क्योंकि...अब तुम ही हो / ममता व्यास
एक बार की बात है! बहुत से लोग मिलकर एक व्यक्ति को पीट रहे थे,कोई पत्थर, कोई लाठी कोई कोढ़ा ...जिसके हाथ में जो आया वो उसे मार रहा था और वो ख़ामोशी से मुस्काता हुआ सभी वार झेल रहा था। उसका एक प्रिय मित्र भी उस भीड़ का हिस्सा था, कुछ देर बाद भीड़ ने उसके मित्र से कहा तुम भी मारो इसे ...मित्र असमंजस पड़ गया एकतरफ उसका ख़ास दोस्त और एक तरफ दुनिया...वो सोचने लगा क्या करूँ ऐसा कि भीड़ भी खुश हो जाए और दोस्त भी नाराज ना हो उसने सोचा पत्थर तो नहीं मार सकूँगा एक फूल ही मार देता हूँ।
उसने एक फूल उठाया मार दिया ..लेकिन बड़ी अजीब बात हो गयी, जो आदमी अभी तक भीड़ के पत्थर, लाठी, जहर बुझे तीर और कोढ़े खाकर भी हँस रहा था। वो अपने प्रिय मित्र के फूल मार देने से कराह उठा और फूट -फूट के रो दिया। भीड़ हैरान थी और उसका मित्र भी, पूछा क्या हुआ? वो बड़े दुखी स्वर में बोला--मित्र ये दुनिया तो मेरी दुश्मन थी, गैर थी इसलिए उससे तो ऐसे व्यवहार की है अपरक्षा थी लेकिन, तुम भी उनके साथ खड़े हो जाओगे ये उम्मीद नहीं थी । भीड़ ने मुझ पर जो अत्याचार किये वो सब मैं अपनी देह पर झेल गया क्योंकि मेरा दिल तुम्हारे प्रेम से भरा था लबरेज था, मजबूत था इसलिए मैं इस दुनिया पर हँसता गया लेकिन ... जब तुम भी मारने वालों में शामिल हो गए तो तुम्हारा फेंका हुआ फूल ही मेरे दिल को छलनी कर गया मैं बिखर गया, टूट गया। तू भी ज़माने के जैसा हो गया। ऐसा कह कर वो आदमी मर गया।
क्या वो आदमी देह पर लगी चोटों से मर गया? नहीं वो दिल पर लगे घावों से मरा,वो दिल पर लगे तीर से मारा गया, वो प्रेम की टूटन सह नहीं पाया, वो भरोसे के टूटने से मरा। उसका वो मित्र उसकी उम्मीद था, भरोसा था, प्रेम था।
हम अपने जीवन का बहुत सा समय प्रेम की खोज में बिताते हैं, और प्रेम जब आ जाता है तो उससे बचने में भागने में या उसे आजमाने में बिता देते हैं या कभी-कभी पूरा जीवन ही इस आजमाइश में बीत जाता है। ऐसे लोग हमेशा प्रेम से वंचित रह जाते हैं। प्रेम बहुत कोमल और तुनकमिजाज है, इसे अनदेखापन जरा भी बर्दाश्त नहीं। एक पल में रूठ जाए, एक पल में टूट जाए ..किसी से कोई उम्मीद नहीं होती प्रेम में, बल्कि कोई हमारी उम्मीद ही बन जाता है। उसके बिना कोई नहीं, उसके सिवा कोई नहीं, क्योंकि वो ही है सब, वो ही है अब ....और वो नहीं जब ..? तो टूटती है उम्मीद, प्रेम और भरोसा इस कहानी में भी यही हुआ ।
एक सुन्दर उदाहरण से बात शायद स्पष्ट हो जायेगी। एक फिल्म थी "बरफी " जिसमे नायक न बोल सकता है ना सुन सकता है, उसे एक मंदबुद्धि लड़की से प्यार है। पूरी फिल्म में मंदबुद्धि नायिका बरफी, बरफी पुकारती है लेकिन नायक सुन नहीं सकता ....ये रिश्ता दो अधूरे लोगों का रिश्ता था ...अधूरे लोगों के पूर्ण प्रेम का रिश्ता, समझ का रिश्ता, साथ का रिश्ता ..एक दिन बरफी से उसकी पुरानी प्रेमिका मिलती है। बरफी अपनी पागल प्रेमिका को अनदेखा करता है। और वो ये अनदेखा बर्दाश्त नहीं कर पाती और हमेशा के लिए चली जाती है। दरअसल प्रेम अनदेखी बर्दाश्त ही नहीं करता, वो कभी दूसरे नंबर में रहना ही नहीं चाहता । सेकेंडरी होना उसे सख्त नापसंद है ।
