क्यों हम राज कपूर का स्मरण करते हैं ? / जयप्रकाश चौकसे

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क्यों हम राज कपूर का स्मरण करते हैं ?
प्रकाशन तिथि : 03 जून 2013


२ जून को राज कपूर की पच्चीसवीं पुण्यतिथि थी और परंपरानुसार उनकी स्मृति में हवन किया गया, कुछ दान-धर्म भी हुआ। इस वर्ष पच्चीसवीं पुण्यतिथि होने के कारण पूरा कपूर परिवार इसमें शामिल था। श्रीमती कृष्णा कपूर स्वस्थ होकर उसी दिन लौटीं और अमेरिका में उनकी पुत्री रितु नंदा का रेडिएशन प्रारंभ हुआ। ज्ञातव्य है कि वे कैंसर से जूझ रही हैं। आरके स्टूडियो में टेलीविजन के कार्यक्रम की शूटिंग चल रही है। उनके पोते रणबीर कपूर की फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा रही है। उनकी पोती करीना कपूर शिखर सितारा हैं और उनके नाती की फिल्म इम्तियाज अली के भाई डायरेक्ट कर रहे हैं। ऋषि कपूर को इतना काम और दाम अपनी जवानी में भी नहीं मिला, जितना आज मिल रहा है।

इस पर भी विचार किया जा सकता है कि राज कपूर की तरह वी. शांताराम, महबूब खान, गुरुदत्त और बिमल रॉय ने भी महान फिल्में रचीं, परंतु उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि पर उन्हें राज कपूर की तरह स्मरण नहीं किया जाता। क्या यह मुमकिन है कि किसी महान परंपरा का वर्तमान पीढ़ी के सक्रिय और सफल होने के कारण ही स्मरण किया जाता है। यह दुनिया बहुत व्यावहारिक है, अत: इस विचार को खारिज नहीं किया जा सकता। जरा गौर कीजिए कि आज जवाहर लाल नेहरू को जिस शिद्दत के साथ याद किया जाता है, वैसा लाल बहादुर शास्त्री को नहीं किया जाता। नेहरू का वंश आज भी सक्रिय है, परंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि नेहरू-सा इतिहासबोध, साहित्यबोध और आधुनिक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण किसी और प्रधानमंत्री का नहीं रहा। इतना ही नहीं, भविष्य में जब हम आर्थिक उदारवाद के घातक सामाजिक परिणाम देखेंगे और वर्तमान विकास मॉडल की सड़ांध उभरेगी, तब हमें नेहरू की महानता का यथेष्ट आकलन करने में सुविधा होगी। भारत को आजादी के प्रारंभिक दशक में उसे पाकिस्तान बनने से बचाने का श्रेय भी नेहरू को जाता है।

अन्य क्षेत्रों में भी इस तरह की बातें देखी जा सकती हैं। दुनियादारी का तकाजा सब जगह सक्रिय रहता है। तुलसीदास की रामचरितमानस के घर-घर तक पहुंचने के पहले भारत में उतने राम मंदिर नहीं थे और श्रीराम के प्रति श्रद्धा के कारण भी तुलसीदास के काव्य को विलक्षण सफलता मिली, जबकि वे वाल्मीकि की तुलना में कमतर कवि हैं और केवल काव्य के साहित्य मानदंड पर वे कबीर के निकट भी नहीं आ पाते। परंतु भारत के सामूहिक अवचेतन में लोकप्रियता के तत्व अजब-गजब और अनगढ़ ढंग से प्रस्फुटित होते हैं। भारत के धर्म में अनेक भगवान हैं और अनेक अवतार हैं, परंतु भक्तों के सामथ्र्य ने उनकी लोकप्रियता में अंतर किया है। तुलसी का मानस भारत का मानस हो गया, जबकि वाल्मीकि को मनोविज्ञान और मानव के अंतस का कहीं अधिक गहरा ज्ञान था।

