क्रोचे / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल

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मानवीय ज्ञान के दो रूप हैं

(1) स्वयंप्रकाश ज्ञान (intuitive knowledge), अर्थात् कल्पना द्वारा प्राप्त व्यष्टि (individual) का या व्यष्टिगत वस्तुओं का ज्ञान।

(2) तार्किक ज्ञान (logical knowledge), अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा प्राप्त समष्टि (universal) का और व्यष्टिगत वस्तुओं के आपसी संबंधों का ज्ञान।

पहला बिंबों (image) का सर्जक है और दूसरा अवधारणाओं (concept) का।

क्रोचे सामान्य रूप से स्वीकृत इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं करता कि स्वयंप्रकाश ज्ञान तार्किक या बौद्धिक ज्ञान के अधीन है। वह कहता है स्वयंप्रकाश ज्ञान को किसी स्वामी (master)की कोई आवश्यकता नहीं है और न ही किसी के समक्ष झुकने की आवश्यकता है। उसे दूसरों की ऑंखें उधार लेने की भी आवश्यकता नहीं क्योंकि उसके पास स्वयं की सर्वोत्कृष्ट ऑंखें हैं।चाँदनी के दृश्य का अंत:संस्कार (imprusion)...व्यक्तिगत...उन्मादग्रस्त अभिप्राय के साथ कि सभी स्वयंप्रकाश बुद्धि संपन्न संबंधों की छाया।

सभ्य मनुष्यों के स्वयंप्रकाश ज्ञान (intuitions) अवधारणाओं के साथ मिश्रित होते हैं। इसे स्वीकार करते हुए भी क्रोचे का मानना है कि स्वयंप्रकाश ज्ञान के साथ मिश्रित और घुलीमिली अवधारणाएँ तब अवधारणाएँ नहीं रह जाती हैं....जितनी दूर तक वे वस्तुत: मिश्रित या घुलीमिली होती हैं, क्योंकि वे (अपनी) स्वतन्त्रता और स्वायत्तता पूर्णत: खो चुकी होती हैं। उदाहरण के लिए, किसी त्रासदी (tragedy) या कॉमेडी (comedy) के पात्र के मुख से उच्चरित दार्शनिक सूत्र वहाँ अवधारणा का प्रदर्शन न करके पात्र के चारित्रिक लक्षणों का कार्य करते हैं....किसी बुद्धिसम्मत तथ्य तथा स्वयंप्रकाश तथ्य की भिन्नता परिणाम-लक्षित नानारूप प्रभाव में स्थित होती है।

स्वयंप्रकाश ज्ञान का अर्थ

(Meaning of intuition)

स्वयंप्रकाश ज्ञान को प्राय: वास्तविक यथार्थ की प्रतीति या ज्ञान, किसी वस्तु का यथार्थ रूप में बोधा समझा जाता है। लेकिन यथार्थ और अयथार्थ के मध्यथ का यह भेद बाहरी है और स्वयंप्रकाश ज्ञान की प्रकृति के लिए प्रकटत: द्वितीयक है। जहाँ बैठकर मैं लिख रहा हूँ उस कमरे की,कलम और कापी के समक्ष रखी हुई दवात की प्रतीति स्वयंप्रकाश ज्ञान है। पर किसी अन्य कमरे में बैठकर भिन्न सामग्रियों से मेरे द्वारा लिखने के बिम्ब ज़ो अब मेरे मस्तिष्क से गुजर रहा है क़ी प्रतीति भी स्वयंप्रकाश ज्ञान ही है।

रूप का द्रव्य या विषयवस्तु

(Matter of form)

