क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद और प्लेटोनिक प्रेम की अद्भुत दास्तान: लालरेखा / देवेंद्र

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बचपन में जिन लेखकों की किताबों ने हममें किताबें पढ़ने और फिर पढ़ी गयी किताबों पर बातें करने का व्यसन पैदा किया, उनमें सबसे ज्यादा महत्व कुशवाहाकांत के उपन्यास ‘लालरेखा’ का है। ‘लालरेखा’ कुशवाहाकांत की संभवतः सबसे ज्यादा बिकने और पढ़ी जाने वाली किताब थी। अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई की एक प्रमुख और महत्वपूर्ण धारा उन क्रान्तिकारियों की थी, जिसके शीर्ष पर चन्द्रशेखर आजाद थे। भगत सिंह से पहले तक जो सामाजिक चेतना की तुलना में क्रान्ति के लिए शौर्य और साहस को ही महत्वपूर्ण मानते चले आ रहे थे।

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम शौर्य और साहस की अनेक किंवदन्तियों से मिलजुल कर एक विराट मिथक के रूप में इन क्रान्तिकारियों को अजस्र प्रेरणा प्रदान करता था। अंग्रेजों ने यहां आकर कितने राजनीतिक और सामाजिक सुधार किए? रेल की लाइनें बिछाई। नहरों का जाल फैलाया। जिले स्तर पर न्यायपालिकाएं स्थापित कीं। प्रति वर्ष अंग्रेज भारत से लूटकर कितना माल अपने देश ले जाते थे? अर्थशास्त्रियों, इतिहासकारों और समाज सुधारकों की इन बकवासी बहसों को दर किनार कर क्रान्तिकारी लोग अंग्रेजी सत्ता को सिर्फ गुलामी के अपमानजनक कलंक की तरह देखते थे। आजादी उनके लेखे सिर्फ आर्थिक संपन्नता का मामला नहीं थी। यह उनके स्वाभिमान का मामला था। वे इसी रूप में 1857 को देखते थे। झांसी की रानी और तात्या टोपे को देखते थे। राणा प्रताप और शिवाजी की कहानियों से वे विशाल सत्ता से अनवरत टकराते रहने की प्रेरणा पाते थे। अंग्रेजों के क्रूर दमन से निरंतर जूझते-लड़ते इन क्रान्तिकारियों के भीतर आजादी के लिए मर मिटने की भावना रूमानी आवेग पैदा करती थी। कुशवाहाकांत की किताब ‘लालरेखा’ उसी क्रान्तिकारी धारा की बेहद रोचक और रोमांचकारी फैण्टेसी है।

‘लालरेखा’ का समूचा कथा विन्यास अद्भुत कल्पनाशीलता का सहारा लेकर क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद की भावनाओं पर तो बुना ही गया है, साथ ही इस उपन्यास में उस दौर के दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यासकार गुलशन नन्दा, रानू, प्रेम बाजपेई के गलदश्रु भावुकता भरे लिजलिजे प्रेमी की रुदन भरी उदासी के उबाऊ दुहराव भी नहीं हैं। उस दौर में लिखे जाने वाले इब्ने सफी बी.ए. और कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्यासों से ज्यादा रोमांचक कारनामे कुशवाहाकांत के इस उपन्यास में जगह-जगह गूंथे गए थे जिन्हें देखकर जासूसों के जासूस भी दांतों तले उंगली दबा लें। तमाम सारे जासूसी उपन्यासों से ज्यादा प्रभावशाली समर्थ और सक्षम रहस्यमयता और रोमांच से कुशवाहाकांत का उपन्यास ‘लालरेखा’ भरा पड़ा है।

जिन व्हीलर्स की दुकानों पर कभी कुशवाहाकांत के उपन्यास भरे होते थे आज वहां उनके निशान भी मिट चुके हैं। आज से लगभग पैंतीस-चालीस साल पहले ननिहाल जाते हुए मऊ बस अड्डे पर मैंने ‘लालरेखा’ खरीदी थी। यूं ही नहीं। कहीं कुछ बड़े लोगों की बातचीत में मैंने इस उपन्यास के बारे में सुन रखा था। किताब खरीदने के बाद वहीं बस अड्डे पर, कुछ देर तक बस की प्रतीक्षा करते हुए और शेष बस का सफर करते हुए, लगभग एक सांस में मैंने यह किताब पढ़ डाली थी। सोते हुए पूरी रात मुझे सपने में इसी उपन्यास के दृश्य दिखाई देते रहे। मेरे किशोर मन पर पहली बार किसी किताब का इतना मार्मिक और गहरा असर पड़ा था।

