क्या साहित्य विफल है? / आले अहमद सुरूर

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लगभग सत्तर वर्ष पहले जब टी.एस. एलियट ने कहा कि उपन्यास मर चुका है, और बाद में जब एडमंड विल्सन ने घोषणा की कि एक ‘मरती हुई विधा’ है, तो उनका आशय यही था कि दूसरे रूप और पद्धतियाँ उनका स्थान ले लेंगी। उन्होंने यह नहीं कहा कि साहित्य एक मरती हुई कला है। लेकिन इन दिनों कोई ख़ास रूप या विधा नहीं, बल्कि संरचित भाषिक प्रवचन का संपूर्ण माध्यम ही आक्रमणों के घेरे में है। दूरदर्शन और अन्य आधुनिक तकनीकी चमत्कारों के सम्मुख मुद्रित शब्द अपना आकर्षण खो रहा है। यह एक वास्तविक ख़तरा है कि किताबें बेकार हो चलें और मुद्रण केवल अल्पतम उपयोगितापरक कामों तक सीमित हो जाए।

संयुक्त राज्य अमेरिका की एक जीवंत बौद्धिक पत्रिका कमेण्टरी के संपादक नॉर्मन पोडहोरेट्ज ने 1974 में सैटरडे रिव्यू में एक लेख में स्वीकार किया था, ‘‘दुनियाँ में अब तक कि पीढ़ियों में सार्वाधिक शिक्षित होने के बावजूद नई पीढ़ी फिल्मों की अपेक्षा किताबों की, भावना की अपेक्षा विवेक की, विम्बों की अपेक्षा शब्दों की ओर निम्न की अपेक्षा उच्चतर संस्कृति की कम चिन्ता करती है। इस प्रकार वे एक ऐसे भविष्य के लिए अभ्यस्त हो, जहाँ साहित्य का अस्तित्व भी नहीं रहेगा।’’ तथ्य फिर भी यह है कि किताबें पहले से ज़्यादा छप और बिक रही हैं और शायद पढ़ी जाती होंगी। यह सही है, जैसा कि एक समीक्षक ने टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेण्ट में कुछ अरसा पहले इशारा किया था कि उनमें अधिकांश ‘कूड़ा’ होंगी। भरत में हालत और भी बदतर होगी, लेकिन शायद कुछ विश्वास के साथ यह दावा किया जा सकता है कि अधिकांश भारतीय भाषाओं में अभी भी कुछ उम्दा किताबें आ रही हैं और कविता तथा गद्य में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए जा रहे हैं। भारतीय भाषाओं में आपस में और विदेशी साहित्य से पहले से अधिक अनुवाद देखे जा सकते हैं।

साहित्य के विभिन्न रूपों और विधाओं के बीच की सीमा-रेखाएँ धुँधली पड़ने लगी है। भाषा ख़ुद बदल रही है, नैतिक सवालों पर बहस जारी है, यद्यपि नैतिक समाधानों का प्रचलन नहीं रहा, विचारधारा की पकड़ ढ़ीली होती जा रही है तथा संशयवाद, संदेह और निराशा, अँधी आस्था, सुनिश्चित मताग्रहों और अस्पष्ट सामान्यीकरण की जगह लेते जा रहे हैं। भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में टैगोर, इक़बाल और प्रेमचंद्र जैसे महान नाम इस समय नहीं हैं। महानों का दौर समाप्त हो गया है। आकाश पर कवि छाए नहीं हैं। यह गद्य का, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा और आलोचना का दौर है। कुछ रचनाकारों ने आलोचकों की वर्तमान हैसियत पर विरोध प्रकट किया है। आलोचक कई बार नए लेखकों की प्रतिभा को पहचानने में असफल रहे हैं; वे अधिकांशतः पुरानी अभिरुचियों में ही शरण लेते रहे हैं; विचारधारा की अपनी तालाश के मारे वे साहित्य के मूल्यांकन में नाकामयाब रहे हैं; फिर भी एक परिप्रेक्ष्य के लिए, एक मूल्यबोध और संस्कृति की खोज के लिए और इस दौर की बढ़ती हुई बर्बरता में एक सामाजिक चेतना, एक नैतिक ताने-बाने के लिए और भाषा नामक रहस्य के सम्मान के लिए आलोचक का महत्त्व है। साहित्यिक संवेदना में एक बदलाव है और आलोचक ही है, जो बताता है कि ‘नवीकरण’ क्यों महत्त्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी भिन्नताएँ और अन्वेषण हैं, जो दोषपूर्ण शिक्षा, परिवार के टूटने, बढ़ते हुए आर्थिक तनावों, स्थान-परिवर्तन और परिवेश तथा प्रकृति से अलगाव के कारण सामान्य जनता को अस्पष्ट लगते हैं। यह आलोचक का काम है कि वह सामान्य पाठक को नए की संपन्न संभावनाओं से परिचित कराए; और पुराने तथा परिचित के साथ तुलनात्मक विश्लेषण कर नए का महत्त्व प्रतिपादित करे, पाठक को मानसिक क्षितिज का विस्तार करे, उसे सह-अनुभूति विकसित करने योग्य बनाए और साथ ही उसमें बदलाव में निरंतरता को समझने तथा जीवन को धैर्यपूर्वक और समग्रता में देखने की सामर्थ्य विकसित करें।