द्रव्य (matter) यान्त्रिक कल पुरजे के समान है। मनुष्य की आत्मा निष्क्रिय रूप में इसका अनुभव मात्र करती है, इसकी सृष्टि नहीं करती। रूप के सूक्ष्म साँचे द्वारा आक्रांत और विजित होने पर द्रव्य ठोस या मूर्त रूप को स्थान देता है। द्रव्य या अंतर्वस्तु (content)ही एक स्वयंप्रकाश ज्ञान को दूसरे स्वयंप्रकाश ज्ञान से भिन्न बनाती है। रूप स्थिर है,यह आत्मा की क्रियाशीलता है जबकि द्रव्य परिवर्तनशील होता है। द्रव्य की अनुपस्थिति में आत्मिक क्रियाशीलता अपनी अमूर्तता को मूर्त या यथार्थ नहीं कर सकती। कोई भी आत्मिक अन्तर्वस्तु या कोई संवेदन (sensation) स्वयंप्रकाश ज्ञान को सीमित कर देता है। (संवेदन रूपहीन द्रव्य है) मृगमरीचिका का स्वयंप्रकाश ज्ञान....नहीं है....

(कागज बीच से फटा हुआ है)

स्वयंप्रकाश ज्ञान और निरूपण या बिंब

(Intuition and representation or image)

यदि निरूपण का अर्थ संवेदन के मानसिक आधार से पृथक् और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला कुछ और लिया जाता है तो यह स्वयंप्रकाश ज्ञान के लिए दूसरा नाम है। लेकिन इसे जटिल या संश्लिष्ट संवेदन समझा जाता है तो क्रोचे इसे स्वीकार नहीं करता। प्रत्येक सच्चा स्वयंप्रकाश ज्ञान या निरूपण अभिव्यंजना (expression)भी है। जो स्वयं को अभिव्यंजना में गोचर नहीं करता,वह स्वयंप्रकाश ज्ञान नहीं है,आत्मा की सक्रियता नहीं है,मात्र संवेदन और स्वाभाविकता है। निर्मित, रूपायित और अभिव्यंजित करके प्राप्त करने के अलावा आत्मा किसी अन्य प्रकार से स्वयंप्रकाश ज्ञान प्राप्त नहीं करती।

स्वयंप्रकाश क्रियाशीलता उतनी ही मात्रा तक स्वयंप्रकाश ज्ञान धारण करती है जितने (ज्ञान)की वह अभिव्यंजना करती है। अभिव्यंजना से तात्पर्य मात्र शाब्दिक अभिव्यंजना से नहीं है, बल्कि रेखा, रंग, ध्व नि आदि की अभिव्यंजना से भी है। भावनाएँ या अन्त:संस्कार शब्दों द्वारा आत्मा के अस्पष्ट क्षेत्र से चिंतनशील आत्म की स्पष्टता में प्रवेश करते हैं। इस संज्ञानात्मक प्रक्रिया में अभिव्यंजना से स्वयंप्रकाश ज्ञान का भेद दिखाना असंभव है। क्रोचे इस सामान्य विश्वास को स्वीकार नहीं करता कि स्वयंप्रकाश ज्ञान द्वारा यथार्थ की हम जितनी अभिव्यंजना कर सकते हैं, संपूर्णता में उससे अधिक धारण करते हैं। वह यह भी नहीं मानता कि लोग कवियों के समान अनुभव एवं कल्पना करते हैं पर उनकी भाँति इन्हें शब्दों में अभिव्यंजित नहीं कर सकते। (क्रोचे यहाँ अपने तरीके से अर्थग्रहण और बिंब निर्माण में भेद दिखलाता है।) इस प्रकार वह निष्कर्ष निकालता है किस्वयंप्रकाश ज्ञान अभिव्यंजनात्मक ज्ञान है। यह बौद्धिक व्यापारों से मुक्त तथा स्वायत्त होता है,विभेदीकरण और यथार्थवादिता एवं कोरी काल्पनिकता के प्रति उदासीन होता है, दृश्यमान क्रियाव्यापारों के ज्वार एवं लहरों में से जो कुछ भी अनुभव किया जाता है या भोगा जाता,उनमें से ही स्वयंप्रकाश ज्ञान तथा निरूपण को रूप या साँचे के रूप में पहचाना जाता है।....स्वयंप्रकाश ज्ञान अभिव्यंजित होता है।

स्वयंप्रकाश ज्ञान और कला

(Intuition and art)

