क्या फेकूँ क्या जोड़ रखूँ? / वीरेन्द्र जैन
हरिवंशराय बच्चन, जिनकी कीर्ति पताका अब उनके काव्य संसार से अधिक एक स्टार कलाकार के पिता होने के कारण फड़फड़ा रही है, ने अपनी आत्म कथा का शीर्षक दिया है - क्या भूलूँ क्या याद करूँ। उनकी इस मनःस्थिति की कल्पना हम प्रतिवर्ष दीवाली पूर्व किये जाने वाले सफाई अभियान के दौरान करते हैं। नई आर्थिक नीति का साँप हमारे घर में ऐसा घुस गया है कि हम जीवन मरण के झूले में लगातार झूल रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों के अनुसार हमने न केवल अपने दरवाज़े खोले अपितु खिड़कियों रोशनदानों सहित चौखटें भी निकाल कर फैंक दीं जिससे दुनिया का बाज़ार दनादन घुसा चला आया और हमें आदमी से ग्राहक बना डाला। अब हमारा केवल एक काम रह गया है कि कमाना और खरीदना। बाजार से गुजरने पर इतनी लुभावनी वस्तुएँ नजर आती हैं कि मैं उन्हें खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। उपयोग हो या ना हो पर खरीदने का आनन्द भी तो अपना महत्व रखता है- सोचो तो ऊँचा सोचो।
इन नयी नयी सामग्रियों की पैकिंग का तो क्या कहना। बहुरंगी ग्लेजी गत्ते का मज़बूत डिब्बा उसके अन्दर थर्मोकाल के साँचे में सुरक्षित रूप से फिट किया गया सामान इतना सम्हाल के रखा गया होता है जैसे कोई माँ गर्भ में अपने बच्चे को रखती है भले ही जन्म के बाद वह कुपुत्र निकले पर माता कुमाता नहीं होती है। कई बार तो मन करता है कि सामान फैंक दिया जाये पर डिब्बा सम्भाल कर रख लिया जाये ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत पर काम आवे। दीवाली का आगमन ऐसे सामान के प्रति बड़ी कड़ी प्रतीक्षा की घड़ी होती है। छोटे छोटे फ्लेट इन डिब्बों से पूरे भर जाते हैं। दीवाली पर इन्हें बाहर निकाला जाता है पौंछा जाता है और सोचा जाता है कि रखूँ या फैकूँ। क्या भूलूँ क्या याद करूँ की तरह असमंजस रहता है। वैसे आजकल यूज़ एण्ड थ्रो का ज़माना है पर हम हिन्दुस्तानी मध्यम वर्गीय लोगों से फेंका कुछ नहीं जाता। हमारे यहाँ ऐसे डाटपैन सैकड़ों की संख्या में मिल जायेगे जिनकी रिफिल खत्म हो गयी है। और रिफिल बदलने वाली बनावट नहीं है, पर पड़े हैं तो पड़े हैं। न किसी काम के हैं और ना ही फेंके जाते है। ढेरों किताबें है जिनको पढ़ने का कभी समय नही मिला पर रद्दी में बेचने की हिम्मत नहीं होती। अंग्रेज़ों के समय में लोग जेल जाया करते थे, जहाँ उन्हें लिखने और पढ़ने का समय मिल जाता था पर आजकल के जेलों में जगह ही खाली नही रहती कि पढ़ने लिखने वालों को अवसर दिया जा सके। इसलिए किताब बिना पढ़ी रह जाती हैं। पुराना ब्लैक एण्ड व्हाइट टी.वी. को कोई पाँच सौ रूपयें में भी नहीं खरीदना चाहता है जबकि इतना पैसा तो उसे शोरूम से घर लाने और पड़ोसियों को मिठाई खिलाने में ही लग गया था। अगर कुछ वर्ष और रह गया तो उल्टे पाँच सौ रूपया देकर ही उठवाना पड़ेगा। पुराने जूते, खराब हो गयी टार्च, कपड़े के फटने से बेकार हो गये छाते, बच्चे की साइकिल गुमी हुई चाबियों वाले ताले, सेमिनारों में मिलें फोल्डर और स्मारिकाएँ, बरातों में मिले ग्रिफ्ट आइटम, जो न केवल दाम में कम है अपितु जिनके काम में भी दम नहीं है। बिल्कुल वही हाल है कि -
