क्यों आवश्यक है गैरसैंण का राजधानी होना / वेद उनियाल
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: युगवाणी » | अंक: मई 2016 |
वेद उनियाल
अविभाजित उ.प्र. में विकास की दौड़ में पिछड़ गये मध्य हिमालय में अवस्थित उत्तराखण्ड के अलग राज्य की माँग इसके अपने अस्तित्व की रक्षा, अपनों की स्पष्ट पहचान व सर्वागीण विकास से जुड़ी हुयी थी। यदि हम इतिहास में जायें तो उत्तराखण्ड का लगभग स्वतंत्र आस्तित्व रहा है। बाद के दौर में राज्य पुर्नगठन आयोग द्वारा जब अवध और आगरा प्रान्त के साथ इस भू-भाग को जोड़कर उ.प्र. बनाया जा रहा था तो उक्त आयोग के एक सदस्य एम. पन्निकर द्वारा इसका विरोध किया गया। उनका मानना था कि भौगोलिक विषमता वाले इस पर्वतीय क्षेत्र जिसकी संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, रहन-सहन व मुख्य रूप से आर्थिकी एकदम भिन्न है को यदि मैदानी क्षेत्रों के साथ जोड़ दिया जायेगा तो इसका स्वाभाविक विकास प्रभावित होगा। हालांकि उस वक्त उनकी बात को स्वीकारा नहीं गया, पर अब देर से ही सही उत्तराखण्ड का अलग राज्य के रूप में आस्तित्व में आना इस बात का गवाह है कि उनकी आशंका निर्मूल नहीं थी। उ.प्र. के विभाजन की माँग अलग-अलग समय में उठती रही है-हरित प्रदेश, पूर्वान्चल, बुन्देलखण्ड आदि। कोई राजनेता उ.प्र. को तीन भागों में बांटने की बात करता है, तो कोई चार भागों में। पर उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन उ.प्र. के बंटवारे की मांग नहीं था, यह केवल उ.प्र. के पर्वतीय क्षेत्र को अर्थात् उत्तराखण्ड को अलग राज्य बनाने की माँग थी जो लम्बे संघर्षों के बाद सन् 2000 में पूरी हुयी। उत्तराखण्ड की तराई व हरिद्वार को छोड़ दें तो यह सम्पूर्ण राज्य करीब 70 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्र है इसलिए यह भी स्वाभाविक सोच थी कि इस राज्य की राजधानी किसी पर्वतीय क्षेत्र में ही बनेगी। राज्य आन्दोलन के प्रारम्भिक दौर से ही गढ़वाल-कुमाऊँ के मध्य बसे गैरसैंण को राज्य की राजधानी बनाने की माँग उत्तरोतर विकसित होती रही। नारा भी लगता रहा- ‘पहाड़ की राजधानी पहाड़ में’ राज्य आन्दोलन के नेतृत्वकारी क्षेत्रीय दल उत्तराखण्ड क्रान्ति दल ने 1992 में ही बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में एक प्रपत्र जारी कर गैरसैंण को राज्य की राजधानी बनाने की मांग को तथ्यों व तर्कों के साथ जनता के सम्मुख रखा था जिसका न तो किसी व्यक्ति, किसी संगठन या किसी राजनैतिक दल द्वारा विरोध किया गया था न किसी ने विरोध में एक शब्द कहा व न ही कहीं विरोध में एक शब्द छपा। उक्रांद ने तब यह भी सुझाव दिया था कि गैरसैंण के आस-पास के क्षेत्र को मिलाकर राज्य राजधानी क्षेत्र विकसित किया जाये। इसे एक विशिष्ट स्वरूप देकर इसका नाम पेशावर विद्रोह के नायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम पर चन्द्रनगर गैरसैंण रखा जाय। नारों में भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। राज्य आन्दोलन में समस्त उत्तराखण्डी सम्मलित थे जो ‘आज दो अभी दो उत्तराखण्ड राज्य दो’ के नारे के साथ यह भी उद्घोष करते थे कि ‘और कहीं मंजूर नहीं गैरसैंण अब दूर नहीं’। इस तरह गैरसैंण एक जन स्वीकृत राजधानी बन गया। प्रत्येक उत्तराखण्डी को उम्मीद थी कि राज्य बनते ही गैरसैंण राज्य की राजधानी बनेगा। तब