क्रिकेट जीवन का नाम, चलता रहे सुबहो शाम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 21 मई 2013
भारत में जाने क्यों हर क्षेत्र में सदियों से केवल लाक्षणिक उपचार किया जाता है। कभी रोग को जड़ से उखाडऩे की चेष्टा नहीं की जाती। समस्याओं के अंतिम निदान को उस समय तक टालते रहते हैं, जब तक समस्या स्वयं समाप्त न हो जाए, उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले ही खत्म हो जाएं। क्या यह हमारे पलायनवादी रवैये का परिणाम है और क्या इसी कारण पलायनवादी फिल्में सफल होती रही हैं या जिन सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों में कड़वे निदान को इस तरह शकर में लपेटकर परोसा गया है कि कड़वेपन का रेशा भी नहीं बचा? जिंदगी के सांड को कब तक पूंछ से पकड़ते रहेंगे? हम अपने निकट मित्रों से भी यही आशा करते हैं कि वे हमारी कमजोरियों से हमें अवगत न कराएं। हमने सारे रिश्तों को चाशनी में लपेट दिया है।
आज चहुंओर क्रिकेट सट्टे की बात हो रही है और प्रारंभ में दिल्ली पुलिस का बयान था कि सट्टे की कडिय़ां दाऊद से जुड़ी हैं, इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा नियम के तहत प्रकरण चलेगा, परंतु अब बात का रुख मोड़ दिया है। अवश्य ही कहीं से राजनीतिक दबाव आया है, क्योंकि क्रिकेट संगठन की शीर्ष संस्था एवं अधिकांश प्रांतीय संगठनों में राजनेता प्रमुख पद पर आसीन हैं और इनमें कांग्रेस तथा बीजेपी दोनों के नेता शामिल हैं। हाल ही में हमारे ओलिंपिक संगठन की मान्यता समाप्त कर दी गई थी, क्योंकि आरोप था कि उसके चुनाव में राजनीतिक हस्तक्षेप पाया गया। कलमाड़ी कांड के बाद भी कहीं कुछ नहीं बदला। नए नाम वाले लोग काम कलमाड़ी वाला ही करते हैं।
यह सच है कि सट्टे के सारे सूत्र दाऊद से जुड़े हैं और प्रकरण राष्ट्रीय अस्मिता का है। यह उम्मीद करना उचित नहीं है कि तमाम नेता खेलकूद संगठनों से त्याग-पत्र दे दें। भारत का क्रिकेट संगठन विश्व की अत्यंत धनाढ्य संस्था है और उसके कार्यकलाप जांच के दायरे के बाहर रहे हैं। केंद्रीय सरकार स्वयं अपने घपलों में इतनी मसरूफ है कि इसकी संभावना ही नहीं है कि वह एक अधिनियम द्वारा क्रिकेट संगठन को निरस्त करके सारे अधिकार बिशनसिंह बेदी, कपिल देव, सुनील गावसकर, राहुल द्रविड़, लक्ष्मण, कुंबले के हाथों सौंप दे। पुलिस यह जानती है कि यह तीन खिलाड़ी आइसबर्ग की टिप है, भीतरी सड़ांध पर कैप लगा हुआ है। आज तक आईपीएल के मालिकों ने किस स्रोत से धन का निवेश किया, यह भी मालूम नहीं है। खबर रही है कि किसी ने मॉरिशस बैंक से पैसे बुलवाए हैं। इसी कॉलम में अनेक बार जिज्ञासा जाहिर की गई है कि इस तमाशे के ७६ मैचों में कितने मेगावॉट बिजली का अपव्यय और कितने लाख लीटर पानी से ग्राउंड हरे रखे जाते हैं, का आकलन क्या है? ग्रीष्म ऋतु में राष्ट्रीय ऊर्जा एक मिलीभगत के सट्टा शासित तमाशे पर नष्ट हो रही है और मुनाफे की मलाई दाऊद खा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के सक्षम और कार्यकुशल मुख्यमंत्री को क्या सूझी कि उन्होंने रायपुर में करोड़ों रुपए का स्टेडियम केवल दो मैच की खातिर खड़ा किया और अब वर्ष भर उसी देखभाल पर रुपया पानी की तरह बहाया जाएगा। अपने प्रांत से खिलाड़ी आएं, इसके लिए छत्तीसगढ़ के तमाम शहरों में केवल २२ गज के हरे पिच बनाने से बात बन जाती। सीमेंट का स्टेडियम बनाने की क्या आवश्यकता थी?
