क्या भारत सघन चिकित्सा कक्ष में है? / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
क्या भारत सघन चिकित्सा कक्ष में है?
प्रकाशन तिथि : 22 जून 2018

विश्व सेहत संस्था ने आंकड़ा जारी किया है कि एक हजार व्यक्तियों के लिए एक डॉक्टर है। डॉक्टरों की संख्या अत्यंत कम है। मेडिकल कॉलेज में छात्रों के लिए स्थान बढ़ाए जा रहे हैं परन्तु असली कमी तो शिक्षकों की है और यह कमी अन्य क्षेत्रों में भी है। शिक्षकों की कमी है और अपने विषय को रोचक ढंग से पढ़ाने वाले तो और भी कम हैं। लगभग अस्सी हजार गांवों में अभी तक बिजली नहीं पहुंची है तो वहां अस्पताल कैसे बनेंगे? डॉक्टर बनने पर वे हिपोक्रेटिस शपथ लेते हैं जिसके अनुरूप उन्हें सारे व्यक्तिगत भेदभाव भूलकर मरीज का उपचार करना चाहिए। इस शपथ में अनेक सामाजिक प्रतिबद्धता के आदर्श भी शामिल हैं। आजकल तो संविधान की शपथ खाकर भी भ्रष्ट आचरण किया जाता ह। इसलिए हिपोक्रेटिस शपथ की बात क्यों करें?

विजय आनंद ने 'तेरे मेरे सपने' नामक फिल्म बनाई थी जिसमें देव आनंद ने भी एक डॉक्टर की भूमिका की थी। गांव में सेवा करते हुए डॉ. देव आनंद साधनों की कमी से आहत हैं। उन्हें मुमताज से प्रेम हो जाता है परन्तु साधनों की कमी के कारण वह अपना बच्चा ही नहीं बचा पाता। इस झटके से वह महानगर चला जाता है जहां उसकी योग्यता के कारण वह संपन्न व्यक्ति हो जाता है। फिल्म की एक सितारा का उसने इलाज किया था और वह डॉक्टर से प्रेम करने लगती है।

उसका डॉक्टर साथी जो आज भी गांव में ही काम कर रहा है, उससे मिलने आता है। विजय आनंद अभिनीत डॉक्टर पात्र कमरे की बत्तियां गुल कर देता है। जहां महानगर का सफल डॉक्टर आकर बत्ती जलाता है। इस दृश्य में वह उसे याद दिलाता है कि वह अपना कर्तव्य भूल गया है। चमक-दमक और सिक्कों के शोर में आत्मा की आवाज दब जाती है, बहरहाल विजय आनंद को इस फिल्म के लिए प्रेरणा 'ए.जे. क्रोनिन' के उपन्यास 'सिटेडल' से मिली थी। डॉक्टर के कर्तव्य, सुविधाओं की कमी और सरकार की नजरअंदाजी के कारण इस क्षेत्र में हम निरंतर पिछड़ रहे हैं। देश की सेहत कुछ ऐसी है कि उसे हम आई.सी.यू. वार्ड में रखे मरीज की तरह ही मान लें। विदेशों में अस्पताल की पृष्ठभूमि पर अनेक उपन्यास लिखे गए हैं और उनसे प्रेरित फिल्में भी बनी हैं। एक रचना है 'आइलेस इन गाजा' जिसमें एक सीनेटर की कार दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है। उसकी कमसिन उम्र की बिटिया की आंखें जख्मी हो जाती हैं और पत्नी भी चोटिल है। पत्नी अपनी बिटिया को कार से बाहर निकालती है, पति की नब्ज देखती है। वहां से एक अस्पताल आधे घंटे की दूरी पर था, परन्तु वह टैक्सी ड्राइवर को उस अस्पताल ले जाने को कहती है जो एक घंटे की दूरी पर था। बहरहाल अस्पताल में कन्या की चिकित्सा होती है परन्तु उसकी आंखों की रोशनी नहीं आती। सीनेटर की पत्नी इलाज करने वाले डॉक्टर पर मुकदमा करती है और एक लाख डॉलर का हर्जाना मांगती है। यह सब उसने इसलिए किया क्योंकि वह इस डॉक्टर से प्रेम करती थी परन्तु उसने कभी उससे शादी का वादा नहीं किया था। इस तरह यह व्यक्तिगत बदले की कथा हो जाती है। ज्ञातव्य है कि जख्मी आंख को तुरन्त नहीं निकालने पर दूसरी आंख भी उसकी सहानुभूति में काम करना बंद कर देती है और इसे 'सिम्पेथेटिक आप्थेल्मिया' कहते हैं। बहरहाल डॉक्टर मुकदमा लड़ता है और उस टैक्सी ड्राइवर को भी अदालत में लाता है। यह सिद्ध करने के लिए कि वह नजदीकी अस्पताल क्यों नहीं गई?