फिर तो उपन्यासों को पढ़ने का व्यसन धीरे-धीरे इस कदर बढ़ता गया कि कोर्स की पढ़ाई एक ओर धरी की धरी रह गयी। हमारे कस्बे में ऐसी किताबों की कोई दुकान न थी। एक से दूसरे हाथ घूमती, या फिर रिश्तेदारी में आए पढ़े-लिखे फैशनेबुल लोगों के पास से हम इन किताबों को बीच में ही झटक लेते थे। और फिर चोरी-चोरी पढ़ जाते थे। घर के बड़े-बुजुर्गों की नजर में ये किताबें आवारगी की पहली पगडंडी थीं। जैसे ताश खेलना। जैसे सिनेमा देखना। जैसे छुप-छुप कर बीड़ी पीना।

कुशवाहाकांत के उपन्यास हम खोज-खोज कर पढ़ते थे। मुझे नाम तो याद नहीं है। उनके किसी उपन्यास में रिक्शा खींचने वाले का चरित्र था। वह बनारस की गलियों का मशहूर छुरेबाज था। एक छुरेबाज के रूप में लोग उसके नाम से कांपते थे। लेकिन उसे पहचानते कम ही लोग थे। लोग अक्सर उसे मामूली रिक्शावाला समझ कर उसके साथ अपमान जनक व्यवहार करते। यहीं उसके छुरेबाजी का हुनर उसके श्रम को स्वाभिमान और गरिमा प्रदान करता था। जब मैंने बाद में प्रसाद जी की गुण्डा कहानी पढ़ी तो बनारस के परिवेश में कुशवाहाकांत का वह चरित्र बार-बार याद आता। दबंग और स्वाभिमानी।

सुभाषचन्द्र बोस के जीवन को आधार बनाकर भी कुशवाहाकांत ने ‘क्रान्तिकारी सुभाष’ नाम से जो गल्प लिखा उसमें उनके शौर्य और साहस को तो उचित ही महत्व दिया गया था, लेकिन साथ ही सुभाषचन्द्र बोस के जीवित होने की किंवदन्ती को अवैज्ञानिक, असंभव ढंग से प्रस्तुत किया गया था। यह संभवतः कुशवाहाकांत की सबसे कमजोर कृति थी। शौर्य या श्रृंगार की असंभव कल्पनाएं न रोमांच का सुख देती हैं न चमत्कार का कौतूहल। उनमें सिर्फ भाषा का भद्दा कण्ठ फुसफुसा कर रह जाता है। निश्चित तौर पर ‘लालरेखा’ ही उनका सबसे बेहतर प्रभावशाली, बिकने और पढ़ा जाने वाला उपन्यास था, जिसमें व्यक्तिवादी विद्रोह के शौर्य और साहस का सौन्दर्य चरम कल्पनाशीलता के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता है। ‘रेखा’ का चरित्र उस क्रान्तिकारी धारा के बीच स्त्री-पुरुष की गैर बराबरी को मिटाकर समानता का मिथकीय मानक प्रस्तुत करता है।

‘लालरेखा’ उपन्यास में लालचन्द एक क्रान्तिकारी नवयुवक है। बाकायदा क्रान्तिकारी दल का महत्वपूर्ण सदस्य। नगर का पुलस अधीक्षक शर्मा पूरी तरह अंग्रेज परस्त है। अंग्रेजों के प्रति अपनी वफादारी प्रमाणिक करने के लिए वह रात-दिन हाथ धोकर क्रान्तिकारी गतिविधियों के पीछे पड़ा रहता है। लोग उसे अंग्रेजों का कुत्ता और चाटुकार अधिकारी मानते हैं। शर्मा को अपनी इस छवि से गुरेज नहीं है। क्रान्तिकारी दल के लोग कई बार उस पर असफल जानलेवा हमला कर चुके हैं। रेखा उसी शर्मा की इकलौती बेटी है। स्निग्ध सौन्दर्य और शोख चंचल स्वभाव वाली रेखा पड़ोस में रहने वाले लालचन्द के यहां अवसर-अनवसर हर समय उपस्थित रहा करती है। क्रान्तिकारी लालचन्द की रहस्यमय गतिविधियों के लिए जो मुनासिब एकान्त चाहिए उसे वह किसी से मतलब न रखकर चुपचाप पढ़ाई करने वाले छात्र की छवि से मयस्सर करना चाहता है। बातूनी और शरारती रेखा गाहे-ब-गाहे अपनी उपस्थिति से लालचन्द के रहस्यमय एकान्त को तार-कार करती रहती है।

