क्यों भारतीय संस्कृति को जीवित रखना जरूरी है / निर्मल वर्मा

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देश-विभाजन के समय जो हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए थे, उनकी जड़ में पाकिस्तान की स्थापना थी, वह सिर्फ भूगोल का बँटवारा नहीं था, बल्कि एक ऐसी परंपरागत जीवन-शैली का कृतिम और अस्वाभाविक बँटवारा था, जिसके घातक परिणामों की परिकल्पना सिवाय गांधी जी को छोड़ कर न कांग्रेस, न मुस्लिम लीग के नेता, न शायद अंग्रेजी सरकार कर सकती थी। वे दंगे एक अस्वाभाविक और अनैतिक प्रक्रिया के स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम थे। इतिहास में जब कोई प्रक्रिया अस्वाभाविक होती है, तो स्पष्ट ही उसके पीछे ऐसी शक्तियों का निहित स्वार्थ रहता है, जो मनुष्य को उसके सहज स्वभाव से हटा कर, स्खलित कर एक बाहरी छद्म लक्ष्य की ओर आकृष्ट करे - इस लक्ष्य को एक जाति का 'आदर्श' बना कर प्रस्तुत कर सके। हिटलर के लिए यह 'लक्ष्य' जर्मनी से यहूदियों का सफाया करना था; मुहम्मद अली जिन्ना के लिए यही लक्ष्य पाकिस्तान के 'आदर्श' में निहित था। इस कृतिम आदर्श को सच बनाने का सिर्फ एक ही उपाय है - मनुष्य में जो स्वाभाविक रूप से सच है - प्रेम, आत्मीयता, वफादारी का भाव - उसे किसी भी तरीके से कृत्रिम और झूठा बनाया जा सके। इसके लिए सबसे सक्षम -और सबसे आदिम, प्रिमिटिव-शस्त्र है, मनुष्य के सहज, स्वभावगत लगावों और निष्ठाओं को शोषित और भ्रष्ट करना। फासीवाद जिस तरह एक व्यक्ति की सहज राष्ट्रीय भावना का भ्रष्ट रूप है, वैसे ही सांप्रदायिकता मनुष्य की सहज धार्मिक भावना का विकृत और विद्रूप संस्करण। जिस तरह हर झूठ को विश्वसनीय बनाने के लिए उसमें सत्य का एक अंश मिलना जरूरी होता है, उसी तरह फासीवाद को सच बनाने के लिए राष्ट्रीयता का तत्व, कम्युनिज्म की बर्बरता को विश्वसनीय बनाने के लिए मानवीय समता का स्वप्न और हमारे देश में सांप्रदायिकता को कारगर बनाने के लिए धर्म की परंपरागत भावना का बराबर दुरुपयोग और शोषण होता रहा है। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि इसके बिना मनुष्य को अपने स्वभाव के विरुद्ध यहूदियों, हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों को मारने, लूटने, उन्मूलित करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसीलिए भिंडराँवाले के लिए यह जरूरी था कि वह अपनी सांप्रदायिक घृणा को स्वर्णमंदिर की पवित्र आड़ में प्रतिपादित कर सके - स्वर्णमंदिर, जो हमारी उच्चतम धार्मिक भावनाओं का प्रतीक है। सत्य को प्रचारित करने के लिए कभी झूठ का सहारा नहीं लेना पड़ता, किंतु झूठ अपने को विश्वसनीय बनाने के लिए हमेशा सत्य का आश्रय ढूँढ़ता है।

जब तक हम आधुनिक युग की 'झूठे सच' की अद्भुत जादुई तर्कप्रणाली को नहीं समझेंगे, तब तक पिछले दो वर्षों में पंजाब में जो हत्याकांड हुए और हाल में दिल्ली में जो वीभत्स शर्मनाक घटनाएँ हुईं, उनका रहस्य नहीं जान पाएँगे।

