क्रिस्टोफर नोलन और शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :06 जनवरी 2018
आश्चर्य की बात है कि विश्व के महान फिल्मकार क्रिस्टोफर नोलन ने स्वयं मुंबई में रहने वाले शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर से संपर्क किया और वे 30 मार्च को भारत आकर उनके 'फिल्म हैरीटेज फाउंडेशन' का निरीक्षण करेंगे। दूर देश में बैठा फिल्मकार यह जानकारी रखता है कि फिल्म संस्कृति की हिफाजत कौन व्यक्ति कर रहा है परंतु हमारे पास इतिहास बोध का अभाव है। जब हम अपने किलों और नदियों की रक्षा नहीं कर पाए तब यह आशा करना कि फिल्मों की रक्षा करेंगे, व्यर्थ की चिंता लगती है। लंदन की टेक्नीकलर लैबोरेटरी चीन का फिल्म उद्योग खरीद चुकी है। इसी के साथ हमारी कुछ फिल्मों के नेगेटिव और पॉजिटिव प्रिंट्स वहां जा चुके हैं। राज कपूर की 'संगम' का एक गीत 'कभी न कभी, कोई न कोई आएगा और हमारे सोते भाग्य जगाएगा' भी चीन चला गया है। फिल्म में से यह गीत इसलिए हटाया गया कि इसी तरह के मुखड़े वाला एक गीत देव आनंद अभिनीत फिल्म 'शराबी' में आ चुका था। यह नकल का नहीं वरन महज इत्तेफाक का मामला है। दुनिया की तरह विचार भी गोल-गोल घूमते रहते हैं और जाने कैसे किसी व्यक्ति का दिमागी एंटिना उसे पकड़ लेता है। महिलाओं के पास पैदाइशी एंटिना है और वे भांप लेती हैं कि कौन-सी लोलुप दृष्टि उनके शरीर पर पड़ रही है। यह लम्पटता के खिलाफ उनका डिफेंस मैकेनिज्म है।
क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'प्रेस्टीज' में दो मित्र एवं प्रतिद्वंद्वी जादूगरों की कथा प्रस्तुत की गई है। एक जादूगर को अपने प्रतिद्वंद्वी के कत्ल के इल्जाम में फांसी दी जाने वाली है। फांसी के कुछ क्षण पूर्व एक पादरी उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना करने आता है। वह पादरी उसे बताता है कि जिसके कत्ल का उसे दंड दिया जा रहा है वह व्यक्ति जीवित है और वह स्वयं ही उसे अपनी पहचान भी बताता है ताकि मृत्यु के समय उसका कष्ट दुगना हो जाए। ज्ञातव्य है कि लुमियर बंधु द्वारा पेरिस में पहली बार फिल्म विधा के प्रदर्शन के समय जादूगर जॉर्ज मेलिए वहां मौजूद था। उसने अपनी जादू की ट्रिक्स का इस्तेमाल अपने फिल्म निर्माण में किया और फिल्म विधा का इस्तेमाल अपने जादू के तमाशे में किया।
जॉर्ज मेलिए ने ही पहली विज्ञान फंतासी 'जर्नी टू मून' बनाई थी। एचजी वेल्स ने साहित्य में विज्ञान फंतासी की कथाएं सर्वप्रथम लिखी है और सारी फंतासी को विज्ञान ने सत्य सिद्ध कर दिया। फंतासी और यथार्थ मानव बुद्धि और प्रयास से घुल-मिल जाते हैं। नील आर्मस्ट्रांग के चांद पर कदम रखने के अर्से पहले फंतासी लिखी गई थी। मानव के कदम चांद पर पड़े तो चांद को लेकर जो रोमांटिक कल्पनाएं की गई थीं, वे सारी की सारी धूल-धूसरित हो गईं। गुलजार की कविताओं का केंद्रीय विचार चांद रहा है अौर नील आर्मस्ट्रांग को उनसे कोई व्यक्तिगत बैर नहीं था परंतु उन्होंने हानि पहुंचाई। प्रेमियों को भी धक्का लगा कि अब प्रेयसी के सौंदर्य की तुलना चांद से कैसे करें, क्योंकि वहां धूल के अतिरिक्त कुछ नहीं है। 'चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था' इस तरह भी सामने आता है। गुलजार ने तो यह भी लिखा है, 'रात भिखारन चांद कटोरा लिए आती है।'
विजय आनंद निर्देशित फिल्म 'काला-बाजार' में देव आनंद पूनम की रात चांद को देखकर गीत गाते हैं 'खोया खोया चांद, खुला आसमान आंखों में सारी रात जाएगी तुमको भी कैसे नींद आएगी।' वे इस तरह दौड़ते हुए गाते हैं कि लगता है उचककर चांद पकड़ ही लेंगे। यथार्थ में भी देव आनंद बहुत तेज गति से चलते थे और उनका साथ देने के लिए दौड़ना पड़ता था।
क्रिस्टोफर नोलन सिनेमा के प्रभाव को जादू ही मानते थे, इसीलिए जादू उनकी फिल्मों में एक मुहावरा बन जाता है। नोलन ने अपने सिनेमा में प्राय: मनुष्य अवचेतन के अंधकार को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। उन्हें 'बैटमैन' में खुलकर इस अंधकार को प्रस्तुत करने का अवसर मिला। उनकी एक फिल्म 'मेमेंटो' में उनका केंद्रीय पात्र याद गढ़ने में स्वयं को असहाय महसूस करता है। याद का खो जाना और याद निर्माण नहीं कर पाना अत्यंत त्रासद है। कल्पना कीजिए कि गुमशुदा याद वाला व्यक्ति ऊपर जाकर अपना परिचय ही नहीं दे पाए तो वहां के लेखाधिकारी चित्रगुप्त कैसे तय करेंगे कि इसे स्वर्ग या नर्क में स्थान देना है। सारे घपले इसी विभाग के साथ जुड़े हैं। वे कहते हैं कि 2जी हुआ ही नहीं परंतु एक सरकार बर्खास्त हो गई।