लालचन्द क्रान्तिकारी अवधारणाओं के अनुसार स्त्री रेखा से दूरी बनाए रखना चाहता है। दूसरे, वह शत्रु की बेटी भी है। लेकिन रेखा की उपस्थिति उसके आस-पास के समूचे वातावरण में घुलती और गहराती जाती है। दरअसल, रेखा लालचन्द से प्यार करती है। शायद लालचन्द भी। हालांकि उस दौर में, जहां क्रान्ति की अवधारणा ब्रह्मचर्य, त्याग, शौर्य और साहस के ताने-बाने से बुनी होती थी, वहां प्यार की कोमल नैसर्गिक भावनाओं के लिए आलिंगन या चुम्बन के दृश्य पूर्णतः वर्जित थे। उस क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद में ऐसे प्रेम की गुंजाइश कहीं नहीं होती। चन्द्रशेखर आजाद के समय तक प्रेम पथ भ्रष्ट होने की शुरुआत माना जाता था। ऐसे में लालरेखा का प्रेम मुंहलगी छोटी बहन की शरारतों के शिल्प में उभरता है। पूरी तरह ‘प्लेटोनिक।’ देह की सत्ता से परे। इतना पवित्र कि किसी किस्म का स्पर्श सुख उसे मैला बना सकता है। वह सिर्फ भाई-बहन के बीच की शरारतों और ममत्व भरी आत्मीयता के नाना शिल्प में झिलमिलाता रहता है। उपन्यास में लालरेखा का प्रेम अन्त तक ऐसे ही धड़कता रहता है।

लालचन्द को किसी गुप्त मिशन का निर्देश देने के लिए क्रान्तिदल का सरदार रहस्यमय छाया की तरह आता रहता। वह हर बार वेश बदल लेता है। क्रान्तिदल का कोई सदस्य उसे पहचानता नहीं है। उसका नाम क्या है? वह कहां का रहने वाला है? वह और क्या करता है? वह अंग्रेजों का दुश्मन तो है लेकिन देश, दुनिया और समाज के बारे में क्या सोचता है? दल के किसी सदस्य को उसके बारे में कुछ नहीं मालूम। सिवा यह कि सरदार अन्यायपूर्ण सत्ता को पल-पल चुनौती देने वाला अक्षय शक्ति का प्रतीक है। दल के सदस्यों से मिलते समय सरदार अपनी दायीं आंख के थोड़ा ऊपर हाथ की उंगली से अपना माथा खुजलाता है। इसी संकेत से दल के सदस्य उसे पहचानते और निर्देश प्राप्त करते हैं। बचपन में चेचक की वजह से चन्द्रशेखर आजाद की आंख के ऊपर माथे पर गड्ढा नुमा छोटा सा दाग था। चन्द्रशेखर आजाद की जीवनी में मैंने ऐसा कहीं पढ़ा है कि बचपन में उनकी मां उनके उस दाग को अक्सर सहलाया करती थीं। सरदार लालचन्द को बार-बार इस बात की हिदायत देता कि शत्रु की बेटी का हर समय तुम्हारे घर में बना रहना अच्छा नहीं है। लेकिन रेखा मानती ही नहीं। वह तो उल्टे सरदार को लेकर भी लाल से चुहल करती। जब भी सरदार आता रेखा लालचन्द को उसका एकान्त सौंपकर घर के बाहर चली जाती। एक दिन तो वह हद ही कर देती है, जब सरदार लालचन्द से मिलने आता है। घर से बाहर निकलते हुए रेखा सरदार को देखकर स्निग्ध शरारतों के साथ उसकी आंखों में आंखें डालकर अपनी आंख के ऊपर माथे के पास खुजलाते हुए बाहर निकल जाती है। सरदार, जिसके रहस्य को पुलिस के आला अधिकारी और बड़े-बड़े जासूस छू नहीं सके थे, उसका गुप्त और खास संकेत रेखा की पकड़ में आ चुका था। सरदार भौचक। लालचन्द रेखा की ऐसी हरकतों से चिढ़ जाता। लेकिन वह थी ही ऐसी शरारती जिसके सामने किसी किस्म का क्रोध, कठोरता या अनुशासन ज्यादा देर टिक नहीं पाता।

