क्रिकेट के जन्म की लोककथा / कांति कुमार जैन
उस समय मुझे यह पता नहीं था कि जिसे सारी दुनिया क्रिकेट के नाम से जानती है, वह हम बैकुंठपुर के लड़कों का पसंदीदा खेल रामरस है. ओडगी जैसे पास के गांवों में रामरस को गढ़ागेंद भी कहते थे, पर सिविल लाइंस में रहनेवाले हम लोगों को रामरस नाम ही पसंद था. रामरस यानी वह खेल, जिसे खेलने में राम को रस आता था. अब आप यह मत पूछिएगा कि राम कौन? अरे राम-राजा राम, अयोध्या के युवराज, त्रेता युग के मर्यादा पुरुषोत्तम दशरथनंदन राम. मुझे राम और रामरस के सम्बंधों का पता नहीं था. वह तो अचानक ही खरबत की झील के किनारे मुझे जगह-जगह पर पत्थर के रंगबिरंगे गोल टुकड़े पड़े मिले- टुकड़े क्या- बिल्कुल क्रिकेट की गेंद जैसे आकार वाले ललछौंहे रंग के पत्थर. खरबत झील से लगा हुआ खरबत पहाड़ है. बैकुंठपर से कोई सात मील यानी लगभग चार कोस दूर. इतवार की सुबह हमने तय किया कि आज खरबत चला जाए, वहीं नहाएंगे, तैरेंगे और झरबेरी खाएंगे. हम लोगों ने यानी मैंने और जीतू ने, जीतू मेरा बालसखा था. मेरे हरवाहे का लड़का- हम उम्र, हम रुचि. साइकिल थी नहीं तो हम लोग पैदल ही खरबत नहाने निकले. रास्ता सीधा था. छायादार. पास के गांव यानी नगर के तिगड्डे से बिना मुड़े सीधे सामने चले चलो. खरबत की झील आ जाएगी. सामने पहाड़, हरा-भरा जंगल. खरबत की झील का जल इतना पारदर्शी और निर्मल था कि चेहरा देख लो. हम लोगों ने निर्मल जल में सिर डुबोया ही था कि टकटकी बंध गयी. जल में यह किसका प्रतिबिम्ब है? आईने में अपने चेहरे का प्रतिबिम्ब तो रोज़ ही देखते थे, पर वह चेहरा इतना सुंदर और मनोहारी होगा, यह कभी लगा ही नहीं. वह तो अच्छा हुआ कि उस समय तक मैंने नारसीसस की कथा नहीं पढ़ी थी अन्यथा मैं अपना प्रतिबिम्ब छूने के लिए नीचे झुकता और कुमुदिनी बनकर खरबत झील में अब तक डूबा होता. झील में कुमुदिनी के फूलों की कमी नहीं थी- कुमुदिनी को वहां के लोग कुईं कहते अर्थात मुझसे पहले भी मेरी वय के लड़के वहां पहुंचे थे, उन्होंने जल में अपना प्रतिबिम्ब निहारा था और इस प्रतिबिम्ब को छूने या चूमने के लिए नीचे झुके थे और गुड़प-उनकी वहां जल समाधि हो गयी होगी और कालांतर में वहां कुईं का फूल उग आया होगा.
कभी-कभी अज्ञान भी कितना लाभदायी होता है. असल में कुईं के फूलों की तुलना में खरबत की झील और खरबत पहाड़ के बीच के मैदान में ललछौहें रंग के जो गोल-गोल पत्थर पड़े थे, उनमें हम लोगों का मन ज्यादा अटका हुआ था. समझ में नहीं आया कि इतने सारे पत्थर, वह भी एक ही रंग के सारे मैदान में क्यों बिखरे हैं. एक पत्थर उठाया, देखा वह मृदशैल का था- रंध्रिल, हल्का, स्पर्श-मधुर. इतने में वहां से एक बुड्ढा गुजरा. मैंने उसे बुड्ढा नहीं कहा. कहा- सयान, एक गोठ ला तो बता. सयान कहने से वह बुड्ढा खुश हो गया, उसे लगा कि हम उसे सम्मान प्रदान कर रहे हैं. वह रुका- बोला, ‘नगर के छौंड़ा हौ का?’