क्रोचे यह नहीं मानता कि कलात्मक स्वयंप्रकाश ज्ञान, दूसरे स्वयंप्रकाश ज्ञानों से भिन्न है। वह इस दृष्टिकोण का खंडन करता है कि कला कोई साधारण स्वयंप्रकाश ज्ञान नहीं है, बल्कि यह स्वयंप्रकाश ज्ञान का स्वयंप्रकाश ज्ञान है। वह कहता हैक़ला अंत:संस्कारों की अभिव्यंजना है, अभिव्यंजना की अभिव्यंजना नहीं है।

पर कुछ अत्यंत जटिल और कठिन अभिव्यंजनाएँ दृश्यमान् क्रिया व्यापार होती हैं...दुर्लभता से ही उपलब्ध हो पाती हैं और ये कला के कार्य कहलाती हैं।

क्रोचे के अनुसार,प्रातिभ (genius)और अप्रातिभ (not genius) की भिन्नता केवल मात्रात्मक है। प्रतिभा स्वर्ग से टपकी हुई कोई वस्तु नहीं है। कलात्मक विधि से संपादित न की गई भावात्मकता द्रव्य अर्थात् अंत:संस्कार है। रूप या साँचा सुसंपादन है, बौद्धिक सक्रियता और अभिव्यंजना है। कलात्मक तथ्य केवल अंतर्वस्तु से निर्मित नहीं होता, न ही यह साँचे और अंतर्वस्तु का सन्धि स्थल अर्थात् अंत:संस्कार और अभिव्यंजना का योग होता है। कलात्मक सक्रियता तथ्य में अंत:संस्कारों में नहीं जोड़ी जाती है। अंत:संस्कार अभिव्यंजना में पुन: प्रकट हो जाते हैं। तथ्य इसी कारण कलात्मक तथ्य साँचे (form) के अतिरिक्त कुछ और नहीं होता। (क्रोचे)

इसका यह अर्थ नहीं है कि अंतर्वस्तु अनावश्यक है, बल्कि यह है कि अंतर्वस्तु के गुण और साँचे के गुण के बीच कोई रास्ता नहीं है। क्रोचे इस विचार का समर्थन नहीं करता कि कलात्मक होने के क्रम में अंतर्वस्तु में कुछ निर्धारक गुण होने चाहिए; अंतर्वस्तु जब तक प्रभावी तरीके से रूपांतरित अर्थात् अभिव्यंजित नहीं होती तब तक कलात्मक अंतर्वस्तु नहीं बनती।

'कला प्रकृति की अनुकृति है' कथन तभी सही है जब अनुकृति को निरूपण या स्वयंप्रकाश ज्ञान समझा जाए, क्योंकि प्रकृति की अनुकृति मात्र यांत्रिक पुनरुत्पादन या प्राकृतिक वस्तुओं की प्रतिलिपि नहीं है। हृदय को छू लेनेवाली मोम की आकृतियाँ, जो जीवित प्रतीत होती हैं और जिनके सामने हम भौंचक खड़े रहते हैं, कलात्मक स्वयंप्रकाश ज्ञान नहीं उत्पन्न करतीं।

क्रोचे इस दृष्टिकोण का खंडन करता है कि कला ज्ञान नहीं है,स्वयंप्रकाश ज्ञान अवधारणाओं से स्वतंत्र ज्ञान है और यथार्थ के तथाकथित बोध से अधिक सरल है। चूँकि कला ज्ञान और रूप है इसलिए भावानुभूतियों (feelings) और मनोवृत्तिायों के संसार से इसका कोई संबंध नहीं है।

'कला भावना है' यह क्रोचे को तभी स्वीकार्य है जब 'भावना' से तात्पर्य अंतर्वस्तु से हो, जिससे अवधारणा और ऐतिहासिक यथार्थ बाहर कर दिए गए हों। तभी यह स्वयंप्रकाश ज्ञान होगा। क्रोचे कहता है “सभी अंत:संस्कार कलात्मक रूप से अभिव्यंजित और रूपायित हो सकते हैं, पर कोई बाध्यकता नहीं है।”