हंसोड़, गप्पी और आकर्षक व्यक्तित्व वाली रेखा क्रान्तिकारियों की रहस्यमय जीवन पद्धति और कठोर अनुशासन की गुरुता को भंग करते हुए सहज और सरल जीवन का स्वच्छन्द संगीत रचती है। इसी तरह रहते हुए अवैध और अनाहूत ढंग से वह क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा भी लेने लगती है। कई बार रात अंधेरे में लालचन्द अपने गुप्त मिशन पर जाते हुए उस समय ऐन मौके पर रेखा को अपने करीब पाता है, जब वह पुलिस के हाथों पकड़े जाने को होता है। रेखा उसे बचा लेती है। एक दिन लालचन्द मारा जाता है और उसी के साथ रेखा पकड़ी जाती है। जाहिर है इस घटना की वजह से एस.पी. शर्मा की बहुत बेइज्जती होती है। अंग्रेजों की नजर में उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे होंगे, यह सोचकर वह सकपका गये थे। पुलिस सुपरिटेन्डेन्ट शर्मा अपनी स्वामिभक्त प्रमाणित करने के लिए रेखा को दी गई सजा में ‘गोली मारने का आदेश’ खुद अपने प्रयास से स्वयं पा लेते हैं।

क्रान्तिदल का सरदार, जिसकी रहस्यमयी छाया को पुलिस के आला अधिकारी, सरकारी जासूस या खुद उसके दल का कोई सदस्य छू तक नहीं सका था, अब वह रेखा की बहादुरी के समक्ष श्रद्धावनत नजर आता है। शताब्दियों से संचित क्रान्तिकारियों की स्त्री सम्बन्धी अवधारणा यहां तक आते-आते टूट बिखर जाती है। जब आप एक बड़े उद्देश्य को चुनते और उसकी ओर बढ़ते हैं तो ढेर सारे छोटे-छोटे प्रश्न अपने आप सुलझते चले जाते हैं। पूरे उपन्यास में रेखा स्त्री स्वतन्त्रता या समानता के प्रश्नों पर ऐय्याशी भरी बौद्धिक जुगाली कहीं नहीं करती है। सजा के घटनाक्रम तक आते-आते वह पूरे उपन्यास के कथानक पर छा जाती है। किसी स्त्री चरित्र का इतना प्रभावशाली चित्रण किसी साहित्यिक-गैरसाहित्यिक कृति में उस उपन्यास से पहले या फिर उसके बाद देखने को मिला हो, मुझे याद नहीं। जाहिर है यह कहते हुए मुझे प्रसाद जी की धु्रव स्वामिनी, कामायनी की इड़ा, गोदान की मालती, गणदेवता की दुर्गा, शरतचन्द्र की पारो और यशपाल के ढेर सारे स्त्री चरित्र एक साथ याद आ रहे हैं। आज से लगभग चालीस साल पहले पढ़े गए उपन्यास ‘लालरेखा’ पर लिखते हुए मैं याद करता हूं कि कैसे कथानक के इस बिन्दु तक आते-आते पाठक की सांस थम सी जाती है।