हम लोग बैकुंठपुर के लड़के थे, बैकुंठपर रियासत की राजधानी थी, उसे सभी कोरियावासी नगर ही कहते थे. उसने- सयाने, अनुभवी पुरुष ने हमें बताया कि खरबत पहाड़ पर गेरू की खदाने हैं. ज़ोर की हवा चलती है तो वहां के पत्थर लुढ़कते हुए नीचे आते हैं, गेरू से लिपटे हुए. इतने ज़ोर की आंधी और शिखर से तल तक आने में इतनी रगड़ होती है कि पत्थरों के सारे कोने घिस जाते हैं और पत्थर बिल्कुल गोल बटिया बन जाते हैं. वह बैठकर वहीं चोंगी सुलगाने लगा. रसई के पत्ते की चोंगी में उसने माखुर भरी, टेंट से चकमक पत्थर निकाला, बीच में सेमल की रुई अटकायी और पत्थरों को रगड़ा ही था कि भक्क से आग जल गयी. दो- चार सुट्टे ही लिये होंगे कि उसकी कुंडलिनी जाग्रत हो गयी. अब उसके लिए न काल की बाधा थी, न स्थान की. काहे का कलयुग, काहे का द्वापर. मैंने जीतू से कहा कि यार, नहाएंगे बाद में, पहले इन गोल-गोल गेदों को बीनो और झोले में भर लो- जितनी आ जाएं. ‘कांति भैया, अपन इन टुकड़ों का करेंगे क्या?’ मैं बोला- ‘करेंगे क्या, इन पर साड़ी की किनारी लपेटेंगे, चकमकी मिट्टी का पोता फेरेंगे और रामरस खेलेंगे.’ रामरस सुनना था कि छत्तीसगढ़ का वह सयाना चैतन्य हुआ, उसने अपनी चोंगी से इतने ज़ोर का सुट्टा लिया कि लौ तीन बीता ऊपर उठ गयी. शायद वह त्रेता युग में पहुंच गया था. वह राम-लक्ष्मण को रामरस खेलते देख रहा था. इतने में एक सारस आया, वह हम लोगों से थोड़ी दूर पर एक टांग के बल खड़ा हो गया, उद्ग्रीव. ठीक वैसे ही जैसे कोई दर्शक क्रिकेट मैच में खिलाड़ी को बैटिंग करते देख रहा हो. ‘ध्यानावस्थित, तदगतेन मनसा.’
हम लोग उस सयाने के पास बैठ गये. वह सयाना सचमुच सयान था, सज्ञान, सुजान. हमें लगा कि वह सदैव से सयाना था, न कभी वह बालक रहा था, न तरुण, जैसा वह त्रेता में था, वैसा ही आज भी है. वह चोंगी का एक कश लेता, सरई के पत्ते की मोटी बीड़ी से लौ उठाता और एक युग पार कर लेता. तीसरे कश में तो वह जैसे राम के युग में ही पहुंच गया. कहने लगा कि राम, सीता और लखन भैया वनवास मिलने पर चित्रकूट से सीधे खरबत आये. सीधे अर्थात चांगभखार के रास्ते से, जनकपुर, भरतपुर होते हुए. खरबत की झील देखकर सीता ने ज़िद पकड़ ली- बस, कुछ दिन यहीं रहूंगी. कहां रहोगी, न यहां कंदरा, न गुफा. न मठ, न मढ़ी. लखन भैया ने कोई बहस नहीं की. अपनी धनुही उठायी, कांधे पर तूणीर टांगा और खरबत पहाड़ी की टोह लेने निकल गये. जिन खोजा तिन पाइयां. बड़के भैया और भाभी वहां झील तीरे चुपचाप बैठे थे. राम कह रहे थे- थोड़ा आगे चलो, सरगुजा में एक बोंगरा है. लम्बी खुली गुफा. वह स्थल भी बड़ा सुरम्य है. वहां के निवासी भी बड़े अतिथि-वत्सल हैं, पर सीताजी रट लगाये बैठी थीं- खरबत, खरबत. लक्ष्मण ने लौटकर अग्रज को बताया कि यहां से कोसेक की दूरी पर तीन गुफाएं प्रशस्त हैं, स्वच्छ हैं, जलादि की सारी सुविधाएं हैं. हम लोग चातुर्मास यहीं बिता सकते हैं. तो ठीक है, भाभी को ले जाओ, दिखाओ, उन्हें पसंद आती है तो हम लोग चार महीने यहीं रहेंगे. गुफाओं को देखकर सीताजी प्रसन्न हो गईं। उन्हें अपने मायके मिथिला की याद आई। ऐसी ही हरीतिमा, ऐसा ही प्रकाश, ऐसा ही मलय समीर. ‘लखन भैया, तुम इस गुफ़ा में रहना, यहाँ मेरा रंधाघर होगा.’ सीताजी ने वहाँ की रसोई को रसोई न कहकर त्रियों की तरह रंधनगृह कहा. ‘यह गुफा थोड़ी बड़ी है- इसमें हम दोनों रहेंगे.’ राम ने भी गुफाओं को देखकर सीताजी के मत की पुष्टि की. चतुर पतियों की तरह. ‘चलो, यहां सीता का मन लगा रहेगा.’ खरबत में राम-परिवार के चार माह बड़े आराम से कटे. विहान स्नान-ध्यान में कटता, प्रातः जनसंपर्क के लिए नियत था. त्रियां भी आतीं, पुरुष भी. मध्याह्न में दोनों भाई आखेट के लिए निकल जाते. यही समय फल-फूल, कंदमूल के संचय का होता. आखेट से लौटने के बाद वे क्या करें? एक सांझ लखनलाल ने दादा से कहा- ‘दादा, शाम को हम लोग कोई खेल खेलें.’ ‘क्या खेल खेलें?’ लक्ष्मण बड़े चपल, बड़े कौतुक प्रिय, बड़े उत्साही. बोले- ‘खरबत पहाड़ के नीचे जगह-जगह गोल-गोल पत्थर पड़े हुए हैं- ललछौंहे रंग के, बिलकुल कंदुक इव. मैं कल भाभी से उनकी सब्जी काटने का पहसुल मांग लूंगा और उससे महुआ की छाल छील लाऊंगा. महुआ की छाल यों ही लसदार होती है. खूब कसकर पाषाण कंदुक पर लपेटेंगे तो एक आवेष्टन बन जाएगा. उससे चोट नहीं लगेगी.’
