क्रमशः / तेजेन्द्र शर्मा

Gadya Kosh से
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रेखा ने डोली से बाहर कदम रखा तो आँगन की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन ने उसका स्वागत किया। वह गिरने को हुई कि उसकी ननद ने उसकी बाँह थाम ली। नाक तक लंबे घूंघट में से ही उसने अपने होने वाले घर की एक झलक लेनी चाही। सामने ही द्वार पर कुछ औरतों का जमघट सा दिखायी दिया। उसे लगा, संभवत: वही उसका घर होगा। क्या वह कोई रहने की जगह थी? घरों के नाम पर लंबी बैरकों की कतार। उसके सपनों के राजकुमार का महल ऐसा तो नहीं था! घर में गहमागहमी थी। सब एक-दूसरे से बतियाने में व्यस्त। रेखा की दादी-सास ने दुल्हा-दुल्हन को पास ही बैठा लिया। उसके कलीरे खोले जाने लगे, मुट्ठी खुलवायी गयी, चाय-नाश्ता हुआ। नींद से बोझिल ऑंखें से रेखा सब देखती रही और करती रही। "चलो भई, चलो, बहू को आराम करने दो। बहुत थक गयी है।' यह उसकी ननद थी, मीना। बहुत प्यार से उसने रेखा का हाथ पकड़ा और दूसरे कमरे में छोड़ आयी। थोड़ा एकांत मिलते ही रेखा ने सबसे पहले अपने पिता को याद किया। 'बाऊजी, आपको यह घर कैसे पसंद आ गया? आप 'इस' घर से मेरी अर्थी निकलने की बात मुझे समझा रहे थे!...और भइया, स्वयं तो बंबई में जुहू बीच पर बढ़िया से फ्लैट में रहते हैं, और मुझे इस कस्बे के इन टूटे-फूटे खंडहरों में छोड़ गये। वह तो बहुत मुश्किल से कोई चीज पसंद करते हैं। मेरे लिए यही घर पसंद किया है उन्होंने!' और उसकी सिसकियाँ फूट पड़ीं। सुहागरात के लिए प्रमोद एक सोने की ऍंगूठी लाया था। उसने प्यार से रेखा की ऍंगुली में वह ऍंगूठी सरका दी। 'रेखा, आज मैं बहुत खुश हूँ। मुझे एक ज्योतिषी ने बताया है कि तुम्हारे साथ मेरा विवाह होने से लक्ष्मी मेरी दासी बन जायेगी। पैसा मेरे चारों ओर होगा, किस्मत खुल जायेगी।' "..." "रेखा, मेरी ऑंखों में देखो। मैंने तुम्हें कितने वर्षों से प्यार किया है! जब कुक्कू की शादी में मैंने तुम्हें पहली बार देखा था तभी तुम मुझे अच्छी लगने लगी थीं। कितने चक्कर मैंने तुम्हारे घर के लगाये, पर तुम तो कभी-कभी ही दिखायी देती थीं। उस कॉलोनी में मेरा एक दोस्त भी रहता था। एक दिन जब मैं वहाँ गया तो मालूम हुआ, तुम लोगों ने घर बदल लिया है। मैं परेशान-सा हो गया था। अब तुम्हारा पता कहाँ से पाता?' "सच!' "तुम्हारी मम्मी की मासी एक दिन हमारे घर आयीं तो उनसे तुम्हारे नये घर का पता पूछा। कई बार वहाँ आया। दूर से तुम्हें देखता रहता था।... "पर आज तो तुम मेरी हो।' "तुम भी तो कुछ बोलो।' "जी।' प्रमोद व रेखा हनीमून के लिए श्रीनगर चले गये। प्रमोद की बुआ भी श्रीनगर में ही रहती थी। दोनों वहीं जाकर ठहरे। सब प्रसन्न थे। रेखा को फरवरी में काश्मीर की सर्दी रास नहीं आयी। सर्दी, जुकाम और बुखार का दौर शुरू हो गया। प्रमोद खिन्न हो उठा था। जीवन की शुरुआत ही गलत हुई थी। विवाह को एक महीना बीत गया। सास-ससुर अपनी बहू से काफी खुश थे। प्रमोद भी अपनी पत्नी के व्यवहार से संतुष्ट था। रेखा ने अपने मृदुल स्वभाव से सबका मन जीत लिया था। सास भी अपनी बहू पर वारी-वारी जाती दीखती। प्रमोद की बुआ श्रीनगर से दिल्ली आयी थी, 'भाभीजी, रेखा बहुत ही अच्छी लड़की है। हमारा तो इसने मन ही मोह लिया है। और जींस पहनकर तो बहुत ही सुंदर दीखती है।...अरे रेखा, वह तस्वीर भाभी-जी को नहीं दिखायी जो वहाँ तुमने बाल खोलकर खिंचवायी थी?' रेखा की सास की ऑंखों में अग्नि प्रज्वलित हो उठी, 'सुनो प्रमोद, हमें यह लड़कों वाले कपड़े अपनी बहू को नहीं पहनवाने। यह नंगापन हमारे खानदान में नहीं चलेगा। तुम्हारे फूफाजी के सामने इसकी हिम्मत कैसे हुई जींस पहनने की?' रेखा हैरान-सी खड़ी रह गयी थी। बुआ रेखा की सास से बतिया रही थी, 'भाभीजी, प्रमोद की बीबी का अपने मायके से ज्यादा ही प्यार लगता है। हमारी भी शादी हुई थी, हम तो ससुराल के ही होकर रह गये थे।' "कुछ दिनों में ठीक हो जायेगी। अभी नयी-नयी है न।' "भाभीजी, मैं मानती हूँ कि माँ-बाप छोड़े नहीं जाते, पर कोई सीमा भी तो होनी चाहिए।' "हाँ बहन! पर हम क्या कहें? प्रमोद ही समझाए तो एमझाए।' "वह तो जोरू का गुलाम बना हुआ है। उसकी क्या कहें!' रेखा चुपचाप बर्तन धो रही थी। 'रेखा, मेरी एक बात सुन लो। अब यह रोज-रोज अपनी माँ के घर जाना बंद करो। मुझसे फिजूल में बातें नहीं सुनी जातीं।' "आपको कौन बातें सुनाता है?' "मैं बहस नहीं करना चाहता। मेरी बात समझ लो, बस।' रेखा अपने पति के बदलते हुए व्यवहार से आश्चर्यचकित थी।