शहर के बड़े मैदान में खुलेआम क्रान्तिकारी रेखा को अंग्रेजों के वफादार पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट और पिता शर्मा के हाथों गोली मारा जाना है। जहां तक मुझे याद है, गोली मारे जाने से पहले उस खूबसूरत और चंचल लड़की रेखा की बातूनी, शरारती आंखों में जलती सलाखों से सुराख कर दिया जाता है। उस दौर में स्त्री सौन्दर्य नितम्बों या कुचों के उभार में नहीं, आंखों की स्निग्ध वाचालता में ही मोहक होता था। जनता की भीड़ मैदान के चारों तरफ दूर-दूर तक फैली है। लोग अंग्रेजों के चाटुकार एस.पी. शर्मा की बहादुर बेटी को देखने आये हैं। वह सबकी हीरो हैं। रेखा भीड़ से घिरे मैदान के एकान्त में कुछ क्षण के लिए अपने पिता से मिलना चाहती है। शायद मृत्युदण्ड से पहले मुल्जिम की आखिरी इच्छा पूरी करने की किंवदन्ती के अनुसार। वहीं रेखा अपनी चिर-परिचित वत्सल और अल्हड़ चंचलता के साथ पिता से पूछती है-‘‘पापा, अब आपका सिर नहीं खुजलाता?’’ शुरू से आखिर तक पूरे उपन्यास पर छाये रहस्य का अचानक एक साथ पटाक्षेप होता है।

उपन्यास में मौजूद कोई नहीं, सिर्फ पाठक यह जान पाता है कि क्रान्तिकारियों का सरदार और कोई नहीं एस.पी. शर्मा ही है। एस.पी. शर्मा का दो अलग-अलग और एक-दूसरे का पूर्णतः विरोधी व्यक्तित्व। दिन के क्रूर, कठोर और दमनकारी उजाले पर रात का पारदर्शी रहस्य आत्मीय छांव बनकर छा जाता है। रहस्य खुलते ही दुःखान्त के चरम पर उम्मीद की किरणें फूटने लगती हैं।

कुशवाहाकांत जिस श्रेणी के उपन्यासकार थे उस तरह के उपन्यासकारों के जीवन के बारे में न तो हमें कहीं पढ़ाया जाता है और न हम जान पाते हैं। सस्ते मनोरंजन के लिए लिखे गए व्यावसायिक और बाजारू कहे जाने वाले इन उपन्यासों के किसी साहित्यिक और सामाजिक सरोकार की कभी पड़ताल नहीं की जाती है। इन उपन्यासों के माध्यम से सामाजिक या राजनीतिक यथार्थ को समझने के लिए किसी आलोचक ने आलोचनाएं भी नहीं लिखी हैं, न ही ये किताबें अपनी ख्याति के लिए किसी आलोचक की मुंहताज होती हैं। अपने वजूद के बल पर ये बाजार में टिकी होती हैं। पाठकों की अदालत में निरस्त तो निरस्त। ‘लालरेखा’ के छोटे-छोटे वाक्य। क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद का साहस भरा आख्यान। घटनाक्रमों में अविराम गतिमयता। क्रान्तिदल के सरदार की गाहे-ब-गाहे उभरती रहस्यमयी छायाकृति और सबसे बड़ा खिलन्दड़ी रेखा के स्निग्ध चंचल संवाद। इन सबसे रचा बसा यह उपन्यास उस दौर में लिखे जाने वाले गुलशन नन्दा, रानू या प्रेम बाजपेई के उपन्यासों से सघन प्रभाव छोड़ता है।

इण्टरमीडिएट तक कुल छः-सात वर्षों में हमने सैकड़ों के आस-पास उपन्यास पढ़े होंगे। आज उनमें शायद ही किसी के बारे में कुछ याद हो। मैं नहीं कह सकता कि कुशवाहाकांत आजादी के पहले या बाद के दौर के उपन्यासकार हैं। लेकिन तब हमें किसी ने बताया था कि अंग्रेजी राज में ‘लालरेखा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। आज मुझे उनके समय और इस सच्चाई को लेकर संदेह है। अनुमान यही है कि शायद यह आजादी के बाद की रचना है। इस बात से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हमारे साथ पढ़ने वाले मुन्नालाल वर्मा की कोई रिश्तेदारी कुशवाहाकांत के यहां थी। उसी ने बताया था कि होली के दिन किसी परकीया प्रसंग में किसी ने छुरा मारकर उनकी हत्या कर दी थी। इससे ज्यादा मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता।

