क्या संजय दत्त बिरजू हैं ? / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
क्या संजय दत्त बिरजू हैं ?
प्रकाशन तिथि : 23 मार्च 2013


मेहबूब खान की 'मदर इंडिया' के पहले दृश्य में एक अत्यंत बूढ़ी स्त्री, जिसके चेहरे पर छाई झुर्रियों में उसके गांव और शायद देश का इतिहास लिखा है, एक नहर का उद्घाटन करती है और नहर में पानी बहने लगता है। पूरा गांव खुश है और उस बूढ़ी स्त्री को लगता है कि नहर में बहता पानी लाल हो रहा है। फ्लैश बैक में दिखाया गया है, युवा डाकू बिरजू एक दुल्हन को विवाह मंडप से उठाकर अपने घोड़े पर लादकर भाग रहा है। उसकी मां राधा उसे रुकने के लिए बार-बार कहती है और गोली मारने की धमकी भी देती है। युवा बिरजू नहीं रुकता, क्योंकि उसे लगता है कि उसे सबसे अधिक प्यार करने वाली मां उसे गोली नहीं मार सकती, परंतु आदर्श चरित्र वाली मां अपने गांव की बेटी को भगाने वाले अपने लाड़ले बेटे को गोली मार देती है। फिल्म के ये दृश्य शूटिंग के अंत में शूट किए गए हैं और फिल्म १९५७ में प्रदर्शित हुई थी।

मेहबूब खान चाहते थे कि आक्रोश से भरे इस विद्रोही का पात्र उनके प्रिय दिलीप कुमार अभिनीत करें, परंतु दिलीप कुमार नरगिस के साथ कुछ प्रेम कहानियां कर चुके थे, अत: उनके बेटे की भूमिका उन्हें स्वीकार नहीं थी, परंतु यह भूमिका उनके जेहन में इस कदर समाई थी कि उन्होंने 'गंगा-जमना' बनाकर अपनी बिरजू अभिनीत करने की इच्छा को पूरा किया। इस फिल्म का नायक भी गांव में महाजन के अन्याय के प्रति हृदय में आक्रोश पालता है और हद से बाहर होने पर डाकू बन जाता है। जिस फिल्म के क्लाइमैक्स में उसका इंस्पेक्टर भाई उसे गोली मार देता है। अन्याय के खिलाफ आक्रोश से भरा यही बिरजू लगभग दो दशक की छलांग मारकर सलीम-जावेद की 'दीवार' में आ जाता है, परंतु महानगर में वह घुड़सवार डाकू नहीं वरन् तस्कर है। भारतीय सिनेमा की तीन महान फिल्मों के नायकों के पात्र बिरजू वाले आक्रोश से भरे हैं और बिरजू में अपराधी प्रवृत्ति का होने के बावजूद कुछ ऐसी कशिश है कि सुनील दत्त, दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन को अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए प्रेरित किया है। बिरजू के जीवन का केंद्रीय भाव अपनी मां के प्रति गहरा प्रेम है और वह अन्याय सहन नहीं करता। उसे शीघ्र ही गुस्सा आता है। दरअसल, वह एक मासूम परंतु आहत व्यक्ति है और अपने अच्छे-बुरे की सुरक्षा की भावना का उसके लिए कोई अर्थ नहीं है। बिरजू की मां ने अपने कंगन महाजन के पास गिरवी रखे हैं, जो ब्याज में उसकी तीन चौथाई फसल ले जाता है और मूल रकम सदियों से वहीं खड़ी है। भारतीय सिनेमा का पहला खलनायक सूदखोर महाजन था, दूसरा तस्कर और तीसरा आतंकवादी। नायकों से अधिक परिवर्तन खलनायकों के चरित्र-चित्रण में हुआ है।

