ़ेसरों पर लाठियाँ बरसा रहा था। यहाँ गुंडे खुलेआम घूम रहे थे, भ्रष्टाचारियों के पौ-बारह थे और आतंकवादी पुलिस की पहुँच से बाहर थे, पर अपने हक़ माँगने की धृष्टता करने के लिए शिक्षक पुलिस की लाठियाँ खा रहे थे। यह कैसी अँधेर नगरी थी—प्रोफ़ेसर सरोज कुमार ने सोचा।

चारो ओर दनादन लाठियाँ बरस रही थीं। प्रोफ़ेसर सरोज कुमार साथी शिक्षकों पर हो रहे प्रहारों को अपने ऊपर लेकर उन्हें बचाने के प्रयास में घायल होते जा रहे थे। तभी सिपाही रामखेलावन की एक लाठी रणभूमि में क़हर बरसाकर शिक्षकों को गाजर-मूली की तरह गिराते हुए प्रोफ़ेसर सरोज कुमार की खोपड़ी तक आ पहुँची।

उस लाठी को सिपाही रामखेलावन ने तेल पिला-पिलाकर पाला था। लाठी केवल सिपाही रामखेलावन के हाथों की भाषा समझती थी और सिपाही रामखेलावन केवल लाठी की भाषा समझता था। इस माहौल में प्रोफ़ेसर सरोज कुमार के हिन्दी भाषा और साहित्य के ज्ञान को न लाठी समझती थी, न सिपाही रामखेलावन समझता था।

लाठी ने खोपड़ी को कोई चेतावनी नहीं दी। सिपाही रामखेलावन की लाठी

पूरे वेग से प्रोफ़ेसर सरोज कुमार की खोपड़ी पर पड़ी और पल के सौवें हिस्से से भी कम समय में उनकी खोपड़ी की बाहरी परत चटख गई और खोपड़ी के भीतर स्थित दिमाग़ में सब कुछ गड्डमड्ड हो गया। वह भरपूर प्रहार जिस सिपाही रामखेलावन ने किया था वह पिछले सोलह सालों से कांस्टेबल के ग्रेड में सड़ रहा था। उसकी सारी कुंठा उसकी लाठी के प्रहार में समाहित हो गई और प्रोफ़ेसर साहब की खोपड़ी को तहस-नहस कर गई.

जब सिपाही रामखेलावन की लाठी दस मीटर प्रति सेकेंड की रफ़्तार से प्रोफ़ेसर सरोज कुमार के सिर पर पड़ी तो उनके ज़हन में कोई स्मृति नहीं कौंधी। उन्हें अपना प्रिय फ़िल्मी गाना 'प्रिय प्राणेश्वरी, मम हृदयेश्वरी' याद नहीं आया। उन्हें धोती पहने यह गीत गाता हुआ चुटिया-धारी विनोद खन्ना याद नहीं आया।

उन्हें बचपन में पिता के कुर्ते की जेब से क़लम चुराने पर पड़ी मार याद नहीं आई. उन्हें अपने छात्र-काल के समय गहराए बदन वाली अपनी प्रेमिका ऋतंभरा याद नहीं आई. उन्हें अपनी पत्नी सुशीला, जो विवाह के समय छरहरी थी पर अब स्थूलकाय हो गई थी, याद नहीं आई. उन्हें अपनी पत्नी के साथ अमेरिका में जाकर बस गया अपना साफ़्टवेयर इंजीनियर बेटा भी याद नहीं आया।

उन्हें मुक्तिबोध की 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' , 'ब्रह्मराक्षस' या 'अँधेरे में' कविताओं की कोई पंक्तियाँ याद नहीं आईं। उन्हें 'जब भी कोई अपने हक़ के लिए खड़ा होता है, व्यवस्था उसे गोलियाँ और लाठियाँ ही देती है' कथन भी याद नहीं आया जो कभी उनके ही किसी छात्र ने कहा था।