इस उपन्यास की लोकप्रियता को देखकर कुशवाहाकांत के छोटे भाई जयंत कुशवाहा ने पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट शर्मा का आधार लेकर उसी कड़ी में ‘बारूद’, ‘क्रान्तिदूत’, ‘कफन’ और ‘जनाजा’ नाम से चार उपन्यास और लिखे। ये उपन्यास भी खूब बिके लेकिन इनमें ‘लालरेखा’ वाली बात नहीं थी। बी.ए. में पढ़ने के लिए जब मैं बनारस गया तो एक दोपहर जयंत कुशवाहा से मिलने उनके कबीरचौरा स्थित चिंगारी प्रकाशन गया। मैंने पहले से कोई समय नहीं लिया था। उन्होंने मुझे खास तवज्जो नहीं दी। अपने पाठकों से मिलकर अपनी ही रचना पर बतियाने का साहित्यकारों जैसा रोग शायद उस श्रेणी के उपन्यासकारों में नहीं होता है।

उन दिनों हमारे गांवों में एक नक्सलवादी नवयुवक अक्सर आया करता था। एक दिन मैंने चुपके से उसका बैग खोलकर देखा। उसमें रिवाल्वर जैसी कोई चीज नहीं थी। हां कुछ किताबें और उस अखबार की कुछ प्रतियां थीं, जिन्हें शहर में छाप कर वह गांव के लोगों के बीच बांटा करता था। मुझे निराशा हुई। ये आजादी के बाद के दौर के नये किस्म के क्रान्तिकारी थे। साहस और संकल्प के साथ सामाजिक चेतना का महत्व इनमें बढ़ गया था।

उस नक्सलवादी नवयुवक ने ही मुझे पहली बार गोर्की का ‘मां’ उपन्यास पढ़ने के लिए दिया। फिर तो यशपाल का ‘दादा कामरेड’, ‘तेरी मेरी उसकी बात’, भगवतीचरण वर्मा का ‘प्रश्न और मरीचिका’, ताराशंकर वन्द्योपाध्याय का ‘गणदेवता’ फिर हावर्डफास्ट के उपन्यास हमने पढ़े। उसी समय ताजा-ताजा छपकर आयी मेरी टाइलर की ‘भारतीय जेलों में पांच साल’ हमने पढ़ी। फिर तो नये किस्म की किताबों से परिचय होने लगा। उस नक्सलवादी ने चुपके से हमारी ‘टैªक’ बदल दी। हम किताबों की दुकान पर जाते तो वैसी किताबों की ओर अब कभी ध्यान ही नहीं जाता।

जब राजेन्द्र यादव ने मुझसे कुशवाहाकांत पर लिखने के लिए कहा तो तत्काल मेरे दिमाग में ‘लालरेखा’ कौंध गयी। मेरे किशोरावस्था की सबसे प्रिय पुस्तक। व्हीलर की दुकान पर कुशवाहाकांत की किताबें कहीं नहीं मिलीं। शायद इतनी ही उन किताबों की उम्र होती है। प्रेमचन्द या यशपाल के उपन्यास अभी भी हर जगह मिल जाते हैं। जो बाजार के बल पर समय के एक खास हिस्से को जकड़ कर अपने रंग में रंगने की चेष्टा करते हैं, समय उन्हें मैल की तरह उतार कर फेंक देता है। और वे किताबें जो समय की धड़कन से अपना संगीत रचती हैं, समय उनके संगीत को सहेज कर देर तक और दूर तक उनमें अपना सुख-दुख सुनता रहता है। वैसी रचनाओं में ही कालातीत होने की गुंजाइश बनी रहती है। इस बाजार के कई अक्स हैं। सिर्फ वही नहीं जो व्हीलर की दुकानों में दिखता है। हिन्दी आलोचकों के यहां भी इसे तमाम तरह के जोड़-तोड़ में देखा जा सकता है।

लेकिन यह तय है कि कोर्स से ज्यादा उन किताबों ने लेखक बनने में योगदान दिया है। वे एक ऐसे बीज की तरह साबित हो रही हैं जिनके भीतर अंकुरण की संभावना भरी होती है। लेकिन अंकुर के विकसित होने की प्रक्रिया में बीच का कठोर आवरण टूट बिखर कर सड़ जाता है। वैसे लेखन को स्वस्थ साहित्यिक लेखन का विरोधी माना जाता रहा है। लेकिन तब शायद बहुत दिनों तक दूर-दूर गांवों में किताबें पढ़ने की परम्परा उन्हीं के कारण बची हुई थीं। कुशवाहाकांत की ‘लालरेखा’ का इस परम्परा में शायद सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है।