क्यों और किसलिए? / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मेरा स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि अपना परिचय सुनने में शर्म-सी लगती है। अगर स्वयं ही यह काम करना पड़े, तब तो और भी गजब! तब तो जी चाहता है कहाँ चला जाऊँ, छिप जाऊँ, ताकि परिचय चाहनेवालों से भेंट ही न हो। यही कारण हैं, दो वर्ष पहले तक शायद ही किसी को साधारणत: मेरी जीवनी विदित हो।

सच तो यह हैं कि मेरी मौत के बाद ही मेरे संबंध की प्रारंभिक अज्ञात बातें लोग जानें, यही मेरा विचार सदा से रहा है। आखिर, सार्वजनिक कार्य-क्षेत्र में जब से मैं आया और मेरा संबंध इससे दृढ़ हुआ तब से आज तक का परिचय क्या पर्याप्त नहीं है?यही तो असली परिचय है, जिसे लोग न सिर्फ कामों से ही पाते है, वरन जिसका रूप निरंतर के संसर्ग और व्यवहार की कसौटी पर कस कर ठीक-ठीक समझ और देख सकते है। उचित भी तो यही है। जो भाग अँधेरे में है, उसे देखने की नाहक कोशिश से तो अच्छा है कि बराबर उजाले में और हजारों आँखों के सामने रहनेवाला ही भाग ग़ौर से देखा जाए। इसमें धोखे की गुंजाईश भी नहीं होती। लेकिन सार्वजनिक रूप से अप्रकट रूप में तो सब कुछ हो सकता है। इसी प्रकार की परोक्ष जीवन संबंधी बातों के करते न जाने कितनों ने अनजान लोगों को ठगा है और इस तरह अपने आप को उनकी नजरों में औलिया, महात्मा, नेता और अलौकिक पुरुष सिद्ध करने की सफल, निष्फल-कोशिश की है।

असल में जनसाधारण की आँखों के सामने किए जानेवाले व्यवहार और उनकी सेवा के लिए किये जानेवाले काम, त्याग और बलिदान आईने की तरह किसी भी पुरुष के गुप्त और अप्रत्यक्ष जीवन का प्रतिबिंब प्रकाशित कर देते है। और कोई भी चतुर आदमी इन्हीं कामों से उस अप्रत्यक्ष जीवनांश का असली आभास पा सकता है। इसीलिए हमारी नजरें किसी भी आदमी के जीवन के उसी अंश पर रहनी चाहिए, जो प्रत्यक्ष है और जिससे रोज सबका पड़ता है। इस प्रकार जीवन के अप्रत्यक्ष का पूर्ण आभास मिल जाने पर समय पाकर उसका पूरा विवरण भी मिल सकता है।

इन्हीं विचारों ने मुझे जीवनी लिखने या बताने के काम से बराबर विरागी रखा और मैं बराबर इस काम से बेमुरव्वती के साथ अलग रहा।

लेकिन प्राय: दो वर्ष पूर्व कुछ मित्रों ने बहुत ज्यादा आग्रह और हठ कर के मुझे मजबूर कर दिया और इस प्रकार प्रारंभिक जीवन की कुछ अधूरी बातें जैसे-तैसे जान लीं। असल में कभी-कभी परिस्थितियाँ मनुष्य को इतना लाचार कर देती है कि उसके विचार ताक पर ही पड़े रह जाते है और हजार न चाहते हुए भी कुछ काम करना ही पड़ जाता है। यही हालत मेरी हो गई। कुछ प्रेमियों और मित्रों ने आखिर विवश कर डाला ही और विशृंखलित रूप से जीवन-वृतांत जान ही लिया। ऐसे मौके ईधर दो वर्ष के भीतर तीन बार आए। दो बार तो अखबारवालों ने ही ऐसा किया। इसी के साथ एक बात और भी हो गई। जब लोगों ने विस्तृत जीवनी लिखने का हठ किया तो मेरे मुख से निकल पड़ा कि मरने के बाद कोई लिखेगा। पर, लोगों ने न माना और मुझसे आखिर कहला ही छोड़ा कि, अच्छा, तो कभी जेल में जाने पर स्वयं लिखूँगा।

