क्या सिनेमाघर से परिवर्तन का शंखनाद होगा? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 मई 2019
कुछ दिन पहले ही एक विदेशी फिल्म 'नेशंस प्राइड' देखने को मिली। हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स का विश्वास था कि एक झूठ को बार-बार बोला जाए तो आदमी उस पर विश्वास करने लगता है। कथा इस तरह है कि एक फिल्मकार को आदेश दिया जाता है कि वह कथा फिल्म में हिटलर के राजनीतिक विचारों को प्रस्तुत करे। फिल्मकार को अपने स्वभाव के विपरीत जाकर फिल्म बनानी पड़ती है। यह तय किया गया था कि फिल्म के प्रथम प्रदर्शन पर स्वयं हिटलर और गोएबल्स मौजूद होंगे। नाजी दल के सेंसर वाले फिल्म को देखते हैं। वे संतुष्ट हैं कि फिल्म हिटलर की छवि को मजबूत करेगी। ज्ञातव्य है इसके कुछ वर्ष पूर्व लेनी रीफेन्शटाल नामक महिला फिल्मकार ने हिटलर का महिमागान करने वाली फिल्म 'द विक्टरी ऑफ फेथ' बनाई थी। उस प्रचारात्मक फिल्म के एक दृश्य में हिटलर मंच पर खड़ा है और सूर्य उसकी पीठ की दिशा में है तो उसकी परछाई भीड़ पर पड़ती है गोयाकि सारी भीड़ हिटलर के विचारों को स्वीकार करती है। यह परछाई भय की विराट चादर का प्रतीक है।
यह तय किया गया कि फिल्म बर्लिन के सबसे पुराने सिनेमाघर में दिखाई जाएगी, ताकि यह संदेश भी दिया जा सके कि सिने विधा जर्मनी में ही जन्मीं, पाली-पोसी विधा है। सिनेमाघर की मालकिन मानव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायती हैं परंतु वह भयाक्रांत है। मालकिन के कुछ साथी अत्यंत साहसी हैं। वे किसी तरह हिटलर के सेंसर से गुजरी फिल्म के अंत में एक दृश्य जोड़ने में सफल होते हैं।
हिटलर, गोएबल्स और साथी राजसी ठाठ-बाट से सिनेमाघर पहुंचते हैं। फिल्म में अपने महिमागान से हिटलर प्रसन्न हैं। जब हिटलर मुस्कुराता था तो उसके साथियों को हंसने का आदेश था। गोयाकि हिटलर की मुस्कान ही एनलार्ज होकर राष्ट्र का ठहाका बन जाती है। उधर प्रोजेक्शन रूम में कुछ घटनाएं घटित हो रही हैं। एक अतिरिक्त दृश्य जोड़ा गया है। इस बात की जानकारी प्राप्त होती है। उस रील को बचाने के प्रयास में फिल्मकार मारी जाती है परंतु हिटलर का व्यक्ति भी मार दिया जाता है। फिल्म समाप्त होने पर हिटलर और गोएबल्स तालियां बजाते हैं, तभी परदे पर अंतिम दृश्य आता है। एक किशोर वय की बालिका कहती है कि पूरे विश्व को एक-सा सोचने के लिए बाध्य करने का प्रयास सफल नहीं होगा। ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो सारे मनुष्य को एक समान सोचने पर बाध्य कर सके। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने विचार की उर्जा से ही संचालित होती है। कोई जंजीर उसे बांध नहीं सकती। सैकड़ों दर्शक देखते हैं। हिटलर और गोएबल्स क्रोध से कांपने लगते हैं। उसी समय सिनेमाघर में परदे के पास एक बम फटता है। हिटलर और उसके साथी सुरक्षित बाहर लाए जाते हैं। उनका गर्व लहूलुहान है परंतु रक्त कहीं नजर नहीं आता।
इसी तरह हिटलर की संकीर्णता पर सिनेमा के माध्यम से पहला प्रहार किया जाता है। ज्ञातव्य है कि हिटलर की हत्या के दो विफल प्रयास किए गए थे। जिससे यह तथ्य रेखांकित होता है कि उसके दबदबे का विरोध करने वाले कुछ लोग बर्लिन में सक्रिय थे। हिटलर के पतन का श्रेय पोलैंड के नागरिकों को दिया जाना चाहिए। हिटलर की योजना थी कि छोटे से पोलैंड को अधिक से अधिक 2 सप्ताह में जीतने के बाद उसकी फौज रूस की ओर कूच करेगी। परंतु पोलैंड के साहसी नागरिकों ने हर मोहल्ले और घर से युद्ध जारी रखा, जिसके कारण पोलैंड पर विजय पाने में हिटलर की फौज को 11 सप्ताह लग गए। इसी कारण फौज रूस की ओर विलंब से बढ़ी। रूस की भीषण सर्दी के मौसम ने फौज की कमर तोड़ दी। यह घटना निर्णायक सिद्ध हुई। हिटलर का गर्व उसे ले डूबा और उसे आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा। सिनेमाघर महत्वपूर्ण हैं। वहां मनोरंजन के साथ शिक्षा भी मिलती है। सिनेमाघर के आसपास बाजार विकसित होता है। भारत में हर कालखंड में सिनेमाघरों की संख्या कम रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में अन्य प्रांतों की तुलना में कम सिनेमाघर हैं। प्रांतीय सरकारों ने इस क्षेत्र में उदासीनता बरती है। मध्य प्रदेश सरकार ने मनोरंजन कर लगा दिया। नगर पालिका, नगर निगम शो टैक्स लेते हैं। इस उद्योग पर चौतरफा आक्रमण हो रहे हैं। सिनेमा उद्योग अभिमन्यु की तरह चक्र में घिरा है। अधिकांश लोगों को यकीन है कि बंदूक की नली से क्रांति का सूत्रपात होगा। कुछ लोग अहिंसा द्वारा महान परिवर्तन की कल्पना करते हैं परंतु सिनेमा माध्यम से भी परिवर्तन की लहरें चल सकती हैं। मनोरंजन कर व शो टैक्स के जजिया कर से मुक्ति पहला चरण होगा।