दूसरे दिन लखन सचमुच मधूक वृक्ष का वल्कल ले आये. ललछौंहे पाषाण खंड पर मधूक वल्कल का वह एक आवेष्टन ऐसे चिपका कि गेंद और परिधान का अंतर ही मिट गया. राम को एक उपाय सूझा. उन्हें याद आयी कि सीता के पास एक पुरानी साड़ी है. उसकी किनारी बड़ी सुंदर है- चमकीली. गोटेदार. यदि उस किनारी को मधूक आवेष्ठन पर लपेट दिया जाए तो गेंद के आघात का कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा. लखनलाल को अब कंदुक क्रीड़ा की कल्पना साकार होती हुई लगी. लखन पास के ही एक गर्त से चकमिकी मिट्ठी उठा लाये. चकमिकी यानी चकमक वाली. बैकुंठपुर में नदी-नालों की सतह पर जो चकमिकी मिट्टी दिखाई पड़ती है, वह और कुछ नहीं, अभ्रक है.
लखन की लायी हुई अभ्रक में गेंद को लिथड़ाया जा रहा है. सीता देखकर हंस रही हैं- ‘अरे, ये काम तुम लोगों के नहीं हैं, तुम लोग तो तीर-धनुष चलाओ.’ वह सरई के पत्तों की चुरकी में झील से थोड़ा-सा जल भर लायी हैं. अभ्रक पर उन्होंने जल सिंचन किया है. थोड़ा-सा जल अपनी हथेलियों में लेकर गेंद को भी आर्द्र किया है. अरे, गेंद तो अब चमकने लगी है. अब अंधेरा भी होये तो गेंद गुमेगी नहीं, दिखती रहेगी. खेल के नियम तय किये जा रहे हैं. राम ने सात खपड़ियों को लेकर तरी ऊपर जमा लिया है- खपड़ी यानी खपरे के टुकड़े, तरी ऊपर यानी नीचे-ऊपर. राम ने उन सात खपड़ियों की सुरक्षा का भार स्वतः स्वीकार किया है यानी बल्लेबाजी. लखनजी को गेंद ऐसे फेंकनी थी कि सात खपड़ियों वाला स्तूप ढह जाए. राम जी सावधान-सतखपड़ी के सामने ऐसी वीर मुद्रा में खड़े होते कि लखनजी को लक्ष्य पर आघात का मौका ही नहीं मिलता. इधर लखनजी ने गेंद फेंकी, उधर रामजी ने उस गेंद को ऐसे ठोका कि कभी सामने खड़े आंवले के तने से टकराती, कभी दायें फैली खरबत पहाड़ी की तलहटी से. कभी-कभी तो रामजी अपना बल्ला ऐसे घुमाते कि गेंद खरबत झील का विस्तार पार कर उस पार. अब लखनजी गेंद के संधान में लगे हैं. दिन डूब जाता, सूर्यदेव अस्त हो जाते. दोनों भाई गुफा में वापस लौटते. क्लांत. भाभी देवर से मज़ाक करती- ‘आज फिर दिनबुड़िया. दिनबुडिया यानी दिन डूब गया है और तुम दांव दिये जा रहे हो.’ लखन कहते- ‘भाभी, भैया ने बहुत दौड़ाया. बल्ला ऐसे घुमाते हैं कि जैसे उनके बल्ले में चुम्बक लगा हो, गेंद कैसे भी फेंको, भैया, उसे धुन ही देते हैं.’ दो-एक दिन तो ऐसे ही चला, फिर सीताजी ने मध्यस्थता की. उन्हें देवर पर दया आयी- ‘कल से तुम दोनों बारी-बारी से कंदुक बाजी और बल्लेबाजी करोगे. मैं तुम दोनों भाइयों का खेल देखूंगी. कोई नियम विरुद्ध नहीं होना चाहिए.’
