क्रिकेटकाल में हू तू तू करता दिल / जयप्रकाश चौकसे

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क्रिकेटकाल में हू तू तू करता दिल
प्रकाशन तिथि : 20 मई 2013


शैलेश वर्मा की फिल्म 'बदलापुर बॉयज' में एक छोटे कस्बे के युवा लड़कों की कबड्डी की टीम शहर में होने वाली स्पद्र्धा में इनाम जीतना चाहती है और इस टीम के कोच हैं अन्नू कपूर, जिन्होंने 'विकी डोनर' को अपने अभिनय से यादगार फिल्म बना दिया है। याद आता है, कोई पांच दशक पूर्व बुरहानपुर जैसे छोटे शहर में एक कबड्डी प्रतियोगिता रात आठ बजे शुरू होती थी, जिसमें अमरावती, जलगांव, भुसावल, खंडवा इत्यादि शहरों की टीमें आती थीं। रात में क्रिकेट शुरू होने के दशकों पूर्व रात में कबड्डी का आयोजन किया जाता था। यह सात दिवसीय प्रतियोगिता होती थी और प्रतिदिन दो मैच होते थे। इस प्रतियोगिता में हजारों रुपयों के नगद इनाम होते थे, जो आयोजक चंदा इक_ा करके प्राप्त करते थे और दर्शकों से कोई पैसा नहीं लिया जाता था।

उन दिनों इस तरह की कबड्डी प्रतियोगिता अनेक छोटे शहरों में आयोजित होती थी। उन दिनों ही दिलीप कुमार अभिनीत भव्य फिल्म 'गंगा-जमना' में दो गांवों के बीच एक कबड्डी मैच गांव की इज्जत के लिए खेला जाता है और इसे इस तरह रोमांचक ढंग से फिल्माया गया था कि सिनेमाघर में दर्शक सांस रोककर यह दृश्य देखते थे। दिलीप कुमार ने यह कबड्डी उतनी ही रोचक ढंग से फिल्माई थी, जितनी रोचक फिल्म 'बेनहर' में चैरियट रेस फिल्माई गई थी।

एक दौर में देशी खेल खूब रुचि से खेले जाते थे। उस जमाने में स्कूलों के हॉकी और क्रिकेट के फाइनल देखने शहर के अनेक लोग पहुंचते थे। सिनेमा बहुत बड़ा आकर्षण था, परंतु वह मनोरंजन का एकमात्र साधन नहीं था। लोग सर्कस भी देखते थे, रंगमंच में भी रुचि रखते थे। यहां तक कि कॉलेज की वाद-विवाद प्रतियोगिता भी आकर्षण का केंद्र होती थी। गांवों में तीज-त्योहार पर मेले लगते थे, जिनमें मोटर साइकिल का 'मौत का कुआं' नामक खेल भी दिखाया जाता था। इन मेलों में टूरिंग टॉकीज भी आती थीं।

विगत बीस वर्षों में भारत में परिवर्तन की गति अत्यंत तीव्र रही है और मनोरंजन परिदृश्य भी बदला है। टेलीविजन के कारण रुचियों में परिवर्तन हुए हैं। क्रिकेट को बड़ा व्यवसाय बनाने में टेलीविजन का योगदान बहुत बड़ा है। परिवर्तन की लहरों ने अनेक कलाओं और खेलों को नष्ट कर दिया है। आज कबड्डी की इनामी प्रतियोगिता शायद ही किसी शहर में आयोजित की जाती हो। अमिताभ बच्चन अभिनीत एक बंगाली फिल्मकार द्वारा बनाई अंग्रेजी भाषा में बनी फिल्म में सर्कस के कलाकारों के जंगल की ओर पलायन के दर्द की दास्तां भी प्रस्तुत की गई थी। फिल्म की प्रेरणा उत्पल दत्त के नाटक 'आखिरी शाहजहां' थी, परंतु फिल्म का नाम 'द लास्ट लियर' था। हेनरी डेन्कर का उपन्यास 'द डायरेक्टर' शायद छठे दशक में प्रकाशित हुआ था और यह उत्पल दत्त के नाटक तथा 'द लास्ट लियर' दोनों की ही वैचारिक गंगोत्री है।

बहरहाल, परिवर्तन की पकड़ में फंसे हुए अवाम के जीवन पर साहित्य और सिनेमा दोनों में बहुत काम हुआ है। गुलशेर खान 'शानी' की 'काला जल', राही मासूम रजा की 'आधा गांव', श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' इत्यादि। परिवर्तन हमेशा होते रहे हैं, परंतु टेक्नोलॉजी ने इनकी गति इतनी कर दी है कि समाज अपने को संभाल नहीं पा रहा है। प्रगति का रोलर कोस्टर इतनी ऊंची-नीची और आंकी-बांकी जगहों से गुजरता है कि मनुष्य अस्थिर हो जाता है। पुरातन के प्रति मोह स्वाभाविक है और नए का स्वागत भी अनिवार्य है। ऐसे समय में संतुलन बनाए रखना कठिन होता है।

'बदलापुर बॉयज' की कथा का कोच संभवत: शिमित अमीन की 'चक दे इंडिया' से प्रेरित है और कबड्डी के द्वारा गरीब की अमीर पर जीत आमिर खान और आशुतोष गोवारीकर की फिल्म 'लगान' से प्रेरित हो सकती है। इस फिल्म से कबड्डी के पुनरुद्धार की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि आज बाजार और विज्ञापन के सहयोग के बिना कोई ब्रांड स्थापित नहीं हो सकता। एक संस्था आईपीएल की तर्ज पर हॉकी और फुटबॉल प्रतियोगिता प्रारंभ करना चाहती है, परंतु कोई भी सैटेलाइट चैनल उनका प्रदर्शन नहीं करना चाहता, क्योंकि उनकी मार्केटिंग टीम का कहना है कि प्रायोजक खोजना संभव नहीं। क्रिकेट के नशे ने सभी खेलों को गौण कर दिया है। पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाडिय़ों को बहुत दुख है कि उन्हें भारत के खिलाडिय़ों की तरह विज्ञापन फिल्में नहीं मिलतीं और उनका बोर्ड भी इतना अमीर नहीं कि उन्हें खूब धन दे सके। भारत का बोर्ड शायद संसार की सबसे अधिक धनाढ्य संस्था है और वह संस्थाउन लोगों के हाथ में है, जिन्होंने कभी क्रिकेट नहीं खेला। हमारे देश में कपिल देव, सुनील गावसकर, बिशन सिंह बेदी, सौरव गांगुली, मोहिंदर अमरनाथ इत्यादि अनुभवी निष्णात खिलाड़ी हैं, परंतु बोर्ड पर उनका कोई अधिकार नहीं है। बस, उनकी तस्वीरें बोर्ड के दफ्तर में लगी हैं। मूर्तियों और तस्वीरों की पूजा राष्ट्रीय शगल है। यह कानाफूसी की जा रही है कि अनेक शीर्ष खिलाड़ी मैच फिक्सिंग में शामिल हैं और बोर्ड उन्हें बचाने की चेष्टा कर रहा है। यहां क्रिकेट का अर्थ रिश्तेदारों को बचाना है। बहरहाल, टेक्नोलॉजी और बाजार की ताकतों में इतना जोर नहीं कि विगत की यादें ही मिटा दे।