क्या यही है वैराग्य? / मनीषा कुलश्रेष्ठ

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एक महीने पहले पहली बार जब सुमेधा ने हवेली में पैर रखा था तो रोमांच से भर उठी थी। काठ के भारी-भरकम नक्काशीदार दरवाजे, उकेरे हुए सुन्दर बेल-बूटों से सजे गोखडे, घेर-घुमेर अँधेरी-उजली सीढियाँ। छोटे-छोटे जनाना कमरे, बडे मर्दाना हॉल और बैठकें। चित्रकारी की हुई ऊँचीछतें, दीवारों पर भी नाथद्वारा शैली में चित्र बने थे, डोली,राधाकृष्ण की थीम पर, जिनके रंग कहीं-कहीं उखड ज़रूर गए थे मगर फीके नहीं पडे थे।

पारम्परिक पोशाक पहन कर तो वह अभिभूत हो गई थी, सोने-चाँदी के तारों की कढाई वाले लहँगा-ओढनी, बाजूबंद, तगडी, नथ, बोरला और भी न जाने कितने पारम्परिक गहने उसकी सास ने बडे अाग्रह से पहनाए थे और क्यों न पहनातीं, पुखराज उनका इकलौता बेटा और वह विजातीय सही उनकी एकमात्र बहू थी। तब पुखराज ने मुग्ध होकर कहा था,सुमेधा, इतनी रूपसी वधु पाकर तो कोई भी परिवार गर्वित होता,तोषनीवाल परिवार में तुम्हारा स्वागत है।

फिर भी वह ठन्डा सा विरोध लगातार महसूस कर रही थी। कहाँ बुध्दी जीवी और उदार मानसिकता वाले परिवार की बेटी सुमेधा और राजस्थान के एक जैन बहुल कस्बे के श्वेताम्बर जैन परिवार का बेटा पुखराज। पर क्या करते जब प्रेम उन्हें करीब लाकर एक दूसरे की नियति बना गया।

दोनों मेडिकल कॉलेज में पढते थे। पुखराज जब एम डी कर चुका तो विवाह को लेकर घरवालों की जल्दी के बारे में उसने सुमेधा को कहा कि अब वह और नहीं टाल पाएगा तो सुमेधा ने न चाह कर भी हाँ कहना पडा। न चाह कर इसलिये कि वह प्री पी जी की तैयारियाँ कर रही थी।पर पुखराज को खोना उसे किसी भी कीमत पर नामजूंर था। सुमेधा के परिवार में इस विवाह के प्रति कोई विरोध न था, हाँ मम्मी चिंतित थीं कि ऐसे ऑर्थोडॉक्स परिवार में कैसे निभाव कर पाएगी सुमेधा? पुखराज के पिता तो माने नहीं मान रहे थे कि एक कायस्थ परिवार की लडक़ी उनके परिवार की वधु बने। जाति-धर्म के अतिरिक्त भी तो खान-पान,पहनावे और रहन-सहन में गहरा अन्तर था। प्रत्यक्षत: पुखराज ने पिता से कोई बहस नहीं की पर माँ से साफ-साफ कह दिया कि वह बहुत पहले ही यह निर्णय ले चुका है, तीन सालों के भावनात्मक जुडाव के बाद अब वह सुमेधा से अलग रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता, अब यह विवाह तो होगा ही चाहे बाऊजी के आर्शीवाद से हो या उनके आर्शीवाद के बिना।

माँ ने बडी क़ठिनाई से पिता-पुत्र की संधि कराई। माँ व्यवहारिक है जानती थी कि जाति-धर्म की हठ कहीं बेटे को अलग न करदे, वह भी इकलौता लायक बेटा। मन ही मन कोसा तो जरूर होगा कि , इसे भी मेरा ही बेटा मिला था?

फिर भी बेमन से उन्होंने इस विवाह की स्वीकृति पिता से दिलवा ही दी,और एक सादा से विवाह समारोह के बाद सुमेधा बहू बन कर यँहा आ गई, यँहा प्रतापगढ में पापा जी ने फिर सारे समाज को बुला कर शानदार रिसेपश्न दिया था। और एक सप्ताह तक जीमण चलता ही रहा।

ये सुमेधा का ससुराल जहाँ प्याज तो दूर की बात है, गोभी, अंकुरित दालें तक निषेध थीं और चौमासे में हरी सब्जियां भी। खानपान से सुमेधा को कोई आपत्ति न थी बस डॉक्टर होने के नाते कभी-कभी दबे स्वर में इनका महत्व समझाना चाहती तो पुखराज की मम्मी नाराज हो जातीं,पुखराज कहता, सुमेधा वैसे भी हमारे विवाह से ये लोग खुश नहीं ऐसे में तुम उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस मत पहुँचाया करो। कितना रहना है आखिर तुम्हें यँहा, दो महीने बाद ही एम एस करने तुम्हें उदयपुर जाना ही होगा।

सुमेधा चाह कर भी प्रतिवाद न कर सकी थी। ठीक ही तो है। पर वह यह भी जानती थी कि दो साल बाद सही, रहना तो इसी कस्बे में है। एक तो पुखराज इकलौता बेटा उस पर आदर्शवादी व्यक्ति और सबसे उपर पुखराज के परिवार के धार्मिक गुरू जैन मुनि अवनिन्द्र जी का आदेश कि पुखराज प्रतापगढ रह कर ही प्रेक्टिस करे और एक निशुल्क अस्पताल की स्थापना हो जिसकी वे दोनों जिम्मेदारी लें जिसमें आस-पास के तमाम गाँवों के मरीजों का इलाज मुफ्त हो। इस आदेश को स्वयं सुमेधा के आदर्श भी पूरी श्रध्दा के साथ मानते थे और वह पुखराज के सपनों की साझीदार बन कर रहना चाहती थी। बडे शहरों, मोटी फीसों और आपाधापी भरे जीवन के प्रति ऐसा कोई लगाव भी न था। पुखराज और उसे यही आदर्श, यही विचार करीब लाए थे।