दशकों से क्रिकेट का नशा पूरे देश पर इस तरह छाया है कि अन्य सभी खेल गौण हो गए हैं। जिस हॉकी में ६ ओलिंपिक गोल्ड मेडल जीते, इसके लिए कोई कुछ नहीं करता। कहां हैं वे जिन्हें नाज था हॉकी पर। यह नियामत है कि ध्यानचंद के जीवन से प्रेरित फिल्म की तैयारियां चल रही हैं। टेलीविजन प्रसारण ने इस खेल की बहुत सहायता की है। यहां तक कि कुछ गैर क्रिकेटप्रेमी दर्शक महंगे टिकट खरीदते हैं कि टेलीविजन पर शायद उनकी झलक ही आ जाए। इस खेल का हर खिलाड़ी कम से कम करोड़पति है और इसके बावजूद फिक्सिंग के मोह में फंस जाते हैं। समाज संरचना में ही पैसे को महत्वपूर्ण बना दिया गया है। तमाम शिक्षण संस्थाएं भी सफल और धनवान होने के तरीके ही सिखा रही हैं। ऐश्वर्य और पूंजीवाद की फंतासी को इस कालखंड में जीवन का सत्य बना दिया गया है। हम नई माइथोलॉजी जी रहे हैं और इसे सिनेमा ने सशक्त ही किया है।
जिस तरह हमारी गणतंत्र व्यवस्था में दोष आ गए हैं और उसके उत्तरदायित्व से आम आदमी बच नहीं सकता, उसी तरह क्रिकेट को अरबों के व्यवसाय में बदलने में टेलीविजन के साथ ही आम आदमी उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता। जानलेवा गर्मी में सारे क्रिकेट मैचों में स्टेडियम फुल रहे हैं और यही धन सारी धांधली और सट्टे की जड़ में भी है। फिक्सिंग उजागर होने के बाद भी भीड़ में कमी नहीं है, संदेह के बादल सिर पर मंडरा रहे हैं, फर भी खिलाड़ी ऐसी बचकाना गलतियां कर रहे हैं कि संदेह को हवा मिले। दरअसल, कहीं किसी को कोई खौफ नहीं है। ये तीन भी आशा रखते हैं कि जांच में निर्दोष पाए जाएंगे। शीर्ष संस्था ने भी बयान दिया है कि दोषी पाने पर ही दंडित करेंगे।
हम न केवल समस्याओं का लाक्षणिक इलाज करते हैं, पलायनवादी प्रवृत्ति के हैं वरन मानसिक स्तर पर कहीं न कहीं निहायत अय्याश और तमाशबीन प्रवृत्ति के हैं। हमें कोई राजनीतिक आदर्श या सिद्धांत बहुत प्रभावित नहीं करता। हम अभी भी वोट जाति के आधार पर ही देते हैं। क्रिकेट अपनी अनिश्चितता के कारण हमें पसंद है और जुआ खेलने के शौकीन भी हम वैदिककाल से ही रहे हैं। दाऊद के हाथ मजबूत करने की परंपरा के अनेक किस्से हमारे इतिहास में हैं। हम कब ये सारी केंचुलें उतार फेंकेंगे और तर्कसम्मत असली आधुनिकता को स्वीकार करेंगे?