'सुनो जी, बहू का पाँव भारी है। अब तो पोता आने वाला है।' "रेखा बेटा, जरा ध्यान से काम किया करो। ऐसी हालत में ज्यादा काम ठीक नहीं।' ससुरजी का प्यार छलक पड़ा। "जी।' "रहने दो जी, बच्चे तो हमने भी जने थे। आपकी माँ तो हमसे सारा काम लेती थीं। आजकल कुछ अधिक ही नखरे चल पड़े हैं।' "प्रमोद की माँ, मैंने तो सावधानी की बात यूँ ही कह दी, बाकी तुम जैसा ठीक समझो, घर चलाओ। भला मैं क्यों पचड़ों में पड़ू।' रेखा निर्विकार खड़ी यह वार्तालाप सुनती रही।

रेखा कपड़े धो रही थी। बुआ ने आकर अपने बेटे के कच्छे और बनियान भी रख दिये। 'बेटा, जरा इन्हें भी धो देना।' गंदे कपड़े देखकर रेखा को उबकाई-सी आने लगी। सारे कपड़े धोकर वह थक-सी गयी थी। वह उठकर अपने कमरे में आ गयी। सास और बुआ का संवाद दीवारों से ठनकर भीतर आ रहा था: "उठूँ, अब रोटी सेंक लूँ।' "भाभीजी, दो-दो बेटे ब्याह लिये, फिर भी चौके से फुर्सत नहीं मिली आपको?' "क्या करूँ बहन, अपनी-अपनी किस्मत है। महारानीजी आराम जो फरमा रही हैं।' रेखा उठकर रोटी बनाने लगी। उसे चक्कर आने लगे और उबकाई भी। वह गिर पड़ी। "यह क्या हो गया! दो रोटियाँ सेंकने में ही चक्कर और उल्टियाँ! सुमित्रा ने मालूम नहीं क्या बदला लिया है हमसे! अपनी बीमार बेटी हमारे पल्ले मढ़ दी है। रोज चक्कर और उल्टियों के चक्कर ही खत्म नहीं होते।' रेखा बेसुध पड़ी थी।

