क्या रणबीर कपूर त्रासदी नही कर सकते ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 मार्च 2011
सिनेमा अभिव्यक्ति का सबसे महंगा माध्यम है और इसीलिए उसमें सृजक को उतनी स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है, जितनी साहित्य और अन्य माध्यमों में प्राप्त है। व्यवसायिक फिल्मकार आर्थिक सुरक्षा के लिए लोकप्रिय सितारों के साथ काम करते हैं और अवाम में टिकट उन्हीं के नाम पर खरीदता है। इम्तियाज अली की ताजा फिल्म 'रॉक स्टार' में रणबीर कपूर नायक हैं और उनकी कहानी में नायक की मृत्यु होती है, परंतु युवा रणबीर की छवि इस तरह की त्रासद भूमिकाओं की नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मृत्यु के दृश्य में अभिनय नहीं कर सकता। इम्तियाज अली के सामने समस्या है दर्शकों की प्रतिक्रिया की। फिल्म उद्योग में तथाकथित विशेषज्ञों ने कई भरम फैला रखे हैं, जिनमें से एक त्रासदी के खिलाफ है, जबकि हकीकत यह है कि अब तक बनी लगभग तमाम खूब सफल रही फिल्में त्रासदी ही रही हैं, मसलन मदर इंडिया, मुगले आजम, गंगा-जमना, एक दूजे के लिए, देवदास इत्यादि। यह भी तथ्य फिल्म उद्योग वाले अनदेखा कर रहे हैं कि अधिकांश सफल हास्य फिल्मों ने त्रासदी फिल्मों से कम ही व्यवसाय किया है। शेक्सपीयर की ख्याति उनकी लिखी त्रासदियों पर आधारित है, न कि हास्य नाटकों पर।
मृत्यु अवश्यंभावी है, अटल है, परंतु उसको मनुष्य अनदेखा करता है, जब तक उससे आंखें चार नहीं होतीं, परंतु सारे समय उस अटल निर्मम यथार्थ का स्मरण करते रहने से तो मृत्यु के आने के पहले ही हम उसे खयालों में लाते रहें, सो जीवन जीना कठिन हो सकता है। आने वाले समय को आने के पहले लाना या गुजरे हुए वक्त को गुजरकर भी नहीं गुजरने देना मनुष्य का स्वभाव है। वर्तमान के हर क्षण में भूतकाल और भविष्य के अंश होते हैं, क्योंकि समय एक ही समय में अनेक सतहों पर प्रवाहित है।
चौथे और पांचवें दशकों में बनी अधिकांश फिल्में त्रासदी रही हैं। दिलीप कुमार को त्रासदी का राजा कहा जाता था और वह अपने समकालीन राजकपूर व देव आनंद से ज्यादा लोकप्रिय थे। क्या वर्तमान का आम आदमी त्रासदी नहीं देखना चाहता? क्या वह अपनी गुजश्ता पीढिय़ों से मनोविज्ञान के स्तर पर कमजोर है या वह ज्यादा पलायनवादी है? आज का युवा अत्यंत सक्रिय और व्यवहारकुशल है और प्रयोग करने का साहस भी रखती है। उसके पास अन्य युगों के युवा लोगों से अधिक हैं जानकारी के स्रोत। वह टेक्नालॉजी से खिलौनों की तरह खेलता है। उसे अपेक्षाकृत कम वर्जनाओं को झेलना पड़ता है और माता-पिता भी पहले से अधिक स्वतंत्र विचार के हैं। इसलिए यह सोचना ही दोषपूर्ण है कि वह त्रासदी नहीं झेल सकता। फिल्मकार अपनी कमजोरियों के गंदे कपड़े दर्शक की पसंद और नापसंद की खूंटी पर टांग देते हैं।
आज अगर कहानी की मांग पर त्रासद अंत रखा जाता है तो दर्शक स्वीकार करेंगे। सिनेमा को मूवीज केवल इसलिए नहीं कहते कि परदे पर चलायमान चित्र प्रस्तुत हैं, परंतु वह दर्शक को भावना के स्तर पर हिला सकता है। जब युवा राजेश खन्ना 'आनंद' में मरते थे तब दर्शक की आंखें नम होती थीं। आज युवा रणबीर कपूर के साथ त्रासदी क्यों नहीं बनाई जा सकती?