पद्धतियों या श्रेणियों में अभिव्यंजना की अविभाज्यता और अलंकार की आलोचना

(Indivisibility of Expression in to modes or grades and critique of rhetoric)

...एकल अभिव्यंजनात्मक तथ्यों में अनेक इकाइयाँ हैं जिनमें से एक की तुलना दूसरे से सामान्यत: नहीं की जा सकती, क्योंकि उनमें से प्रत्येक अभिव्यंजना है। अभिव्यंजना एक प्रजाति (species) है जो वंश (genes) का कार्य संपन्न नहीं कर सकती। उपसिद्धांत (corollary)... असंभव हैं।

कलावादी आलोचना में वास्तविक और प्रतीकात्मक, बाध्यार्थ निरूपक (objective) और अंतर्वृत्ति निरूपक (subjective), शास्त्रीअय (classical) और स्वच्छंदतावादी, सरल और अलंकृत,यथातथ्य और लाक्षणिक तथा अलंकार के भेदों की दृष्टि से वैज्ञानिक मूल्य का जोड़ा जाना निरर्थक या प्राय:नकारात्मक है। इनमें से किसी की संतोषप्रद कलात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती। जैसे,रूपक की परिभाषा किसी शब्द के स्थान पर उपयुक्त अन्य शब्द के प्रयोग के रूप में दी गई है। फिर यह लम्बा रास्ता क्यों अपनाएँ,उसी शब्द का प्रयोग क्यों न करें?इसका कारण प्राय: यह बताया जाता है कि वह शब्द स्वयं उतना अभिव्यंजक नहीं होता है जितना दूसरा शब्द या रूपक। लेकिन इस स्थिति में रूपक ही सही शब्द हो जाता है और व्यंजनाहीन सही शब्द सर्वाधिक अनुचित।

दूसरे अलंकारों या अलंकरणों को लें। अभिव्यंजना में कोई अलंकरण कैसे जुड़ सकता है?ऐसा होने पर यह निश्चय ही आंतरिक रूप से पृथक् रहता है। इस स्थिति में या तो यह अभिव्यंजना में सहायक नहीं होता या उसे बिगाड़ देता है या इसका अंग बन जाता है और इस तरह अलंकार की बजाय अभिव्यंजना का विधायी तत्त्व हो जाता है।

उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग निम्न में से किसी एक अभिप्राय से किया गया क़लात्मक अवधारणा के शाब्दिक रूप भेदों के रूप में,अकलात्मक संकेतों के रूप में या अन्तत: (और यह उनका सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है) उस अर्थ में जो अब कलात्मक या साहित्यिक नहीं है,पर निश्चय ही तार्किक है।

क्रोचे की दृष्टि से,इनके उपयोग से सौन्दर्य शास्त्र आगे बढ़कर विज्ञान के कार्यक्षेत्र में आ जाता है। इनका महत्त्व कलानिरूपिणी समीक्षा में नहीं,बल्कि वैज्ञानिक और बौद्धिक समीक्षा के प्रबंधन में है।

क्रोचे विद्यालयों में भी इनके शिक्षण की उपयोगिता नहीं देखता है। यह स्वीकार करता है कि यदि उनकी उपयोगिता हो सकती है तो मात्र ऐसी आलोचना के लिए जिससे ये पुन: पल्लवित न हो सकें।

हालाँकि प्रत्येक अभिव्यंजना स्वतंत्रा तथा स्वायत्ता है और किसी अन्य अभिव्यंजना में रूपांतरणीय नहीं है, क्रोचे साम्यसजातीय साम्य क़ो स्वीकार करता है। कलात्मक भावानुभूति

(Aesthetic feelings)