रामजी को मर्यादा का बड़ा ध्यान रहता है. ये मर्यादा पुरुषोत्तम यों ही तो नहीं कहलाते. फिर सीताजी जैसी निर्णायक. खेल में वे कोई पक्षपात नहीं करतीं. गोरे देवर, श्याम उन्हीं के ज्येष्ठ हैं. फिर दर्शक दीर्घा में सारस भी तो हैं- एक टांग पर खड़े क्रीड़ा का आनंद उठाते हुए. निर्णय देने में ज़रा-सी चूक हुई कि सारस वृंद क्रीं-क्रीं करने लगता है. रामरस की ऐसी धूम मची कि खरबत के आदिवासी युवा तो वहां समेकित होने ही लगे, बैकुंठपुर, नगर, ओड़गी के तरुण भी खेल देखने के लिए एकत्र हो रहे हैं. चतुर्दिक रामरस का उन्माद छाया हुआ है. राम के परिवार में आनंद ही आनंद है. लोक से जुड़ने का संयोग अलग से. रामजी ने देखा कि आस-पास के गांवों के युवा भी इस खेल में सम्मिलित होना चाहते हैं. उन्होंने सीताजी से परामर्श किया, लखनभाई से भी पूछा. सब खेल को व्यापक आधार देने के पक्ष में हैं. अगले दिन से अभ्यास पर्व मनाये जाने की घोषणा हुई. बल्ले सब अपने-अपने लायेंगे. शाखाएं चुनी जा रही हैं, टंगिया से डालें काटी जा रही हैं, हंसिया से उन्हें छीला जा रहा है. ऊपर का भाग पतला – मूठवाला. हाथ से पकड़ने में आसानी हो. नीचे का भाग चौड़ा, समतल. बल्ला तैयार हो गया तो उसे मंदी आंच पर तपाया जा रहा है. सामने से कितनी भी तेज गेंद आये, बल्लेबाज का बल्ला उसे ऐसे ठोके कि सीमा के पार. राम नवमी के दिन राम और लखन के दल में विशेष प्रतिस्पर्धा होगी. गांव के सयाने आमंत्रित हैं- खरबत के ही नहीं, आसपास के गांवों के भी. नगर के, ओड़गी के. निर्णय निष्पक्ष होना चाहिए. एक चत्वर बनाया गया. धर्माधिकारी उस चत्वर पर बैठेंगे, वाद-विवाद होने पर पंचाट का निर्णय सर्वमान्य होगा. रामरस मर्यादा का खेल है, भद्रजनों का. रामरस से मर्यादा के जो नियम निर्धारित हुए थे, वे आज भी न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ अक्षुण्ण रूप से प्रचलित हैं. अब लोग उसे रामरस नहीं कहते, क्रिकेट कहते हैं, पर नाम में क्या धरा है- आज जब कोई कहता है ‘ये तो क्रिकेट नहीं है’ तो भैया, हमारी तो छाती चौड़ी हो जाती है. बैकुंठपुर में क्रिकेट के पूर्वज रामरस का बचपन बीता. छत्तीसगढ़ में क्रिकेट का पहला मैच खेला गया.
वह सयाना त्रेता युग की पूर्व स्मृतियों में खो गया. उसकी चोंगी की लौ धीरे-धीरे मंदी पड़ रही थी. उसने उस ओर देखा जिस ओर सारस खड़े थे. वह जानता था कि सारस रामरस के ऐसे दर्शक हैं, जिन्हें न भूख व्यापती है, न प्यास. वे रात-दिन रामरस में ऐसे डूबे रहते हैं कि खेलने वाले थक जाएं, पर उन्हें कोई क्लांति नहीं होती. सीताजी की रसोई तैयार थी- आयीं. दोनों भाइयों को ब्यालू की सूचना दी. सभी सयानमन से कहा- ‘दादाजी, आप भी ब्यालू हमारे साथ ही करें.’ धर्मरक्षक लोगों से भी आग्रह किया कि ब्यालू के बाद ही जाइएगा. हम लोगों को लगा कि हम भी त्रेता युग में हैं. सीताजी ने, लखनलाल ने, दादा राम ने भी रोका, पर हम लोग रुके नहीं. घर में बोलकर नहीं आये थे, कौन विश्वास करेगा. पिताजी को पता चलेगा तो सौ सवालों का जवाब देना पड़ेगा. हम लोगों ने कहा- दीदी, हम लोग बराबर आते रहेंगे. हम लोगों को भी रामरस में रस आने लगा है. रामरस में कौन अभागा है, जिसे आनंद न आये?
(फ़रवरी, 2014 में पत्रिका ’नवनीत’ में प्रकाशित)