क्या शाहरुख खान अपनी छवि से मुक्त होंगे? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :26 अप्रैल 2016
शाहरुख खान का कथन है कि वे अपनी 'रा.वन' की अगली कड़ी बनाएंगे! विशेष प्रभाव वाले दृश्य बनाने का कारोबार उनकी एक कंपनी करती है और उनका विश्वास है कि उनकी यह कंपनी अंतरराष्ट्रीय स्तर का माल बना सकती है। उनके पास आधुनिकतम उपकरण हैं। ज्ञातव्य है कि इसी कंपनी के कारण उनका मतभेद हुआ था शंकर से जिनका आग्रह था कि विशेष प्रभाव वाले दृश्य चेन्नई में किए जाएं, क्योंकि लंबे समय तक वे मुंबई में नहीं रहना चाहते थे। शंकर ने अपने प्रिय सितारे रजनीकांत के साथ अत्यंत सफल 'रोबोट' बनाई और शाहरुख खान ने इसी के जवाब में 'रा.वन' बनाई, जो विफल रही। उपकरण आयात किए जा सकते हैं परंतु जादू तो उनको चलाने वाले तकनीशियन के हाथों में होता है। शाहरुख को इसका अनुमान नहीं था कि भारत में तकनीकी गुणवत्ता मात्र के दम पर सफल फिल्म नहीं बनाई जा सकती। भारतीय दर्शक नज़र नहीं, दिल से फिल्म देखता है और सफल फिल्म वही, जो दर्शक के मन भाए।
शाहरुख खान जिद पर आ गए हैं। भारतीय सिनेमा के पुरोधा एलवी प्रसाद की फिल्म 'जय-विजय' असफल रही और जिद पर आकर उन्होंने उसका नया संस्करण बना डाला परंतु वह और भी अधिक असफल रहा। राज कपूर की 'जोकर' के अंत में भाग दो का वादा किया गया था परंतु फिल्म असफल होने पर उन्होंने वह नहीं बनाया। अवाम के सामने आपकी जिद नहीं चल सकती, क्योंकि वह आपसे अधिक जिद्दी है और अहंकारी सफल लोगों को उनकी अौकात याद दिलाता रहता है। फिल्मकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती आम दर्शक के मन को समझना होता है। फिल्म विधा इतनी महंगी है कि इसमें लागत की वापसी अनिवार्य शर्त होती है। सत्यजीत रे ने अपने कला-बोध के खिलाफ कभी कोई फिल्म नहीं बनाई और निर्माण में किफायत के कारण वे हमेशा सफल रहे। उनकी किसी भी फिल्म ने अपनी लागत नहीं खोई। अत: लीक से हटकर फिल्म बनाने वाले अपनी नवीनता के कारण फिल्म असफल होने का बहाना नहीं बना सकते। शशि कपूर ने 'जुनून,' '36 चौरंगी लेन,' 'कलयुग' जैसी फिल्मों से थोड़ा-सा धन खोया, जिसे वापस लाने के लिए सितारों जड़ित भव्य 'अजूबा' बनाई अौर इसके विराट घाटे ने उनकी कंपनी ही बंद करवा दी। अगर वे अपनी स्वाभाविक लीक पर चलते तो बतौर निर्माता लंबी पारी खेल सकते थे। शाहरुख ने बतौर निर्माता अपनी पारी अजीज मिर्जा के साथ शुरू की परंतु जैसे ही फरहा खान ने उनके लिए फिल्म बनाई उनका दृष्टिकोण ही बदल गया। अजीज के साथ मामूली मुनाफा या मामूली घाटे का खेल था परंतु फरहा खान ने खेल का स्केल बदल दिया और उन्होंने फूहड़ता पर कोई एतराज भी नहीं किया। यह बड़ा स्केल उनकी लार्जर देन लाइफ छवि के साथ मेल खाता था परंतु प्रयोग के द्वार बंद कर देता है। सितारा निर्माता बनकर अपने भीतर छिपी संभावनाओं को टटोलना चाहता है परंतु फरहा खान की लीक पर चलकर उन्होंने इन संभावनाओं को ही खारिज कर दिया। वे दिलीप कुमार से प्रभावित है, जिन्होंने एकमात्र फिल्म 'गंगा-जमुना' बनाई जो एक क्लासिक है। न जाने क्यों फिल्म निर्माण में उन्होंने अपने आदर्श की शैली नहीं अपनाई।
शाहरुख खान के समकालीन सलमान खान ने तेजस्वी कबीर खान के साथ 'बजरंगी भाईजान' बनाकर विरासत गढ़ ली और इस दिशा में उनके प्रयास जारी हैं। अन्य समकालीन आमिर खान ने 'लगान' और 'तारे जमीं पर' बनाकर नई मंजिल हासिल कर ली। सारांश यह कि शाहरुख खान फिल्म निर्माण क्षेत्र में अपने समकालीन सितारों से पिछड़ गए हैं। अब पचास पार शाहरुख खान का लक्ष्य निर्माण क्षेत्र में गुणवत्ता और सामाजिक सार्थकता की तलाश करना होना चाहिए। शाहरुख खान बहुत टेक्नो सेवी व्यक्ति हैं और नए उपकरणों से खिलौनों की तरह खेलते हैं। सबसे पहले उन्हें यह मानना चाहिए कि गुणवत्ता और बॉक्स ऑफिस दो विपरीत दिशाएं नहीं हैं। कथा का चुनाव ही उसकी निर्माण शैली तय करता है। अभी तक सितारा शाहरुख ही निर्माता शाहरुख के लिए सोच रहे थे। फिल्म निर्माण के लिए शाहरुख खान को अपनी सितारा केचुल फेंकनी चाहिए। उन्हें ऐसे कथा विचार को खोजना होगा कि उन्हें लगे कि इस पर फिल्म बनाने में ही उनकी मनोरंजन जगत में आने की सार्थकता है। प्राय: सितारा के निर्माता होेने पर निर्दशक फिल्म के अन्य पात्रों पर ध्यान नहीं देता और पूरी फिल्म एकल अभिनेता फिल्म बन जाती है। सितारा निर्माता अन्य पात्रों को भी अपने तौर-तरीके अपनाने को कहता है। इससे विविधता नष्ट होती है।
देव आनंद ने अपने लटके-झटके छोड़कर विजय आनंद निर्देशित 'गाइड' में अपने पात्र को अात्मसात किया तो वह उनके अभिनय जीवन की श्रेष्ठ फिल्म सिद्ध हुई। सितारे को अपनी लोकप्रिय छवि से मोह होता है, इसीलिए वह अपने को दोहराता रहता है। दर्शक दोहराव से उकता जाता है।