क्रांति की तलाश / देवेंद्र

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किसी भी चीज के प्रति तत्काल आकर्षित होना और फिर उससे ऊब जाना प्रकाश की विशेषता थी। जब चीजों को वह गौर से देखता तो उसकी आँखों में जिज्ञासा चमकती और होठों पर बच्चों जैसी सरल मुस्कान। इस बीच वह धीरे-धीरे अपनी दाढ़ी खुजलाता, कंधों को बार-बार उचकाता। फिर उसकी जिज्ञासा बढ़ती और वह उस चीज के बयान शुरू करता। उस चीज से चाहे आपका कितना भी पुराना परिचय हो, भले ही वह आपके लिए बे-मानी हो, प्रकाश के बयान उसे एकदम नया और आकर्षक बना देते। शहर के हिसाब से किसी दुकान का भूगोल हो या समाज के हिसाब से किसी लड़की की अदा, अगर वह प्रकाश को भा गई तो वह उसे दुनिया में अलौकिक महत्व की साबित कर देता। जो भी उसके पुराने परिचित हैं, वे इस बात को खूब जानते हैं कि अपनी सुविधाओं के अनुसार प्रकाश हर चीज के पक्ष और प्रतिपक्ष में एक लाख तर्क हमेशा लिए रहता।

शहर में प्रकाश के पुराने परिचित तो थे लेकिन पुराने दोस्त नहीं थे। कारण कि उसके लिए हर पुरानी चीज का अस्तित्व लिजलिजी भावुकता पर टिका होता। इसीलिए वह उनमें यकीन नहीं करता और ऊब चुका होता था। उसकी खासियत थी नई चीजों की ओर आकर्षित होना और उन्हें तेजी से अपनी ओर आकर्षित कर लेना। इस प्रक्रिया में वह दूसरों से सुने हुए या काल्पनिक अनुभवों को अपना संस्मरण बना कर सुनाया करता। लोगों की आदतों और रुचियों को बारीकी से पहचानने की अद्भुत क्षमता उसमें थी।

जब वह विश्वविद्यालय में पढ़ता था तो उसके इर्द-गिर्द चुलबुली लड़कियों का झुंड लहराता रहता था। वह उनके उदास सपनों में रंगों के पर टाँकता। विदेशी उपन्यासों की सुनी हुई कहानियों को पढ़े हुए की तरह सुनाया करता। सार्त्र, मार्क्स और डार्विन के उद्धरणों का इस्तेमाल बात-बात में इस तरह करता जैसे उनकी सारी किताबें उसे कंठस्थ हों। हालाँकि किताबों में फ्लैप पढ़ने के बाद जैसे ही अगले कुछ पन्ने पलटता अपनी आदत से लाचार ऊब जाता। लड़कियाँ उसकी विद्वता पर आँखें चियारतीं। लहालोह होतीं। फिर वह उनके व्यक्तिवादी दुर्गुणों की आलोचनाएँ शुरू करता। मुस्कराता और सपने देखता।

एक दिन जब वह हॉस्टल के कमरे में अकेला बैठा था और सपने नंगे बच्चों की तरह बगल में भूखे पेट सो रहे थे, उसी समय उसकी चेतना किसी बेवा की तरह अपने भविष्य को सोच-सोच कर रोने लगी। प्रकाश ने सोचा कि जीवित रहने के लिए कोई-न-कोई पेशा मजबूरी है। नौकरी करने का अर्थ है, मालिक की डाँट। दस से चार, ऑफिस की हाँव-हाँव, किच-किच। किसी डिग्री कॉलेज या विश्वविद्यालय में नौकरी की जा सकती है। उसके मन ने समझाया कि यही एक पेशा है जहाँ ईमानदारी का औसत पैसा है और सापेक्षिक स्वतंत्रता भी।

आजमगढ़ के एक डिग्री कॉलेज में साक्षात्कार देने के बाद उसका किताबी ज्ञान व्यावहारिक जगत के सत्य को छूकर किसी विधवा की तरह ब्रह्मचारी हो गया। उसने निष्कर्ष निकाला कि कमीनगी से भरी इस व्यवस्था में पूरी तरह कमीना हुए बगैर नौकरी नहीं जा सकती। अपनी दाढ़ी खुजलाता हुआ वह फिर विश्वविद्यालय कैंपस में लौट आया। जहाँ कुछ लड़कियों और लड़कियों जैसे कुछ लड़कों ने चहचहाकर उसकी अगवानी की। तब उसने घोषणा की कि अध्यापकी का जीवन सड़ी-गली बदबूदार शिक्षा व्यवस्था में एक कीड़े की तरह बिलबिलाते हुए रेंगना ही तो है। लिहाजा वह अध्यापक नहीं बन सकता। उसका फैसला है।