जून माह अपने अंत पर था, हल्की-फुल्की फुहारों के साथ चौमासा शुरू हो रहा था। सुमेधा को बेसब्री से इन्तजार था अपने प्री पी जी के रिजल्ट का, पता नहीं मैरिट में उसे कहाँ नम्बर मिले, न जाने कौनसी ब्रांच मिले। गायनोकॉलोजी मिलने पर ही वह सच्चे अर्थों में ग्रामीण महिलाओं और रूढियों से घिरी कस्बाई महिलाओं के लिये कुछ कर पाएगी।

हवेली में गहमा-गहमी शुरू हो गई थी। पूरे दो बरस बाद प्रतापगढ क़े स्थानक में जिनवर मुनी अवनिन्द्र जी महाराजसा अन्य मुनियों के साथ पधार रहे हैं। पुखराज भी उत्साहित था, और अस्पताल के बारे में अपनी योजना उन्हें बताना चाहते थे, कहीं थोडी सी दुविधा थी कि, अर्न्तजातीय विवाह को लेकर न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो उनकी। वैसे पुखराज पर हमेशा से उनका विशेष स्नेह था।

महाराजसा ने जब उनके घर का आथित्य स्वीकार किया, उस दिन हवेली में उत्सव का सा माहौल था। वे स्वयं ही नहीं उनके शिष्य भी भोजन आरोगने पधार रहे थे। महाराजसा के उल्लेख को लेकर बोलने में कुछ निश्चित सम्मान सूचक शब्दों के प्रयोग की सावधानी बरतनी होती थी,सो सुमेधा जो इस सब की अभ्यस्त नहीं थी सो कई बार सास से डाँटखा चुकी थी।

“ महारासा खाना खाने नहीं आ रहे, भोजन आरोगने आ रहे हैं। वे कोई हम तुम जैसे साधारण नहीं।

वैसे महाराजसा और उनके शिष्य एकदम सादा भोजन लेते थे, किन्तु इस शुभ अवसर पर मम्मी जी ने हवेली के अन्य हिस्सों में रहने वाले बडे बाऊजी, काकासा और दोनों बुआ सा के परिवारों को भी आमंत्रित कर लिया था। महाराजसा का भोजन मम्मी जी स्वयं अपने हाथों से तैयार कर रही थीं अन्य सभी के लिये ब्राह्मण रसोइया दाल-बाटी-चूरमे की रसोई तैयार कर रहा था। सुबह से रसोई दो बार धुली, खाना बनाने वाले महाराज मम्मी जी से भी एक हाथ आगे सफाई के मामले में। सो चाह कर भी सुमेधा मम्मी जी की सहायता न कर सकी, या जानबूझ कर उसका रसोई में प्रवेश वर्जित ही रखा गया? उसे आदेश था कि बस नई बहू की तरह तैयार हो जाए, जेवर कपडे भी उन्होंने तय कर दिये थे और उसकी अलमारी में रख दिये थे। उन्हें पता जो था कि उनकी डॉक्टर बहू हल्की साडी और पतली सोने की चेन पहन कर खडी हो जाएगी सो आज उसकी नहीं चलेगी। घर में इतना बडा आयोजन जो है, पूरे खानदान की औरतें आएंगी तो क्या सोचेंगी। पुश्तैनी जेवर तो पहनने ही हैं।

सुमेधा तैयार हुई , मोरपंखी ब्रोकेड का लंहगा और एक हीरे का हल्का सा सेट चुन कर पहन लिया। लेकिन सास कहाँ मानने वालीं थीं? जब तक थाली भर जेवर अपने हाथों से स्वयं सुमेधा को न पहना दें। बडे भारी जडाऊ सेट ही नहीं, बाजूबंद, तगडी, नथ, बोरला, जूडा पिन न जाने क्या-क्या। उस पर तर्क यह कि कौन कहेगा कि नवेली बींदणी हो? अभी महीना भी नहीं हुआ शादी को।

सम्पन्नता तो जैसे टपकी पडती है इस परिवार में, अभी तो देखना जब काका सा और बुआ सा के घर की बेटियाँ-बींदणीयाँ( वधुएं) आएंगी। चेहरा भले ही आधा घूंघट से ढका होगा मगर सोने के काम वाली पोशाकें और और हीरे मोती जडे लकदक जेवर। वह यही सोच कर मुस्कुरा दी।

“ किसके ख्यालों में मुस्कुरा रही हो? “ कहते हुए पुखराज अन्दर आए और एक प्रगाढ आलिंगन में उसे बाँध लिया। नवविवाहित युगल इस आलिंगन को इसकी परिणति तक ले जा पाते उससे पूर्व ही नीचे वाली बैठक से बाउजी का स्वर गूँजा ”पुखराज” -

पुखराज दो-दो सीढियाँ फर्लांगते हुए नीचे भागे।


नीचे की गहमा-गहमी से जाहिर था कि बडे महाराजसा पधार चुके हैं। वह उत्सुकतावश उस गोखडे में ओट लेकर खडी हो गई, जहाँ से नीचे वाली मर्दाना बैठक का कुछ हिस्सा और प्रवेशद्वार के बाद पडने वाला चौक साफ दिखता था। बैठक में सफेद चादरें बिछी थीं, बाउजी ने स्वयं महाराजसा और अन्य श्वेत वस्त्र धारी जिनवर मुनियों के पैरों का साफ जल से प्रक्षालन किया और बडे आदर से अन्दर ले गए, परिवार के अन्य पुरूष भी अंदर चले गए।