सास-बुआ की गोष्ठी जारी थी: "बहनजी, मेरी ननद के लड़के की शादी हुई है। फ्रिज, टेलिविजन के साथ पचास हजार नगद मिला है। आपने कहाँ माथा भिड़ा लिया!' "बहन, हम तो सोच रहे थे कि सबसे छोटी लड़की है, छोटा परिवार है, भाई कस्टम में है। सारी चीजें इम्पोर्टेड मिलेंगी। यहाँ तो देसी भी नहीं दिखायी दी। बैसाखी पर तो दो डिब्बे मिठाई से ही काम चला लिया और इक्यावन रुपये देकर मेरी बेइज्जती कर दी। भला आजकल कोई इक्यावन रुपये शगुन में देता है?' "आप एक काम कीजिए, प्रमोद को हाथ में रखिए, नहीं तो बहुत पछताना पड़ेगा।' रेखा की रुलाई फूट पड़ी।

'सुनिए, आपकी बुआजी बेवजह माँजी को कुछ-न-कुछ सिाखाती रहती हैं। सारा दिन दोनों मिलकर मुझे कोसती रहती हैं।' "मैं अपनी बुआ को अच्छी तरह से जानता हूँ। वह ऐसा कर ही नहीं सकतीं।' "आपको अपनी बुआ पर इतना विश्वास है और मुझ पर जरा भी यकीन नहीं!' "यह सुबह-सुबह क्या पचड़ा ले बैठीं तुम! मैं अभी उन दोनों को बुलाकर पूछता हूँ कि वह क्या कहती हैं तुम्हें।' "आपको मेरी कसम, आप घर में फसाद मत खड़ा करें। मैं अगर आपको अपना दु:ख न बताऊँ तो किसे बताऊँ?' "मैं कुछ नहीं सुनने वाला। माँ, बुआ जी! आप दोनों यहाँ आइए।' "..." "क्या बात है बेटा?' "यह कहती है कि आप दोनों सारा दिन इसे ताने मारती हैं, कोसती हैं। बताइए, क्या बात है?' "हाय राम, यह तुम्हें ऐसी बातें सिखती है! इतना गंदा दिमाग है इसका! मैं तो इसे अपनी सगी बेटी की तरह प्यार करती हूँ। और अगर तेरी बुआ ने भी बच्चा समझकर कुछ कह दिया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि तेरे कान भरे!' प्रमोद की ऑंखें रक्तरंजित थीं और रेखा की ऑंखों में शून्य था। "भाभीजी, बुरा मत मानिएगा। बहू का बार-बार प्रमोदजी कहना कुछ अच्छा नहीं लगता। हमारे खानदान में तो पति का नाम लेना बहुत बड़ा पाप समझा जाता है।' "तुम प्रमोद को ही बताओ न। कितना हिड़-हिड़ करते उसका नाम लेती है। पता नहीं, माँ-बाप ने क्या शिक्षा दी है।' "माँजी, जरा धीरे बोलिए, रेखा सुन लेगी।' "डर होगा तुझे। जोरू के गुलाम, हमें कोई डर नहीं। किसी के घर का नहीं खाती।' रेखा ने सब सुन लिया था।