इस बीच साथ रहने वाली अधिकांश लड़कियाँ आई.ए.एस. अफसरों या डॉक्टरों की बीवियाँ बन चुकी थीं। कुछ उसी विश्वविद्यालय में लेक्चरर बन गईं। पतझड़ के बाद वसंत आता है - यही दुनिया की रीति है। लेकिन प्रकाश ने बड़ी आह और कराह के साथ वसंत के बाद पतझड़ की इस वीरानगी को सहा।

एक दिन शहर में कवि सम्मेलन हो रहा था। भद्र महिलाएँ लिपिस्टिक लगा कर कवियों को देख रही थीं। प्रकाश से नहीं देखा गया। उसे लगा कि सारे कवि विचारहीन हैं। और जो विचारहीन हैं, उसे सहने का अर्थ है, भावी परिवर्तन के साथ गद्दारी। उसने कवियों को 'हूट' करना शुरू कर दिया। बगल में बैठी एक लड़की ने आँखें तरेर कर उसे घूरा। प्रकाश को लगा कि इन दिनों जनता की सांस्कृतिक भूख टुच्चे कवियों तक को सम्मान दे रही है। ऐसे गाढ़े समय में अगर वह कविता लिखे तो...? तब तो सब कुछ हो सकता है। उसी दम उसने कवि होने की प्रतिज्ञा की और तर्क गढ़ा -

“शब्दों से दुनिया बदली जा सकती है जहाँ हथियार चुक जाते हैं / वहाँ तक जाते हैं शब्द / शब्द आदमी की नहीं / आत्मा की शिनाख्त करते हैं / जब तानाशाह की जेल में / तब्दील हो जाता है / सारा देश / तब अँधेरे और अपमान को चीर कर / जुगनू की तरह चमकते / मुस्कुराते / उड़ते हैं शब्द आजाद बच्चों की तरह / सम्राट के शब्दबेधी बाणों से / आँखमिचौली खेलते हैं फूलों की मुलायमियत से थके किसानों की नींद में महकते हैं शब्द / बच्चों के सपनों में उगते हैं / टॉफी की तरह / पेन्सिल और स्लेट और फीस की तरह / गालों पर जब आँसू की तरह / नहीं सूखते / सपनों में उगे शब्द / हँसते हैं / सम्राट सोता नहीं रात-रात / राकेटों और मिसाइलों में जागती है नींद / गुदगुदे गद्दों पर / संगीनों की छाँह में / नहीं होती है माँ की लोरी / तब अँधेरे और अपमान को चीर कर / जुगनू की तरह चमकते / मुस्कुराते / उड़ते हैं शब्द आजाद बच्चों की तरह / सम्राट के शब्दबेधी बाणों से / आँख मिचौली खेलते हैं फूलों की मुलायमियत से थके किसानों की नींद में महकते हैं शब्द / बच्चों के सपनों में उगते हैं / टॉफी की तरह / पेन्सिल और स्लेट और फीस की तरह / गालों पर जब आँसू की तरह / नहीं सूखते / सपनों में उगे शब्द / हँसते हैं / सम्राट सोता नहीं रात-रात / राकेटों और मिसाइलों में जागती है नींद / गुदगुदे गद्दों पर / संगीनों की छाँह में / नहीं होती है माँ की लोरी / परेशान, बेबस, हारता हुआ / जागता है तानाशाह और तब शब्द हँसते हैं / पोखरे में छपकते बच्चों की तरह।”

