क्या महात्मा गांधी का पुनरागमन संभव है ? / जयप्रकाश चौकसे

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क्या महात्मा गांधी का पुनरागमन संभव है ?
प्रकाशन तिथि : 02 अक्तूबर 2013


आज महात्मा गांधी का 145वां जन्मदिन है और उन्हें आज भी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है। यहां तक कि जिस अंधे जुनून के कारण उनकी हत्या हुई, उसके जनकों के वंशज भी उनकी दुहाई देते हैं, क्योंकि गांधीजी आम जनता के अवचेतन में जमे हुए हैं और न केवल उनकी तस्वीर करंसी नोट और सिक्के पर मुद्रित है वरन आज भी लोकप्रियता के संसार में वे स्वयं सिक्के की तरह बने हुए हैं। पहली बार जब उनकी तस्वीर मुद्रित हुई, तब रुपया डॉलर के समान भाव रखता था। उनके आदर्शों को भुलाया जाना तो उनके जीवनकाल में ही प्रारंभ हो गया था, परंतु उन आदर्शों की स्मृति भी ऊर्जा को जन्म दे सकती है। उनके जीवनकाल में कुछ लोगों का विचार था कि समय बीतने पर शायद यह यकीन करना कठिन होगा कि उन जैसा व्यक्ति यथार्थ में हुआ है, परंतु मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद भी यकीन बना हुआ है वरन आज उनके पुन: आगमन की प्रार्थना भी कुछ लोग तो कर ही रहे हैं।

सिमॉन द बोआ ने अपनी किताब 'कमिंग ऑफ एज' में ज्यां पाल सात्र्र के विचार को उद्धृत किया है कि गांधीजी 'काउंटर क्लोजर' के शिकार हुए, जिसका आशय यह है कि एक व्यक्ति सारे जीवन एक आदर्श एवं उद्देश्य को साधता है और जीत के क्षण में वह अपने हृदय में जानता है कि उसका उद्देश्य भले ही पूरा हो गया हो, परंतु उसके आदर्श नष्ट हो गए हैं। गांधीजी ने स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके लिए भारत की अखंडता और धार्मिक सद्भाव भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, परंतु देश के बंटवारे का अर्थ था उनके आदर्श की मृत्यु। आज हम सब यह महसूस कर सकते हैं कि वे देश की अखंडता व धार्मिक सद्भाव को क्यों इतना महत्व देते थे। गांधीजी ने भारतीय समाज की सतह के नीचे बहती ऊर्जा को सतह के ऊपर प्रवाहित किया और पूरे देश में नवजागरण का शंखनाद हुआ। गौरतलब यह है कि यह सांस्कृतिक ऊर्जा बार-बार सतह के नीचे क्यों चली जाती है और हर बार इसे ऊपर प्रवाहित होने के लिए हमें किसी अवतार की प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ती है? हम स्वयं अपने भीतर की शक्ति से यह काम क्यों नहीं कर पाते?

आज देश में पहले किसी भी कालखंड से अधिक असहिष्णुता है और सभी संवेदनशील लोग जानते हैं कि जीवन-मूल्यों का कैसे पतन हुआ है। बंटवारा कोई समाधान सिद्ध नहीं हुआ, बंटवारे कभी संतोषजनक होते भी नहीं।

गौरतलब यह है कि किसी महान आदर्श के फलीभूत नहीं होने पर भी उस आदर्श का अर्थ और मूल्य कम नहीं होता। अगर बाजार के खोटे सिक्कों ने असली सिक्कों को चलन के बाहर भी कर दिया हो तो भी उनका मूल्य नकारा नहीं जा सकता। अगर सत्य किसी युद्ध में पराजित होता भी दिखता है तो भी वह सत्य ही बना रहता है और किसी दिन अंधड़ के हट जाने पर वह सत्य सामने प्रस्तुत होता है। सत्य के प्रति अपने आग्रह के कारण ही गांधीजी की प्रासंगिकता हर कालखंड में बनी रहेगी। समय कितना भी खराब क्यों न हो, सत्य का कोई विकल्प नहीं है।

स्वयं को महात्मा गांधी का 'क्लोन' प्रचारित करने वाले कई लोगों का उदय हुआ, जो उनकी अपार लोकप्रियता का ही प्रमाण है। दरअसल, महान आदर्श का कोई क्लोन नहीं होता, केवल इस तरह छवियां बनाई जाती हैं। क्या बाजार एवं प्रचारशासित कालखंड में गांधी का पुनरागमन सार्थक सिद्ध होगा? खबरों के उत्पादन के युग में गांधीजी अंधड़ से कैसे जूझेंगे? उनके 'ब्रान्ड' को पुन: मुद्रित करके बेचने वाली शक्तियों के सामने क्या वे निर्बल सिद्ध होंगे? गांधीजी के अपने उदय के समय संचार के आज जैसे साधन उपलब्ध नहीं थे, परंतु उन्होंने अपनी बात अनगिनत लोगों तक पहुंचाई। उनके हृदय से निकली बात अवाम के हृदय तक पहुंची। आज तो संचार के अनगिनत साधन उपलब्ध हैं। गांधीजी को पुनरागमन में यह कठिनाई होगी कि विपुलता के युग में संवेदना के अभाव के बीच अपनी बात कैसे कहें? गांधीजी जैसे आदर्श की सफलता के लिए सहिष्णुता एवं संवेदना का होना जरूरी है। इसलिए यह संभव है कि इस बार वे वयस्क की जगह अबोध शिशुओं को संबोधित करें, क्योंकि उनका लक्ष्य भी भविष्य में सही पीढ़ी का विकास होगा। मस्ती-मंत्र में डबे युवा को वे संबोधित ही नहीं करना चाहेंगे। यह संभव है कि वे महिलाओं और बच्चों को संबोधित करें। उनके विश्वास के अब ये ही संबल होंगे। पुनरागमन में सबसे भयावह संभावना यह है कि बाजार-प्रचार की शक्तियां उन्हें नकली गांधी सिद्ध करके फिर हत्या कर देंगी।