रेखा अपनी भाभी को पत्र लिख रही थी। प्रमोद पीछे ही खड़ा था। "रेखा, तुम्हें पत्र में मेरा नाम लिखते हुए जरा भी संकोच नहीं होता?' "मेरी तो चाचीजी भी चाचाजी का नाम लेकर बुलाती हैं। आजकल तो सभी...' "तुम्हारी बहस की आदत से मैं तो परेशान हो गया हूँ। मैं तुम्हारा पति हँ। जो कहता हूँ, उसे मानना तुम्हारा कर्तव्य है। हमें किसी की नकल करने की आवश्यकता नहीं। वे बड़े लोग हैं, उनके अपने रीतिरिवाज होते हैं।' रेखा ने आज फिर अपने बाऊजीद्न को याद किया।

रेखा कुछ दिन मायके रहकर आयी तो साथ कुछ-एक मिठाई के डिब्बे लायी। एक साड़ी सास के लिए भी थी। सास का चेहरा साड़ी देखकर खिल-सा उठा। साड़ी इम्पोर्टेड थी, प्रमोद के कपड़े भी इम्पोर्टेड थे-रेखा के भाई साहब बंबई से लाये थे। सास को साड़ी पसंद आयी, 'रेखा, अब जरा फाल भी लगा दो तो मैं पहन लूँगी।' सास ने आज कोई साना नहीं मारा। किंतु प्रमोद को संभवत: कपड़े पसंद नहीं आये, 'तुम्हारी माँ तुम्हें तो अच्छे कपड़े ही देती है, पर जब मेरी बारी आती है तो पता नहीं उसे क्या हो जाता है!' "क्यों, आपके कपड़ों को क्या हो गया?' "मैं इन कपड़ों की बात नहीं कर रहा। शादी में एक तो सूट दिया, वह भी लगता है जैसे किसी मटके में से निकाला हो। कमीज का रंग है तो ऐसा, जैसे मुझे संन्यास लेकर हरद्वार जाना हो।' "आप सारा समय कड़वी बातें ही क्यों सोचते रहते हैं?' "क्यों न सोचूँ? उन्होंने तो बस अपनी बला मेरे गले मढ़ने की मोशिश की है। अपना सोना हमारे सोने से मिलाकर देख लो, किसका भारी है। यह ऍंगूठी देखी है, जैसे कागज की बनी हो!' रेखा सोच में पड़ी हुई थी।

'भाभीजी, प्रमोद से कहकर बहू की नौकरी क्यों नहीं लगवा देते? घर का काम तो आजकल की लड़कियों से होता नहीं। कुछ कमाकर लाये तो अच्छा रहेगा। मेरी देवरानी वोल्टास कंपनी में काम करती है। अगर आप कहें तो मैं बात करूँ? थोड़ा हाथ भी खुला हो जायेगा।' "प्रमोद से बात करके देखते हैं। वैसे बात तो तुम्हारी ठीक है।' रेखा को तीसरा महीना चल रहा था।

'रेखा, बुआजी ने एक नौकरी बतायी है। अगर तुम्हें नौकरी मिल जाये तो बहुत अच्छा है।' "पर मेरी हालत अभी तो नौकरी करने जैसी नहीं है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद उल्टियाँ आने लगती हैं। फिर मेरी अंग्रेजी भी तो इतनी अच्छी नहीं है।' "वह तो खैर इतनी चिंता की बात नहीं। पहले तो तुम्हें कोर्स करना होगा-टेलीफोन ऑपरेटर का।' "पर आपको मालूम तो है कि बसों में मैं अभी सफर कर नहीं सकती।' "अपनी माँ के घर जाना हो तो कोई बात नहीं, काम की बात के लिए तुम्हें उल्टियाँ आती हैं?' "आप हर बात में जिद पर क्यों उतर आते हैं? आपको मालूम तो है कि मैं ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पाती। टेलीफोन ऑपरेटर के लिए तो अंग्रेजी बोलना बहुत जरूरी है।' "कुछ भी हो, नौकरी तो तुम्हें करनी ही होगी। इस तरह हमारा गुजारा नहीं हो सकता।' "आप जिद कर रहे हैं और देख लीजिएगा, यह कभी पूरी नहीं होगी।' "याद रखना, अगर मेरे साथ रहना है तो नौकरी करनी पड़ेगी वर्ना अपना रास्ता नापो।' "क्या...?' रेखा हत्प्रभ-सी खड़ी थी।