फ्रांस के बाजारों से शेयर खरीद कर लौटे हुए लाल बाबू उन दिनों चौबीस घंटे सिगार पिया करते। और सोचते कि शहर के बुद्धिजीवियों में प्रतिष्ठा पाने का उपाय क्या हो सकता है? मऊनाथभंजन के नूरानी तेल वालों ने विज्ञापन देकर उन्हें एक पत्रिका का संपादक बना दिया। प्रकाश को कवि होने के लिए एक पत्रिका की जरूरत थी। ऐतिहासिक मिलन हुआ। प्रकाश और लाल बाबू की जोड़ी गजब की बैठी! प्यार और ईर्ष्या का ऐसा अनुपम समन्वय कि दोनों युगों तक याद किए जाएँगे। प्रकाश लाल बाबू की जीवन पद्धति से प्रभावित था और लाल बाबू प्रकाश की आक्रामक तर्कपरकता से। दोनों एक-दूसरे के आदर्श बने। शहर के बुद्धिजीवियों में इस जोड़ी ने कुहराम मचा दिया। कितने घायल हुए यह बता पाना मुश्किल है। जब किसी गोष्ठी में लाल बाबू अध्यक्ष होते तो प्रकाश मुख्य वक्ता और अगर प्रकाश संयोजक होता तो लाल बाबू मुख्य अतिथि। गर्वोन्मत्त विजेता की तरह घूमते हुए जब कई-कई दिन बीत जाते और ध्वस्त करने के लिए कोई नहीं मिलता तो प्रकाश लाल बाबू के व्यक्तिवादी दुर्गुणों की आलोचनाएँ शुरू करता। बताता कि आप में पूँजीवाद के खतरनाक कीटाणु रेंग रहे हैं और लाल बाबू रजाई ओढ़कर प्रकाश से जला-भुना करते।

धीरे-धीरे यह क्रम भी पुराना पड़ने लगा। प्रकाश ने सोचा कि निखट्टू कवियों की तरह दिन भर झोला लटकाए चाय की दुकानों पर शब्दों और बिंबों को तलाशते हुए इस तरह तो जिंदगी ही छूट जाएगी। छोटे शहरों में लोगों के सोचने-समझने की टुच्ची मानसिकता भी उसे खलती थी। वह विश्वविद्यालय के बारे में सोचता और ऊब जाता। वह कविता के बारे में सोचता तो ऊब जाता। इस छोटे शहर की मानसिकता के बारे में सोचता तो ऊब जाता। लाल बाबू से फ्रांस के अनुभव सुनता और फिर उनकी टुच्ची आदतें देखता तो ऊब जाता। ऊबते-ऊबते एक दिन वह इस शहर से गायब हो गया।

मार्च की एक खूबसूरत शाम थी। नई दिल्ली की उन्मुक्त और जगमगाती सड़कों पर टहलते हुए उसने सोचा कि जिंदगी को इसी तरह उन्मुक्त होना चाहिए। उसे लगा कि यहाँ घंटों बेफिक्र होकर किसी लड़की के साथ घूमा जा सकता है। कविता, कहानी गाँव और क्रांति पर निश्चिंत मन से बातें की जा सकती हैं। कुल मिलाकर मनचाहे तरीके से प्यार किया जा सकता है। कनाटप्लेस की भीड़ भरी सड़कों पर डी.टी.सी. की तेज रफ्तार बसों को देखकर उसने सोचा कि व्यस्त जिंदगी को जमाने के रास्ते पर इसी तरह दौड़ाया जाना चाहिए। ठेला खींचते मजदूरों को देखकर वह रात-रात भर जीवन संघर्ष के काल्पनिक चित्र बनाया करता, जिनमें प्रकाशकों का चक्कर मारता हुआ कभी 'प्रूफरीडिंग' करता और कभी लेखों का संपादन। दिन भर खाली पड़ा-पड़ा वह इसी तरह अपनी जिंदगी को संघर्षों से मथता रहता। उसके जीवनानुभव समृद्ध होते रहे।

खासियत यह थी कि दिल्ली आने के बाद भी वह विश्वविद्यालय के हॉस्टल में ठहरा। हालाँकि उम्र काफी हो चुकी थी। देखने पर कहीं से भी छात्र नहीं लगता था लेकिन उसने मन को समझाया कि बुढ़ापा उम्र से नहीं अहसास से आता है। पूछने वालों को उसने बताया कि महत्वपूर्ण काम करने में उम्र तो बीतती ही है, तो क्या इसके लिए काम छोड़ दिया जाए? सुनने वाले बेहद प्रभावित हुए। जल्दी ही इस नए विश्वविद्यालय में भी उसके इर्द-गिर्द परिचितों का घेरा बनने लगा। वह उन्हें गाँवों के अनुभव सुनाया करता।

यह उन दिनों की बात है जब नक्सलबाड़ी की आग का धुआँ महानगरों में अगरबत्ती की तरह खुशबू दे रहा था। जिन्होंने सपने में गाँव नहीं देखा था, वे गाँवों पर रूमानी गीत और कविताएँ, कहानियाँ लिख रहे थे। जो जिंदगी से निराश हो चुके थे, वे जमाने में आशा का संदेश फूँक रहे थे, जिन्होंने फगुवा के गीत नहीं सुने थे, वे लोक-साहित्य का सौंदर्यशास्त्र लिख रहे थे। चारों ओर अँधेरा था। आतंक था और वे हलके फालों से जमींदारों के सीने चीरे चले जा रहे थे।