क्रोचे भावानुभूति को किसी भी नैतिक संकल्प से रहित योगक्षेम संबंधी (economic) नीतिपरक सक्रियता मानता है। नीतिपरक और बौद्धिक सक्रियता की भाँति कलात्मक सक्रियता भावानुभूति नहीं है। कलात्मक सक्रियता सुख और दुख की भावानुभूति है,यह दृष्टिकोण सुखवाद (Hedonism) कहलाता है। इस प्रकार क्रोचे सुखवाद का खंडन करता है। वह इसकी आलोचना करता है कि इस दृष्टिकोण में कला के आनंद और एक सरल पाचन के आनंद में कोई तात्त्विक भेद नहीं है।

वह यह स्वीकार करता है कि ऐसी भावानुभूति आत्मिक सक्रियता के साथ कलात्मक सक्रियता की तरह साथ नहीं चलती। क्रोचे कहता है कि प्रधान तथ्य का सहगामी क्या है,इस संबंध में हमें निश्चय ही घालमेल नहीं करना चाहिए ....अपनी अन्विति में विभिन्न आत्मिक रूप आत्मा के साथ परस्पर जुड़े होते हैं,यहाँ कार्य और कारण या प्रथम और परवर्ती का कोई प्रश्न नहीं है।

महत्त्वपूर्ण भावानुभूति और मात्र सुखवादी भावानुभूति, अरुचिकर भावानुभूति और रुचिकर भावानुभूति वाह्यार्थ निरूपक और अन्तर्वृत्तिनिरूपक भावानुभूति तथा सामान्यत: स्वीकार्य भावानुभूति और व्यक्तिगत आनंद की भावानुभूति के मध्या कोई भेद नहीं दिखता। इनका भेद तीन आधयात्मिक रूपों सत्यं, शिवं और सुन्दरम् के रूप में भ्रम उत्पन्न करता है। हमारे लिए इस त्रयी का कार्य समाप्त हो चुका।

योगक्षेम संबंधी अनुभूति के दो पक्ष हैं सकारात्मक और नकारात्मक सुख और दुख,जिन्हें हम उपयोगी और अनुपयोगी में अंतरित कर सकते हैं। यह द्विभाजन भावानुभूति के सक्रिय चरित्र को उद्धाटित करता है। यदि इनमें से प्रत्येक एक मूल्य है तो वह अपनी मूल्यहीनता और विपरीत मूल्य का विरोधी भी है। मूल्य एक सक्रियता है जो स्वयं को मुक्त रूप से प्रकट करता है पर मूल्यहीनता इसके विपरीत है।

अब 'सुंदर' की अवधारणा को लें। सौंदर्यात्मक, बुद्धिपरक, योगक्षेम संबंधी तथा नीतिपरक मूल्य या मूल्यहीनता का नामकरण सामान्यत: सुंदर, सत्य, मंगल, उपयोगी, उचित इत्यादि किया जाता है। हमें 'सुंदर'शब्द के प्रयोग को अभिव्यंजना तक सीमित कर देना चाहिए।'असुंदर'या'कुरूप' असफल अभिव्यंजना है।

वास्तविक कलात्मक आनंद को किसी अन्य प्रकार के आनंद से स्पष्ट रूप से भिन्न किया जाना चाहिए। अपनी रचना पर विचार करते समय कवि को जिस आनंद का अनुभव होता है वह उस आनंद से भिन्न है जो उसे उसकी सफलता या आत्मप्रेम के संतोष के विचार से मिलता है।

आधुनिक सौंदर्यशास्त्र में अनुभूत्याभास (apparent feeling)का सिद्धांत विकसित किया गया है। इन सौंदर्यात्मक अनुभूत्याभासों का साँचे या रूप (form) अर्थात् कलात्मक कार्य से उत्पन्न आनंद के सौंदर्यपरक संवेदनों से कुछ लेना देना नहीं है। इसके विपरीत वे कलात्मक कार्य की अंतर्वस्तु से उत्पन्न होते हैं। पर इस सिद्धांत के प्र्रवत्ताक कहते हैं कि कलात्मक या दृश्यमान् सुख और दुख हलके,बहुत कम क्षोभकारी और परिवर्तनीय होते हैं। क्रोचे इन भावानुभूतियों पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं समझता। वह कहता है कि यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि सुख दुख की कलात्मक भावानुभूतियाँ वास्तविक जीवन की भावानुभूतियों के समान तीव्रता के साथ आंदोलित या क्षुब्ध नहीं करतीं,क्योंकि जीवन की अनुभूतियाँ वस्तु या तथ्य हैं जबकि कलात्मक अनुभूति रूप और सक्रियता है। वे सच्ची और उचित भावानुभूतियाँ हैं जबकि कलात्मक भावानुभूतियाँ स्वयंप्रकाश ज्ञान और अभिव्यंजनाएँहैं।

