क्या यही इन्सानियत है? / श्रीलाल शुक्ल
छंगामल विद्यालय इण्टर कालेज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान आदर्शो की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु' हुई थी। कालिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'संविधान एवं नियमावली' पढ़कर यथार्थ की गन्दगी में लिपटा हुआ मन कुछ वैसा ही निर्मल और पवित्र हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय पढ़कर।
क्योंकि इस कालिज की स्थापना राष्ट्र के हित मे हुई थी, इसलिए, उसमें और कुछ हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे देखकर लगता था काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो-तीन साल ही में पड़ोस के कालिजों की गुटबन्दी की अपेक्षा ज्यादा ठोस दिखने लगी थी। बल्कि कुछ मामलों में तो वह अखिल भारतीय संस्थाओ तक का मुकाबला करने लगी थी।
प्रबन्ध-समिति में वैद्यजी का दबदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद में एकाध मेम्बर भी उनकी ओर खिंचे। अब बड़ी मेहनत के बाद कालिज के नौकरों मे दो गुट बन गये थे, पर उनमें अभी बहुत काम होना था। प्रिंसिपल साहब तो वैद्यजी पर पूरी तरह आश्रित थे, पर खन्ना मास्टर अभी उसी तरह रामाधीन के गुट पर आश्रित नही हो पाये थे। उन्हें खींचना बाकी था। लड़कों में भी अभी दोनों गुटो का हमदर्दी के आधार पर अलग-अलग गुट नहीं बने थे। उनमें आपसी गाली-गलौज और मारपीट होती तो थी, पर इन कार्यक्रमों को अभी तक उचित दिशा नहीं मिल पाती थी। गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डागर्दी की शक्ति व्यक्तिगत स्वार्थो पर नष्ट होती जाती थी, उसका उपयोग राष्ट्र के सामूहिक हित में नही होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना था।
यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कालिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुचती। वहां कभी-कभी ऎसे दांव भी चले जाते जो बड़े-बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। पिछले साल रामाधीन ने वैद्यजी पर एक ऎसा ही दांव फ़ेका था। वह खाली गया, पर उसकी चर्चा दूर-दूर तक हुई। अखबारों में जिक्र आ गया। उससे एक गुटबन्द इतना प्रभावित हुआ कि वह शहर से कालिज तक सिर्फ़ दोनों गुटों की पीठ ठोकनें को दौड़ा चला आया। वह एक सीनियर गुटबन्द था और अक्सर राजधानी में रहता था। पिछले चालीस साल से वह अपने चौबीसों घण्टे केवल गुटबन्दी के नाम अर्पित किये हुए था। वह अखिल भारतीय स्तर का आदमी था और उसके बयान रोज अखबार में पहले पन्नों पर छपते थे, जिसमें देश-भक्ति और गुटबन्दी का अनोखा संगम होता था। उसके एक बार कालिज में आ चुकने के बाद लोगों को इत्मीनान हो गया था कि यहां अब कालिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म नहीं होगी।
सवाल है: गुटबन्दी क्यों थी?
यह पूछना वैसा ही है जैसे पानी क्यों बरसता है? सत्य क्यों बोलना चाहिए? वस्तु क्या है और ईश्वर क्या हैं? वास्तव में यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक यानी लगभग दार्शानिक सवाल है। इसका जवाब जानने के लिए दर्शन-शास्त्र जानने की जरुरत है और दर्शन-शास्त्र जानने के लिए हिन्दी का कवि या कहानीकार होने की जरुरत है।
सभी जानते है कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव में दार्शनिक है और कविता या कथा-साहित्य तो वे सिर्फ़ यूं ही लिखते है। किसी भी सुबुक-सुबुकवादी उपन्यास में पढ़ा जा सकता है कि नायक ने नायिका के जलते हुए होंठो पर होंठ रखे और कहा," नहीं-नहीं निशी, मै उसे नहीं स्वीकार कर सकता। वह मेरा सत्य नही है। वह तुम्हारा अपना सत्य है।"
निशी का ब्लाउज जिस्म से चूकर जमीन पर गिर जाता है। वह अस्फ़ुट स्वर में कहती है,"निक्कू, क्या तुम्हारा सत्य मेरे सत्य से अलग है?"
इसी को 'ठांय' कहते है। इसी के साथ निशी और निक्कू फ़िलासफ़ी की हजार मीटरवाली दौड़ मे निकल पड़ते हैं। अब निशी की ब्रा भी जमीन पर गिर जाती है, निक्कू की टाई और कमीज हवा में उड़ जाती है। गिरते-पड़ते, एक-दूसरे पर लोटते-पोटते वे मैदान के दूसरे छोर पर लगे हुए फ़ीते को सत्य समझकर किसी तरह यहां पहुचते है, तब पता चलता है, वह सत्य नही है। फ़िर संयोग-श्रंगार, जलते हुए होंठ। फ़िलासफ़ी की मार। थोड़ी ही देर में वे मैदान छोड़ कर जंगल में आ जाते हैं और पत्थरों से छिलते हुए, कांटो से बिंधे नंगे बदन,झांक-झांककर प्रत्येक झाड़ी में देखते हैं और इस तरह नंगापन सुबुक-सुबुक, चूमाचाटी, व्याख्यान आदि के महौल में उस खरगोश का पीछा करते रहते है जिसका कि नाम सत्य है।
यह फ़िलासफ़ी लगभग सभी महत्वपूर्ण काव्यों और कथाओं में होती है और इसीलिए ठीक नहीं की इस उपन्यास के पाठक भी काफ़ी देर से फ़िलासफ़ी के एक लटके का इन्तजार कर रहे हों और सोच रहे हों, हिन्दी का यह उपन्यास इतनी देर से और सब तो कह रहा है, फ़िलासफ़ी क्यों नहीं कहता? क्या मामला है? यह फ्राड तो नही है?