किताबों से पढ़ी और अखबारों से सुनी हुई गरीबी पर उन सबका हृदय आर्तनाद कर रहा था। वेदना सही नहीं जाती तो कभी 'हेरोइन' और कभी 'दारू' पी लेते। वर्षों से लगातार रोज रात छात्रावास के मेस में बैठकर वे गरीबों का कारण खोज रहे थे। कोई बताता - “इसका मूल कारण सामंतवाद है।” दूसरा टोकता - “गलत! सब कुछ साम्राज्यवाद की वजह से है।” तीसरा कहता - “आप लोग उत्तेजित मत होइए! दोनों आधा-आधा है।” चौथा कहता - “समझौता विहीन संघर्ष। क्रांति में कोई समझौता नहीं। यह द्वितीय विश्वयुद्ध के गर्भ से पैदा हुआ विकलांग पूँजीवाद है।”

बहस के बाद आलम यह होता कि मार्क्स माथा पकड़ कर बैठ जाते। त्रात्स्की के कपड़े फट चुके होते। लेनिन और माओ-त्से-तुंग की समझ में कुछ नहीं आता। और बेचारे स्टालिन, आधा कब्र के बाहर आधा भीतर, सोचा करते कि द्वितीय विश्वयुद्ध को जीतना काफी आसान था। इस बहस में कुछ ऐसी लड़कियाँ भी शरीक होतीं जिनके ड्राइंगरूम की अमूर्त पेंटिंगों पर धूल जम गई थी। उन्होंने गरीबों की नई पेंटिंग बनाई और लाल रंग भर दिया।

प्रकाश भी कुछ दिनों तक इन बहसों में चहचहाता रहा। वह उम्मीद करता रहा कि जल्दी ही मेधावी क्रांतिकारियों की अच्छी खासी कतार उसके पीछे लामबंद हो जाएगी। कई महीने बीत गए। उसे लगा कि यह अपने-आप नहीं होगा। लोगों को जगाना पड़ेगा। उसने हॉस्टल के दरवाजे खटखटाए तो वहाँ नंगी लड़कियों की तस्वीरें टँगी थीं। उसने रजाई खींची तो ब्लू फिल्मों के कैसेट दिखाई दिए। 'फ्री-लांसिंग' का जो ग्लैमर उसे छोटे शहर से खींच कर यहाँ तक लाया था, यह सब उसी का 'रिहर्सल' था। उसने महसूस किया कि इस ग्लैमर के भीतर अनिश्चितता का अँधेरा और ठंडी ऊब के सिवा कुछ नहीं है। यहाँ दिन भर साथ रहने वाला दोस्त दूसरे की गर्दन रेतता रहता है। छोटे शहर का संस्कार प्रकाश के लिए इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा था। वह खाली होकर फिर ऊबने लगा। दिन भर सोचता कि इस ऊब का विकल्प कहाँ है? कुछ समझ में नहीं आता तो वह और ज्यादा ऊबता। यहाँ लाल बाबू की तरह कोई दोस्त भी नहीं था, जिनकी आलोचना करके राहत पाता। आलोचना उसकी ऊब का विकल्प थी। जरूरत नहीं आदत थी। संकट की इस घड़ी में छोटे शहर के मित्रों की याद आई, लेकिन वह उन्हें पहले ही दुत्कार चुका था।

एक रात जब 'सामूहिक बलात्कार' की नई परिघटनाओं पर बहस करते हुए लड़के रूस और अफगानिस्तान से टकरा रहे थे तो प्रकाश के दिमाग में अचानक कोई बात कौंधी। वह कई रात उस बात को सोचता रहा। वह सोचता रहा कि अगर क्रांति की बात में इतना मजा है तो साक्षात क्रांति में कितना मजा होगा? उसने दाढ़ी खुजलाई। हल्के होठों को मुस्कराया और अपेन झोले को टटोला। क्रांति के लिए दो चीजें जरूरी हैं - जमीदार की खोपड़ी और रिवाल्वर के कारतूस। लेकिन उसके झोले में यह सब नहीं था। कुछ पुराने और कुछ नए शब्द जरूर थे। मसलन प्रतिक्रियावाद, डिजेनरेट, संशोधनवाद, डीह्यूमनाइज, रूसी साम्राज्यवाद, कल्चरल रिवोल्यूशन, कंपूचिया, निकारागुआ, देंग, व्यक्तिवाद, त्रात्स्की, ग्रेट-डीवेट, गद्दार काउत्स्की, ड्यूहरिंग मतखंडन।