हिंदुस्तान में धर्मावलंबन है, जो सहज रूप से लोगों की जीवन-मर्यादा में रसा - बसा है। हमें उसे छद्म, सांप्रदायिकता से अलग करना होगा, जो असहज है और बाहर से आरोपित की जाती है। इस दृष्टि से भारतीय चरित्र के लिए 'धर्मनिरपेक्षता' या 'सेक्युलरिज्म' भी असहज और आरोपित है। यह बात विरोधाभास जान पड़े - किंतु सच है - कि एक धर्मावलंबी भारतीय के लिए धर्म को संप्रदाय में संकुचित करना उतना ही अस्वाभाविक है, जितना धर्म के प्रति निरपेक्ष रहना; सांप्रदायिकता और सेक्युलरिज्म दोनों ही सहज धार्मिक मर्यादा के अपदस्थ और अवमूल्यित रूप हैं, जिनका भारतीय संस्कृति की धार्मिक मनीषा से कोई संबंध नहीं। यदि हमारे देश के हिंदू इस मनीषा के अधिक निकट रहे हैं, तो इसलिए कि उन पर कभी ईसाइयों, सिखों और मुसलमानों की तरह किसी विशिष्ट धर्म-प्रतिष्ठान का प्रभुत्व नहीं रहा। किंतु दूसरा बड़ा कारण यह भी रहा है कि पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों के दौरान रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद और गांधी जी ने हिंदू धर्म को आत्मतुष्ट संकीर्णता से उबार कर एक वृहत्तर भारतीय संस्कृति से जुड़ने के लिए उत्प्रेरित किया।

आज सिख और मुसलमान - हिंदुओं की अपेक्षा - अपने धर्म के प्रति कहीं ज्यादा सचेत और संवेदनशील हैं, किंतु दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति की एकता को भारत देश की भौगोलिक अखंडता से जोड़ने के लिए एक हिंदू उनसे कहीं अधिक सतर्क और चिंतित दिखाई देता है। जब एक सिख या मुसलमान अपने उदात्त धार्मिक-भाईचारे के आदर्श से स्खलित होता है, तो उसका सहज रुझान प्रतिष्ठानगत संकीर्णता की ओर होता है, जब एक हिंदू अपनी समग्र धार्मिक सांस्कृतिक चेतना से नीचे गिरता है, तो संप्रदायवादी होने के बजाय वह केवल 'आत्मरिक्त' हो पाता है, क्योंकि उसका धर्म उसके 'आत्मन' में ही निहित है - बाहर किसी धर्म-प्रतिष्ठान में नहीं। जो चीज हिंदुओं को संस्कृति के क्षेत्र में उदार बनाती है, वही चीज उन्हें कभी-कभी दूसरे धर्मों के प्रति उदासीन भी, जो चीज सिखों को प्रतिष्ठान-केंद्रित होने के नाते सहज रूप से धर्मावलंबी बनाती है, वही उन्हें दर्प और अभिमान के क्षणों में कभी-कभी भारतीय संस्कृति की समग्रता के प्रति पराया बनाती है, जिसके बीच उनका जन्म हुआ है। स्वर्णमंदिर में भारतीय सेना के प्रवेश के औचित्य या अनौचित्य पर यहाँ बहस करता अप्रासंगिक है, किंतु एक साधारण सिख के हृदय में उसके कारण जो क्लेश हुआ, मुझे नहीं लगता, किसी हिंदू को उतना क्लेश होता, यदि उसके मंदिर में इस तरह की कोई सैनिक कार्रवाई की जाती। किंतु यह भी सच है कि शायद ही कोई हिंदू अपने धार्मिक स्थान का चुपचाप राजनीतिक रूप से दुरुपयोग होते देखता, जैसा कि अधिकांश सिखों ने अपने गुरुद्वारों का होने दिया।

पंजाब में भिंडराँवाले और उसके गुट की सबसे बड़ी असफलता यही थी कि वे अपनी आतंकवादी कार्रवाइयों के बावजूद सिखों को अपने धर्म के उदात्त आदर्शों से स्खलित नहीं कर पाए। यही कारण है कि समस्त धमकियों और प्रलोभन के बावजूद पंजाब में हिंदू-सिख दंगे नहीं हो सके। दंगों के पीछे हमेशा दो भावनाएँ एक साथ रहती हैं, दूसरों से भय और भय से उपजी घृणा। पंजाब में घृणा का पूरा अभाव था और यदि भय था तो सिखों और हिंदुओं के बीच पारस्परिक भय नहीं, बल्कि दोनों का भिंडराँवाले और उनके मुट्ठी-भर आतंकवादियों से भय। अंत में यह भय ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। यदि हिंदू और सिख दोनों ही अपने भय पर विजय प्राप्त कर एक निडर, निर्भीक नीति अपना पाते, तो न आतंकवादी धर्म की किलेबंदी के भीतर अपने को अपराजेय मानते, न ही अकाली दल और दिल्ली की शासन सत्ता इस भय को आधार बना कर अपनी सत्ता की शतरंज खेल पाते।