यह सही है कि 'सत्य','अस्तित्व' आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला उठता है,"सुनो भाइयों यह किस्सा-कहानी रोककर मैं थोड़ी देर के लिए तुमको फ़िलासफ़ी पढ़ाता हूं, ताकि तुम्हें यकीन हो जाय कि वास्तव में मैं फ़िलासफ़र था, पर बचपन के कुसंग के कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूं। इसलिए हे भाइयो, लो, यह सोलह पेजी फ़िलासफ़ी का लटका; और अगर मेरी किताब पढ़ते-पढ़ते तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों-जैसी फ़िलासफ़ी नहीं आती, तो उस भ्रम को इस भ्रम से काट दो.......।"
तात्पर्य यह है, क्योंकि फ़िलासफ़ी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने-आपमें एक'वैल्यु'है,क्योंकि मैं कथाकार हूं, क्योंकि 'सत्य','अस्तित्व' आदि की तरह 'गुटबंदी'-जैसे एक महत्वपूर्ण शब्द का जिक्र आ चुका है, इसलिए सोलह प्रष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक-दो प्रष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूंगा कि सुनो-सुनो हे भाइयों, वास्तव में तो मैं एक फ़िलासफ़र हूं, पर बचपन के कुसंग के कारण...।
वेदान्त के अनुसार- जिसका हवाला वैद्यजी आयुर्वेद के पर्याय के रुप में दिया करते थे - गुटबन्दी परात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है। उसमें प्रत्येक 'तू','मैं' को और प्रत्येक 'मैं','तू'-को अपने से ज्यादा अच्छी स्थिति में देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है। 'मैं' 'तू' और 'तू' 'मैं' को मिटाकर 'मैं' की जगह 'तू' और 'तू' की जगह 'मैं' बन जाना चाहता है।
वेदान्त हमारी परम्परा है और चूकिं गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खीचा जा सकता है, इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है, और दोनों हमारी सांस्क्रतिक परम्पराएं हैं। आजादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत-सी सांस्क्रतिक परम्पराओं को फ़िर से खोद कर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते है; फ़ांरेन ऎक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्कते दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं स्काच व्हिस्की पीकर भगन्दर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर सांस फ़ुलाते है, पेट सिकोड़ते है। उसी तहर विलायती तालीम में पाया हुआ जनतन्त्र स्वीकार करते है और उसको चलाने के लिए अपनी परम्परागत गुटबन्दी का सहारा लेते है। हमारे इतिहास में-चाहे युद्धकाल रहा हो, या शान्तिकाल-राजमहलों से लेकर खलिहानों तक गुटबन्दी द्रारा 'मैं' को 'तू' और 'तू' को 'मैं' बनाने की शानदार परम्परा रही है। अंग्रेजी राज्य में अंग्रेजों को बाहर भगाने के झंझट में कुछ दिनों के लिए हम उसे भूल गये थे। आजादी मिलने के बाद अपनी और परम्पराओं के साथ इसको भी हमने बढ़ावा दिया है। अब हम गुटबन्दी को तू-तू, मैं-मैं, लात जूता साहित्य और कला आदि सभी पद्धतियों से आगे बढ़ा रहे हैं। यह हमारी सांस्क्रतिक आस्था है। यह वेदान्त को जन्म देनेवाले देश की उपलब्धि है। यही, संक्षेप में, गुटबन्दी का दर्शन, इतिहास और भूगोल है।
इन मूल कारणों के साथ कालिज में गुटबन्दी का एक दूसरा कारण लोगों का यह विचार था कि कुछ होते रहना चाहिए। यहां सिनेमा नही है, होटल नहीं है, काफ़ी-हाउस नही, मारपीट, छुरेबाजी, सड़क की दुर्घटनाएं, नये-नये फ़ैशनों की लड़कियां, नुमायशे गाली-गलौजवाली सार्वजनिक सभाएं-ये भी नही है। लोग कहां जाये? क्या देखे? क्या सुनें इसलिए कुछ होते रहना चाहिए।
चार दिन हुए, कालिज में एक प्रेम-पत्र पकड़ा गया था जो एक लड़के ने लकड़ी को लिखा था। लड़के ने चालाकी दिखाई थी; पत्र पढ़ने से लगता था कि वह सवाल नहीं, लड़की के पत्र का जवाब है; पर चालाकी कारगर नहीं हुई। लड़का डांटा गया, पीटा गया, कालिज से निकाला गया, फ़िर उसके बाप के इस आश्वासन पर कि लड़का दोबारा प्रेम न करेगा, और इस वादे पर कि कालिज के नये ब्लाक के लिए चालीस हजार ईंटे दे दी जायेंगी, कालिज में फ़िर से दाखिल कर लिया गया, कुछ हुआ भी तो उसका असर चार दिन से ज्यादा नहीं रहा। उससे पहले एक लड़के के पास देसी कारतूसी तमंचा बरामद हुआ था। तमंचा बिना कारतूस का था और इतना भोंडा बना था कि इस देश के लोहारों की कारीगरी पर रोना आता था। पर इन कमजोरियों के होते हुए भी कालिज में पुलिस आ गयी और लड़के को और वैद्यजी का आदमी होने के बावजूद क्लर्क साहब को, लेकर थाने पर चली गयी। लोग प्रतीक्षा करते रहे कि कुछ होने वाला है और लगा कि चार-छ: दिन तक कुछ होता रहेगा। शाम तक पता चला कि जो निकला था वह तमंचा नही था, बल्कि लोहे का एक छोटा-सा टुकड़ा था, और क्लर्क साहब थाने पर पुलिस के कहने से नहीं बल्कि अपने मन से तफरीह करने के लिए चले गये थे और लड़का गुण्डागिरी नहीं कर रहा था बल्कि बांसुरी बहुत अच्छी बजाता था। शाम को जब क्लर्क तफ़रीह करता हुआ और लड़का बांसुरी बजाता हुआ थाने से बाहर निकला, तो लोगों की तबीयत गिर गयी। वे समझ गये कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ और उनके सामने फ़िर वही शाश्वत प्रश्न पैदा हो गया: अब क्या हो?
