क्यों फिल्म सृजन आशु काव्य है? / जयप्रकाश चौकसे

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क्यों फिल्म सृजन आशु काव्य है?
प्रकाशन तिथि :11 सितम्बर 2017


आशु कविता त्वरित टिप्पणी की तरह घटना के क्षण ही लिखी जाती है। इसमें कोई पूर्व तैयारी शामिल नहीं होती। मोटेतौर पर समझने के लिए इसे कवि का 'मुंहफट' होना माना जा सकता है। कवि का जन्म, लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा के परिणाम स्वरूप ही यह संभव हो पाता है। रचना प्रक्रिया पर परम्परा का प्रभाव भी होता है। व्यक्तिगत प्रतिभा परम्परा से प्रेरित होकर अपने निजी योगदान से अपनी परम्परा को ही विकसित करते चलती है। फिल्मकार आशु कवि की तरह काम नहीं करता। विशेषकर एक्शन दृश्यों के लिए महीनों पूर्व ही तैयारी शुरू हो जाती है। एक्शन के लिए सुविधाजनक लोकेशन खोजी जाती है। खतरनाक एक्शन दृश्यों में कुछ शॉट्स लोकेशन पर लिए जाते हैं। कुछ स्टूडियो में और बचे हुए शॉट विशेष प्रभाव के लिए बने कक्ष में किए जाते हैं। हम परदे पर पूरी तरह संयोजित दृश्य देखते हैं, वह कैसे किया गया यह जानना जरूरी नहीं है। हम मिठाई खाते हैं, वह कैसे बनी इसमें हमारी कोई रुचि नहीं होती।

यथार्थ के भूगोल से अलग होता है फिल्म में प्रस्तुत भूगोल। परदे पर हम दृश्य देखते हैं कि एक नाव नियाग्रा जलप्रपात में गिर जाती है। नाव का दृश्य किसी और जगह शूट हुआ है और एक खाली नाव नियाग्रा में फेंककर शूटिंग की जाती है। फिल्म संपादन की टेबल पर ही अपना फाइनल स्वरूप पाती है। सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। जैसे लेखक और कवि कलम का इस्तेमाल करते हैं वैसे ही फिल्मकार कैमरे का इस्तेमाल करता है। अभिनेता भी उसके हाथ की कठपुतली की तरह होता है। विरले कलाकार प्रेरणा के किसी क्षण में पटकथा की सतह से ऊपर उठकर अर्थ की नई परत उकेर देते हैं। मसलन, बिमल रॉय निर्देशित 'देवदास' में पिता की मृत्यु के बाद देवदास एक जगह बैठा है और छातीकूट करते लोग उसकी ओर आते हैं तो वह उन्हें हवेली की ओर जाने का इशारा करता है गोयाकि दिखावे का छातीकूट हवेली में हो रहा है। दिलीप कुमार की वह उठी हुई उंगली सारे तमाशे की पोल खोल देती है। संजीव कुमार जैसा अभिनेता शरीर के न्यूनतम संचालन से अधिकतम अभिव्यक्त कर देता था। गुलजार की 'कोशिश' में संजीव कुमार और जया बच्चन दोनों ही बिना कुछ बोले कितना कुछ अभिव्यक्त करते हैं। 'जागते रहो' का नायक गंवई गांव का व्यक्ति महानगर में रोजी रोटी की तलाश में आया है। पानी पीने वह एक बहुमंजिला के अहाते में जाता है तो उसे चोर समझा जाता है और उसी प्रक्रिया में हम देखते हैं कि वहां रहने वाले अधिकतर लोग किसी न किसी जुर्म में फंसे हैं। एक दृश्य में उस उस व्यक्ति को इमारत के नीचे लटकाया गया है, सारे नकली नोटों से वह लदाफदा है और नीचे नैतिकता के पहरेदार चोर पर पत्थर मार रहे हैं, नोट नीचे गिरने लगते हैं और सारे 'पहरेदार' नोट लूटने में लग जाते हैं। एक ही दृश्य में अवाम की जरूरत और कमी का दर्द उभर आया है। क्या यह नोटबंदी का पूर्वानुमान था?

विजय आनंद निर्देशित 'गाइड' में एक सजायाफ्ता वर्षा के लिए आमरण अनशन का स्वांग करते-करते सचमुच करुणा का अनुभव करके निर्वाण की ओर अग्रसर हो जाता है। रोजी (वहीदा रहमान) स्वामीजी के दर्शन के लिए आते समय अपने महंगे आभूषण एक-एक करके उतार फेंकती है और इस कार्य द्वारा वह तो स्वामीजी के पहले ही आध्यात्मिक शांति पा जाती है। विजय आनंद जीवित रहते तो क्या वे आज के दौर की तर्ज पर फिल्म का भाग दो बनाते? यह संभव है कि स्वामीजी के निर्वाण के बाद रोजी अवाम की सेवा में जुटकर मदर टेरेसा के पथ पर चल पड़ती है। जब वह शांति के लिए नोबेल पुरस्कार ग्रहण करती है तब पुरस्कार देने वाले में उसे स्वामी देव आनंद की झलक दिखाई देती है। क्लाइमैक्स कुछ ऐसा बन सकता था।

फिल्म निर्माण एक सुयोजित कार्य है और फिल्मकार अपनी अवधारणा अपनी टीम को समझाता है और सारे विभाग मिलकर उस अवधारणा को यथार्थ के धरातल पर ले आते हैं। मोहम्मद रफी ने दिलीप कुमार, शम्मी कपूर और राजेन्द्र कुमार के लिए अलग-अलग शैली में गीत गाए हैं। इन गायक की विविधता देश की संस्कृति की तरह है और अब आग्रह है कि सब एक सुर में ही गाएं। फिल्म निर्माण में एक सही शॉट के लिए औसतन पांच टेक लेने होते हैं। फिल्म दो टेबलों पर बनती है- एक पटकथा लेखन का टेबल और दूसरा संपादन का टेबल।यह टीमवर्क होते हुए भी एक ही व्यक्ति का आकल्पन है, जिससे सभी तकनीशियन और कलाकार प्रेरित हैं। फ्रांस के आलोचकों ने फिल्म निर्माण को वैसा ही सृजन कार्य माना जैसे एक कवि या चित्रकार का होता है। इसे 'अॉटर थ्योरी' कहा जाता है। बहरहाल, कला का क्षेत्र ऐसा है कि कभी-कभी फिल्मकार सेल्युलाइड पर कविता रच देता है और कवि राजा का प्रचार करने लगता है।