बडे महाराजसा वृध्द व्यक्ति थे मगर जीवंत तेजोमय चेहरा, एक सहज मुस्कान सबको बाँट दी उन्होंने। सभी उनकी आवभगत में व्यस्त हो गए।तभी एक युवा जैन मुनि जो समूह से किसी कारणवश पीछे रह गए थे चौक में प्रविष्ट हुए, चारों ओर देखा सबको व्यस्त पाकर स्वयं तसले में पानी लेकर हाथ-पैर धोने लगे। अनभ्यस्त सुमेधा ने अपनी सरकती ओढनी फिर से सर पर ओढना चाहा तो धीमी गुनगुनाहट के बीच एक संगीत उभरा, कंगन, तगडी, क़रधनी और बाजूबंद की लूमों, सभी के घुंघरू कोरस में बज उठे, ओढनी संभालती कि ताजा धुले केशों की एक लम्बी लट आगे को झूल आई। वह संभलती उससे पहले ही दो चकितआँखों का जोडा उस पर आ टिका, यह साधारण पुरुष की मुग्ध दृष्टि होती तो सहज ही उपेक्षित कर जाती क्योंकि उससे बखूबी परिचत थी। ये दृष्टि तो अनुभवहीन, निष्पाप, बालसुलभ चकित दृष्टि थी। ऐसा लगता था कि ये दो आँखे नहीं, अनाडी सवार के बाग छुडा के भाग निकले दो घोडे हों, अपरिचित जगह पर खोए-खोए। यह और कोई नहीं वही पीछे छूट गए युवा मुनि हैं, ऐसा भान होते ही सुमेधा का दिल धक्क! उनआँखों की निष्पाप दुराग्रहता को पकड क़ोई और उपर देखता उससे पहले ही वह सहम कर ओट में हो गई। पहले ही क्या कम आपत्तियाँ हैं जो एक ओर मौका दिया जाए। लेकिन युवा भिक्षु की आँखे अब उसे खोज रहीं थीं। वह तीव्रता से अपने कमरे में चली आई। थोडी देर किंकर्तव्यविमूढ सी वह पंलग पर बैठी रही, ऐसा क्या था उस भिक्षु कीआँखों में? क्यों हुआ ऐसा?

थोडी देर बाद ही उसका कमरा सास के साथ आई परिवार की स्त्रियों से भर गया। बातों में सुमेधा इस प्रकरण को भूल भी गई। अपने से रिश्ते और आयु में बडी महिलाओं के चरण स्पर्श किये और अपनी हमउम्र ननदों और भाभियों के बीच जा बैठी। उन लोगों के बीच एक क्षीण सी उच्चशिक्षा और जातिभेद की रेखा खिंची थी वह सुमेधा की सहजता की वजह से शीघ्र ही टूट गई।

“ भाभीसा बताओ न, किसने पहल की? “ एक ने कहा।

हमारे पुखराज भाईसाहब तो सीधे हैं , उन्होंने नहीं की होगी  दूसरे ने कहा।

सुमेधा सास के लिहाज से चुप रही वरना बताती कि आपके पुखराज भाईसाहब को उसने महीनों तक घण्टों हॉस्टल के विजिटिंग रूम में इंतजार करवाया था, तब हाँ की थी। बडे ढ़ीठ थे, हाँ करवा कर ही माने थे।

सुमेधा की एक रिश्ते की जिठानी हैं जो बॉम्बे की हैं और उन्होंने जे जे आर्टस से फाइन आर्टस में डिप्लोमा किया है, यँहा हॉबी क्लासेज चलाती हैं। उन्होंने कहा, इतनी सुन्दर है, डॉक्टर है हमारी देवरानी, देवर जी हमारे छुपेरुस्तम हैं। हो न हो उन्होंने ही प्रपोज क़िया होगा। ज़ब भी घर आते, मुझे आ-आकर बस सुमेधा की बातें बताते रहते। सुमेधा ये सुमेधा वो

इतने में ही उनकी बात काट कर छोटी बुआ जी की ननद बोलीं, “डाक्टर तो म्हारे जेठरी पोती भी थी, रूपाली भी कम कोनी ही, अन पैसा वाली पारटी उपर सूं आपणी जात।”

कमरे में कुछ देर को खामोशी सी छा गई, सुमेधा ने ही सबको इस अप्रिय स्थित से उबारा।

“ हाँ! तो काकीसा, आप कुछ पूछ रहे थे ना कि आपके कुछ.. ”

”वो बेटा , कुछ महीनों से माहवारी ज्यादा हो रही है।”
”आपकी उमर क्या होगी काकीसा? “
”यही अडतालीस के आस-पास। ”
”काकी सा आप जरा भी नहीं लगते हो अडतालीस के तो- मैं तो सोचती थी आप पैंतीस से ज्यादा नहीं होगे। वैसे मेनोपॉज से पहले ऐसा हो जाता है। फिर भी अगर कल थोडा टाईम निकाल कर आप चैकअप करालें तो ठीक रहेगा। इससे जुडी दूसरी तकलीफों के बारे में सलाह भी दे दूँगी और दवा भी।”