इस वातावरण में लोगों की निगाह प्रिंसिपल साहब और वैद्यजी पर पड़ी थे। वैद्यजी तो अपनी जगह मदनमोहन मालवीय-शैली की पगड़ी बांधे हुए इत्मीनान से बैठे थे, पर प्रिंसिपल साहब को देखकर लगता था कि वे बिना किसी सहारे के बिजली के खम्भे पर चढे़ हुए और दूर से ही किसी को देखकर चीख रहे है:'देखो,देखो, वह कोई शरारत करना चाहता है।' उनकी निगाह में सन्देह था और अपनी जगह पर चिपके हुए प्रत्येक भारतवासी का भय था कि कोई हमें खींचकर हटा न दे। लोग कमजोरी ताड़ गये और उनको, और उसी लपेट में वैद्यजी को लुलुहाने लगे। उधर वे लोग भी मार न पड़ जाये, इस डर से पहले ही मारने पर आमादा हो गये।
उन्हीं दिनों एक दिन खन्ना मास्टर को किसी ने बताया कि हर कालिज के सबसे बड़े लेक्चरार थे। इसे धोखे में वे एक दिन वैद्यजी से कह आये कि उन्हें वाइस प्रिंसिपल बनाया जाना चाहिए। वैद्यजी ने सिर हिलाकर कहा कि यह एक नवीन विचार है, नवयुवकों को नवीन चिन्तन करते ही रहना चाहिए, उनके प्रत्येक नवीन विचार का मै स्वागत करता हूं, पर यह प्रश्न प्रबन्ध-समिति के देखने का है, उसकी अलग बैठक में यदि यह प्रश्न आया तो इस पर समुचित विचार किया जाया जायेगा। खन्ना मास्टर ने यह नही सो्चना कि प्रबन्ध-समिति के अगली बैठक कभी नहीं होती। उन्होनें तत्काल वाइस प्रिंसिपल का पद पाने के लिए एक दरख्वास्त लिखी और प्रिंसिपल को इस प्रार्थना के साथ दे दी कि इसे प्रबन्ध-समिति की अगली बैठक में पेश कर दिया जायॆ।
प्रिसिपल साहब खन्ना मास्टर की इस हरकत पर हैरान रह गये। उन्होंने वैद्यजे से जाकर पूछा,"खन्ना को यह दरख्वास्त देने की सलाह आपने दी है?"
इसका उत्तर वैद्यजी ने तीन शब्दों में दिया,"अभी नवय॔वक हैं।" इसके बाद कुछ दिनों तक प्रिंसिपल साहब शिवपालगंज के रास्ते पर मिलने वाले हर आदमी से प्राणिशास्त्री का यह कथन बताते रहे कि आजकल के लोग न जाने कैसे हो गये है। खन्ना मास्टर की इस हरकत का वर्णन वे 'मुहं में राम बगल में छूरी','हमारी ही पाली लोमड़ी, हमारे ही घर में हुआ-हुआ'(यद्यपि लोमड़ी 'हुआ-हुआ' नहीं करती),'पीठ में छुरा भोंकना','मेंढक को जुकाम हुआ है' जैसी कहावतों के सहारे करते रहें। एक दिन उन्होंने चौराहे पर खड़े होकर प्रतीकवादी ढंग से,"एक दिन किसी घोड़े के सुम में नाल ठोंकी जा रही थी। उसे देखकर एक मेंढक को शौक चर्राया कि हम भी नाल ठुकायेंगे। बहुत कहने पर नालवाले ने मेंढक के पैर में जरा-सी कील ठोक दी। बस, मेढक भाई वहीं ढेर हो गये। शौकीनी का नतीजा बुरा होता है।"
इस पंचतन्त्र के पीछे वही भय था: आज जो वाइस प्रिंसिपल होना चाहता है वह कल प्रिंसिपली चाहेगा। इसके लिए वह प्रबन्ध समिति के मेम्बरों को अपने ओर तोड़ेगा। मास्टरों का गुट बनायेगा। लड़कों को मार पीट के लिये उकसायेगा। ऊपर शिकायतें भिजवायेगा। वह कमीना है और कमीना रहेगा।
सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से, कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फ़ूलों सें।
इस कविता को ऊपर दर्ज करके रामाधीन भीखमखेड़वी ने वैद्यजी सो जो पत्र लिखा, उसका आशय था कि प्रबन्ध-समिति की बैठक, जो पिछ्ले तीन साल से नहीं हुई है, दस दिन में बुलाई जानी चाहिए और कालिज की साधारण समिति की सालाना बैठक-जोकि कालिज की स्थापना के साल के अब तक नहीं हुई है-के बारे में वहां विचार होना चाहिए। उन्होंने विचारणीय विषयों में वाइस प्रिंसिपल के तकर्रुरी का भी हवाला दिया था।
प्रिंसिपल साहब जब यह पत्र अपनी जेब में डालकर वैद्यजी के घर के बाहर निकल्रे तो उन्हें अचानक उससे गर्मी-सी निकलती महसूस हुई। उन्हें जान पड़ा़ कि उनकी कमीज झुलस रही है और गर्मी की धारायें कई दिशाओं मे बहने लगी है। एक धारा उनके कोट को झुलसाने लगी, दूसरी कमीज के नीचे से निकलकर उनकी पैण्ट के अन्दर घुस गयी और उसके कारण उनकें पैर तेजी से पढ़्ने लगे। एक तीसरी धारा उनके आंख, कान और नाक पर लाल पालिश चढ़ाती हुई खोपड़ी के उस गड्ढे की ओर बढ़ने लगीं जहां कुछ आदमियों के दिमाग हुआ करता है।