दरअसल प्रोफ़ेसर सरोज कुमार को कुछ भी याद कर सकने का मौक़ा ही नहीं मिला। सिपाही रामखेलावन के तेल पिए लाठी के सिर पर पड़े प्रचंड प्रहार ने उन्हें कुछ भी याद कर सकने का समय ही नहीं दिया। यादों के पुच्छल तारे प्रोफ़ेसर साहब के दिमाग़ के भीतर ही दम तोड़ गए. उनके ज़हन में कोई बिजली-सी कौंधी। फिर उनके दिमाग़ की सारी बत्तियाँ बुझ गईं और वहाँ घुप्प अँधेरा छा गया। पीड़ा के दहकते लावा का अजस्र बाँध भीतर कहीं टूटा और फिर वह तड़पती गर्मी उन्हें लील गई. प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि सिपाही रामखेलावन की लाठी का वह प्रहार इतना तगड़ा था कि प्रोफ़ेसर सरोज कुमार वहीं लुढ़क गए. वे एक बार जो गिरे तो फिर उठ नहीं पाए.

यह सूर्यास्त से ठीक पहले का समय था जब बौने लोग डाल रहे थे लम्बी परछाइयाँ। एस.एस.पी.वायरलेस पर पुलिस महानिदेशक को बता रहे थे कि उन्हें हिंसा पर उतारू शिक्षकों की भीड़ पर नियंत्रण पाने के लिए बल-प्रयोग करना पड़ा। पुलिस ने कठिन परिस्थितियों में बहुत ही संयम से काम लिया था। स्थिति अब नियंत्रण में थी।

कुछ ही समय में सूर्यास्त हो गया। आसमान में एक आधा कटा हुआ चाँद दर्द से कराह रहा था। पास के पेड़ पर एक चालाक बिल्ले ने किसी अभागे कबूतर का शिकार कर लिया था। कबूतर के नुचे हुए पंख पेड़ के नीचे बिखरे पड़े थे। पेड़ के इर्द-गिर्द उड़ रही चिड़ियाँ बिल्ले को देखकर भयभीत स्वर में शोर मचा रही थीं।

दर्द से कराहते घायल शिक्षकों को पुलिस की गाड़ी में डालकर सरकारी अस्पताल ले जाया जाने लगा।

एक कांस्टेबल ने प्रोफ़ेसर सरोज कुमार की लाश को गाड़ी में एक ओर डाल दिया। एक अन्य कांस्टेबल ने गाड़ी में बैठे एक घायल शिक्षक से लाश के बारे में पूछा—"क्या नाम था उसका?"

"लाला लाजपत राय।" घायल शिक्षक ने जवाब दिया। उसकी आँखों में अंगारों दहक रहे थे।

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ताज़ा समाचारों के अनुसार शहर के सरकारी कॉलेज के शिक्षकों ने दबाव के कारण अपनी हड़ताल बिना शर्त वापस ले ली है। डी.एम. ने लाठीचार्ज की जाँच के आदेश दे दिए हैं। शिक्षकों की माँगों पर सरकार विचार कर रही है। शहर के अधिकांश लोग पुलिस लाठीचार्ज में हुई प्रोफ़ेसर सरोज कुमार की मौत की घटना से बेँखबर हैं। रेडियो और टी.वी. चैनल भारत और न्यूज़ीलैंड के बीच हुए एक-दिवसीय क्रिकेट मैच के समाचार तथा अन्य राजनीतिक ख़बरें देने में व्यस्त रहे। इस घटना का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ।

कुछ लोगों ने अगले दिन के किसी हिन्दी अख़बार के भीतर के पन्ने पर छपी पुलिस लाठीचार्ज की छोटी-सी ख़बर पढ़ी। पर संवाददाता ने मृत शिक्षक का नाम बताना ज़रूरी नहीं समझा था। वे लोग एक-दूसरे से यह पूछते हुए सुने

गए—"अरे, कल लाठीचार्ज में सरकारी कॉलेज के एक शिक्षक की मौत हो गई. कौन था वह? क्या नाम था उसका?"