क्रांति होकर रहेगी / सुभाष चन्दर

Gadya Kosh से
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वह बहुत बड़े साहित्यकार हैं। उनका कहना है कि अपनी कविताओं से वह पूरे देश में क्रांति ला देंगे। हरित, श्वेत, पीत जितनी भी तरह की क्रांतियां हैं या हो सकती हैं उनसे पूरे देश के गली-मोहल्ले को रंगीन कर देंगे। फिर कहीं कोई अव्यवस्था नहीं रहेगी। नवयुग की स्थापना होगी आदि।

यहां तक कि एक दिन उन्होंने एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में घोषणा भी कर दी कि अपनी कविताओं की ताकत से वह जल्दी ही इस सरकार का तख्ता पलट देंगे। कवि सम्मेलन वाकई अखिल भारतीय था क्योंकि कॉफी हाऊस में संपन्न हुआ था। इस अखिल भारतीय घोषणा का प्रभाव दूर तक फैला।

स्रकार के पास कान भी थे। सो उन तक यह बात पहुंच ही गयी। पहुंचनी थी। उसके पास माथा भी था। वो भी ठनका। गणेश जी का वाहन चूहा है, वैसे ही सरकार का वाहन कुर्सी है। बात वाहन की थी। ऐसी बातों पर कानों को खड़े होना पड़ता था। कहीं अकाल, दंगे-वंगे की बात होती तो शायद बैठे भी रहते। ऐसी-वैसी बातों के लिए प्लेटफार्म वहां नहीं था। एक कान से ट्रेन गुजरी और घड़घड़ाती हुई दूसरे से बाहर। लेकिन साब बात कुर्सी की थी सो घबराहट जो थी वो भी हुई। घबराहट के दौर में फोन घनघनाया। द्रोपदी के रक्षक कृष्ण थे तो कुर्सी की लाज बचाने का जिम्मा गुप्तचर विभाग का था। गुप्तचर विभाग को डांट पड़ी - क्या करते हो इतना बड़ा षड़यंत्र हो रहा है। कुर्सी की लाज खतरे में है। मुआ साहित्यकार दुःशासन पीछे पड़ा है। जल्दी ही लाज बचाने का इंतजाम करो। ऐसे अधर्मी लोगों से ही सत्य की हानि होती है। गुप्चर विभाग लाज बचाने में एक्सपर्ट था। पिछले अड़तालीस सालों से यही काम कर रहा थां अब तो उसे फार्मूला भी मिल गया। कुर्सी की हानि यानि सत्य की हानि। इससे पहले कि महाभारत में अधर्म की विजय हो। कुछ किया जाये। सो विभाग ने एक होनहार गुप्तचर की ड्यूटी लगा दी।

गुप्तचर ने मामला देखा, समझा और उस तख्ता-पलट साहित्यकार की तलाश में जुट गया। पहले दौर में वह वहां पहुंचा जहां उस अधर्मी ने वह घोषणा की थी। पता चला वह घोषणा कवि सम्मेलन नामक मैदान से की गयी थी। छान-बीन ज्यादा की गईं। पता पड़ा उस अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में बीस-पच्चीस कवि थे और श्रोता तो दस से भी ज्यादा थे। कवि भी सब बड़े-बड़े थे। कोई दूसरे निराला थे तो कोई दूसरे प्रसाद। कवियत्रियां भी महादेवी वर्मा से कम स्तर की न थीं। कुछ को आलोचकों ने महान् बनाया था तो कुछ को आकाशवाणी और दूरदर्शन से महानत्व की प्राप्ति हुई थी। कुछेक अपने आप ही महान् हो गए थे। लेखन के लिए महान् बनना जरूरी काम है। महान् बने बिना लेखक हो ही नहीं पाता। इतने सारे निरालाओं, महादेवियों, प्रसादों को देखकर गुप्तचर बड़ा प्रसन्न था।