गाँवों में लोग साले, 'मादरचोत' और 'भैया' से काम चला लेते हैं, वहाँ के लिए इतने शब्द बहुत ज्यादा हैं - प्रकाश ने सोचा, और सपना देखा कि फटे-पुराने कपड़ों वाली विशाल जनता 'प्रकाश-जिंदाबाद' के नारे में डूब उतरा रही है। कलक्टर और कमिश्नर मुख्यालय छोड़कर भाग रहे हैं। बस उसके पहुँचने भर की देर है।

एक दिन मेस में चल रही बहस को रोककर वह जोर से चिल्लाया - “सिर्फ बहस से कुछ नहीं होगा। हमें व्यावहारिक धरातल पर जाकर कुछ करना होगा।” कुछ जो बहस में ऊँघ रहे थे, अचानक जग गए और बोले - “वाजिब बात है।”

कुछ जो बहस में हिस्सेदार थे, मुस्कराए - 'हम सब जानते हैं। यह बचकाना मर्ज है और ऐसी ही गरज है तो जाओ न! अपने अज्ञान को व्यवहार का बुर्का पहना रहे हो। सब कुछ कैसे करना होगा? बहस में यह तय किए बगैर हम कहीं नहीं जा सकते। हम सन बीस-इक्कीस से इसी तरह भटक रहे हैं। अब और भटकने के लिए हम हिलेंगे ही नहीं।'

प्रकाश चिल्लाया - “आप लोग त्रात्स्की पंथी हैं।”

उन्होंने जवाब दिया - “आपके आतंकवाद का पेंडुलम जल्दी ही संशोधनवाद की ओर जाएगा।” 'मेथडॉलॉजी' का सवाल मुख्य है। यही 'प्राइमरी टास्क' है। हम भाग थोड़े रहे हैं।”

एक दूसरा लड़का जिस पर अभी भी खुमार शेष था, बोला - “बहस का मुद्दा यह होना चाहिए कि बहस उचित है या नहीं?”

ऐसे कभी कुछ तय नहीं होगा - प्रकाश ने सोचा और गाँव की ओर चल दिया। जाहिर है क्रांति वहीं होगी जहाँ शोषण होगा। बिहार ठीक रहेगा - प्रकाश ने सोचा। लेकिन वहाँ दूसरे कामरेड जिनकी गाड़ी 'डी रेल' हो चुकी है, जमे हुए हैं। लिहाजा पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों को उसने अपना कार्यक्षेत्र बनाया।

महीनों एक गाँव से दूसरे गाँव घूमते हुए वह अपने अनुभवों को समृद्ध करता रहा। उसने महसूस किया कि यहाँ लोग तृतीय विश्वयुद्ध के बारे में सोचते ही नहीं। पढ़े-लिखे लोग भी सांस्कृतिक क्रांति में रुचि नहीं रखते। उन्होंने गोर्की, लू-शुन की कहानियाँ भी नहीं पढ़ी हैं, और नौटंकी में लौंडे का नाच देखा करते हैं। एक दिन उसने देखा कि हरिजन बस्ती के लोग जिस पोखरे में पानी पीते हैं, उसी में टट्टी भी धोते हैं। तबसे उसे हरिजनों से घृणा सी हो गई। उसने बताया कि चार हजार सालों की गुलामी ने हरिजनों को 'डी-ह्यूमनाइज' कर दिया है। इसमें क्रांति की संभावना शेष नहीं रह गई है। वह किसानों के यहाँ गया तो पाया कि थोड़ी-थोड़ी जमीन और ग्राम प्रधानी के छोटे-छोटे झगड़ों में फँसे हुए लोग पीढ़ियों से मुकदमा लड़ रहे हैं। एक साथ बिरादरी में बैठकर खाते हैं और रात भर फों-फों करके सोते हैं। उसने डायरी में लिखा - “निजी संपत्ति का मोह और सांस्कृतिक पिछड़ेपन ने किसानों को पूरी तरह प्रतिक्रियावादी बना दिया है।” जहाँ कहीं पहले भी कभी क्रांति की खबर वह अखबारों में पढ़ चुका था, वहाँ भी गया। यह देखकर वह निराश हो गया कि आतंकवाद का पेंडुलम संशोधनवाद के दूसरे छोर पर झूल रहा है। दिन-ब-दिन उसकी ऊब तर्कों से समृद्ध होती रही। उसने सार संकलन किया कि अशिक्षा, गरीबी और अवसरवाद ने गाँवों में क्रांति की संभावना का समूल विनाश कर दिया है।