फिर क्या था, एक तो घर की डॉक्टर, उस पर महिला सब अपनी-अपनी समस्याओं के पिटारे खोल कर बैठ गए। सुमेधा के लिये ये नया न था,हर मौके-बेमौके जहाँ कोई महिला मिलती थोडी औपचारिक बातों के बाद अपनी स्वास्थ्य सम्बंधित एक न एक समस्या लेकर जरूर बैठती। यँहातक कि हॉस्टल से घर जाने पर उसकी अपनी मम्मी हर बार कुछ न कुछ समस्या लिये मिलतीं थी।हाय सुमी! तेरे पापा को तो फुर्सत नहीं कि मुझे डाक्टर के पास ले जाएं, मैं सोच रही थी कि तू आए तो बताऊं, देख तो बेटा जरा पेट की इस तरफ बडा दर्द रहने लगा है। सुमेधा कभी बुरा नहीं मानती। हमेशा हर एक की समस्या गौर से सुनती, और जरूरी सलाह देती क्योंकि वह जानती है कि अधिकतर भारतीय महिलाएं अपने स्वास्थ्य को तब तक अहमियत नहीं देतीं जब तक वह बडी बीमारी बन कर सामने ना आ जाए, उस पर गायनिक प्रॉब्लम्स तो सबसे ज्यादा छिपाई और उपेक्षित की जाती हैं। ग्रामीण, कस्बाई, अर्धशिक्षित,अशिक्षित, निम्न वर्गीय, निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएं तो अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होती ही हैं, कभी-कभी तो अमीर या शिक्षित महिलाएं भी अपने या पति के पास समय की कमी को वजह बना कर किसी बीमारी की बिगडी हुई अवस्था तक डॉक्टर अस्पताल, दवाओं से बचती रहती हैं। झिझक भी इतनी होती है कि महिला डॉक्टर उपलब्ध न हो तो पुरुष डॉक्टर को बताने से बचती रहती हैं।

“ अच्छा सुमेधा अब अपना अस्पताल बंद करो। महाराज सा जीम चुके। सब धोक लगाने चलो। ”

यह औपचारिकता पूरी हुई, महाराजसा के प्रस्थान के बाद पुरूषों और बच्चों का भोजन शुरू हुआ। अम्तत: महिलाओं की बारी आई , खूब तेज भूख लगी थी और खाना बहुत स्वादिष्ट था। दाल-बाटी, चूरमा, गट्टे का पुलाव। तीन बज गए रसोई निबटते, चार बजे जैन धर्मशाला में महाराजसा का आख्यान था, वहाँ भी सबको जाना है। अब जेवर चुभने लगे थे। सुमेधा बस सब उतार कुछ हल्का सा पहन कर सो जाना चाहती थी, शायद सासू जी को मना ले वह आख्यान में न जाकर, घर में आराम करने के लिये। अपने कमरे में आकर उसने हल्की शिफॉन की साडी पहन कर लम्बी चोटी को जूडे में बाँध लिया और जरा लेट गई, भारी-भरकाम नक्काशीदार टीक के पलंग पर जिसके सिरहाने-पैताने आईने जडे थे। ये पुखराज के मम्मी-पापा की शादी का पलंग था। हाउ रोमांटिक वह स्वयं को आईने में देख बुदबुदाई।

आँखे मूंदते ही अचानक उस युवा भिक्षु का चेहरा सामने आ गया। मुंडा हुआ सर, लम्बा पतला चेहरा, घनी बरौनियों वाली शहद के रंग की बडीआँखे, हल्की सी किशोरों जैसी दाढी मूंछों के रोंएं, लम्बी, स्वस्थ देह और श्वेत वस्त्र तभी अचानक पुखराज आकर उस पर झुका तो वह चीख पडी।

“ क्या हुआ? “

“ डर गई मैं ! ”

” नींद में थीं? “ 
” शायद! ” 
” थक गई हो? “ 
” हाँ! तुम नहीं थके? “ 
” थक तो गया हूँ, मन भी है तुम्हारे पास लेटने का मगर आख्यान में तो जाना ही होगा न! यँहा तो मैं महाराजसा के हॉस्पीटल के प्रोजेक्ट पर बात तक न कर सका।”

“ पुखराज, अगर मैं न जाना चाहूँ तो? “

“चलना होगा सुमेधा।”

अधिक आनाकानी करने की रही-सही गुंजाइश चाय के साथ मम्मी का आदेश लाए चंपालाल ने पूरी कर दी।

“ भाभी सा चा पी र त्यार वेई जाओ सा, मासा निच्चे बाट जो रिया है।”

वही शिफॉन की साडी पहन सुमेधा नीचे आ गई, जेवर के नाम पर हल्की चैन, पतले कडे और हीरे के लोंग नाक और कान में थे। मम्मी को अच्छा नहीं लगा पर उन्होंने कुछ कहा नहीं।

आख्यान में भी वही दो भागते नादान घोडे वही आँखे उस पर आकर उलझ गईं। बडे महाराजसा के पास वह बैठे थे। आँखे पहचान में आते ही बाकि चेहरा एक कोलाज सा आ जुडा था। पतले भिंचे से कठोरता दिखाने का जबरन प्रयास करते होंठ, जिद्दी सी तीखी नाक मगर सारे संयमों से छूट भागती आँखे।

आख्यान आरंभ होने से पहले पुखराज ने मेरा परिचय बडे महाराजसा से करवाया, वे बडे उदारमना, स्नेहिल और ज्ञानवान व्यक्ति लगे। सुमेधा ने इस बार जब उनके चरण स्पर्श किये उसमें औपचारिकता नहीं श्रध्दा थी।

“ तुम तो डॉक्टर हो बेटा, जानती होगी कि अन्तरजातीय विवाहों से तो जातियों में नए गुण विकसित होते हैं। बस मेरे लिये इतना करना कि इस छोटे से पिछडे क़स्बे की सेवा करना। यँहा की स्त्रियाँ लेडी डॉक्टर के न होने से बडा कष्ट पाती हैं। पुखराज इतना पढ क़र भी इस छोटे कस्बे में अस्पताल खोल कर कल्याण का काम कर रहा है। जब इसका डॉक्टरी में सलेक्शन हुआ था तब मुझे विश्वास न था कि एक बार शहर में पढ क़र यह मेरी बात मानेगा। अब उसका साथ देकर अपना कर्तव्य पूरा करो। और एक बात और यँहा स्थानक में साध्वी शान्ता जी बीमार हैं समय निकाल कर उन्हें दवा दे आना।

“ जैसी आपकी आज्ञा महाराजसा। ”