यह आभास नहीं था कि राज्य की भाजपा की अन्तरिम सरकार देहरादून को अस्थायी राजधानी घोषित कर, राजधानी के संवेदनशील मुद्दे को राजनीति के चक्रव्यूह में फंसा देगी। असल में हमारे राज्य के हुक्मरानों की मंशा शुरू से ही देहरादून को स्थायी राजधानी बनाने की थी जो अब काँग्रेस-भाजपा के नेताओं के बयानों से लगातार जाहिर हो रही है। देहरादून को अस्थायी राजधानी कहना तो इनकी मजबूरी है, क्योंकि ये भी समझते हैं कि जन भावनायें गैरसैंण के पक्ष में हैं। ये क्षेत्रीय दलों की राजनैतिक प्रतिबद्धता व संघर्षशील क्षमता से भी परिचित हैं। इन्हें राज्य आन्दोलनकारियों की आक्रामकता व आत्मबलिदानी तेवरों का भी पूरा एहसास है। इसलिए ये देहरादून को सीधे-सीधे स्थायी राजधानी घोषित करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। और तो और इनमें इतनी भी हिम्मत नहीं है कि 11 जनवरी 2001 को जिस राजधानी आयोग का इन्होंने मिलजुल कर गठन किया था व बाद के दौर में दोनों ने ही 12 बार उसके कार्यकाल को बढ़ाया था, अब उसी की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रख दें तथा स्थायी राजधानी के सवाल पर जनता का सामना करें। उत्तराखण्डियों के लिए गैरसैंण कोई आग्रह या दुराग्रह का सवाल नहीं है और न ही यह मात्र जमीन का टुकड़ा है। यह तो हमारे लिए गढ़वाल-कुमाऊँ की साझा संस्कृति अर्थात् उत्तराखण्डी संस्कृति का उद्गम स्थल है। साथ ही यह हमारे विचार एवं भावना के स्तर पर ‘पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर’ का स्वाभाविक सवाल है। हमारा दृढ़ता से मानना है कि गैंरसैंण, सम्पूर्ण प्रदेश विशेषकर सूदूर पर्वतीय अंचलों के विकास का प्रेरणा स्थल है। हम समझते हैं कि यदि 9 नवम्बर 2000 को राज्य की स्थापना के साथ ही राजधानी गैरसैंण की घोषणा हो गयी होती तो विकास की दिशा मैदान से पहाड़ की ओर नहीं, बल्कि पहाड़ से मैदान की और होती। राज्य के 10 पर्वतीय जनपद इन 15 वर्षो में उद्योग-शून्य नहीं रहते और उत्तराखण्ड का नौजवान आज भी पलायन की त्रासदी से अभिशप्त न होता। गैरसैंण राजधानी का मतलब होता तेजी से खाली हो रहे पहाड़ी गाँवों में स्थायित्व तथा सीमान्त क्षेत्रों में जीवन्तता व विकास की निरन्तरता, जो कि न सिर्फ उत्तराखण्ड राज्य के हित में होता बल्कि देश की एकता व अखण्डता के लिए भी जिसकी आवश्यकता को कम करके नहीं आंका जा सकता। विराट जन भावना के अनरूप गैरसैंण को उत्तराखण्ड की स्थायी राजधानी बनाये जाने की राह में लगातार पैंतरेबाजी करने वाले इन दलों के कुछ नेताओं ने अब राजधानी निर्माण को लेकर खर्च होने वाले धन का रोना शुरु कर दिया है। कोई नेता कह रहा है कि जब राज्य की राजधानी का न सिर्फ आधारभूत ढांचा बल्कि सभी आवश्यक निर्माण देहरादून में कर लिए गये हैं तो अब गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का प्रश्न ही कहाँ रह गया है। सरकार क्यों जनता की भावनाओं के साथ खेल रही है? ये लोकतन्त्र का अजब तमाशा है। यहाँ सरकार ही सरकार पर आरोप लगा रही है। धन्य है सरकार! पिछली सरकार का कोई मंत्री देहरादून के स्थायी राजधानी होने की लगभग घोषणा करते हुए कह रहा है कि गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के लिए पाँच हजार करोड़ रुपये चाहिए, वे कहाँ से आयेंगे? केन्द्र तो दे नहीं रहा। राज्य के अपने इतने संसाधन हैं नहीं। इसलिए स्थायी