उसने पूछताछ की कि साब फलां कवि से मिलना है। सुना है वे बड़े क्रांतिकारी कवि हैं। देश भर में क्रांति कर देंगे। अलग-अलग सारे निराला, महादेवी नाराज हो गये। नाराजी के पहले दौर में हरेक ने अपनी चार-छ: कविताएं सुनाईं। फिर उस क्रांतिकारी कवि को कविता के अनुपात में गालियां दीं। कहा कि वो देश में क्या आग लगायेगा। वह सिर्फ अपने घर में आग लगा सकता है। आप मेरी कविताएं देखें। मेरी कविताएं पूरे देश में क्या संसार में आग लगा देंगी। पूरे ब्रह्मांड में क्रांति कर देंगी। गुप्तचर ब्रह्मांड के क्रांतिकारी कवियों को देखकर बड़ा चकित हुआ। उसने चाहा किसी तरह उस कविता की एकाध प्रति ले ले जिसमें कुर्सी के अपहरण का उद्घोष था। लेकिन किसी को कविता याद न थी तो किसी को कवि ही याद नहीं था। सबको सिर्फ अपना मतलब महानत्व याद था।

फिर कहीं से सूचना मिली कि क्रांतिकारी कवि की कविता की कोई किताब आई है। उसमें वे सब कविताएं हैं जो कुर्सी के पीछे हाथ धोकर पड़ी हैं। गुप्तचर ने सारे बुक स्टॉल छान मारे। वहां गुलशन नन्दा से लेकर प्रेम वाजपेयी तक सब थे। कविता कहीं थी। प्रकाशक के पास पहुंचा जिसने किताब छापी थी। एक प्रति मांगी तो प्रकाशक ने सौ रुपये मांग लिये। गरीबों के लिए, गरीबों पर लिखीं गरीबों द्वारा क्रांति करने वाली सत्तर पृष्ठ की इस किताब की कीमत केवल सौ रुपये थी। कीमत वाजिब थी। आखिर कीमती साहित्यकार की कीमती रचनाएं थीं। गुप्तचर की जेब में इतने पैसे नहीं थे। वो थोड़ा अचकचाया। प्रकाशक दयालु किस्म का था। प्रकाशक अक्सर दयालु ही पाये जाते हैं। उसने साहित्यिक योगदान दिया और अस्सी प्रतिशत छूट देकर मात्र बीस रुपये में ही किताब दे दी। किताब लेकर गुप्तचर ने हमारे कवि की किताब की चर्चा की। प्रकाशक दयालु भी था और सहयोगी भी। सारा फलसफा समझाया। बता दिया कि प्रकाशक लोग कविता की बहुत ज्यादा कापियां छापते हैं। थोड़ी बहुत नहीं पूरी साढ़े तीन सौ। इनमें से दो सौ सरकारी पुस्तकालयों में लग जाती हैं। सिर्फ तीस से पचास प्रतिशत कमीशन देना पड़ता है। वहां की दीमकें किताबें पढ़ती हैं फिर गुनती हैं और फिर क्रांति करती हैं। सारे पुस्तकालय उनकी क्रांति के दस्तावेज हैं। बाकी की सौ किताबें इधर-उधर बेच दी जाती है। बाकी की पचास किताबें रॉयल्टी के रूप में लेखक को मिल जाती हैं। जो समीक्षाएं लिखने, किताब पर चर्चा करने के काम आती हैं। यही पचास किताबें लेखक को महान् बनाती हैं। इन्हीं किताबों में जादू होता है। इनका पारस छूते ही कवि महान् युगदृष्टा और पता नहीं क्या-क्या बन जाता है। यही कविताएं देश में क्रांति करती हैं। पूरे देश को हिलाकर दख देती हैं।

गुप्तचर की समझ में सब आ गया। उसने महानता का तत्व जान लिया। वो जान गया था कि ये कमबख्त पचास किताबें और दस से भी ज्यादा श्रोता ही सरकार का तख्ता पलटते हैं। उसने रिपोर्ट भेज दी। सरकार के हाथ में रिपोर्ट आ गयी।

रिपोर्ट में क्या लिखा था। ये तो मालूम नहीं चला। मगर रिपोर्ट के कुछ दिनों बाद ही उस दुःशासन साहित्यकार ने सरकारी साहित्यकार का चोला ग्रहण कर लिया। अब वह कई सरकारी समितियों का सदस्य है। भाषण बड़े क्रांतिकारी लिखता है। कविता भी अच्छी करता है। फर्क इतना ही है कि पहले क्रांति कविताओं में होती थी, आजकल वह कॉफी के प्याले में है। लेकिन साब! क्रान्ति हो रही है। क्रांति होकर रहेगी। उसे कोई नहीं रोक सकता।