इसी बीच एक दिन हुआ यह कि बिजली न मिलने से परेशान होकर कई गाँवों के लोग कस्बे में जुट आए। और जाकर उन लोगों ने बिजलीघर में आग लगा दी। लाठी, गोली चली। दूसरे दिन और ज्यादा संख्या में इलाके भर के लोग जुट आए। बहुत बड़ा जुलूस निकला। कालेज के लड़कों ने घंटा बजा कर छुट्टी कर दी और सड़क पर चले आए। प्रकाश चाय की दुकान पर बैठा हुआ यह देख रहा था और ऊब रहा था। बोला - “यह धनी किसानों का प्रतिक्रियावादी आंदोलन है।” तब तक एक किसान जुलूस से निकल कर वहीं पानी पीने की गरज से आ गया। प्रकाश उससे परिचित था। एक दूसरे आतंकवादी ग्रुप का कामरेड इस किसान के घर आता-जाता था। प्रकाश ने उसी किसान से पूछा - “धनी किसानों की माँग पर जुलूस निकाल रहे हैं? 'रिएक्शनरी मूवमेंट'। आप लोगों का सारा दर्शन संशोधनवादी हो चुका है।”

किसान बहुत कम पढ़ा लिखा सीधा सा आदमी था। प्रकाश के शब्द उसके पल्ले नहीं पड़े। बोला - “हम बस जिंदाबाद-मुर्दाबाद हैं भाई। आप पढ़े-लिखे लोग संशोधनवाद होंगे।”

प्रकाश को बहुत अफसोस हुआ। उसने सोचा कि जो शब्दों का सही इस्तेमाल नहीं कर सकते। उनके हाथों भारतीय क्रांति का भविष्य क्या होगा? तब तक दो और किसान वहीं आकर उनकी बातें सुनने लगे थे। प्रकाश ने पूछा - आप लोग कौन हैं?

उनमें से एक बोला - “हम दोनों भाई हैं। ये हमसे छोटा है (उसने दूसरे की ओर इशारा करके कहा) लेकिन सी.पी.एम. है। हम सी.पी.आई. हैं। आप भी कामरेड हैं क्या?” उसने प्रकाश को जिज्ञासा से देखते हुए पूछा।

प्रकाश को उन पर तरस आने लगा। बोला - “सोशलिस्ट रिवोल्यूशन” के 'फेज' में आप सब 'पेटीबूर्ज्वा रिवोल्यूशन' कर रहे हैं? बिना दिशा जाने आप क्रांति किधर ले जाएँगे।”

पहले वाले किसान ने दुकानदार से पानी देने के लिए कहा और प्रकाश से बोला -”गाँव से आए हैं और थाना-पुलिस की ओर जाएँगे। जिधर थाना होगा उधर क्रांति की दिशा होगी।”

प्रकाश उत्तेजित हो गया - “नहीं, यह एक 'इंटरनेशनल फेनामिना' है। जब तक आप व्यवस्था का चरित्र नहीं जानेंगे तब तक 'गद्दार काउत्स्की' की भूमिका में रहेंगे! बताइए न। अगर आपकी माँग मान ली जाए तो फिर क्या करेंगे? क्या 'स्लोगन' देंगे?”

किसान को अचरज हो रहा था कि पढ़ा-लिखा आदमी कितना बेवकूफ है। बोला -”फिर खेती करेंगे जी!”

प्रकाश मुस्कराया - “जनता का अराजनीतिकरण' हो गया है। 'रिविजनिस्ट' फायदा उठा रहे हैं।”

किसान पानी पी चुका था। जुलूस की ओर जाने के लिए मुड़ते हुए बोला - “क्रांति जब अहसास की जरूरत से नहीं, किताब से पैदा होती है तो रंडी हो जाती है। हल की मूठ थामे हो बबुआ?”