राजधानी तो देहरादून ही होगी। कुछ एक ऐसे नेता व विधायक भी हैं जो जनसंख्या व प्रतिनिधित्व का पाठ पढ़ा कर कह रहे हैं कि मैदानी क्षेत्र में जनसंख्या पहाड़ों के मुकाबले अधिक है और चुने जाने वाले प्रतिनिधियों की संख्या भी मुकाबलन ज्यादा है, तो फिर गैरसैंण में राजधानी बनाने का मतलब ही क्या है। उनका चुनौतिपूर्ण अन्दाज स्पष्ट बयाँ करता है कि वे देहरादून को स्थायी राजधानी घोषित करने के पक्ष में प्रबलता से खड़े हैं। उनमें से तो कुछ इससे भी आगे जाकर पहाड़ को मैदान के लिए मुसीबत मानते हैं। पहाड़ियों को तराई के विकास में बाधक मानते हैं। असल में अलग-अलग झण्डों के नीचे खड़े ये लोग गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाये जाने की राह में रोड़ा अटकाने वालों की जमात हैं। वे चाहे किसी भी दल के हों, पर इस सवाल पर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। नेताओं, मंत्रियों व विधायकों की बात छोड़ भी दें तो गैरसैंण को स्थायी राजधानी घोषित करने के नाम पर अभी हाल ही में निलम्बित हरीश रावत सरकार में भी दृढ़ इच्छाशक्ति का आभाव स्पष्ट झलकता है। राजधानी का सवाल उत्तराखण्डियों के लिए कितना संवेदनशील है इसके लिए राज्य आन्दोलन के प्रारम्भिक दौर से सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को लेकर हुए अनेक धरना-प्रर्दशनों के साथ ही उत्तराखण्ड क्रान्ति दल सहित बहुत से आंचलिक संगठनों, क्षेत्रीय मंच व मोर्चों तथा महिला संगठनों द्वारा गैरसैंण की मुख्य भूमि पर आयोजित किये गये सम्मेलनों व प्रदर्शनों तथा क्रमिक व आमरण अनशनों को याद करना जरूरी है। साथ ही याद करना जरूरी है बाबा मोहन उत्तराखण्डी की शहादत को जिन्होंने गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग को लेकर 2 जुलाई 2004 को गैरसैंण के निकट बेनिताल में आमरण अनशन प्रारम्भ किया व 38 दिन बाद 8 अगस्त 2004 को शहीद हो गये। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर पूरी राजनैतिक इमानदारी व समर्पित भाव से कदम उठाने आवश्यक हैं। दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव में उठाये गये कदम कभी भी स्पष्ट रुख का इशारा नहीं करते। यही कारण है कि इस मुद्दे पर पिछली हरीश रावत सरकार की कारगुजारियाँ भी भ्रम ही पैदा करती हैं। बात केवल उनके वरिष्ठ नेताओं द्वारा एक-दूसरे की बखिया उधेड़ने वाले बयानों तक ही सीमित नहीं है, बात उनके द्वारा उठाये गये कदमों की भी है। एक तरफ तो हरीश रावत जब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब वह गैरसैंण से लगते हुए क्षेत्र भराड़ीसैंण में विधान सभा भवन के निर्माण को शीघ्रताशीघ्र पूरा करने का ढोल पीट रहे थे तो वहीं दूसरी ओर देहरादून के ही रायफर कस्बे (ग्राम सभा) में नया विधानसभा भवन बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण भी उन्हीं की सरकार में लगभग पूरा कर लिया गया था। गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का विरोध करने वाले नेताओं के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने के बजाय वह जनता को खाता व बही दिखाने की बात कर रहे थे। नेताओं को समझ लेना चाहिए कि केवल बयानों से असमंजसता दूर नहीं की जा सकती। भावनाओं से खिलवाड़ किसी का भी और कहीं भी माफ नहीं होता, फिर उत्तराखण्ड देवभूमि है। यहाँ दण्ड मिलने में देर नहीं लगती।