क्या सिनेमा मर रहा है? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :24 मार्च 2017
मुंबई के फिल्म उद्योग के केवल दस कलाकारों ने लगभग 200 करोड़ रुपए अग्रिम आयकर के रूप मे इस तिमाही में सरकारी खजाने में जमा किए हैं। दक्षिण भारत की भाषाओं में बनने वाली फिल्मों के कलाकार एवं तकनीशियनों द्वारा जमा की गई कर राशि का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इसी तरह बंगाली, भोजपुरी और पंजाबी भाषा की फिल्मों के आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं। सारांश यह है कि फिल्म उद्योग से केंद्र सरकार को आयकर एवं मनोरंजन कर एवं प्रांतीय सरकारों को मनोरंजन कर के रूप में मोटी रकम प्राप्त होती है। इस उद्योग से म्युनिसिपल कमेटियां भी अपना जज़िया प्राप्त करती हैं। कभी-कभी सिनेमाघर के मालिक को कम टिकट बिकने के कारण शो टैक्स अपनी जेब से भरना पड़ता है। फिल्म उद्योग 'गरीब की जोरू सबकी भाभी' की तर्ज पर अनेक स्तरों पर टैक्स चुकाता है। जीएसटी कर की तलवार भी सिर पर लटकी है। फिल्म उद्योग करों के चक्रव्यूह से निकल नहीं सकता। वह अन्य क्षेत्र के लोगों की तरह हड़ताल पर नहीं जा सकता और जब कभी ऐसे प्रयास हुए हैं, उद्योग को परदेदारी बरतकर पीछे हटना पड़ा है, क्योंकि उसमें दिहाड़ी मजदूरों की संख्या बहुत बड़ी है। लंबी हड़ताल में सिनेमाघर का गेटकीपर और सफाई कर्मचारी के घर चूल्हा नहीं जलेगा। दक्षिण भारत का फिल्म उद्योग एकजुट है और उनके संगठन की शक्ति का कुछ अंदाजा आप उनके नायक 'बाहुबली' से लगा सकते हैं। रजनीकांत के एक इशारे पर दक्षिण भारत का सारा कामकाज ठप हो सकता है। ज्ञातव्य है कि रजनीकांत मराठी भाषी परिवार से आए हैं और बंगलुरू में बस कंडक्टर रह चुके हैं। यह अखिल भारतीयता की मिसाल है, जबकि भारतीयता के हव्वे से अल्पसंख्यकों को डराया जा रहा है।
दरअसल, आयकर सरकार के हाथ एक कोड़ा है, जिस पर सबको तरह-तरह नाच के यहां दिखाना पड़ता है। आयकर से प्राप्त राशि राष्ट्रीय आय और खजाने का अत्यंत छोटा अंश है और उसकी वसूली तथा संयोजन में ही भारी रकम खर्च हो जाती है।अगर भारत के तमाम आयकर भवन किराये पर उठा दिए जाएं तो भारी रकम मिल सकती है और इन दफ्तरों में काम करने वालों की ऊर्जा का उपयोग अन्य विभागों और क्षेत्रों में किया जा सकता है परंतु कोई भी सरकार अपने हाथ से भय के इस कोड़े को खोना नहीं चाहती। सत्ता के शेर के नाखून भले ही कमजोर हों परंतु उसकी गुर्राहट से सभी लोग कांपते हैं। शेर बूढ़ा और कमजोर होने पर भी घास नहीं खाता। हिंदुत्व ताकतों का शेर भी मांसाहारी है, क्योंकि यही उसकी गिजा है। कोई भी राजनीतिक सियार शेर की खाल पहनकर आम आदमी को आतंकित कर सकता है। नुक्कड़नुमा दादागिरी का यह स्वर्ण-युग है।
यह बात भी गौरतलब है कि फिल्म उद्योग के लोगों को राज्यसभा सदस्य बनाया जाता है और राज बब्बर की तरह कुछ लोग चुनाव भी जीते हैं परंतु सांसद होते ही उनका कायाकल्प हो जाता है और वे फिल्म उद्योग के लिए सदन में सवाल नहीं पूछते। इन महान संस्थाओं में चुने हुए प्रति व्यक्ति पर कितना अधिक आर्थिक खर्च आता है और उनकी उपयोगिता क्या है? इंदिरा गांधी को सिंडिकेट ने 'खामोश गुड़िया' कहकर उनका उपहास उड़ाया परंतु उन्होंने सत्ता के शेर पर ऐसी सवारी की कि उनके प्रतिद्वंद्वी ही खामोश गुड्डे हो गए और विपक्ष ने ही कहा कि इंदिरा गांधी के कैबिनेट में वही एकमात्र पुरुष हैं। इंदिरा गांधी पर कई विवाद उठ खड़े होते हैं परंतु उन्होंने बांग्लादेश की स्थापना करके पाकिस्तान की एक भुजा ही काट दी। आज पाकिस्तान को परम शत्रु मानने वालों ने भी पाकिस्तान को वह क्षति नहीं पहुंचाई, जो इंदिरा गांधी ने पहुंचाई थी।
आज आम जीवन समस्याओं से घिरा है और रोटी, कपड़ा, मकान की आधारभूत जरूरत ही पूरी नहीं हो रही है तो इन हालात में सिनेमा उद्योग का जीवित रहना क्यों आवश्यक है? इस जर्जर भवन को गिरने ही दिया जाना चाहिए। सत्ता को इस उद्योग से करों के अतिरिक्त सबसे बड़ा लाभ यह है कि देश में भारी असंतोष और क्रोध है। कुछ हद तक सिनेमा इसका शमन करता है। वह अवाम को अपना गम गलत करने का सुलभ साधन है। अवाम के पेट खाली हैं और सरकारी सुलभ शौचालय की तरह है मनोरंजन उद्योग। निर्मम यथार्थ से कुछ समय के लिए मुक्ति देता है सिनेमा। परदे पर नायक खलनायक को पीटता है तो अवाम को लगता है कि वह उसी का बदला ले रहा है। सिनेमा दर्द भी है, दा भी है और मयखाना भी है। वह नींद उड़ाता है और नींद की गोली भी है। कुनैन-सी उजागर होती सदी में चीनी का काम करता है सिनेमा। अन्वेषण के तूफानी दौर में पलायन की तरह है सिनेमा। विज्ञान की जगमग सदी में अलसभोर की तरह है सिनेमा। शक्ति के हजारों स्वयंभू सूर्य चमकने के दौर में कमजोर का जुगनू है सिनेमा। समय की रहस्यमय गुफा द्वार पर 'खुल जा सिमसिम' की तरह है सिनेमा। दरबारी गायकों की महफिल में भिखारी का गीत है सिनेमा गोयाकि तानसेन के दरबार में बैजू बावरा है सिनेमा। सिनेमा, बिस्मिल से क्षमा याचना मांगते हुए कहेंगे, 'देखना है जोर कितना बाजु ए कातिल में है।'