इसके बाद प्रकाश जब भी गाँवों में जाता लोग उसे देखकर हँस दिया करते। कोई-कोई लड़के उसकी दाढ़ी देखकर 'सत्तराम साधूबाबा।” कह देते। उसके झोले का वजन देखकर कुछ लोग मदारी वाला समझते। तब उसने नतीजा निकाला कि क्रांति का अब तक का इतिहास अधकचरों या अवसरवादियों के नेतृत्व का इतिहास है। हमें इतिहास को नए सिरे से शुरू करना होगा। उसे हॉस्टल में कहे हुए लड़कों की बात याद आई कि यह बहस-मुबाहसे का दौर है। अध्ययन की जरूरत है।

उसने किताबें पलटनी शुरू कीं। पता चला कि मामला बहुत गंभीर है, यहाँ तो यूरोप जैसा 'रिनेसां' ही नहीं हुआ है। आगे पता चला कि फ्रांस में क्रांति की शुरुआत चंद बुद्धिजीवियों ने की थी। नए इतिहास के निर्माण की आकांक्षा उसे फिर शहर के बड़े विश्वविद्यालय तक खींच लाई।

शहर में भीड़ थी। छल था। फरेब और मक्कारी थी। चारों ओर रौनक थी। लड़के, लड़कियों को देखकर टिकोरी मार रहे थे। चायखानों में बहस थी। सड़कों पर ट्रैफिक जाम था। भाँग छन रही थी। इत्र महक रहा था। प्रकाश ने सब कुछ देखा और दिल को दिलासा दिया कि यही हिंदुस्तान है। इस बार जो नए लड़के उसके संपर्क में आए वे अस्पतालों में पैदा हुए थे। पाउडर के दूध पिए थे। शहरों में पले थे। अंग्रेजी में सोचते थे। वे अक्सर इस बात से परेशान रहते कि यहाँ छोटी मानसिकता वाले लड़के उनका महत्व नहीं समझते। प्रकाश ने उनको उनका महत्व बताया। उसने बताया कि आप फ्रांसीसी क्रांति के नायकों की तरह चमक सकते हैं। भाइयों, तुममें क्षमता है। तुम कुदाल नहीं चला सकते तो क्या, कुदाल चलाने वालों को चला सकते हो। बस इतनी बात जान लो कि 'ज्ञान सामाजिक संपत्ति है।' फिर देखो न! इतिहास कैसे तुम्हें पुकार रहा है। हमें नए इतिहास की शुरुआत करनी है। रास्ता लंबा है, लेकिन मुश्किल नहीं। हमें सब कुछ नए सिरे से करना है। साहित्य के क्षेत्र में यहाँ कूड़ा है, विचार के क्षेत्र में कचरा है, क्रांति का इतिहास गद्दारी से भरा है। ये लोग इतने 'डी जनरेट' हैं कि समाजवादी क्रांति पर सहमत ही नहीं होते। खैर छोड़ो, हमें ही सब करना है।

लड़कों ने क्रांति के लिए कमर कस ली। जिनमें शादी की इच्छा थी, प्रकाश ने जल्दी से उनकी शादी का 'टास्क' पूरा किया। जो बच गए उन्हें आजीवन कुँवारे रहने की शपथ दिलाई। अब सवाल था कि क्रांति कहाँ से शुरू की जाए।

इस बीच एक दिन अखबार में कोई अश्लील समाचार छपा। उन सबको लगा कि इतना जोरदार मुद्दा कभी नहीं मिलेगा। भौतिक परिस्थितियाँ परिपक्व हैं। मनोगत शक्तियों का अभाव नहीं होना चाहिए। प्रकाश के नेतृत्व में मलाईदार चेहरों की फौज 'लांग मार्च' पर चल पड़ी। उत्साह का समंदर उफन रहा था। साइकिलें रिक्शों से टकरा रही थीं। अखबार का दफ्तर घेर लिया गया। शोर सुनकर भीतर से कुछ 'प्रूफरीडर' और तीन चार मशीन मैन निकले। उत्तेजित लड़कों को देखकर उन्होंने उनके गाल सहला दिए। वे और उत्तेजित हो गए। इस पर एक मशीनमैन ने उनकी बुलबुली पकड़ी और सड़क पर धकेल दिया। प्लास्टिक के खिलौनों में काँच मिलाया गया था। सब टूट गए। लड़के उठकर फिर आगे बढ़ने को हुए तो प्रकाश चिल्लाया - “सावधान, एक कदम आगे दो कदम पीछे।” किसी का सिर फूटा तो किसी की कलाई मोच खा गई थी।

“यह रणनीति की गलत समझदारी की वजह से हुआ है।” - प्रकाश ने हॉस्टल आकर आत्मालोचना की। टेलीग्राम पाकर माँ-बाप आए। बच्चों की ऐसी दुर्गति देखकर उनकी आँखें भर आईं। हाय, यह क्या हुआ। जिन्हें कभी सींक से छुआ नहीं गया था। पर्दे टँगे झरोखों वाले ड्राइंग-रूम में जिन्हें सजा कर रखा गया था। जिन्होंने लू के झोंके तक नहीं देखे थे, उनके सिर पर पट्टियाँ बँधी थीं। जो आँखें चूमने के लिए थीं, उनमें खून उतर आया था। उनसे देखा नहीं गया और उन्हें वे घर लिवाकर चले गए। प्रकाश चौराहे पर आकर खड़ा हो गया और जोर-जोर से चीखने लगा - “एक एक से निबटेंगे! क्रांति हो जाने दो। इतिहास निवीर्य बुद्धिजीवियों को कभी माफ नहीं करेगा।”