विलम्ब के कारण ही बिटिया की आंखें चली गई। इस उपन्यास में बहुत से रहस्य हैं। यह भी उजागर किया गया है कि सीनेटर लगभग दीवालिया हो चुका था। इसी तरह दक्षिण भारत के फिल्मकार श्रीधर ने राजेन्द्र कुमार, राजकुमार और मीनाकुमारी अभिनीत फिल्म 'दिल एक मंदिर' मात्र तीस दिन में बनाई थी जिसमें शंकर जयकिशन ने मधुर गीत दिए थे। इस फिल्म का अंत तर्क के अपमान की तरह रचा गया है कि इलाज करने वाला डॉक्टर मर जाता है और कैन्सर का मरीज ठीक हो जाता है। खाकसार ने 'शायद' नामक फिल्म बनाई थी जिसकी पूरी शूटिंग इन्दौर के महाराजा यशवंतराव तुकोजीराव अस्पताल एवं कैलाश नर्सिंग होम में हुई थी। यह फिल्म नसीरुद्‌दीन शाह और ओम पुरी की दूसरी फिल्म थी। इसके पूर्व वे गिरीश कर्नाड की फिल्म 'गोधूली' कर चुके थे। 'शायद' के संगीतकार आज के लोकप्रिय गायक शान के पिता मानस मुखर्जी थे और निदा फाज़ली को भी अवसर मिला था। इसके पूर्व निदा फाज़ली का एक गीत 'रजिया सुल्तान' के लिए ध्वनिबद्ध किया गया था परन्तु फिल्म में नहीं लिया गया।

सुना है कि आयुर्वेद प्रणाली में शिक्षित लोगों को एलोपैथी के डॉक्टर का दर्जा दिया गया है। आज हमने जंगल काट दिए हैं अत: जड़ी बूटियां कैसे पाएंगे। मुर्दे भी जंगल खाते हैं जिसका अर्थ यह है कि शवदाह के लिए तीन मन लकड़ी लगती है। इलेक्ट्रिक क्रेमाटोरियम से जंगल बच सकते हैं। परन्तु महानगरों तक में बिजली असमय रुक जाती है तो इलेक्ट्रिक क्रेमाटोरियम में आधा काम होने पर बिजली गुल हो जाए तो परिजन को घंटों इंतजार करना पड़ सकता है। जीने की सुुविधाएं कम होती जा रही हैं और मृत्यु भी विद्युत विभाग की कृपा पर कैसे रखी जा सकती है? बिजली संचालन के लिए नेशनल ग्रिड है। अधिकांश बिजली महानगरों को रोशन करने के लिए दी जाती है। कस्बे और गांव अंधकार में रहते हैं परन्तु विकास तो जारी है। क्या कभी केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारें यह आंकड़ा जारी करेंगी कि कितना खर्च विकास के विज्ञापन पर खर्च किया जा रहा है?