मेरे पीछे खडी सासू माँ के चेहरे का गर्व मुझे महसूस हो रहा था।पुखराज ने राहत की साँस ली। महाराजसा से जरा दूर बैठे उस युवा मुनी की उत्सुक दृष्टि और कान इधर ही लगे थे। महाराजसा के पास से पांडाल में लौटते समय सुमेधा ने पुखराज से पूछ ही लिया।

“ ये जो यंग से महाराज सा हैं न, वो कौन हैं? “

“ वो! मुनि सागरचंद्र जी हैं। अठारह साल का होते ही उन्होंने दीक्षा ले ली थी। बडे हाइली एजूकेटेड हैं, प्राकृत और इंग्लिश में दोनों में एम ए किया, पुरानी जैन स्क्रिप्टस का इंग्लिश ट्रान्सलेशन कर रहे हैं। पास के गाँव के ही हैं।”

आख्यान कब आरंभ हुआ, कब खत्म सुमेधा को पता ही नहीं चला। वह उसी अद्भुत व्यक्ति के बारे में सोचती रही। इतना सुदर्शन, शिक्षित व्यक्ति तमाम कामनाओं पर विजय पाने का दावा कर भिक्षु बन बैठा है?क्या यह इतना आसान है? क्या सचमुच वह इस ठाठे मारते उद्दाम यौवम के बीच स्वयं को जीत पाता होगा? पर इससे इसकी आँखे तो नहीं साधी जातीं। यही सोच लिये सुमेधा घर चली आई।

रात थके होने के बावजूद वह सो न सकी। पुखराज भी थके थे। मगर सुमेधा की जिज्ञासा का कोई अन्त न था।

“ तो पुखराज कौन थे ये मुनि सागरचन्द्र जी महाराजसा, ये तो पच्चीस साल के भी नहीं लगते।

मुझसे भी छोटे हैं। पच्चीस के हैं भी नहीं।

तुम बता रहे थे अनाथ थे।

हाँ उनके पिता की डेथ ये जब छोटे थे तभी हो गई। सगे चाचाओं ने बिजनेस और रिश्तेदारों ने घर-वर अपने नाम करा लिया इन्हें , इनकी माँ और जवान बहन को निकाल दिया। तब महाराजसा की शरण में गए। महाराजसा ने समाज से आग्रह कर इनकी बहन की शादी कराई, इन्हें पढाने की व्यवस्था की और पूरी स्वतन्त्रता दी कि वे सामान्य जीवन जियें, नौकरी करें, शादी करें पर पिछले साल इन्होंने दीक्षा ले ली।

बडे महाराजसा के प्रति सुमेधा की श्रद्धा और बढ ग़ई। सुबह-सुबह वह बैग लेकर स्थानक पहुँची। साध्वी शांता जी एक उम्र दराज साध्वीकाफी बीमार थीं। ब्लडप्रेशर लिया काफी हाई था, जिन काम की दवाओं के सेम्पल पुखराज के बैग में मिले, वे तो शांता जी को दे दीं, और कुछ इंजेक्शन सेविका को पर्ची देकर मँगवा लिये। इंजेक्शन देकर उनके सोने की प्रतीक्षा में वह उनसे बातें करने लगी।

“ कब से बीमार हैं आप?

साल भर से यही चल रहा है बेटा। अब कहीं आती-जाती भी नहीं। यहीं जो भोजन मिला जीम लिया। ज्यादातर दूध-फल।
लेकिन ऐसे तो आप बहुत कमजोर हो गई हैं। ठीक से खाया करें। अब उपवास बन्द कर दें।

कब तक संभालूं यह देह, अब मिट्टी होने का समय है।

दवाओं के असर से वे धीरे-धीरे नींद में डूब गईं। सुमेधा को ममता हो आई एकाकी, वृध्दा साध्वी पर। नंगे फर्श पर सोई शांताजी बडी निरीह लग रही थीं। मन तरल हो उठा। पर यही तो सन्यास है, वैराग्य हैजीवन भर त्याग, फर्श पर सोना, भिक्षा ले अंजुरी में खाना, नंगे पैर यात्राएं करना और अंत में एकाकी वृध्दावस्था? मन ने चाहा इन्हें हवेली ले चले और पूरी देखभाल करे आखिर पुखराज हार्टस्पेश्लिस्ट हैं। लेकिन धार्मिकता को चुनौती देने और आहत न करने की पुखराज की सख्त हिदायत याद आ गई। वह एक घण्टे बाद बी पी फिर से लेने की प्रतीक्षा में वहीं बैठ गई। स्थानक का फर्श ठण्डा था और वातावरण एकदम शान्त।

हवेली की चहल-पहल से दूर स्थानक में सचमुच समस्त तनावों को हर लेने वाली शांति और सुकून है। अगर अन्य कुछ आधारहीन से बंधन न हों तो क्या बुरा है वैराग्य? जैन मतावलम्बी मुनी और साध्वियां सही मायनों में वैराग्य लेते हैं, अन्य आडम्बरी साधुओं की तरह महज आडम्बर, प्रचार, ऐश्वर्यमय जीवन तो नहीं जीते साधु के दिखावटी बाने के साथ। ऐसी ही बातें सोचते हुए सुमेधा कुछ पलों को अपनी प्राइवेसी और ठण्डे फर्श का आनंद ले रही थी कि एक क्षीण सी पदचाप के साथ एक दुबली-पतली सुन्दर तेजोमय चेहरे वाली साध्वी आईं। सुमेधा के प्रणाम के उत्तर में आर्शिवचन दे कर वहीं पास बैठ गईं। ब्रह्मचर्य के कठिन व्रत से मानो उनकी वय स्थिर होकर रह गई थी। काली-काली शान्त आँखे, स्निग्ध त्वचा। प्रथम दृष्टि में अनायास उन्हें देख पश्चाताप में डूबी रत्नावली का सा भान हुआ। मानो रूपमती देह के मोह की व्यर्थता का ताना मार किसी तुलसी को हमेशा के लिये खो चुकी हों। थोडी देर चुप बैठने के बाद वे संकोच कर बोलीं।

“मंदा ने बताया तुम डॉक्टरनी हो , बेटा एक तकलीफ है।”

“कहिये? “

“नि:संकोच कहिये महाराजसा, मैं औरतों की ही डॉक्टर हूँ।”

“कई दिनों से सीने में एक गाँठ सी है।”

“दर्द होता है उस गाँठ में?”