कालिज के फ़ाटक पर ही उन्हें रुप्पन बाबू मिल गये और उन्होंने रुककर कहना शुरु किया,"देख लिया तुमने? खन्ना रामाधीन का खूंटा पकड़कर बैठे हैं।वाइस-प्रिंसिपली का शौक चर्राया है। एक बार एक मेढक ने देखा कि घोड़े के नाल ठोंकी जा रही है तो उसने भी.....।"
रुप्पन बाबू कालिज छोड़कर कहीं बाहर जा रहे थे और जल्दी में थे। बोले,"जानता हूं। मेंढकवाला किस्सा यहां सभी को मालूम है। पर मैं आपसे एक बात साफ़-साफ़ बता दूं। खन्ना से मुझे हमदर्दी नहीं है, पर मै समझता हूं कि यहां एक वाइस-प्रिंसिपल का होना जरुरी है। आप नहीं रह्ते रो यहां सभी मास्टर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते है। टीचर्स-रुम में वह गुण्डागर्दी होती है कि क्या बतायें। वहीं हे-हे, ठे-ठे, फ़े,फ़े!" वे गम्भीर हो गये और आदेश के ढंग से कहने लगे,"प्रिंसिपल साहब, मै समझता हू कि हमारे यहां एक वाइस प्रिंसिपल भी होना चाहिए। खन्ना सबसे ज्यादा सीनियर है। उन्हीं को बन जाने दीजिए। सिर्फ़ नाम की बात है, तनख्वाह तो बढ़नी नही है।"
प्रिसिपल साहब का दिल इतनी जोर से धड़का कि लगा, उछलकर फ़ेफ़ड़े में घुस जायेगा। वे बोले," ऎसी बात अब कभी भूलकर भी न कहना रुप्पन बाबू! ये खन्ना-वन्ना चिल्लाने लगेंगे कि तुम उनके साथ हो। यह शिवपालगंज है। मजाक में भी सोच कर बोलना चाहिए।"
"मै तो सच्ची बात कहता हूं। खैर, देखा जायेगा।"कहते-कहते रुप्पन बाबू आगे बढ़ गये।
प्रिंसिपल साहब तेजी से अपने कमरे में आ गये। ठण्डक थी, पर उन्होंने कोट उतार दिया। शिक्षा-सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करनेवाली किसी दुकान का एक कैलेण्डर ठीक उनकी नाक के सामने दीवार पर टंगा हुआ था जिसमें नंगे बदन पर लगभग एक पारदर्शक साड़ी लपेटे हुए कोई फ़िल्म-एक्ट्रेस एक आदमी की ओर लड्डू जैसा बढ़ा रही थी। आदमी चेहरे पर बड़े-बड़े बाल बढ़ाये हुए, एक हाथ आंखो के सामने उठाये, ऎसा मुंह बना रहा था जैसे लड्डू खाकर उसे अपच हो गया हो। ये मेनका और विश्वामित्र थे। वे इन्हीं को थोड़ी देर देखते रहे, फ़िर घण्टी बजाने की जगह जोर से चिल्लाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा,"खन्ना को बुलाओ।"
चपरासी ने रहस्य के स्वर में कहा," फ़ील्ड की तरफ़ गये हैं। मालवीयजी साथ में हैं।"
प्रिंसिपल ने उकताकर सामने रखे हुए कमलदान को घसीटकर दूर रख दिया। कमलदान भी नमूने के तौर पर किसी ऎजुकेशन एम्पोरियम से मुफ़्त में मिला था और जिस तरह प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर पर पटका था, उससे लगता था, उस साल एम्पोरियम का कोई भी माल कालिज में नहीं खरीदा जायेगा। पर प्रिंसिपल साहब का मतलब यह नही था; वे इस वक्त चपरासी को सिर्फ़ यह बताना चाहते थे कि वे उसकी खुफ़िया रिपोर्ट अभी सुनने को तैयार नहीं है। उन्होंने कड़ककर कहां,"मै कहता हूं, खन्ना को इसी वक्त बुलाओ।"
चपरासी गाढ़े का साफ़ कुर्ता और साफ़ धोती पहने हुए था। उसके पैरों में खड़ाऊं और माथे पर तिलक था। उसने शान्तिपूर्वक कहा," जा रहा हू। खन्ना को बुलाये लाता हूं। इतना नाराज क्यों हो रहे हैं?"
प्रिंसिपल साहब दांत पीसते हुए तिरछी निगाहो से मेज पर रखे हुए टीन के एक टुकड़े को देखते रहे। इस पर पालिश करके एक लाल गुलाब का फ़ुल बना दिया गया था। नीचे तारीख और महीना बताने के लिए कैलेण्डर लगाया गया था। इसे शराब बनाने की एक प्रसिद्ध फ़र्म ने पं. जवाहरलाल नेहरु की यादगार में बनवाया था और मुफ़्त मे चारो दिशाओं में इस विश्वास के साथ भेजा था कि जहां यह कैलेण्डर जायेगा वहां की जनता पं. जवाहरलाल नेहरु के आदर्शो को और इस फ़र्म की शराब को कभी न भूलेगी। पर इस वक्त कैलेण्डर का प्रिंसिपल साहब पर कोई असर नही हुआ। पं. नेहरु के लाल गुलाब ने उन्हें शान्ति नहीं दी; न फ़ेनदार बियर की कल्पना ने उनकी आखों को मूंदने के लिए मजबूर किया। वे दांत पीस रहे थे और पीसते रहे। अचानक, जिस वक्त चपरासी का खड़ाऊं दरवाजे की चौखट पार कर रहा था, उन्होंने कहा, "रामाधीन इन्हें वाइस-प्रिंसिपली दिलायेंगे! टुच्चे कहीं के!"