हम अक्सर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की बात करते हैं। मुझे यह बात ही सारहीन लगती है। प्रश्न संप्रदायों की छोटी-बड़ी संख्या का नहीं, बल्कि छोटे-बड़े संप्रदायों से मिली एक ऐसी धर्मसंपन्न संस्कृति का है, जिसमें सिख, हिंदू, मुसलमान ही नहीं, हजारों-लाखों आदिवासी भी रहते हैं। ये सब संप्रदाय और जातियाँ हजारों वर्षों से एक विशिष्ट भौगोलिक परिवेश में रहते आए हैं; सिर्फ रहते नहीं आए - बल्कि इन्होंने एक-दूसरे के जातीय, धार्मिक और सामाजिक चरित्र को लेन-देन के सहिष्णु व्यवहार से अद्भुत रूप से समृद्ध बनाया है। यदि भारत की भौगोलिक अखंडता के प्रति मेरा इतना गहरा लगाव है, जो वह महज देशभक्ति या राष्ट्रीय भावना के कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि बिना इस भौगोलिक परिवेश के यह बहुजातीय विविधधर्मा संस्कृति असंभव होती, जिसे हम 'भारत' का नाम देते हैं। आज जब दूसरे देशों में धर्म के 'फंडामेंटलिज्म' के जोश में एक इस्लामी देश ईरान में मुसलमानों का ही संहार होता है, कम्युनिस्ट देशों में केंद्रीय सत्ता छोटे-छोटे राष्ट्रों की संस्कृति और भाषा को नष्ट करती है, पश्चिमी देशों ने जहाँ उन्नीसवीं शताब्दी में अफ्रीकी, एशियाई संस्कृतियों को भ्रष्ट किया है - वहाँ आज भी एक 'पिछड़ा हुआ देश' है, जिसके भौगोलिक परिवेश में अनेक धर्मावलंबी, आदिवासी, संप्रदाय और भाषाएँ एक साथ जीवित रह सकती हैं - मेरे लिए यह एक अनमोल और मूल्यवान सत्य है। चूँकि इस परिवेश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तो क्या इस सत्य की रक्षा करना केवल हिंदुओं का कर्तव्य है? यह प्रश्न हर अल्पसंख्यक जाति को अपने से पूछना होगा। किंतु एक-दूसरा प्रश्न भी है - इन अल्पसंख्यक जातियों को यदि इस देश में तनिक मात्र भी भय या अवमानना या अपमान या अपनी जातीय अस्मिता के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है, तो क्या इस भौगोलिक परिवेश की सांस्कृतिक पवित्रता बची रहेगी? और इस प्रश्न का उत्तर हर हिंदू को देना होगा।

ऊपर मैंने हिंदुओं की आत्मरिक्ति की बात कही है। यह स्थिति है, जब मनुष्य धार्मिक आस्था की बात तो दूर, किसी भी मर्मशील, जीवनदायी प्राणदान मूल्य से खाली हो जाता है। एक सांप्रदायिक व्यक्ति में धार्मिक आस्था फिर भी मौजूद रहती है, चाहे अपने भ्रष्ट, संकीर्ण, विकृत रूप से ही सही, किंतु एक आस्थाहीन व्यक्ति के लिए 'असांप्रदायिक' बनना बहुत आसान है, क्योंकि उसमें धार्मिकता का यह भरा-पूरा मानसिक परिवेश ही गायब है, जो बुरे क्षणों में सांप्रदायिकता को जन्म देता है। इसलिए जब उत्तरी भारत का कोई मध्यवर्गीय हिंदू अपने को सिखों या मुसलमानों की अपेक्षा अधिक धर्मनिरपेक्ष कहता है, तो इसलिए कि उसने जीवन में धर्म के मूल्य और गरिमा को जाना ही नहीं - वह असल में धर्मनिरपेक्ष नहीं, उन सब मानवीय, आस्थावान, जीवनदायी मूल्यों के प्रति निरपेक्ष है, जिनसे धार्मिक आस्था बनती है। जिस तरह धर्म का निकृष्ट रूप संकीर्ण सांप्रदायिकता है, उसी तरह धर्मनिरपेक्षता का विकृत रूप है - सनकी, स्वार्थपरक मूल्यहीनता। पिछले तीस वर्षों में भारत में जिस भौतिक, परजीवी, आधुनिक जीवनशैली का विकास हुआ है, उसी के भीतर सांप्रदायिक असहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षी भौतिकता के विषैले तत्व जन्मे और पनपे हैं।