सौंदर्यात्मक सुखवाद

(Aesthetic Hedonism)

यह सोचना भूल है कि चित्र या एक छोटी सी आवाज दृष्टि या श्रवण के अंत:संस्कार हैं। कलात्मक तथ्य अंतस्संस्कारों की प्रकृति पर निर्भर नहीं करते। सभी प्रकार के संवेदनात्मक अंत:संस्कारों की कलात्मक अभिव्यंजना हो सकती है। जो कलात्मक तथ्य को इंद्रियों के लिए ही आनंददायी मानता है वह स्वादिष्ट पकवान और सुंदर अभिव्यंजना में भेद करने में असफल होगा।

खेल या क्रीड़ा (Play) का सिद्धांत सुखवाद का एक अन्य रूप है। यह कहा जाता है कि मनुष्य तभी मनुष्य है जब वह क्रीड़ा करता है अर्थात् प्राकृतिक तथा यांत्रिक कार्य कारण संबंधों से मुक्त हो जाता है और आत्मिक रूप से संचालित होता है। उसकी पहली क्रीड़ा कला होती है। क्रीड़ा या खेल का अर्थ वस्तुत:वह आनंद भी होता है जो जीवों की उल्लसित ऊर्जा के व्यय अर्थात् एक व्यावहारिक तथ्य से उत्पन्न होता है।

कुछ लोग सौंदर्यशास्त्र को रागात्मक संवेदना (sympathetic)का विज्ञान समझते हैं। रागात्मक संवेदना उनके प्रति होती है जिनसे हम सहानुभूति रखते हैं, जो हमें आकर्षित,आह्लादित करते हैं, आनंद देते हैं और श्रद्धा उत्पन्न करते हैं। रागात्मक संवेदना उन वस्तुओं के बिंब या निरूपण के अतिरिक्त कुछ और नहीं है जो हमें आनंदित करते हैं। इस प्रकार यह एक संश्लिष्ट तथ्य है जो निरूपण के कलात्मक एवं विधायी और एक परिवर्तनीय तत्त्व का परिणाम है तथा आनन्द इसका असीमित रूप है।

सामान्यतया लोग उस अभिव्यंजना को सुंदर कहना पसंद नहीं करते जो रागात्मक संवेदना की अभिव्यंजना न हो। इस तरह एक कलावादी और एक सामान्य व्यक्ति के मध्यव निरंतर विषमता बनी रहती है। क्योंकि सामान्य व्यक्ति स्वयं को यह समझाने में सफल नहीं हो सकता कि दुख का बिंब भी सुंदर हो सकता है। यह विरोध दो भिन्न विज्ञानों के विभेदीकरण से दूर हो सकता है एक अभिव्यंजना का विज्ञान और दूसरा रागात्मक संवेदना का विज्ञान, यदि यह (दूसरा) एक विशिष्ट विज्ञान का विषय हो सके तब। यदि अभिव्यंजनात्मक तथ्य को प्रधानता दी जाए तो यह सौंदर्यशास्त्र का अंग हो जाता है और यदि आनंददायक अंतर्वस्तु को प्रधानता दी जाती है तो हमें लौटकर उन तथ्यों का अध्यरयन करना होगा जो अनिवार्यत: सुखवादी या उपयोगितावादी है। जब अंतर्वस्तु और रूप के अंत:संबंध के उद्भव को दो मूल्यों के योग के रूप में अवधारित किया जाता है तो इसे रागात्मक संवेदना के सौंदर्यशास्त्र में ढूँढ़ना होगा।