चपरासी घूम पड़ा। दरवाजे पर खड़े-खड़े बोला, "गाली दे रहे हो, प्रिंसिपल साहब?"
उन्होंने कहां, "ठीक है, ठीक है, जाओ, अपना काम करो।"
"अपना काम तो कर ही रहा हू। आप कहें तो अब न करूं।"
प्रिंसिपल माथे पर झुर्रिया डालकर दीवार पर टंगे दूसरे कैलेण्डर को देखने लगे थे। चपरासी ने उसी तरह पूछा," कहें तो खन्ना पर निगाह रखना बन्द कर दूं।"
प्रिंसिपल साहब चिढ़ गये। बोले,"भाड़ मे जाओ।"
चपरासी उसी तरह सीना ताने खड़ा रहा। लापरवाही से बोला," मुझे खन्ना-वन्ना न समझ लीजिएगा। काम चौबीस घंटे करा लीजिए, वह मुझे बरदाश्त है, पर यह अबे-तबे तू-तड़ाका मुझे बरदाश्त नही।"
प्रिंसिपल साहब उसकी ओर देखते रह गये। चपरासी ने कहा,"आप बांभन है और मैं भी बांभन हूं। नमक से नमक नहीं खाया जाता। हां!"
प्रिंसिपल साहब ने ठण्ड सुरों में कहा," तुम्हें धोखा हुआ है। मैं तुम्हें नहीं खन्ना दे लिए कह रहा था। टुच्चा है। रामाधीन से मिलकर मीटिंग करने का नोटिस भिजवाता है।" चपरासी को यकीन दिलाने के लिए कि यह गाली खन्ना को ही समर्पित है, उन्होंने फ़िर कहां "टुच्चा!"
"अभी बुलाये लाता हूं।"चपरासी की आवाज भी ठण्डी पड़ गयी। प्रिंसिपल साहब खड़ाऊंओं की धीमी पड़ती हुई 'खट-खट' सुनते रहे। उनकी निगाह एक तीसरे कैलेण्डर पर जाकर केन्द्रित हो गयी जिसमें पांच-पांच साल के दो बच्चे बड़ी-बड़ी राइफ़ले लिये बर्फ़ पर लेटे थे और शायद चीनियों की फ़ौज का इन्तजार कर रहे थे और इस तरह बड़े कलात्मक ढंग से बता रहे थे कि फ़ैक्ट्री में जुट के थैले सबसे अच्छे बनते है।
प्रिंसिपल साहब इस कैलेण्डर पर निगाह जमाकर बैठे हुए खन्ना का इन्तजार करते रहे और सोचते रहे कि इसे वाइस-प्रिंसिपल का शौक न चर्राया होता तो कितना अच्छा होता! वे भूल गये कि सबके अपने-अपने शौक है। रामाधीन भीखमखेड़वी को चिठ्ठी के आरम्भ में उर्दू-कविता लिखने का शौक है; खुद उन्हें अपने दफ़्तर में रंग-बिरंगे कैलेण्डर लटकाने का शौक है, और चपरसी को, जो कि क्लर्क ही की तरह वैद्यजी का रिश्तेदार था, अकडकर बात करने का शौक है।
प्रिंसिपल साहब खन्ना का इन्तजार करते रहे। उधर होनेवाली घटना को ऎतिहासिक बनाने के लिए बाहर के बरामदे में क्लर्क साहब आकर खड़े हो गये। दीवार के पीछे और खिड़की के नीचे ड्रिल-मास्टर टांग पसारकर खड़े-खड़े, पेशाब करने के बजाय बीड़ी पीने लगे। इस बात का खतरा नहीं रहा कि खन्ना और प्रिंसिपल साहब का संवाद जनता तक पहुंचने के पहले ही हवा में उड़ जायेगा।
रात रंगनाथ और बद्री छत पर कमरे में लेटे थे और सोने के पहले के पहले की बेतरतीब बातें शुरू हो गयीं थीं। रंगनाथ ने अपनी बात खत्म करते हुये कहा," पता नहीं चला कि प्रिंसिपल और खन्ना मास्टर में क्या बात हुई। ड्रिल-मास्टर बाहर खड़ा था। खन्ना मास्टर ने चीखकर कहा, आपकी यही इन्सानियत है!,"वह सिर्फ़ इतना ही सुन पाया।
बद्री ने जम्हाई लेते हुए कहा," प्रिंसिपल ने गाली दी होगी। उसी के जवाब में उसने इन्सानियत की बात कही होगी। यह खन्ना इसी तरह बात करता है। साला बांगडू है।"
रंगनाथ ने कहा," गाली का जवाब तो जूता है।"
बद्री ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रंगनाथ ने फ़िर कहा," मै तो देख रहा हूं, यहां इन्सानियत का जिक्र ही बेकार है।" बद्री ने सोने के लिए करवट बदल ली। गुड नाइट' कहने की शैली में बोले,"सो तो ठीक है। पर यहां जो भी क-ख-ग-घ पढ़ लेता है,उर्दू भूंकने लगता है। बात-बात में इन्सानियत-इन्सानियत करता है। कल्ले में जब बूता नही होता,तभी इन्सानियत के लिए जी हुड़कता है।"
बात ठीक थी। शिवपालगंज में इन दिनों इन्सानियत का बोलबाला था। लौण्डे दोपहर की घनी अमराइयों में जुआ खेलते थे। जीतनेवाले जीतते थे, हारनेवाले कहते थे, 'यही तुम्हारी इन्सानियत है? जीतते ही तुम्हारा पेशाब उतार आता है। टरकने का बहाना ढुंढने लगते हो।"
कभी-कभी जीतनेवाला भी इन्सानियत का प्रयोग करता था। वह कहता,'क्या इसी का नाम इन्सानियत है? एक दांव हारने में ही पिलपिला गये। यहां चार दिन बाद हमारा एक दांव लगा तो उसी में हमारा पेशाब बन्द कर दोगें?"