उसी दिन अरवल की सभा में गोली चलने से पचासों किसान मारे गए थे। दो छात्र रिक्शे पर माइक लिए विश्वविद्यालय बंद करने और प्रशासन का घेराव करने का आह्वान कर रहे थे। सैकड़ों छात्र और अध्यापक उनके आगे पीछे चल रहे थे। व्यापार मंडल ने शहर बंद रखने की घोषणा की थी। जुलूस जैसे-जैसे आगे बढ़ता, बड़ा होता जाता था। जब वह चौराहे के निकट पहुँचा तो प्रकाश और जोर-जोर से चीखने लगा - “हर आंदोलन का असफल होना उसकी नियति है। नेतृत्व व्यवस्था के चरित्र को नहीं पहचानता।”

धीरे-धीरे रात होने लगी। सड़कों की भीड़ घट रही थी। चौराहे के इर्द-गिर्द पान खाने की गरज से कुछ लोग अब भी खड़े थे। प्रकाश चीखता चला जा रहा था - “लेकिन क्रांति हमारी इच्छा से स्वतंत्र है। हम चाह कर भी उसे नहीं रोक सकते। वह समाज की भौतिक गति का परिणाम है। इतिहास की जरूरत है। वह अवश्य होगी। गाँवों से शुरू होगी। लेकिन नहीं... नहीं। वहाँ किसान प्रतिक्रियावादी हैं। हरिजन 'डी जनरेट' हैं।”

दो लोग पान की दुकान पर शाम का अखबार पढ़ते हुए आपस में बातें कर रहे थे कि धरने में ठंड से मरने वाले किसानों की संख्या चौदह हो गई है। वहाँ खड़े लोगों में कोई कभी-कभी प्रकाश की ओर भी देखता। वह लगातार चीखता जा रहा था - “इसलिए क्रांति का अगुवा दस्ता छात्र बनेंगे।” उसने देखा कि आस-पास कोई छात्र नहीं है तो और जोर से चीखा - “लेकिन इतना आसान भी नहीं है। आज की शिक्षा व्यवस्था ने छात्रों को 'फ्रस्टेट' कर दिया है। वे नौकरी के लिए प्रोफेसरों की चापलूसी करते हैं। अराजनीतिकरण हो रहा है। अब वे भी कुछ नहीं करेंगे।”

रात के बारह बजे का 'शो' छूट चुका था। सड़क के अँधेरे में रिक्शों, साइकिलों की घंटियाँ घनघनाती और विलीन हो जातीं। चारों ओर सन्नाटा घिरने लगा था। सड़क की वीरानगी में निश्चिंत भाव से बैठा हुआ एक साँड़ पागुर करते हुए चौराहे की ओर ताक रहा था। एक लड़का आया और प्रकाश को एक गिलास पानी थमाकर चला गया। उसने आहिस्ते से पानी पिया और फिर चीखने लगा - “लेकिन फिर भी क्रांति होगी। शहर का मजदूर करेगा। ऑफिसों के निखट्टू बाबू घूस लेकर उसे नहीं रोक सकते। सर्वहारा सक्षम है, अकेले क्रांति करेगा।” तब तक अचानक उसे याद आया कि आज अखबार दफ्तर के मजदूरों ने ही क्रांति को लहूलुहान किया था। तब वह और जोर से चीखा - “मालिकों के तलवे चाटता आज का मजदूर तलछट हो रहा है। एक खतरनाक साजिश के तहत मजदूरों का 'तलछटीकरण' किया जा रहा है। लेकिन क्रांति होगी।”

सुबह का अखबार लेकर एक हॉकर जोर-जोर से चिल्लाता चला जा रहा था - “आंध्र के नक्सलवादियों ने आठ आई.ए.एस. अधिकारियों को बंधक बना लिया।” ऊपर बिजली की तारों में फँसी कोई पतंग जोर-जोर से फड़फड़ा रही थी। थक जाने की वजह से प्रकाश की आवाज भी गले में गुर्र-गुर्र कर रही थी - “क्रांति अकेले करेगा।”