“नहीं दर्द तो नहीं होता, पर काँख तक बढ ग़ई है तो हाथ उपर नीचे करने में तकलीफ होती है।”

“महाराजसा ये तो सीरीयस बात है, आप अभी चैकअप कराईये। हाँ अभी।”

दर्दहीन गांठ की गंभीरता को सुमेधा से अधिक कौन समझ सकता था?घने संकोच के साथ उन्होंने चैकअप करवाया, अच्छा संकेत तो नहीं था,पर तुरंत इलाज शुरू करने पर स्थिति को संभाला जा सकता था।

“ मैं दवा भिजवा दूंगी अगर साधारण गांठ हुई तो ठीक हो जाएगी और अगर.. ”

“और अगर क्या?”

“दवा से ठीक नहीं हुई तो आपको बडे शहर में जाकर टेस्ट और फिर इलाज करवाना होगा।”

“बेटा मुझे तो तेरी ही दवा से काम चलाना होगा, मेरा भाग्य जो तू स्थानक में आ गई, दवा मिल जाएगी। हमें तो रोगों से भी अकेले जीतना होता है, न जीते तो नश्वर देह ही तो है।”

उनके स्वरों में न जाने क्या था तिक्तता या वैराग्य? सुमेधा समझ न सकी। फिर भी उसने अंतिम प्रयास किया, महाराज सा, अस्वस्थ रह कर धर्म का निर्वाह कैसे होगा, बाद में यह गांठ बढ क़र बहुत तकलीफ देगी।मेरी मानें आप, मैं आठ-दस दिन बाद उदयपुर जा रही हूँ। मैं वहीं पढतीहूँ मेडिकल कॉलेज में, आप मेरे साथ चलें कुछ टेस्ट करवाएं और इलाज होने तक वहीं रहें।वहाँ भी स्थानक तो होगा। मैं आपके पास आती जाती रहूँगी।

“असंभव सी बात है यह। उदयपुर स्थानक तो मैं जा कर रहती हूँ। पर अस्पताल जाना नहीं बेटी।”

सुमेधा लौट आई । उसके बाद दो-तीन बार और स्थानक गई। शांता जी तो ठीक हो रही थीं, और आर्शिवचनों से उसका आँचल भर देतीं थी। पर उन दूसरी साध्वी जी को मैमोग्राम करवाने के लिये न मना सकी। उसने पुखराज को भी कहा, मम्मी जी को भी पर सब असमर्थता व्यक्त कर के रह गए, धर्म, त्याग, वैराग्य की आचारनीति में उलझ कर रह गया प्रश्न स्वास्थ्य का।

सुमेधा स्वयं से उलझती तो सास से बात करती। उनका तर्क होता कि इतने नेम-नियम से जीने वालों को स्तन कैंसर जैसी बीमारी कैसे हो सकती है?

वह कैसे समझाती कि स्तन कैन्सर नेम-नियम नहीं देखता। रिसर्च से सिध्द हो चुका है कि यह कैन्सर आनुवांशिक कारणों से भी होता है,अगर किसी स्त्री की माँ, दादी, मासी या अन्य करीबी रिश्तेदार को हुआ है तो उसे भी केयरफुल रहना चाहिये। यह भी सिध्द हो चुका है कि बिना बच्चों वाली विवाहिताओं, अविवाहित महिलाओं और जरा भी स्तनपान न कराने वाली माताओं को स्तन कैन्सर होने की संभावना अधिक हो जाती है। अन्तत: उसने नियति पर छोड दिया सब कुछ।

जब साध्वी शान्ता जी पूर्ण स्वास्थ्य लाभ कर एक दिन हवेली पधारीं तो सबसे ज्यादा प्रसन्नता उसे ही हुई।

जून अंत के दिन थे, लम्बे फुरसत भरे दिन। शाम के चार बजने वाले थे। बाहर गर्म लू का असर अब भी कम नहीं हुआ था मगर हवेली के कमरे बिना कूलर के भी आरामदेह और ठण्डे थे। सुमेधा अपने कमरे के जालीदार गोखडे में बैठ कर ससुर जी की लाइब्रेरी से एक बेहद पुराना सीला-सीला सा मगर क्लासिक सा दिखने वाला उपन्यास निकाल लाई थी और दोपहर से उसमें डूबी थी। सास-ससुर आज सुबह ही पास के कस्बे में किसी शादी में गए थे। पुखराज आकर न जाने कब चम्पालाल से खाना लगवा कर खा कर भी न जाने कब अपने क्लिनिक चले गए थे,वहाँ से उन्हें नए अस्पताल की साईट पर भी जाना था।

उपन्यास रोचक था, किसी पुराने क्लासिक ऑथर हॉथोर्न का था, शीर्षक था द स्कारलेट लैटर । एक स्त्री को चरित्रहीन साबित कर प्रीस्ट उसे चर्च के नियमानुसार चरित्रहीनता का प्रतीक सुर्ख लाल रंग के धागों से कढा हुआ अंग्रेजी वर्णमाला का अक्षर ए अपने कपडों पर पहनने को और कस्बे की बाहरी सीमा में अपने तीन बच्चों के साथ रहने का फरमान जारी कर देता है। जबकि वह स्वयं कस्बे के उन तमाम सफेदपोशों की तरह ही उस गरीब स्त्री के चारित्रिक पतन में बराबर से शरीक रहा होता है। तो यूरोप भी इन सब सडी ग़ली मान्यताओं से घिरा था एक समय में?