'प्रमोद बेटा, ले, बादाम खा ले। सारा दिन काम करके थक जाता है।' "माँ, कीभी-कभी रेखा को भी दे दिया करो। काफी कमजोर होती जा रही है।' "हमसे नखरे नहीं सहे जाते। घर में पड़े रहते हैं। जब दिल करे, खा लिया करे। और फिर मेरे किस काम की? आज चार दिन हो गये, दस बार कह चुकी हूँ कि मेरा एक ब्लाउज सिल दे। मशीन दहेज की है तो घिस तो नहीं जायेगी। हमारा तो अपना सिक्का ही खोटा है, हम दूसरे को क्या कहें! अगर तू ही ठीक होता तो उसकी क्या मजाल कि मेरा कहना न माने!'

'माँ का काम करने में तुम्हारे हाथ टूटते हैं? अगर एक ब्लाउज सिल देती तो तुम्हारी मशीन घिस जाती क्या?' "आप कभी तो प्यार से भी बात किया कीजिए।' "तुम प्यार के काबिल ही कहाँ हो? यह तो मैं ही हूँ, जो तुम्हें सह रहा हूँ। कोई और होता तो कब की बाप के घर बैठी होती।' "आप हर समय मेरे बाप की बेइज्जती नहीं कर सकते।' रेखा की सहनशक्ति चुकती जा रही थी। "करूँगा और जरूर करूँगा। उन सालों ने दिया ही क्या है दहेज में? और अगर तुम्हें नौकरी नहीं करनी, तो उनके पास ही जाकर बैठो।' "हाँ, हाँ, मेरे माँ-बाप तो गरीब हैं, उन्होंने कुछ भी नहीं दिया। पर घर में पड़े सारे सामान पर एक निगाह डालो- यह पलंग, सोफा, ड्रेसिंग टेबल, मशीन, रेडियो, पंखा, अलमारी, ट्रंक, बिस्तर, बर्तन-सब उनके घर से ही आये हैं। आपने या आपके माँ-बाप ने क्या घर बनाया था सारी उम्र में? एक फ्रिज और टेलिविजन नहीं दिया तो मेरे माँ-बाप को आप गालियाँ देते रहेंगे?' "बदतमीज, मेरे सामने बोलती है! बकवास बंद कर।' "हाँ, हाँ, आज मेरी बोलने की बारी है। तुम आज केवल सुनोगे। तुम इस काबिल नहीं हो कि मैं तुम्हारे साथ रहूँ। मैं आज ही जा रही हूँ। अगर नौकरी करके ही जीना है तो अकेली रहूँगी। मैं तुम्हारी गालियाँ और मार नहीं सहूँगी। मैं उनमें से नहीं हूँ जो स्टोव फटने से जलकर मर जाती हैं। अब मैं तभी आऊँगी, जब तुम मेरे सामने नाक रगड़ोगे।' "नाक रगड़ेगी मेरी जूती। हमारे खानदान को तुम नहीं जानती हो। मेरे चाचा ने अपनी पत्नी को दस साल छोड़ रखा था। मैं बीस साल तक छोड़ सकता हूँ।' "तुम अपने परिवार की रीति पूरी करो। मैं जा रही हूँ।' रेखा अपना सूटकेस लगा रही थी। आज प्रमोद भौचक खड़ा था।

रेखा को बेटा हुआ है। प्रमोद अस्पताल के बाहर कई चक्कर लगा चुका है। रेखा को मनाने जाये जा नहीं, वह समझ नहीं पा रहा। रेखा को निकालकर उसने ठीक किया या नहीं-वह इसी द्वंद्व में है। उसके बच्चे की शक्ल कैसी होगी...? क्या प्रमोद सचमुच बदल गया है या लड़का होने पर उसे ससुराल से तगड़ा माल मिलने की आशा है ?