पाठक आमतौर पर रूढ़िवादी होते हैं, वे सामान्यतया साहित्य में अपनी स्थापित मर्यादाओं की स्वीकृति या एक स्वप्न-जगत में पलायन चाहते हैं। साहित्य एक झटके में उन्हें अपने आस-पास के उस जीवन के प्रति सचेत करता है, जिससे उन्होंने आँखें मूँद रखी थीं। शुतुरमुर्ग़ अफ्रीका के रेगिस्तानों में नहीं मिलते; वे हर जगह बहुतायत में उपलब्ध है। प्रौद्योगिकी के इस दौर का नतीजा जीवन के हर गोशे में नक़द फ़सल के लिए बढ़ता हुआ पागलपन है; और हमारे राजनीतिज्ञ, सत्ता के दलाल, व्यापारी, नौकरशाह- सभी लोगों को इस भगदड़ में नहीं पहुँचने, जैसा दूर करते हैं वैसा करने, चूहादौड़ में शामिल होने और कुछ-न-कुछ हासिल कर लेने को जिए जा रहे हैं। हम थककर साँस लेना और अपने चारों ओर निहारना, हवा के पेड़ में से गुज़रते वक्त पत्तियों की मनहर लय-गतियों को और फूलों के जादुई रंगों को, फूली सरसों के चमकदार पीलेपन को, खिले मैदानों की घनी हरीतिमा को मर्मर ध्वनि के सौन्दर्य, हिमाच्छादित शिखरों की भव्यता, समुद्र तट पर पछाड़ खाकर बिखरती हुई लहरों के घोस को देखना-सुनना भूल गए हैं।

कुछ लोग सोचते हैं कि पश्चिम का आधुनिकतावाद और भारत तथा अधिकांश तीसरी दुनिया के नव औपनिवेशिक चिन्तन के साथ अपनी जड़ों से अलगाव, व्यक्तिवादी अजनबियत में हमारा अनिवार्य बेलगाम धँसाव, अचेतन के बिम्ब, बौद्धिकता से विद्रोह, यह घोषणा की ‘दिमाग़ अपनी रस्सी के अंतिम सिरे पर है’, यथार्थवाद का विध्वंस, काम का ऐन्द्रिक सुख मात्र रह जाना और मानवीय भावनाओं का व्यावसायीकरण तथा निम्नस्तरीयकरण इस अँधी घाटी में आ फँसने की वजह है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण इतिहास की एक सच्चाई है, कि नई समस्याओं को जन्म देने और विज्ञान को अधिक जटिल बनाने के बावजूद आधुनिकीकरण, एक तरह से, मानव जाति की नियति है।