तभी बडे दरवाजे की सांकल बजी, लगता है चम्पालाल भी आढत पर चला गया है। सुमेधा ने गोखडे से झाँका पर गली में उसे कोई नहीं दिखा,एक बार और खडख़डाहट सुन वह उठी और नीचे उतार आई। लकडी क़े विशाल द्वार में बना एक छोटा खिडक़ी नुमा दरवाजा खोला, सामने मुनि सागरचन्द्र जीअब सुमेधा दुविधा में, क्या करे कह दे कोई नहीं है! या ये भिक्षु का अपमान होगा, वाद में सब नाराज हो गए तो!


पधारिये महाराजसा।

जितना कुछ देख सुन कर उसने इस परिवार में सीखा था,उतना करने का प्रयास किया। धोक लगाए, चरण धुलवाए और उन्हें मर्दाना बैठक में फर्श पौंछ कर बैठाया।

“ विराजें।”

वे बैठ गए अपना झोला-डण्डा पास ही रख कर। अब सुमेधा भागी पुखराज को फोन करने, और संयोग से वो क्लिनिक में ही मिल गए।

“पुखराज खाना तो तैयार नहीं है।”

“पगली इसीलिये हम जैनियों में सूर्यास्त से पहले खाना बन जाता है।”

“आज हम दोनों ही थे तो मैं ने सोचा चम्पालाल भी नहीं है। अच्छा तुम आ तो जाओ , उनके पास बैठने को।”

“देखता हूँ बस मैं साईट के लिये निकल रहा था, एक इन्जीनियर भी आ रहा है। फ्रिज में आटा होगा, कुछ ताजा बना लो और जिमा दो, उनके साथ में भी रखना होता है। याद रखना।”

पहली बार उसे लगा कहाँ फंस गई है वह। जब वह लौट कर जल लेकर नीचे बैठक में आई तो स्वयं महाराजसा ने उसकी समस्या हल कर दी यह कह कर कि बस दूध और फलाहार लेंगे। वह जल्दी से गाढे दूध में केसर और मेवे मिलाकर ले आई, साथ में तीन-चार किस्म के फल और खोए की मिठाई। दूध और फलाहार ग्रहण कर उन्होंने पूछा -

“ आपका नाम ? “

“सुमेधा।”

“हाँ आप तो डॉक्टर हैं , गुण अनुरूप ही नाम है।”

“आप जैन नहीं हैं।”

“अब तो जैन ही हूँ।”

“हाँ। सत्य तो यही है अब।”

“पर आप बहुत अलग हैं, आम स्त्रियों से।”

एक लम्बा पॉज ख़िंचा ही रहा। सुमेधा उनकी असहज दृष्टि को उपेक्षित कर उनके जाने की प्रतीक्षा में बोली,

“महाराजसा, कुछ फलाहार साथ के लिये रख दूँ?”

“नहीं, आज तो अब कुछ नहीं जीमूंगा, कल तक बासी हो जाएगा। रहने दें।”

फिर पॉज असहज सा।

“.....आपको उस दिन पहली बार हवेली में देखा आप साधारण कहाँ हैं।एम ए में अध्ययन के समय मैं ने ब्राउनिंग और कीट्स को पढा और प्रेम को व्यर्थ की दैहिक अनुभूति समझता रहा आज वही सब मुझे विचलित करता है सुमेधा जी मैं तब से अस्थिर.. मेरा मन अस्थिर था।”

“मुझे आज्ञा दें, महाराजसा सुमेधा का चेहरा तमतमा रहा था, पर इस एक टीन एज से दिखने वाले युवा भिक्षु को क्या कहे? वह जाने लगी। अब तक वो अपने असमंजस से उबर आये और सधे स्वरों में बोले,

“मेरी बात पूरी सुन कर जाईएगा।”

“ये मानवीय कमजोरियँ एक दीक्षित मुनि को शोभा देती हैं क्या?”

“जानता हूँ, मगर सारा दोष मेरा नहीं ध्यान लगाता हूँ तो आभूषणों की खनक गूंजती है।”

“किसी ने विवश तो नहीं किया था इस उम्र में दीक्षा लेने को। एन्ड इट्स नेवर टू लेट। एक पलायन और बस बन जाइए गृहस्थ। धीमे स्वरों में सुमेधा बहुत कडाई से बोल रही थी, उसके स्वरों में गाढा व्यंग्य सारी विसंगतियाँ देख-सुन कर उतर आया था।” पर वह सम्मोहित भिक्षु बोले चला जा रहा था।

“बस यही कहने आया हूँ।लेट मी कनफेस।सुमेधा जी।”

“क्या आपके धर्म में लौट जाने का मार्ग नहीं है?”

ऐसे प्रश्न निश्चय ही आहत करने वाले थे और सीधे जाकर मर्म को चोटपहुँचाने वाले। और चोट पहुँची भी ।

“सुमेधा जी मैं अपनी कमजोरी का प्रायश्चित करके, आपसे मार्ग पूछने नहीं आया था, हारा अब भी नहीं हूँ। मैं स्वयं अनजान था इन अजानी कामनाओं से देखना एक दिन उबर आउंगा। उनका चेहरा जल रहा था,आखों में नमी थी और होंठ फिर दृढता से भिंच गए थे।”

“चलता हूँ।”

सुमेधा का मन बुरी तरह भर आया था। स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी। इस युवा मुनि के सहज असमंजस पर चिंता हो आई, उमर ही क्या होगी इसकी, कैसे निभाएगा इतना भीषण वैराग्य?