इसलिए लिखने बैठा हूँ। वचन तो आखिर पूरा होना ही चाहिए। इसी बहाने अतीत जीवन का सिंहावलोकन भी हो जाएगा।

इतना ही नहीं, कुछ मित्रों का बराबर आग्रह रहा है कि मैं संगठित किसान-आंदोलन का भारत में एक प्रकार से जन्मदाता होने के कारण तत्संबंधी अपने संस्मरण लिख दूँ तो बड़ा काम हो। मैंने उन्हें वचन भी दिया था कि मौका पा कर लिखूँगा। मैंने मौका तो पाया लेकिन सोचा कि अलग लिखने की अपेक्षा जीवन वृतांत के अंतर्गत ही लिखना ठीक होगा। इससे एक तो क्रमबद्ध बात रहेगी, दूसरे यह वृतांत लिखने की प्रतिज्ञा भी पूर्ण हो जाएगी।

एक बात और भी हो गई। मैंने देखा है कि जिन्होंने मुझसे या औरों से पूछताछ कर मेरे आरंभिक जीवन के बारे में लिखा है, उनसे भूलें हो गई है। यह स्वाभाविक था। आखिर, दूर से पूछताछ करने और अटकल लगाने में सभी बातें ठीक-ठीक मालूम क्यों कर हो सकती है?फलत: उनके लेखों को पढ़ कर मुझे ख्याल हुआ कि ये गलतियाँ सुधारी जाए, नहीं तो धीरे-धीरे तिल का ताड़ होता जाएगा। मैंने यह भी देखा कि सिवाय पूरा वृतांत लिख देने के उस सुधार का कोई दूसरा आसान और ठीक रास्ता नहीं है।

बहुतों की धारणा है कि शांकर संप्रदाय के दंडी संन्यासी को उग्रतम राजनीति से क्या वास्ता?उसके उत्तर के लिए भी यह जीवनी जरूरी थी। मैं कैसे और क्यों इस राजनीति में पड़ा, यह इसमें मिलेगा।

इस वर्णन में जीवन तीन भागों में विभक्त मिलेगा, पूर्व, मध्य और उत्तर। असल में संन्यास के पूर्ववाला पूर्व भाग है और संन्यास के बादवाले के दो भाग किए हैं, एक राजनीति से पूर्व का, जो मध्य भाग हो जाता है और दूसरा राजनीति में प्रविष्ट होने पर, जो उत्तर भाग हो जाता है। फिर हरेक भाग के तीन खंड है। पूर्व भाग में बाल्यावस्था ─पढ़ाई शुरू करने के पूर्व, प्रथम खंड, देहात की पढ़ाई मध्य खंड और शहर की पढ़ाई उत्तर खंड है। यहाँ भी पठन-काल के दो खंड करने से तीन हो गए हैं। मध्य भाग में शास्त्रमंथन के पहले पूर्व खंड, शास्त्रमंथन मध्य खंड तथा सामाजिक कार्य उत्तर खंड है। राजनीतिक खंड में कांग्रेस-प्रवेश पूर्व खंड और किसानसभा-प्रवेश के दो भाग कर के सुधारवादी मनोवृत्ति का मध्य खंड और क्रांतिकारी भावना का उत्तर खंड हो गया है। इस प्रकार विशेष विश्लेषण हो गया है। जिससे मेरे जीवन-संघर्ष के जानने में आसानी होगी।

स्वामी सहजानंद सरस्वती

सेन्ट्रल जेल, हजारीबाग,

ज्येष्ठ शुक्ल, गंगा दशहरा,

संवत 1997 विक्रमी