क्या पगड़ी परचम और दाढ़ी पहचान-पत्र है? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या पगड़ी परचम और दाढ़ी पहचान-पत्र है?
प्रकाशन तिथि : 17 सितम्बर 2018


उच्चतम न्यायालय ने कलाकार जूही (चावला) मेहता की अर्जी पर सुनवाई करना स्वीकार कर लिया है। मुद्दा यह उठाया गया है कि मोबाइल टावर से विकिरण होता है, जो आवाम की सेहत के लिए खतरनाक है। इसी के साथ यह खबर भी आई है कि भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ रही है। मधुमेह रोग में भी हमारा देश अग्रणी है। बीमारियों के क्षेत्र में हम शिखर पर पहुंच चुके हैं। यह 'मेक इन इंडिया' की सफलता सिद्ध करता है। जूही चावला की अर्जी में यह भी कहा गया है कि मनुष्य के साथ ही पेड़-पौधों और जानवरों पर भी गहरा असर पड़ रहा है। उन्होंने मोबाइल टावर के लिए नियमावली करने की याचना की है।

देश प्रेम की नारेबाजी इसलिए की जा रही है ताकि असफलताएं छिपाई जा सके। आप अपना देश प्रेम साबित कीजिए और अवाम की सेहत के लिए गंभीर मुद्दों की बात न करें। विचारहीनता का वृहद मायाजाल रचा जा चुका है। मेडिकल हेल्थ इंश्योरेंस का रिकॉर्ड बताता है कि अधिकांश दावे अस्वीकृत किए जाते हैं। गैर-सरकारी कंपनियों में अस्वीकृत किया जाना सिखाया जाता है। सरकारी संस्थान का रिकॉर्ड भी खराब है। खासकर कैंसर से ग्रस्त है और 30 घंटे तक अस्पताल में भर्ती रहने के बावजूद क्लेम अस्वीकृत किया गया है। प्रधानमंत्री को खत भी लिखा गया और जवाब भी आया है कि कंपनी से संपर्क करें। अब तो यह कहा जा रहा है कि मेडिकल इंश्योरेंस नहीं करना ही बेहतर है। उस राशि का पूंजी निवेश करने से प्राप्त लाभ से अपना इलाज कराना चाहिए। बात यहां तक पहुंच सकती है कि बीमार पड़ने को अपराध मान लिया जाए। हमारे भारत महान में 20 करोड़ लोग प्रतिदिन भूखे रहते हैं तो ऐसे में मेडिक्लेम मुद्दा ही नहीं रह जाता। मौजूदा मेडिक्लेम नियमों में क्लेम आधारहीन अस्वीकृत किए जाने पर कोई दंड नहीं है। अधिकारियों की विचार शैली ऐसी है कि मेडिक्लेम अस्वीकृत ही करना है। इसके लिए अधिकारी का अपनी पत्नी से झगड़ा हो जाना जरूरी नहीं है। अमेरिका में 80% मेडिक्लेम स्वीकृत होते हैं। वहां क्लेम का औसत निर्धारित न्यूनतम से कम होने पर प्रीमियम की कुछ राशि लौटाने का भी नियम है। हमारे यहां कभी-कभी दुखियारे कंज्यूमर फोरम में जीतकर क्लेम पाते हैं परंतु तब भी क्लेम अस्वीकृत करने वाली कंपनी दंडित नहीं की जाती।

हमारे आला अफसरों को 'नहीं' कहना इस कदर सिखाया जाता है कि वह अपने निकाह में 'कबूल है' तक कहने में संकोच करते हैं। पग-पग पर पहचान सिद्ध करने के इस औघड़ दौर में क्या पगड़ी किसी का परचम है या दाढ़ी पहचान है या चमड़ी का रंग आपका वजूद तय करता है। पहचान को इतना महत्व दिया जा रहा है कि सूरत ही सब कुछ है और सीरत कुछ भी नहीं। ज्ञातव्य है कि नूतन के पति बहल ने 'सूरत और सीरत' नामक फिल्म में इस बात को कथानक बनाया गया था कि मनुष्य की विचार प्रक्रिया को उसकी असली पहचान माना जाना चाहिए। उंगलियों के चिह्न की जगह मनुष्य के चेहरे को उसकी पहचान का आधार बनाया जाएगा। गौरतलब यह है कि उम्र के साथ चेहरे में परिवर्तन होने लगते हैं। पहचान-पत्र में लगे फोटोग्राफ से कुछ अलग चेहरा समय के साथ हो सकता है, तब क्या 'पहचान विहीन' यह मनुष्य, मनुष्य होने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा।

सत्तासीन लोग बार-बार हमारी पुरानी गौरवमय संस्कृति की नारेबाजी करते हुए यह भूल रहे हैं कि इसी संस्कृति ने पूरे विश्व को एक कुटुंब माना है। पहचान का यह झमेला केवल एक धर्म विशेष के मानने वालों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने का षड़यंत्र है।