ताड़ीघर में मजदूर लोग सिर को दांये-बाये हिलाते रहते। १९६२ मे भारत को चीन के विश्वासघात से जितना सदमा पहुचा था, उसी तरह के सदमे का दुश्य पेश करते हुए वे कहते,'बुधुवा ने पक्का मकान बनवा डाला। कारखानेवलों के ठाठ हैं। हमने कहा, पाहुन आये है। ताड़ी के लिए दो रुपये निकाल दो, तो उसने सीधे बात नही की, पिछल्ला दिखा के चला गया। बताओ नगेसर, क्या यही इन्सानियत है?"
यानी इन्सानियत का प्रयोग शिवपालगंज में उसी तरह और चालाकी का लक्षण माना जाता था जिस तरह राजनीति में नैतिकता का। यह दूसरी बात है कि बद्री पहलवान इसे कल्ले की कमजोरी समझते थे। यह संदेश देकर और नैतिकता पर उसे लागू करने के लिए रंगनाथ को जागता छोड़कर वे बात-की-बात में सो गये।
रंगनाथ कम्बल ओढ़े छत की ओर देखता हुआ लेटा रहा। दरवाजा खुला था और बाहर चांदनी फ़ैली थी। थोड़ी देर उसने सोफ़िया लारेन और एलिजाबेथ का ध्यान किया, पर कुछ छण बाद ही इसे चरित्रहीनता की अलामत मानकर वह अपने शहर के धोबी की लड़की के बारे में सोचने लगा जो धुलाई के कपड़ो से अपने लिए पोशाक निकालते वक्त पिछले दिनों बिना बांह के ब्लाउजों को ज्यादा तरजीह देने लगी थी। कुछ देर में इस परिस्थिति को भी कुछ घटिया समझकर फ़िल्मी अभिनेत्रियों पर उसने दोबारा ध्यान लगाया और इस बार राष्ट्रीयता और देश-प्रेम के नाम पर लिज टेलर आदि को भुलाकर वहीदा रहमान और सायरा बानू का सहारा पकड़ा। दो-चार मिनट बाद ही वह इस नतीजे पर पहुंचने लगा कि हर बात में विलायत से प्रेरणा लेना ठीक नहीं है और ठीक से मन लग जाये तो देश-प्रेम में भी बड़ा मजा है। अचानक उसे नींद-सी आने लगी और बहुत कोशिश करने पर भी सायरा बानू के समूचे जिस्म के सामने उसके ध्यान का रकबा छोटा पड़ने लगा। उसमें कुछ शेर और भालू छलांगे लगाने लगे। उसने एक बार पूरी कोशिश से सायरा बानू को धड़ से पकड़कर घसीटना चाहा, पर वह हाथ से बाहर फ़िसल गयी और उसी सौदे में शेर और भालू भी बाहर निकल गये। तभी उसके दिमाग में खन्ना मास्टर की बनती-बिगड़ती हुई तस्वीर दो-एक बार लुपलुपायी और एक शब्द गूंजने लगा 'इन्सानियत-इन्सानियत!'
पहले लगा कोई यह शब्द फ़ुस्फ़ुसा रहा है। फ़िर जान पड़ा, इसे कोई मंच पर बड़ी गम्भीर आवाज में पुकार रहा है। उसके बाद ही ऎसा जान पड़ा, कहीं दंगा हो रहा है और चारों ओर से लोग चीख रहे है, 'इन्सानियत! इन्सानियत!इन्सानियत!!!'
वह जाग पड़ा और जागते ही शोर सुनायी दिया," चोर! चोर! चोर! जाने ना पाये! पकड़ लो! चोर! चोर! चोर!"
एकाध क्षणों के बाद पूरी बात 'चोर! चोर! चोर! ' पर आकर टूट रही थी, जैसे ग्रामोफ़ोन की सुई रिकार्ड में इसी नुक्ते पर फ़ंस गयी हो। उसने देखा, शोर गांव में दूसरी तरफ़ हो रहा था। बद्री पहलवान चारपाई से कूद कर पहले ही नीचे खड़े हो गये है। वह भी उठ बैठा। बद्री ने कहा,"छोटे कहता ही था। चोरों का एक गिरोह आसपास घूम रहा है। लगता है, गांव में भी आ गये।"
दोनों जल्दी-जल्दी कपड़े पहनकर बाहर आये। कपड़े का अर्थ यही नहीं कि बद्री ने चूड़ीदार पैजामा और शेरवानी पहनी हो। नंगे बदन पर ढीली पड़ी हुई तहमद उन्होंने कमर के चारों ओर कस ली और एक चादर ओढ़ लिया। बस, कपड़े पहनने की क्रिया पूरी हो गयी। रंगनाथ परमहंसों की इस गति तक नही पहुंच पाया था। उसने कमीज डाल ली। दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते उसके कदम और भी तेज हो गये। तब तक चारों ओर से 'चोर!चोर!' के नारे उठने लगे थे। शोर हाथों-हाथ इतना बढ़ गया कि अंग्रेजो ने अगर उसे १९२१ मे सुन लिया होता तो हिन्दुस्तान छोड़कर वे तभी अपने देश भाग गये होते।
दोनों जीने से उतर कर नीचे आये। बैठक से बाहर निकलते-निकलते बद्री पहलवान ने रंगनाथ से कहा,"तुम यहीं दरवाजा बन्द करके घर बैठो। मैं बाहर जाकर देखता हूं।"
ऐसा लगा जैसे बाहर जाने का मतलब जौहर दिखाना था या चक्रव्यूह भेदना था। दोनों भाई बाहर जाने की जिद पकड़ गये। रंगनाथ ने शहीदों की-सी अदा में कहा," यह है, तो जाइए आप लोग बाहर। मै ही घर पर रहूगां।"
सामने सड़क से चांदनी में तीन आदमी 'चोर! चोर!' चोखते हुए निकले उनके पीछे दो आदमी उसी तरह 'चोर! चोर' का नारा बुलन्द करते हुए निकल गये। फ़िर एक आदमी उसी तरह 'चोर! चोर!' का हल्ला मचाता हुआ निकला। फ़िर तीन आदमी और; सबके हाथो में लाठियां थी। सभी दौड़ रहे थे। तभी चोरों को दौड़ा रहे जुलूस में सबसे बाद में निकलनेवालों में से बद्री ने कुछ को पहचाना । वह भी दौड़कर उन्हीं से मिल गये। पुकारकर बोले," कौन है? चोर कहां है?"