क्या दोनों के सचित्र प्रमाण हमें पंजाब की हत्याओं और दिल्ली के दंगों में नहीं दिखाई देते? विभाजन के समय जो हिंदू-मुस्लिम मारकाट हुई थी, उनके पीछे एक ठोस ऐतिहासिक पीठिका थी। वे एक भयानक राष्ट्रीय ट्रेजडी के परिणाम थे। हिंसा तब भी थी, तब भी वह अक्षम्य थी, किंतु उस हिंसा के पीछे गहरी, घायल, आहत, प्रतिहिंसात्मक भावनाएँ थीं - मानवीय भावनाएँ अमानवीय कृत्यों को जन्म देती हुई - घृणा, प्रतिहिंसा, आक्रोश, अंधी पीड़ा, बदला लेने की संहारात्मक इच्छा - ये भावनाएँ गलत, अनुचित, अनैतिक होते हुए भी 'मानवीय' थीं, क्योंकि उनके पीछे लाखों लोगों की व्यक्तिगत जातीय ट्रेजडी दबी थी। वह सांप्रदायिकता गलत होते हुए भी खून और दिल और दुख से उत्पन्न हुई थी।

पंजाब में निहत्थे निर्दोष हिंदुओं और निरंकारियों की हत्याओं के पीछे कौन-सी पीड़ा, कौन-सा नर-संहार, ट्रेजडी छिपी थी? ये हत्याएँ सांप्रदायिक भी नहीं कहीं जा सकतीं, क्योंकि इनमें धर्म की विकृत भावना नहीं, लोलुप सत्ता की सेक्युलर महत्वाकांक्षा थी। खालिस्तान की माँग और आतंकवादी हत्याएँ धर्म की भावना से बिलकुल शून्य थीं, धर्म के नाम पर वे स्वार्थपरक सत्ता की गुलामी करती थीं। सत्ता की सहायक आधुनिक टेक्नोलॉजी होती है, मोटरसाइकिलों पर बैठकर बंदूकों से गोली चलाना, आतंकवादियों ने यह विधि सिख धर्म ग्रंथों से नहीं, आधुनिक यूरोप की विकसित और आक्रामक टेक्नोलॉजी से प्राप्त की थी... न निहत्थों पर गोली चलाना वीरता की निशानी थी, न हत्या करके गुरुद्वारों में छिप जाना किसी साहस का सबूत; इन जघन्य और कायर कार्रवाइयों की अंतिम परिणति इंदिरा गांधी की नृशंस हत्या में हुई; यह हत्या प्रधानमंत्री के सिख अंगरक्षकों द्वारा हुई, जिन पर वह विश्वास करती थीं। इतिहास की विडंबना देखिए, दो शताब्दियों पहले गुरु गोविंदसिंह की क्रूर हत्या एक ऐसे मुसलमान ने की थी, जिन पर वह भी विश्वास करते थे। मैं बरसों से इंदिरा गांधी की नीतियों से असहमत रहा हूँ, किंतु जिस स्थिति में उनकी हत्या हुई, उसके भीषण परिणामों की कल्पना करना असंभव है।