चन्द तस्वीरे-बुतां, चन्द हसीन के खतूत
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला
रद्दीवाला तक कह देता है कि छोटे छोटे कागज अलग कर लीजिए इनका हमारे यहाँ कोई काम नहीं है। ये इकट्ठे होते रहते है तथा मरने के बाद ही बाहर निकलते हैं (वैसे सामान तो कुछ और भी निकला होगा पर एक शेर में आखिर कितना सामान आ सकता हैं। )
इन सामानों का क्या करूँ ? प्लास्टिक के आधार पर पीतल जैसी धातु के चमकीले स्मृति चिन्ह दर्जनों रखे हैं। कई स्मृति चिन्हों की तो स्मृतियों ही खो गयी है कि ये कब किसके द्वारा क्यों मिला था। अगर इन्हें बेचने जायेगे तो खरीददार समझेगा कि बाबूजी ने शायद जुआ या सट्टा खेल लिया है जो अब स्मृति चिन्हों को बेचने की नौबत आ गयी है। ऐसी दशा में वह इतने कम दाम लगायेगा कि अपमान के कई और घूँट बिना चखने के पीने पड़ जायेगे। वे केवल इस उपयोग के रह गये है कि गाहे बगाहे इनकी धूल पोंछते रहो। कई बार अतिथियों को दिखाने की फूहड़ कोशिश की तो वे बोले कि हमारे घर तो आपके यहाँ से दुगने पड़े हैं और दुगनी धूल खा रहे है।
एक ज़माना तो ऐसा था प्लास्टिक की पन्नियों को भी म्हाल के रखा जाता था। जो दुकानदार इन पन्नियों में सामान बेचता था उसकी बिक्री बढ़ जाती थी। अब यही पन्नियाँ, पत्नियों की तरह आफ़त की पुड़ियाँ बन गयी है। कई फोटो एलबम है जिनमें बचपन से लेकर पचपन तक के चित्र डार्विन के विकासवाद की पुस्तक - बन्दर से आदमी बनने की विकास यात्रा की तरह सजे हुऐ हैं। निधड़ नंग धड़ंग स्वरूप में नहलायें जाने से लेकर सिर के गंजे होने तक के चित्रों की गैलरी सजी है। कभी लगता था कि वह दिन भी आयेगा जब लोग अखबार के पन्नों पर इनकी झाँकी सजायेगे पर अब इस शेख चिल्लीपन पर खुद ही हँसी आती है। इन्हें फेंकने का जो काम भविष्य में कोई और करेगा वही काम खुद करने में हाथ काँपते है।
धूल उड़ाने के लिए खरीदा गया वैक्यूम क्लीनर खुद ही धूल खा रहा है। कई तरह के वाइपर जिन पर खुद ही पोंछा लगाने की जरूरत महसूस होती है। मकड़ी छुड़ाने वाले झाडू पर मकड़ी के जाले लग गये हैं। बाथरूम में फ्रैशनर की केवल डिब्बियॅा टँगी रह गयी हैं। फ्रैशनर की टिकिया खरीदते समय वह फालतू खर्च की तरह लगती है पर डिब्बी फैंकी नहीं जाती। मेलों, ठेलों से खरीदे गये कई तरह के अचार मुरब्बे चटनियों और चूरन इस प्रतीक्षा में है कि कब खराब होकर सड़ने लगें तब फैंके जावें।
जिस तरह आत्मा शरीर को नहीं छोड़ना चाहती बिल्कुल उसी तरह बेकार हो गयी सामग्रियाँ छूटती नही हैं। कहना ही पड़ेगा- क्या फेकूँ ? क्या जोड़ रखूँ ?