वेदव्यास की महाभारत विश्व का सबसे विलक्षण महाकाव्य है, परंतु उनके मूल पाठ और उसके गहन अर्थ का लगभग लोप हो गया है और लोकप्रिय संस्करणों ने मूल को हानि पहुंचाई है। संसार में लोकप्रियता का खेल अलग ढंग से खेला गया है। जिन कवियों की पंक्तियां आसानी से उद्धृत की जा सकती हैं, वे गहरे कवियों से ज्यादा लोकप्रिय हो जाते हैं। बहरहाल, राज कपूर के तमाम रिश्तेदार और वर्तमान की सक्रिय पीढ़ी भी अभी तक उनके समान चिरकालीन याद की जाने वाली फिल्में नहीं बना पाई हैं। आज भी 'आवारा', 'श्री-४२०', 'जागते रहो' जैसी फिल्में यहां बार-बार और साथ ही दुनिया के अनेक देशों में भी देखी जा रही हैं। उनकी फिल्मों का संगीत जनमानस के अवचेतन की घाटियों में आज भी गूंजता रहता है। उनकी फिल्मों में प्रेम भावना को जिस तीव्रता और गहराई से प्रस्तुत किया गया है, वह आज कहां देखने को मिलता है? सूरज बडज़ात्या और करण जौहर ने राज कपूर की फिल्मों से पे्ररणा की बात स्वीकार की है, परंतु उन्होंने राज कपूर की 'संगम' और 'बॉबी' को ही समझा है। उन्हें राज कपूर की 'जागते रहो', 'मेरा नाम जोकर' और 'प्रेम रोग' प्रेरणा नहीं देती, क्योंकि इनकी सामाजिक सोद्देश्यता और प्रस्तुतीकरण के जादू की ये व्याख्या भी नहीं कर सकते। राज कपूर का प्रेम कभी 'बदतमीज' नहीं हुआ। उनके शिल्प में कोई बनावट नहीं थी। सबसे बड़ी बात यह है कि आम भारतीय के सपनों और भय को उन्होंने बखूबी समझा है और ताउम्र वे नितांत भारतीय होकर ही अंतरराष्ट्रीय हुए हैं।

रणबीर कपूर की 'ये जवानी है दीवानी' को अगर उसके सार की दृष्टि से देखें तो नायक के सपने देश-विदेश के नए शहरों में घूमना, वहां के लोगों के जीवन को देखना है और वह उडऩा चाहता है। नायिका निहायत ही घरेलू ह और वह अपनी सीमा में ही रहना चाहती है। क्या यह सार आपको शैलेंद्र और फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम' की याद नहीं दिलाता? हीरामन अंतस से गाड़ीवान है, बोझ और मुसाफिरों को लेकर गांव-गांव जाता है, वह सर्कस के बाघ को और नौटंकी की बाई को भी लेकर उनके गंतव्य तक गया है। जैसा वह ठेठ गाड़ीवान है, वैसे ही नायिका भी अंतस से नौटंकी की कलाकार है। नायक और नायिका एक-दूसरे को प्यार करते हैं, परंतु वह गाड़ी चलाना नहीं छोड़ सकता और नायिका नौटंकी नहीं छोड़ सकती। उनके अंतस के समर्पण उन्हें मिलने नहीं देते। दोनों के सार में समानता है, परंतु 'तीसरी कसम' शुद्ध भारतीय फिल्म है। उसका ठेठ देहाती नायक जीवंत भारतीय प्राणी है। 'तीसरी कसम' सौ वर्ष बाद भी लोगों को भारत की असल तस्वीर दिखाएगी, परंतु रणबीर की फिल्म कुछ समय बाद काल-कवलित हो जाएगी, अत: राज कपूर अपने परिवार की वर्तमान पीढ़ी की सफलता के बावजूद अपनी भारतीयता और मानवीयता के कारण याद किए जाते हैं।