क्या यह यशराज का दोष है ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 जनवरी 2013
भरत दाभोलकर के नए नाटक का नाम है- 'ब्लेम इट ऑन यशराज'। इस नाटक में कुछ इस तरह की बात है कि हमारी शादियों में अब अनेक खर्चीले कार्यक्रम होते हैं। शान-शौकत और दिखावा इतना बढ़ गया है कि शादियां अपना पारंपरिक रूप खो चुकी हैं। यद्यपि नाटक में कहीं यशराज चोपड़ा या यशराज फिल्म्स का नाम नहीं दिया है, परंतु महंगी और लंबे समय तक रीतियों के जारी रहने के आज के फैशन के लिए परोक्ष रूप से यशराज फिल्म्स की शादी, शिफॉन, स्विट्जरलैंड फिल्मों को जिम्मेदार बताया गया है। हकीकत यह है कि आदित्य चोपड़ा की 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' से पहले सूरज बडज़ात्या की सलमान खान, माधुरी दीक्षित अभिनीत 'हम आपके हैं कौन' से ये सिलसिला सिनेमा और समाज में शुरू हुआ।
'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' में तो एक मुकम्मल कहानी और प्लॉट था, परंतु सूरज की फिल्म तो शादी वीडियो की तरह मानी गई है। दरअसल इस फिल्म की सफलता के बाद ही औद्योगिक घरानों को यह जानकारी प्राप्त हुई कि फिल्म से भी सौ करोड़ कमाए जा सकते हैं। आज फिल्म उद्योग का विवरण देने वाली पत्रिकाओं में सौ करोड़ क्लब की बात की जा रही है, जबकि रुपए की आज की गिरावट के पहले तथा मल्टीप्लैक्स के आगमन के पहले घटिया सिनेमाघरों में, छोटे कस्बों तक में भी महीनों चलने वाली इस फिल्म ने सौ करोड़ से ऊपर आय अर्जित की थी। आज तो टिकट के दर आसमान छू रहे हैं। सूरज बडज़ात्या की इस फिल्म ने कम टिकट दरों के दौर में इतनी आय अर्जित की थी।
उस शादी वीडियोनुमा फिल्म में कोई ठोस कहानी या प्लॉट नहीं था और वह बडज़ात्या परिवार की ही वर्षों पूर्व बनाई गई 'नदिया के पार' का नया संस्करण थी। अत: भरत दाभोलकर साहब के इस नाटक को 'ब्लेम इट ऑन बडज़ात्या' भी कहा जा सकता था, परंतु आज यशराज बैनर सबसे अधिक और अलग-अलग किस्म की फिल्में बना रहा है, जैसे 'इशकजादे', 'धूम', 'एक था टाइगर' इत्यादि। आदित्य चोपड़ा बड़े सितारों के साथ काम करते हुए नए कलाकारों के साथ भी फिल्में बना रहे हैं। उन्होंने शादी वीडियोनुमा फिल्में नहीं बनाई हैं। उन्होंने 'चक दे इंडिया' जैसी राष्ट्रीय भावना की फिल्म भी बनाई है।
बहरहाल, महंगी और लंबी शादियों के लिए मात्र सूरज बडज़ात्या की फिल्म को जिम्मेदार ठहराना भी उचित नहीं है। आर्थिक उदारवाद ने भारत के समाज में तीव्र परिवर्तन लाना प्रारंभ किया था। मध्यम वर्ग के पास भी खूब पैसा आने लगा था। पश्चिम की समृद्धि प्रतीकात्मक तौर पर मॉल्स, मल्टीप्लैक्स इत्यादि के रूप में सामने आ रही थी। जिसे पहले हमने दूर से देखा था, अब उसे हम स्पर्श कर सकते थे। यह वही दौर था, जब हमने किफायत से जीने की अपनी सदियों पुरानी शैली छोड़कर फिजूलखर्ची के मायावी संसार में प्रवेश किया। उस समय अपने धन के अभद्र प्रदर्शन के लिए कुछ लोग बेकरार थे और सूरज की फिल्म ने समाज की प्रयोगशाला में हो रही रासायनिक प्रक्रिया में महज उत्प्रेरक तत्व की भूमिका निभाई।
उसी दौर में एक नया व्यवसाय भी उभरा। कुछ लोगों ने वेडिंग प्लानर का व्यवसाय शुरू किया। आदित्य चोपड़ा ने इस पर 'बैंड बाजा बारात' नामक फिल्म रची। शादी आयोजन उसी समय एक व्यवस्थित संस्था के रूप में उभरा। समय के साथ परिवर्तन आए और आजकल डेस्टिनेशन वेडिंग होने लगी है, अर्थात वर-वधू के परिवार, मित्र और निकट संबंधी किसी तीसरे शहर में जाकर एक सप्ताह तक धूमधाम से शादी की अनगिनत रस्मों का मजा लेते हैं। कोई बैंकॉक जाता है, कोई इटली जाता है, कुछ लोग भारत में ही शहर चुनते हैं। कुछ विदेशियों ने जयपुर या उदयपुर में शादियां आयोजित की हैं। उसी दौर में अमीर घरानों ने अपनी शादी में नाचने, गाने या मात्र शामिल होने के लिए फिल्मी सितारों को मोटी रकम दी। शायद उसी दौर में लंदन के धनाढ्य लक्ष्मीनिवास मित्तल के परिवार की यूरोप में आयोजित शादी में संगीत निशा के लिए जावेद अख्तर साहब ने कोई सुरीला कार्यक्रम भी आयोजित किया था। उसी दौर में शाहरुख खान भी मेहनताना लेकर शादियों में ठुमके लगा चुके हैं और आज भी वे कहते हैं कि अभिनय उनका जुनून है, व्यवसाय तो शादी में नाचने का है। यह शाहरुख खान का मजाकिया अंदाज हो सकता है।
इसी विषय पर बनी 'मानसून वेडिंग' नामक फिल्म भी खूब सफल रही। शादी प्रदर्शनप्रियता की अभिव्यक्ति के लिए माध्यम बन चुकी है। भारत में सदियों से ग्रामीण अंचल में शादी और मृत्यु उपरांत भोज के लिए कर्ज लेकर लोग ताउम्र कर्ज चुकाते रहे हैं। अब शहरों में नके लिए जद्दोजहद होने लगी है।