क्या यह सच है / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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(1) काशी में - कोई तीस-चालीस दिन हुए, मेरे ‘नजदीकी भाई’ सुकवि, सहृदय श्रीरामनाथलाल ‘सुमन’ ने मुझसे कहा था कि, ‘मुझे विश्वमस्तस सूत्र से पता चला है कि महात्माा गांधी ने "चाकलेट" पुस्त क के उद्देश्या को भला और लेखक को "सिंसियर" कहा है।’

(2) मतवाला-कार्यालय में कोई बीस-बाईस दिन हुए, माननीय पंडित लक्ष्मीमकान्तक भट्ट जी ने मुझसे ही कहा था कि, ‘श्रीसुन्दारलाल (महात्मान, तपस्वीि, प्रयागी) के मकान पर स्वकयं चतुर्वेदी बनारसीदासजी मेरे सामने यह कह रहे थे कि गांधीजी ने "चाकलेट" के सदुद्देश्यप में विश्वा,स प्रकट किया है, वे लेखक को "सिंसियर" मानते हैं।’

(3) कलकत्ता में, अपने मकान पर - कोई दस-बारह दिन हुए, आदरणीय पंडित जनार्दन भट्ट एम.ए. ने बातों के सिलसिले में, मुझसे ही, यह कहा था कि, ‘स्वनयं बनारसीदासजी यह कह रहे थे कि गांधीजी ने "चाकलेट" को, उसके लेखक के "मोटिव" को सच्चा‍ और स्वजच्छे माना है।’

(4) ‘मतवाला मंडल’ में - अभी गत परसों - ‘त्याचगभूमि’ सम्पा दक पंडित हरिभाऊ उपाध्याेयजी यह कह रहे थे - और मुझसे ही कि, ‘मैंने भी यह बात सुनी है कि महात्माच गांधीजी "चाकलेट" को सदुद्देश्यंपूर्ण कहते थे।’

मुझसे यह भी कहा गया है कि महात्मािजी के इस मत को सुनकर विशाल-भारती चौबे महोदय पगहा तुड़ाकर साबरमती की ओर इसलिए भागे थे कि गांधीजी को समझावें कि, ‘यदि आप ही "चाकलेट" के पक्ष में ऐसी बातें कहेंगे तो हमारी नौका भला किस घाट लगेगी? उसी सिलसिले में उन्होंदने अन्य पुस्तमकों के टुकड़े महात्मा जी को सुनाये और उनसे यह वचन लिया कि वह अश्ली्ल साहित्यन पर भी व्य्वस्थाे देंगे। साथ ही यह भी आज्ञा ले ली, कि, वे फ्री-प्रेस को यह सूचना दे देंगे कि महात्मादजी भी अश्लीमल साहित्यड पर अपने ‘पावन-पेन’ से लेखों का एक झुंड सँवारेंगे।’

मैं स्वंयं यह नहीं चाहता था कि, मुझ जैसे अगण्यव, यौवनोद्वेलित उद्दंड ‘उग्र’ को भी, महात्माीजी से महापुरुष का एक विषय बनाया जाए। मेरे लिए तो मेरे सच्चेु साहित्यिक, परिचित, मित्र भाई और आदरणीय-श्रद्धेय ही बहुत थे। मगर, यदि चतुर्वेदीजी ने मुझे गिराने के लिए गांधीजी को पुकारा ही, तो क्याी यह भी उनके लिए उचित नहीं था कि ‘चाकलेट’ पर महात्मारजी की राय को वे ईमानदारी से साहित्यष संसार को बता देते? मुझे न बताते - क्योंरकि मेरे पास तो वह घासलेटी-बुलेटिन और घासलेटाऽगार, चहचहाता चिड़ियाघर, बंगाली, ‘विशाल भारत’ भी नहीं भेजते। यद्यपि मेरे ही सुधार के... छररररररर कबीर!... उसमें - टाल्स टाय की शिक्षाओं से भी अधिक गाये और गवाये जाते हैं।

मैं चाहता हूँ कि यदि उक्तस चारों महानुभावों की बातें असत्यि हों, तो चतुर्वेदीजी उनका खंडन कर दें। उससे मुझे कुछ भी दुख न होगा। क्योंहकि उक्तं समाचार मेरी काल्प निक-खोपड़ी की खराबी नहीं, बल्कि, चार ‘जिम्मे।वारों’ की बातें हैं।

मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि उक्त बातों में भाव उन महानुभावों के हैं जिनसे मैंने बातें कीं और, शब्दय मेरे।

साथ ही, यदि उक्तक कथन सत्यब हों, तो इस साहित्यिक युद्ध में, इस छोटी-सी ‘बड़ी’ घटना को, प्रोपॅगैंडिस्टम की छाती में छिपाने के पश्चाोताप में, हमारे आदरणीय पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को अपना गरेबां फाड़ कर एक नया दामन बनाना चाहिए।