छोटे ने हांफ़ते-हांफ़ते कहा," आगे! आगे निकल गये! " कुछ देर शान्ति रही।
रुप्पन बाबू और रंगनाथ बैठक का दरवाजा बन्द करके, ताला लगाकर छत पर वापस चले आये। नीचे से वैद्यजी खंखारकर बोले,"कौन है?"
रुप्पन बाबू ने जवाब दिया,"चोर हैं पिताजी!"
वैद्यजी घबराहट में गरजकर बोलें," कौन रुप्पन तुम छत पर हो?"
रुप्पन ने गांव में उठते हुए शोर को अपनी ओर से यथाशक्ति बढ़ावा देते हुए कहा, 'हां, हमी हैं। क्यों जान-बूझकर पूछ रहे हो? चैन से सोते क्यों नही?"
वैद्यजी अपने छोटे लड़के की यह आदर- भरी वाणी सुनकर चुप हो गये। छत पर रुप्पन बाबू और रंगनाथ गांव-भर में फैलती-फूटती आवाजों को सुनते रहे।
कोई मकान के पिछवाड़े चिल्लाया,"मार डाला!"
और शोर। किसी ने चीखकर कहा," अरे, नही छोटे! यह तो भगौती है।"
"छोड़ो। इसे छोड़ो। इधर! उधर चोर उधर गये है।"
कोई रो रहा था। किसी ने सान्त्वना दी," अरे,क्यों रांड-जैसा रो रहा है? एक डण्डा पड़ गया, उसी से फ़ांय-फ़ांय कर रहा है।"
रोते-रोते उसने जवाब दिया,"हम भी कसर निकालेंगे। देख लेंगे।"
फ़िर कुहराम,"उधर! उधर! जाने न पाये! दे दायें से एक लाठी! मार उछल के! क्या साला बाप लगता है?"
रंगनाथ को उत्साह और उत्सुकता के साथ-ही-साथ मजा भी आने लगा। यह भी कैसा नियम है! यहां लाठी चलाते समय बाप ही को अपवाद-रुप में छोड़ दिया जाता है।
धन्य है भारत, तेरी पित्र-भक्ति!
रुप्पन बाबू बोले,"भगौती और छोटॆ की चल रही थी। लगता है, इसी धमाचौकड़ी में छोटे ने कुछ कर दिया।"
रंगनाथ ने कहा,"यह तो बड़ी गड़बड़ बात है।"
रुप्पन बाबू उपेक्षा के साथ बोले,"गड़बड़ क्या है? दांव लग जाने की बात है।
छोटे देखने में भोंदू लगता है, पर बड़ा घाघ है।"
दोनों फ़िर चारों ओर की भगदड़ और शोर की ओर कान लगाये रहे। रंगनाथ ने कहा, "शायद चोर निकल गये।"
"वह तो यहां हमेशा ही होता है।"
रंगनाथ ने रुप्पन बाबू के ग्राम-प्रेम की चापलूसी करनी चाही। बोले,"शिवपालगंज में चोर आकर निकल जायें, यह तो सम्भव नहीं। बद्री दादा बाहर निकले हैं तो एक-दो पकड़े ही जायेगे।"
किसी पुरानी पीढ़ी के नेता की तरह अतीत की ओर हसरत के साथ देखते हुए रुप्पन बाबू ने ठण्डी सांस भरी। कहने लगे," नहीं रंगनाथ दादा, अब वह पहलेवाले दिन गये। वह ठाकुर दुरबीनसिंह का जमाना था। बड़े-बड़े चोर शिवपालगंज के नाम से थर्राते थे। रुप्पन बाबू की आंखे वीर-पूजा की भावना से चमक उठी। पर बात यहीं रुक गयी। शोर का आखिरी दौर चल निकला था और लोग आसमान फ़ाड़ने से उद्देश्य से बजरंग बली की जय बोलने लगे थे। रंगनाथ ने कहा,"लगता है, कोई चोर पकड़ा गया।"
रुप्पन बाबू ने कहा,"नहीं, मैं गंजहा लोगो को खूब जानता हू। चोरों को गांव से बाहर खदेड़ दिया होगा, चोरों ने खुद इन्हें गांव के बाहर नही खदेड़ा, यही क्या कम है? इसी खुशी मे जय-जयकार लगाई जा रही है।"
चांदनी में लोग दो-दो, चार-चार के गुट बनाकर किचमिच-किचमिच करते हुए सड़क और दूसरे रास्तों से आ-जा रहे थे। रुप्पन बाबू ने मुंडेर के पास खड़े होकर देखा। एक गुट ने नीचे से कहा,"जागते रहना रुप्पन बाबू! रात-भर होशियारी से रहना।"
रुप्पन बाबू घ्रणा के साथ वहीं से बोले,"जाओ, बहुत नक्शेबाजी न झाड़ो।"
रंगनाथ की समझ मे नही आया कि इतनी अच्छी सलाह का रुप्पन बाबू इस तरह क्यों तिरस्कार कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद यही सलाह गांव के कोने-कोने में गूंजने लगी,"जागते रहो, जागते रहो!"
