क्रिकेट में बारहवें खिलाड़ी का महत्व / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 मई 2017
क्रिकेट में बारहवें खिलाड़ी को केवल क्षेत्ररक्षक बनने का अधिकार है। वह न गेंदबाजी कर सकता है और न ही बल्लेबाजी। किसी खिलाड़ी के चोटग्रस्त होने पर उसे क्षेत्ररक्षण के लिए बुलाया जाता है। उसकी भूमिका का महत्वपूर्ण होना अनदेखा रह जाता है। जब शीतल पेय पीने के लिए खेल रोका जाता है तब प्यास बुझाने वाले कर्मचारियों के साथ बारहवां खिलाड़ी कप्तान को कोच का संदेश देता है कि रणनीति में क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए। इस तरह वह महत्वपूर्ण संदेश वाहक हो जाता है। किसी दौर में कबूतरों का प्रयोग संदेशवाहक की तरह किया जाता था। सूरज बड़जात्या की 'मैंने प्यार किया' में इस आशय का गीत भी है कि कबूतर प्रेम-पत्र लेकर जाता है। सूरज बड़जात्या ने बचपन की मासूमियत से अपनी फिल्मों में रिश्तों की मासूमियत रची परंतु प्रारंभिक सफलता के बाद बचपन की मासूमियत के नाम पर पात्रों में बचपन की मूर्खता घूसपैठ कर गई। सफलता के हर फॉर्मूले में असफलता का पेंच भी शामिल होता है, जो उजागर होने पर ही हमें दिखता है गोयाकि मूर्खता बुद्धिमानी की हमसफर, हमसाया या कहें हमजाद होती है।
बारहवें खिलाड़ी को मेहनताना उतना ही मिलता है, जितना मैदान में खेलने वाले सदस्यों को मिलता है। बारहवां खिलाड़ी पद एक खिड़की है टीम में प्रवेश करने के लिए। दरअसल व्यवस्था के हर पक्ष में एक बारहवां खिलाड़ी होता है परंतु क्रिकेट के समान मुआवजे की बात उसमें लागू नहीं होती। नोटबंदी की खिंजा के समय बैंक के सामने लगी सर्पीली कतार में कौन बारहवां खिलाड़ी किस के नोट बदल रहा था, यह पता ही नहीं चला।
हर क्षेत्र में बारहवां खिलाड़ी एक तीमारदार है, जो मरीज के लिए भोजन लाता है, उसके पैर दबाता है। कभी-कभी खून की आवश्यकता पड़ने पर वही खून भी देता है। व्यवस्था की निर्ममता देखिए कि कुछ लोग खून बेचकर ही जीवन यापन कर पाते हैं। व्यावसायिक खून देने वाले नाम बदलकर थोड़े से अंतराल के बाद ही अपना काम कर देते हैं। किसी भी समाज के लिए कितनी चिंता की बात है कि खून देना जीवन-यापन का साधन बने। किसी दौर में सुभाषचंद्र बोस का नारा था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। क्या इसी आजादी के लिए अनगिनत लोगों ने खून बहाया कि आज खून बेचकर पेट भरना पड़ रहा है।
स्वतंत्रता संग्राम के समय देखे गए सारे सपने धूल-धूसरित हो गए। बदनामी का ठीकरा केवल नेताओं के सिर पर फोड़ना या छिद्रमय व्यवस्था पर रोने से बेहतर यह होगा कि हर आम आदमी आत्म मंथन करे और वह पाएगा कि उसने स्वयं ही व्यवस्था को छिद्रमय बनाया है और अपने मताधिकार का प्रयोग भी सही ढंग से नहीं किया। हम स्वयं सुविधाओं को खोजते रहें और मुफ्त ही बिकते रहे। हम स्वयं बेकरार थे भ्रष्ट होने के लिए। संभवत: असमानता आधारित व्यवस्था हमें पसंद है। हम सामंतवादी सोच के लोग हैं और सेवकरहित समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। हम से अधिक पंगु कोई नहीं है।
हमारी आबोहवा और अन्य परिस्थितियों के कारण हमें कबड्डी या फुटबॉल पसंद करना चाहिए था परंतु हमारी पहली पसंद क्रिकेट है, जिसे खेलने का तामझाम अत्यंत महंगा है। कोई आश्चर्य नहीं कि साम्यवादी बर्नार्ड शॉ ने इस खेल की तीव्र आलोचना की है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि बर्नार्ड शॉ स्वयं अंग्रेज थे। क्रिकेट साम्राज्यवादी दौर में उन सब देशों में पनपा जहां उनका साम्राज्य था। साम्यवादी रूस और चीन ने कभी इस खेल की अय्याशी को पसंद नहीं किया। क्रिकेट में भारत ने मैच फिक्सिंग का तड़का भी लगा दिया। मैच फिक्सिंग को कालीन के नीचे दबाए रखने के काम के बावजूद वह समय-समय पर फन उठाता रहता है।
क्रिकेट का जुआ रोके नहीं रुकता, क्योंकि टेक्नोलॉजी उसकी सहायता करती है। अगर भारत सरकार क्रिकेट के जुए को वैधानिकता दे और लाइसेंसशुदा लोग ही शामिल हों तो न केवल फिक्सिंग का हव्वा समाप्त हो जाएगा बल्कि इस सट्टे से उत्पन्न काला धन भी सफेद धन हो जाएगा। हमने गोवा में कैसिनो की इज़ाजत दी है, तो इसे भी आज्ञा दी जा सकती है। हर क्षेत्र में बारहवें खिलाड़ी के महत्व को स्वीकार करना हर मेहनतकश के हक को स्वीकार करने की ओर एक कदम होगा।