क्या मथुरा, क्या द्वारका? / अशोक भाटिया

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एक जिलाधिकारी की पत्नी एक सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल बन गई थी। एक दिन स्कूल की समस्याओं पर स्टाफ-मीटिंग में चर्चा चल रही थी।

एक अध्यापक ने कहा- ‘‘मैडम, ऊपर के तीनों कमरों का निर्माण रूका हुआ है, लेकिन पी. डब्लयू. डी वाले बात ही नहीं सुनते। मैं कल भी जे.ई के दफ्तर गया था!‘‘

सन्नाटा छा गया... प्रिंसिपल ने निर्देश दिया – “रामनिवास को फोन लगाओ..‘‘ रामनिवास उनके पति का पी.ए. है। दबंग आवाज़ में प्रिंसिपल ने उसे तत्काल काम शुरू करने को कहा।

दूसरे अध्यापक ने भी उत्साहित होकर कहा- “मैडम, तीन दिन से टंकी में पानी नहीं आ रहा, बड़ी परेशानी है, मैं अभी पब्लिक हैल्थ से आ रहा हूँ। वहाँ किसी को परवाह ही नहीं है।”

कुछ और अध्यापकों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई।

प्रिंसिपल ने तुरन्त कहा...‘‘रामनिवास है न...फोन लगाओ...।‘‘

एक और अध्यापिका ने बताया कि बच्चों का टूर मथुरा-द्वारका जाना तय हुआ है। रोडवेज़ से सर्टिफिकेट लेना है।

‘‘रामनिवास को फोन लगाओ।‘‘

दूसरी अध्यापिका- ‘‘पचास बैग सरकारी सीमेंट आना था।‘‘

‘‘रामनिवास को फोन लगाओ।‘‘

इतने में चाय आ गई, चुस्की लेता, एक बोला- ‘‘भई, कल टी.वी. पर देखा होगा, आज अमेरिका महा-मशीन से एक प्रयोग कर रहा है। उससे सारी दुनिया ही नष्ट हो सकती है, सँभलकर रहना।‘‘

कुछ अध्यापक गंभीर हो गये- ‘‘क्या हम खत्म हो जायेंगे।‘‘

कोई धीरे से बोला- ‘‘रामनिवास है न ‘‘