शोर अब रह-रहकर हो रहा था। चारों ओर सीटियां भी सुनायी देने लगी थी। रंगनाथ ने कहां," ये सीटियां कैसी है?"
रुप्पन बाबू बोले,"क्या पुलिस शहर मे गश्त नही लगाती?"
"ओह! तो पुलिस भी अब मौके पर आ गयी है।"
"जी हां! पुलिस ने ही तो गंववालों की मदद से डाकुओं का मुकाबला किया है।
पुलिसवालों ही ने तो उन्हें यहां से मार भगाया है।"
रंगनाथ आश्चर्य से रुप्पन बाबू को देखने लगा, "डाकू?"
"हां-हां डाकू नही तो और क्या? चांदनी रात कभी चोर भी आते हैं। ये डाकू तो थे ही।" रुप्पन बाबू जोर से ठठाकर हंसे। बोले,"दादा, ये गंजहा लोगों की बातें है, मुश्किल से समझोगे। मैं तो, जो अखबार में छपनेवाला है, उसका हाल आपको बता रहा हूं।"
एक सीटी मकान के बिल्कुल नीचे सड़क पर बजी। रुप्पन बोले,"तुमने मास्टर मोतीराम को देखा है कि नहीं? पुराने आदमी हैं दारोगाजी उनकी बड़ी इज्जत करते हैं। वे दारोगाजी की इज्जत करते है। दोनो की इज्जत प्रिंसिपल साहब करते है। कोई साला काम तो करता नही है, सब एक-दूसरे की इज्जत करते हैं।
"यही मास्टर मोतीराम शहर के अखबार के संवाददाता हैं। उन्होंने चोरों को डाकू भी न बताया तो मास्टर मोतीराम होने से फ़ायदा ही क्या?"
रंगनाथ हंसने लगा। सीटियां और 'जागते रहो' की आवाजे दूर-दूर तक बिखरने लगी। इधर-उधर के मकानों पर लोगों ने दरवाजे खुलवाने के लिए चीखना-चिल्लाना शुरु कर दिया। 'दरवाजा खोल दो मुन्ना' से लेकर 'मर गये ससुरे','अरे हम पुकार रहे है, तुम्हारे बाप' तक की शैलियां दरवाजा खुलवाने के लिए प्रयोग में आने लगीं। वैद्यजी के मकान पर भी किसी ने सदर दरवाजे के सांकल खटखटायी। बाहर लेटनेवाला एक हलवाहा जोर से खांसा। सांकल दोबारा खटकी। रंगनाथ ने कहा,"बद्री दादा होगे। चलो ताला खोल दे।"
वे लोग नीचे आ गये। ताला खोलते-खोलते रुप्पन ने पूछा,"कौन?"
बद्री ने दहाड़कर कहां,'खोलते हो कि नहीं? कौन-कौन लगाये हो?"
रुप्पन ने ताला खोलना बन्द कर दिया। बोले,"क्या नाम है?"
उधर से गला-फ़ाड़ आवाज आयी,"रुप्पन, कहे देता हूं, चुपचाप दरवाजा खोल दो......"
"कौन? बद्री दादा?"
"हां-हां, बद्री दादा ही बोल रहा हू। खोलो जल्दी।"
रुप्पन ने ढीले-ढाले हाथों से ताला खोलते हुए कहा,"बद्री दादा अपने बाबा का भी नाम बता दो।"
उन्होंने उसी तरह कोसते हुए बाबा का नाम बताया। फ़िर पूछा गया,"परबाबा का नाम?"
बद्री ने दरवाजे पर मुक्का मारा। कहा," अच्छा न खोलो, जाते हैं।
रुप्पन बाबू ने कहा,"दादा जमाना जोखिम का है। बाहर चोर लोग घूम रहे हैं, इसलिए पूछ रहा हूं। परबाबा का नाम भूल गये हो तो न बताओ, पर गुस्सा दिखाने से कोई फ़ायदा नहीं। गुस्से का काम बुरा है।"
बद्री पहलवान की असलियत की परीक्षा ले चुकने और क्रोध की निस्सारता पर अपनी राय देने के बाद रुप्पन बाबू ने दरवाजा खोला। बद्री पहलवान बिच्छू के डंक की तरह तिलमिलाते हुये अन्दर आये। रुप्पन बाबू ने पूछा,"क्या हुआ दादा? सभी चोर भाग गये।
बद्री पहलवान ने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप जीना चढ़कर ऊपर आ गये। रुप्पन बाबू नीचे ही अन्दर चले गये। ऊपर के कमरे में रंगनाथ और बद्री पहलवान जैसे ही अपनी-अपनी चारपाई पर लेटे, तभी नीचे गली से किसी ने पुकारा,"वस्ताद, नीचे आओ। मामला बड़ा गिचपिच हो गया है।"
बद्री ने कमरे के दरवाजे से ही पुकारकर कहा,"क्या हुआ छोटे? सोने दोगें कि रात भर यही जोते रहोगे?"
छोटे ने वही से जवाब दिया,"वस्ताद, सोने-वोने की बात छोड़ो। अब तो रपट की बात हो रही है। इधर तो साले गली-गली में 'चोर-चोर' करते रहें, उधर इसी चिल्लपों में किसी ने हाथ मार दिया। गयादीन के यहां चोरी हो गयी! उतर जाओ।"