पहली नजर में देखने से दोनों उदाहरणों में कोरी भावुकता या भावना का अतिरेक दिखता है लेकिन ....परते उघाड़ने पर आपको गहरा प्रेम, गहरा विश्वास और समर्पण नजर आएगा बशर्ते आप उसे देखना चाहे...दोनों ही उदाहरणों में दोस्तों ने, प्रेमियों ने अपने साथी से खालिस प्रेम की, ध्यान की, परवाह की, फ़िक्र की उम्मीद की थी, यहाँ कोई धन या देह की चाह नहीं थी ।
दरअसल हम रिश्ते बनाते समय दिल की आवाज पर यकीन करते हैं लेकिन जब रिश्ते संभाले नहीं जाते तो दिमाग का इस्तेमाल करने लगते हैं। भला प्रेम के कारोबार में होशियारी के गणित की क्या जरुरत? दिल की जमीन पर ही उगते हैं प्रेम के पौधे और जरा सी होशियारी की धूप उन्हें मुरझा देती है।
हम जब किसी को अपना सर्वश्रेष्ठ समय, सर्वश्रेष्ठ भावनाएं, विचार और प्रेम देते हैं तो बदले में उससे भी सर्वश्रेष्ठ की आस करते हैं। इतनी आस तो माली भी अपने पौधों से करता है । समर्पण भाव से रोज पानी सींचने वाले हाथ, बड़े ही प्यार और धीरज के साथ हर पौधे से सुन्दर फूल की आस कर ही बैठते हैं इसमें गलत क्या है? जब हम खुद को एक भरोसे के साथ किसी को सौंप देते हैं तो अगले की जिम्मेदारी बनती है की वो दूजे की परवाह करे, फ़िक्र करे, अनदेखा ना करे।
मनोवैज्ञानिक नजरिये से देखा जाए तो हम सभी अपनी आयु, परिवेश,समाज के साथ निरंतर अंतर्क्रिया (interaction)करते रहते हैं। हम एक व्यक्ति के नाते समाज और परिवार के विभिन्न व्यक्तियों के साथ अलग-अलग स्तरों के अंतर्संबंध बनाते हैं । हम अपने लिए कुछ अपेक्षाएँ करते हैं और इसी तरह हमारे आसपास के लोग भी हमसे अपेक्षा रखते हैं। इन्हीं की पूर्ति के आधारों पर हम अपने मन में लोगों की छवि (इमेज) बनाते हैं और उन्हें तौलते हैं। यही नहीं हम अपने आपको भी अपनी छवि और उसकी पूर्तियों के हिसाब से तौलते हैं। अपनी समझ और ज्ञान के विकास के साथ-साथ अपनी मान्यताएँ भी बदलते जाते हैं। हम अपने आसपास के रिश्तों से, संबंधों से, समाज से ही अपेक्षा नहीं करते वरन खुद से भी अपेक्षा करते हैं, खुद की भी छवि बिगाड़ते हैं और ठीक इसी समय हमारे मन में अन्तर्विरोध पैदा होते हैं, द्वंद भी पनपते हैं और यही चीज हमारे व्यवहार को असहज और सतर्क बनाती है।
लेकिन ख़ास बात फिर वही कि, रिश्तों को समझने के लिए आवश्यक है कि धीरज हो, समर्पण हो वास्तविक लगाव हो जिससे उष्णता बनी रहे, निकटता बनी रहे। निरी भावुकता और रोमांच नहीं एक भरोसा जरुरी है। कोई जरुरी नहीं की आप प्रेम चालीसा पढ़े, प्रेमी का नाम जपे उससे रोज मिले या दोस्ती साबित करें लेकिन उसे विश्वास तो दिलाना ही होता है की तुम हो , अब तुम ही हो। एक अहसास ही काफी होता है रिश्तों की लम्बी उम्र के लिए। रिश्तों के प्रति हमेशा होशवान बने रहना होता है आप उन्हें लापरवाही से छोड़ कर संतुष्ट नहीं हो सकते कि वो आ ही जायेगा एक दिन यक़ीनन...
बहुत ही कोमलता से संभालना होता है... कोमल रिश्तों को भरोसा दिलाना होता है। जो रिश्ते हमें जीवन देते हैं साँस देते हैं, सर्द रातों में आँच देते हैं, हमें उनसे कहना ही होता है कभी न कभी...क्योंकि...अब तुम ही हो।