एक भीषण परिणाम हमने हाल में देखा - दिल्ली के दंगों में। दिल्ली के दंगे हिंदुओं के आक्रोश की ही अभिव्यक्ति होते, तो भी उन्हें समझा जा सकता था। किंतु इंदिरा गांधी की दुखद हत्या का फायदा उठा कर जिस पैमाने पर सिखों की दुकानों, मकानों को जलाया गया, उनके कारखानों को लूटा गया, वह उस भौतिक लिप्सा, मानसिक छिछोरेपन और हिंदुओं की गहरी आत्मरिक्ति का जीता-जागता प्रमाण है, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया था। यदि पंजाब में हिंदुओं की हत्याओं के पीछे धार्मिक शून्यता और कायरता थी, तो दिल्ली के दंगे हिंदुओं की उस 'धर्मनिरपेक्ष' और आक्रामक मानसिकता की निशानी थे, जो न इंदिरा गांधी के प्रति प्रेम, न अपने देश की संस्कृति की अखंडता को बचाने की चिंता से उत्पन्न हुए थे। निहत्थे सिख भाइयों को मारना, गुरुद्वारों को जलाना, दुकानों का माल लूट कर अपने घर ले जाना - ये आज के दंगों के नए, लिप्सा-लोलुप बर्बरता के भौतिक आयाम हैं, जिनका धर्म, देश और संस्कृति से कुछ लेना-देना नहीं।

किंतु हिंसा और कायरता के पाँव नहीं होते, इन दंगों को भी आसानी से रोका जा सकता था, यदि पुलिस और प्रशासन के अधिकारी अपनी अक्षम्य निष्क्रियता का परिचय न देते।

आज हमारे चारों और शून्य है। कुछ ऐसा लगता है कि जो शून्य हम अपने भीतर बरसों से छिपाते आए थे, वह आज हमसे बाहर छिटक कर चारों तरफ हवा में, सड़कों पर, एक-दूसरे के रिश्तों में आ कर बस गया है। पंजाब में अलगाव और असहिष्णुता की भावनाएँ, इंदिरा गांधी की हत्या, दिल्ली के दंगे - ये भी शून्य को भरने के रास्ते हैं, ऐसे रास्ते, जो एक दिन भारतीय समाज और संस्कृति, उसके समूचे भौगोलिक परिवेश को खंडित और विश्रृंखलित कर देंगे। पिछले हजारों वर्षों के दौरान अनेक धर्म, जातियाँ और संस्कृतियाँ नष्ट हुई हैं - यदि भारतीय संस्कृति को अपनी वर्तमान आत्मशून्यता के कारण मरना ही है, तो क्या उसे बचाना जरूरी है? इस प्रश्न का उत्तर इस देश के हर नागरिक, धर्मावलंबी और निवासी को देना होगा। यदि उत्तर देते समय उन्हें एक क्षण के लिए भी यह लगता हो कि कृष्ण, बुद्ध, नानक, कबीर, परमहंस और गांधी की इस संस्कृति में सचमुच कुछ ऐसा है, जो अनमोल है, दुनिया में अन्यत्र कहीं दुर्लभ है, जो हजारों वर्ष पुरानी - किंतु हमेशा शाश्वत-अंतर्दृष्टियों की वाहक है, तो उसे अक्षुण्ण और अखंडित रखने का कर्तव्य हर उस भारतीय का हो जाता है, जो अपने व्यक्तित्व और धर्म की नियति इस देश के साथ जुड़ा देता है। आत्मशून्य को भरने का यह भी एक रास्ता है। क्या आज संकट की इस घड़ी में हम इसे वरण करने का साहस जुटा पाएँगे? क्या हम अपने शासक, सत्ताधारियों और विपक्षी दलों को यह सोचने पर मजबूर करेंगे कि इस रास्ते के अलावा आज बाकी सब रास्ते आत्मघात की ओर जाते हैं?

एक पुरानी कहानी याद आती है - एक शिशु और दो झगड़ती माँओं की कहानी, दोनों को यह दावा है कि वह ही शिशु की असली माँ हैं। सम्राट सोलोमन का फैसला यह है कि शिशु को दो हिस्सों में काट कर दोनों को ही बाँट दिया जाए। आज देखना है कि फैसले के विरोध में असली माँ की पीड़ा किसकी आत्मा से बाहर निकलती है - सिख, हिंदू या मुसलमान की आत्मा से या वह प्रेम और पीड़ा में घुली-मिली सचमुच एक सामूहिक चीख होगी, जिसमें असली या नकली का भेद करना असंभव होगा?