रागात्मक संवेदना का सौंदर्यशास्त्र

रागात्मक संवेदना के सिद्धांत ने कई अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है, जैसे दुखांत, सुखांत, उदात्त, कारुणिक, विषण्ण, हास्यास्पद, विषादमय, मानववादी, राजसी, गंभीर, कुलीन, ललित, शिष्ट, काव्यात्मक, शोकगीतात्मक, उग्र, आनंददायक, क्रूर, भयानक, घृणोत्पादक, भयावह, बीभत्स इत्यादि। इस सिद्धांत के समर्थक स्वभावत: उन विविध संयोजनों एवं श्रेणियों की उपेक्षा नहीं कर सके जो अंतत: संवेदना की रागात्मकता को विरागात्मकता की ओर ले जाती हैं। रागात्मक संवेदना सुंदर था और विरागात्मक असुंदर या कुरूप। इस सिद्धांत के समर्थकों को कला में 'असुंदर' के लिए स्थान ढूँढ़ना था। अत: उन्होंने यह निर्धारित करने का प्रयास किया कि कलात्मक निरूपण में 'असुंदर' के कौन कौन से उदाहरण स्वीकार किए जा सकते हैं। समाधान यह हुआ कि कला में 'असुंदर' का प्रवेश तभी संभव है जब इस पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया जाए। इस प्रकार सभी अनौचित्यपूर्ण असुंदरता, जैसे घृणोत्पादक या बीभत्स पूर्णत: बहिष्कृत कर दी गई। 'असुंदर' के विषयों को वैषम्य की श्रृंखलाओं की उत्पत्ति द्वारा 'सुंदर' के प्रभाव को उच्चीकृत करनेवाला कहा गया। क्रोचे के अनुसार ऐसे सभी शब्द तथा अवधारणाएँ सौंदर्यशास्त्र से बहिष्कृत कर देनी चाहिए, क्योंकि सौंदर्यशास्त्रद रागात्मक और विरागात्मक संवेदना को नहीं,मात्र निरूपण की आत्मिक सक्रियता को ही मान्यता देता है।

क्रोचे के अनुसार सुंदर,असुंदर या कुरूप, राजसी, उदात्त, हास्यास्पद, भयोत्पादक या भयानक इत्यादि शब्दों का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं है। इन्हें मनोविज्ञान के हवाले कर देना चाहिए। शब्द की कोई यथार्थ परिभाषा संभव नहीं है,दो परिभाषाएँ पूर्णत: एकमत नहीं होतीं। जो कोई परिभाषा देता है वह किसी अन्य द्वारा दूसरी परिभाषा दे देने के उपरांत अपनी ही परिभाषा को कमाधिक अपर्याप्त पाता है। जिस प्रयोजन से ये परिभाषाएँ दी गई हैं उसका अनुभव सिद्ध अर्थ देने के लिए ही ये बनी रह सकती हैंऊपर उद्धृत मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं में संभव और वर्गीकृत तथ्य जहाँ तक जीवनजगत् के उपादान निर्दिष्ट करते हैं वहाँ तक कला द्वारा निरूपित किए जा सकते हैं। इस जातीय संबंध से आगे वे कलात्मक सत्य या तथ्य के साथ कोई संबंध नहीं रखते। दूसरा आकस्मिक संबंध यह है कि कलात्मक तथ्य भी कभी कभार वर्णित प्रक्रियाओं में प्रवेश कर सकते हैं कलात्मक तथ्य के लिए यह वाह्य प्रक्रिया है,उसके साथ जो एकमात्र अनुभूति जुड़ी है वह है कलात्मक मूल्य और मूल्यहीनता की अनुभूति,सुंदर और असुंदर अथवा कुरूप की अनुभूति।

प्रकृति और कला में तथाकथित भौतिक रूप से सुंदर

(So called Physically beautiful in nature and art)