वे यह भी भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण सौ फीसदी पश्चिमी करण नहीं है, बल्कि एक बिन्दु के बाद यह अपना रास्ता ख़ुद बनाता है। हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि भारतीय पुनर्जागरण उदीयमान बुर्जुआ वर्ग़ द्वारा अपनी ज़रूरतों के लिए अपहृत कर लिया गया और अधूरा ही रह गया। हमें मशीम द्वारा मनुष्य के विस्थापन, महानगरों के जंगलों का निर्माण और प्रगति के नाम पर सत्ता की राजनीति को भी समझना चाहिए। आधुनिकता के बहुत से आयाम हैं, लेकिन पश्चिम में पूँजीवाद की भूमिका से सीख लेते हुए भारत में भी इसे समग्र मनुष्य के बारे में महसूस करने और सोचने को हतोत्साहित किया और ऊब तथा मनुष्य में छिपे पशुत्व के रसातल में उदास चिन्तन के रेगिस्तान को बढ़ावा दिया है। मानवता और मानवीयता की जगह बर्बरता और पशुत्व ने ले ली है। ‘नवता’, स्टीफ़ोन स्पेण्डर द्वारा प्रयुक्त पद, की तालाश में कुछ लोगों ने अच्छे लेखन को ‘प्रतिक्रांतिकारी’ मान लिया। उनकी राय में साहित्य यथास्थिति पर हमारे अक्रोश की धीर को कुंठित करता और हमें केवल मानसिक जगत में रहने के लिए प्रेरित करता है।

मेरा सुझाव है कि विवेकहीन आधुनिकता के बावजूद आधुनिकता की दिशा में धैर्यपूर्वक सुयोजित प्रयास होने चाहिए। यथार्थवाद का अर्थ व्यर्थ के ब्यौरे नहीं होने चाहिए और न स्वस्थ काम को अश्लील लेखन में ढलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि क्लासिकी साहित्य ने काम-व्यवहार को भी अपनी परिधि में लिया, पर उसमें लोलुप संतोष नहीं हैं। एक आलोचक किसी नाली में भी झाँक सकता है, पर वह नाली-निरीक्षक नहीं होता। लेखक का कार्य दुनिया को बदलना नहीं, समझना है।

साहित्य क्रांति नहीं करता; वह मनुष्यों के दिमाग़ बदलता और उन्हें क्रांति की ज़रूरत के प्रति जागरूक बनाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि पक्षधर साहित्य, साहित्य का एक प्रकार मात्र है, कि विचारधारा सर्जनात्मक दृष्टि को बाधित कर सकती है, गो यह उसे एक दिशा भी देती है। साहित्य में ‘चाहिए’ को भी ध्यान में रखा जा सकता है, पर उसका मुख्य सरोकार ‘है’ से होता है। जब पाठक को लगता है कि उसे एक शो-रूम में ले आया गया है तो वह फँसा हुआ महसूस करता है; जब वह एक खिड़की से दुनिया को देखता है तो उसमें प्रत्येक चीज़ को देखने की उत्सुकता और जिज्ञासा जागती है। साहित्य राजनीतिक हो सकता है और धार्मिक, रहस्यवादी, दार्शनिक भी, लेकिन उसे किसी दर्शन या विचारधारा को हथौड़ा नहीं बनाना चाहिए। दोस्तोएव्स्की ने एक बार कहा था कि केवल ‘सौंदर्य’ ही दुनिया को बचा सकता है। मेरे ख़याल में सौन्दर्य से उसका तात्पर्य उपयोगिता के उस संकीर्ण अर्थ से था, जिसका उपदेश कॉडवेल ने दिया। सौन्दर्य से उसका तात्पर्य शायद था पूर्णता की खोज में सक्रिय मनुष्य : परिचित और अपरिचित में, जीवन की खुशी और दुःख में, संगति और असंगति के सौंदर्य, वक्र गतियों और उज्जवल भावों का, उत्प्रेरक विचारों का, निराशा के अतल में आशा का, प्रभावित यौवन और थके-हारे युग का सौंदर्य; मनुष्य में दिव्यत्व के कंपन का और आज एक पेड़ लगाने का सौंदर्य; मार्टिन लूथर के शब्दों में, यह जानते हुए भी कि यह दुनिया कल समाप्त हो सकती है।