क्या है 'दलित' शब्द का अर्थ? / कमलेश कमल

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भाषा-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो दल, दाल, दलित और दलदल जैसे शब्द एक ही मूल के हैं। ये सारे शब्द बने हैं 'दल्' धातु से। 'दल' शब्द का अर्थ है टूटना, विकसना, फटना, खंडित होना, मर्दित होना, दबाया या रौंदा हुआ होना। कालांतर में 'दल' शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ और इससे 'समूह' आदि का बोधन भी होने लगा। इसके कुछ निश्चित कारण भी हैं।

'दल' में अलग होने का भाव है-चटकने, खंडित होने या टूटने का भाव है। तो अगर समूह में से कुछ अलग हो जाए तो कहते हैं कि दल बन गया, जैसे दूर्वादल। दूब की हरी-भरी क्यारी से कुछ दूब उखाड़ लें, तो उखड़े हुए दूब को दूर्वादल कहते हैं। ध्यान दें कि पूरी की पूरी क्यारी 'दल' नहीं है, अपितु उसका चटका, टूटा, उखड़ा हुआ या अलग किया हुआ भाग ही 'दल' है। जब तक किसी बड़े समूह से टूटे न, 'दल' नहीं बनता, जैसे कुछ लोग अलग होकर एक गुट बनाते हैं, तो वह 'दल' हो गया।

इस तरह भाषा-विज्ञान के अनुसार दल में चटकने का भाव है, अलग होने का भाव है।

ध्यान दें कि साबुत चना, मूँग या उड़द आदि को दाल नहीं कहा जाता। साबुत अनाज जब टूट जाता है, तब 'दाल' बन जाता है। साबुत चना जब टूटता है तो उसे दाल कहते हैं, क्योंकि उसका दलन हुआ है...उसको तोड़ा गया है।

जब तक यह ठीक से नहीं टूटता, दाल ठीक नहीं बनती।

'दल-दल' भी इसी 'दल' से बना है। जब मिट्टी चटक-चटक जाती है, तो दल-दल बन जाता है। जब मन किसी विपत्ति में फँस जाता है, टूट-सा जाता है, तो व्यक्ति कहता है, "दल-दल में फँस गया हूँ।"

वैसे टूटने की क्रिया दलन है और दल से विशेषण दलित बनता है। दल्+इत से दलित (या फिर दल्+ क्त से दलित) शब्द की व्युत्पत्ति होती है। दलित वह है जिसका दलन हुआ, जिसे दबाया गया, कुचला गया, जो दीन-हीन अवस्था में है।

ध्यातव्य है कि कोई व्यक्ति दलित आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि आधारों पर हो सकता है। कोई ज़रूरी नहीं कि दलित आर्थिक रूप से ही हो। यह हो सकता है कि जातिगत रूप से कोई दलित न हो, लेकिन आर्थिक रूप से दलित हो। वैसे, विचारणीय है कि इस अर्थयुग में तो अर्थ की महत्ता ही सर्वोपरि है। शास्त्रों में कहा गया है "बुभुक्षितः किम् न करोति पापं। अर्थ की यही महत्ता सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कि एक कविता-" पोस्टमार्टम की रिपोर्ट" में क्या ख़ूब वर्णित है-

गोली खाकर

एक के मुँह से निकला-

'राम' ।

दूसरे के मुँह से निकला

'माओ' ।

लेकिन

तीसरे के मुँह से निकला-

'आलू' ।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है

कि पहले दो के पेट

भरे हुए थे।

मज़ेदार यह कि दलित को सर्वहारा भी कहा जाता है। ग़ौर करें कि जिसे सर्वहारा कहा जाता है, वह होता तो आर्थिक रूप से वंचित ही है, लेकिन इसका अर्थ है-जो सब हार गया। तो, मार्क्सवाद का भी तकाज़ा है कि दलित को जाति से जोड़ने से अच्छा है, अर्थ से जोड़ें।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि किसी को 'दलित' मानने से पहले इसके अर्थ को ध्यान में रखना चाहिए। हाँ, अगर बात सिर्फ़ कहने की हो, तब तो कुछ नहीं किया जा सकता।