बहरहाल संजय दत्त का जन्म २९ जुलाई १९५९ को हुआ है। उनकी मां नरगिस ने 'मदर इंडिया' के प्रदर्शन के बाद गर्भधारण किया था। नरगिस और उनके पति सुनील दत्त के अवचेतन में बिरजू दर्ज था, परंतु हम संजय दत्त को बिरजू नहीं मान सकते, क्योंकि उनका आक्रोश कभी सामाजिक कारणों से नहीं जन्मा वरन् वे अतिरिक्त लाड़-प्यार से पाले गए हैं। उन्होंने कभी सूदखोर महाजन नहीं देखे, परंतु तस्कर सरगनाओं से उनके संबंध रहे हैं - ऐसा मीडिया में कई बार जाहिर हुआ है। मुंबई ब्लास्ट के लिए लाए गए हथियारों के जखीरे का ही हिस्सा थे वे एके ५६ राइफल जो उनके पास पाए गए या जिन्हें नष्ट करने का उन्होंने प्रयास किया। कुछ लोगों को संदेह है कि इस जखीरे की उन्हें कुछ भनक थी, परंतु टाडा अदालत ने उन्हें अनभिज्ञ ही माना था। सुनील दत्त और नरगिस अपने देश से प्रेम करते थे और उनके कार्यकलाप कुछ आदर्शों से संचालित थे, परंतु संजय दत्त बचपन से ही जिद्दी और अकारण आक्रोश का इजहार करते रहे हैं और उनके आचरण की तर्कपूर्ण व्याख्या संभव नहीं है। अपनी जिस मां के प्रेम को वे जीवन का आधार मानते रहे हैं, उसी मां के कैंसरग्रस्त होने के कालखंड में उन्हें नशीले पदार्थ लेेने का चस्का लगा था और एल.एस.डी. नामक इस नशे की लत से मुक्ति दिलाने के लिए सुनील दत्त ने विदेश ले जाकर उनका इलाज कराया था। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि एक दौर में वे अडिय़ल थे। यह प्रचारित है कि हथिारों से उन्हें लगाव रहा है और किशोर वय में उन्होंने अकारण हवाई फायर किए हैं। उनके अवैध शिकार के किस्से भी प्रचलित हैं तथा सुनील दत्त ने उन्हें हर तरह के संकट से बचाया है। सुनील दत्त के कारण ही उनके प्रति नरम रुख अनेक बार अपनाया गया है।

अकारण और अनावश्यक आक्रोश एक किस्म की व्याधि है और इसे संवेदनहीनता का ही लक्षण माना जा सकता है। वर्तमान क्षण के मूड में विचारहीनता से किया गया कार्य और उसके परिणाम सहानुभूति नहीं पैदा करते। सुनील दत्त और नरगिस एक राजनीतिक आदर्श से बंधे थे, परंतु संजय दत्त तो अमरसिंह की प्रेरणा से समाजवादी हो गए और उतनी ही जल्दी उसे छोड़ भी दिया। वे हर क्षेत्र में अधीर और अस्थिर रहे हैं। क्या अवचेतन में अपने अनदेखे और अनभोगे बिरजू तथा कभी ली गई एल.एस.डी. का तलछट लंबे समय तक कायम रहा है? संजय की सोच की थाह पाना कठिन है। शकील नूरानी की 'जान की बाजी' उनके कारण पांच रील बनने के बाद बंद हुई और अदालती आदेश के बाद संजय दत्त ने रकम विलंब से लौटाई। निर्माता जवाहरलाल बाफना ने भी संजय अभिनीत निरस्त फिल्म में पैसे खोए। निर्माता अमित चंद्रा ने संजय दत्त को 'फतेह सिंह' नामक राजकुमार संतोषी निर्देशित फिल्म के लिए मोटी रकम दी थी, जो फिल्म निरस्त करने के बाद भी लौटाई नहीं गई। सब मिलाकर संजय दत्त के आचरण से केवल गैरजवाबदार व्यक्ति की छवि उभरती है। इसलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उनके लिए किया गया छातीकूट आंख नम नहीं करता। आप बिरजू के लिए रो सकते हैं, परंतु जिसने अकारण आक्रोश की मुद्रा कमीज पहनने और उतारने की धारण की हो, वह कोई संवेदना नहीं जगाता। उसका दंडित होना कोई खुशी की बात नहीं, परंतु गम मनाने का कारण भी नहीं है। इनके आग्रह पर जिस मित्र ने हथियार एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाया और जिसने नष्ट किया, उनके दंडित होने पर कोई बवाल नहीं मचाया गया।