देर रात लौट पाए पुखराज। और आकर खुशखबर दी कि सुमेधा का प्री पी जी में अडतालीसवां रैंक है और उसे गायनोकॉलोजी ब्रान्च मिल जाएगी।

“हाँ प्रमोद ने फोन पर यह भी कहा कि बस पन्द्रह दिनों में क्लासेज भी शुरू हो रही हैं। अब बस जाने की तैयारी करो।”

अन्तिम वाक्य से सुमेधा की खुशी में बिछोह की पीडा घुल गई। कुछ घण्टों पहले का वह प्रकरण, खुशखबर, संभावित बिछोह की कल्पना सारी बातें घुलमिल कर सुमेधा को रुला गईं।

“ अरे! तुम तो रो पडी सुमी! मैं एक वीकेन्ड पर आउंगा, दूसरे पर तुम आ जाना।” पुखराज ने उसके बाल सहला कर कहा।

दो महीने भी कहाँ पूरे हुए थे, उनके नूतन दाम्पत्य के, व्यस्तता इतनी रही कि हनीमून या मधुमास के नाम पर इस विराट हवेली के इस शयन कक्ष के जालीदार गोखडे या जहाजनुमा इस नक्काशीदार सजीले पलंग पर कुछ तृप्तिदायक पलों को दोनों ने स्मृति की पोटली में बाँध लिया था।

सुमेधा के जाने के बस कुछ दिन पहले का एक दिन बडा महनूस सा दिन था वह। सुबह उठते ही संदेश मिला था कि सागरमहाराज सा जो चातुर्मास में भी आरंभ से ही निराहार व्रत कर रहे थे अचानक अचेत हो गए हैं।

“मैं चलूं पुखराज?”

“वहाँ औरतें नहीं जातीं।” बाउजी का कडक़ स्वर निकला।

सुमेधा फुसफुसाई ”डॉक्टर तो जा सकते हैं।”

बाउजी, चलने दीजिए, “ हो सकता है बात सीरीयस हो तो इसकी असिस्टेन्स की जरूरत पड ज़ाए।”

डॉक्टर की भूमिका में भी उसका मन घबरा रहा था, आखिर ऐसा क्यों हुआ? इस बेमौके निराहार, निर्जल लम्बे व्रत की वजह? वहाँ काफी भीड एकत्रित हो गई थी, पुखराज ने सबको हटाया। लगभग अचेत सागर जी महाराजसा को ओआरएस पिलाया। अर्धचेतनता में भी विरोध कर रहे थे।नियम विरूध्द उन्हें साफ बिछौने पर लिटाने से पहले सुमेधा ने बडे महाराजसा की ओर देखा उन्होंने मूक स्वीकृति दे दी। एक इंजेक्शन लगा कर पुखराज ने ड्रिप लगा दी। ब्लडशुगर और ब्लडप्रेशर खतरे की हद तक नीचे गिर चुका था। एक युवक से कुछ अन्य इंजेक्शन मंगा कर ड्रिप में लगा दिये तब स्थिति सुधरने की उम्मीद जगी। अर्धचेतनता से उबर कर जब उन्होंने आँखे खोलीं तब सुमेधा सामने ही एप्रन पहने खडी थी। बडे महाराजसा और बाउजी फर्श पर चिंतातुर बैठे थे। पुखराज फिर बी पी ले रहे थे। गहरी सांस ले उन्होंने फिर आँखे मूंद लीं।

स्थानक के चबूतरों, छज्जों, आलों पर बैठे कबूतरों ने भी राहत भरी गुटरगूं शुरू कर दी, थमी सी उमस भरी हवा घुटन से उबर तेज साँस की तरह चलने लगी। बाहर प्रतीक्षा कर रहे लोग भी महाराजसा के कहने पर अपने घरों को लौट गए। बस दो लडक़े भागदौड क़रने को बाहर बैठे थे।सुमेधा को लगा सब सामान्य हो रहा है।

तभी क्षीण स्वर में सागर जी महाराजसा ने पुकारा, सुऽऽम कुछ अस्पष्ट शब्द बिखरे और सुमेधा का हृदय बुरी तरह धडक़ गया। उनकी खुलीआँखे शून्य में तैर रही थीं। पुखराज और वह उन पर झुक गए, उनकी तकलीफ समझने की कोशिश में। एक क्षीण स्वर उभरा और सब कुछ ध्वस्त कर गया,

“ लो सुऽऽममेधा अब तो जीत लिय ना मैं ऽऽ उबर आया न,काऽऽमनाओं से। ”

सुमेधा अवाक और पुखराज तो न जाने किन-किन आवेगों-प्रतिआवेगों से गुजर रहे होंगे। वह उसकी ओर देखने का साहस नहीं कर सकी,अर्धचेतन मुनि फिर अर्धचेतना में खो गया।

ड्रिप बदलते पुखराज के हाथ काँप रहे थे। बहुत छिपा कर भी अपनी आवाज क़ा कम्पन्न छुपा न सके,

“तुम घर जाओ।”

सुमेधा की रुलाई फूट पडी, रास्ते भर रोकते रोकते भी आँसू बाँध तोड बहते रहे। रास्ते में कुछ लोगों ने समझा कुछ अनिष्ट हो गया। हवेलीपहुँचते ही मम्मी ने भी यही पूछा, सब ठीक तो है ना। हाँ । का संक्षिप्त उत्तर दे वह अपने कमरे में चली गई। पुखराज कब लौटे, सागर जी मुनि जी कैसे हैं अब? यह सब सुमेधा जान न सकी। अगले ही दिन पुखराज बिना कुछ कहे उसे उदयपुर छोड ग़ए। कार में उसने कुछ कहने की चेष्टा की भी तो, यह कह कर चुप करा दिया कि , “तुम्हें आगाह किया था मैं ने, अब जो नुकसान हुआ है, उसे मैं झेलूंगा।”

चार माह हुए सुमेधा को मिलने नहीं गया पुखराज, कह दिया एम एस की पढाई बहुत कठिन है। उसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहता। सुमेधा नहीं समझ सकी नुकसान किसका हुआ? पुखराज का या उस युवा मुनि का या उसका स्वयं का?

अब यह कैसा और किसका वैराग्य था?