कलात्मक सक्रियता व्यावहारिक सक्रियता से विशिष्ट है किंतु जब यह स्वयं को अभिव्यंजित करती है तो व्यावहारिक सक्रियता सदा इसके साथ चलती है। यह इसका उपयोगितावादी या सुखवादी पक्ष है;सुख और दुख पहले की ही तरह सुंदर और असुंदर,मूल्य और मूल्यहीनता की व्यावहारिक प्रतिध्वरनियाँ हैं। कलात्मक सक्रियता के इस व्यावहारिक पक्ष में क्रमश: एक भौतिक या मनोभौतिक अनुषंग भी साथ बना रहता है जो ध्वइनियों, सुरों, संवेगों, गतिविधियों, रेखाओं और रंगों के संयोजन आदि से निर्मित होता है।

क्या यह (कलात्मक सक्रियता) वास्तव में इस पक्ष को धारण करती है या उस निर्माण के परिणामस्वरूप इस पक्ष को धारण करती प्रतीत होती है जिसे हम उपयोगी तथा यादृच्छिक पद्धतियों के भौतिक विज्ञान में संभव करते हैं और अनुभवपरक या अमूर्त विज्ञानों के लिए उचित सिद्ध कर चुके हैं। क्रोचे पहली परिकल्पना को स्वीकार नहीं करता है।

प्रत्येक आत्मिक सक्रियता में सुखवादी पक्ष के अस्तित्व ने कलात्मक सक्रियता और उपयोगी तथा आनंददायक में भ्रम उत्पन्न कर दिया है। इसीलिए इस भौतिक पक्ष के अस्तित्व ने कलात्मक अभिव्यंजना तथा स्वाभाविक अभिव्यंजना आत्मिक तथ्य और एक यान्त्रिक एवं निष्क्रिय तथ्य के मध्यि भी भ्रम उत्पन्न कर दिया है।

साधारण भाषा में कभी कभार कवियों के शब्दों, संगीतज्ञों के सुरों तथा चित्रकारों के चित्रों को ही अभिव्यंजना समझा जाता है। यदा कदा लज्जा की लालिमा भय की कंपकपाहट,उग्र क्रोध में दाँतों की कटकटाहट इत्यादि भी अभिव्यंजना कही जाती हैं।

क्रोचे के अनुसार ये अभिव्यंजनाएँ आत्मिक दृष्टि अर्थात् आत्मिकता और कल्पना की सक्रियता के अपने विशिष्ट चरित्र में कलात्मक अभिव्यंजना नहीं हैं। यह अमूर्त बुद्धि द्वारा निर्धारित किए गए कार्य और कारण के मध्या के संबंधों से अधिक और कुछ नहीं है। कलात्मक अभिव्यंजना की संपूर्ण प्रक्रिया इस प्रकार है

(1) अंत:संस्कार (2) अभिव्यंजना अर्थात् कलात्मक आत्मिकसंश्लेषण(3) सौंदर्य की भावना से उत्पन्न आनुषंगिक आनंद (4) कलात्मक आत्मिक वस्तु (कल्पना) का स्थूल भौतिक रूपों में अवतरण शब्द, स्वर, चेष्टा, रंग, रेखा आदि। क्रोचे के अनुसार इन चारों में मूल कलात्मक बिंदु केवल एक है और वह है दूसरे क्रम पर अर्थात् अभिव्यंजना या कलात्मक आत्मिक संश्लेषण। ये चारों विधान पूरे हो जाने पर अभिव्यंजना का अनुष्ठान पूरा हो जाता है।

अभिव्यंजना या निरूपण अनुगमन करते हैं और एक दूसरे को निष्कासित करते हैं। लेकिन यह निष्कासन विनाश नहीं होता है। जिन निरूपणों को हम भूल चुके हैं वे किसी न किसी रूप में हमारी आत्मा में बने रहते हैं, क्योंकि उनके बिना हम अपनी उपार्जित प्रवृत्तियों और क्षमताओं की व्याख्या नहीं कर सकते। इस प्रकार ऐसे निरूपण हमारी आत्मा की वास्तविक प्रक्रियाओं में प्रभावोत्पादक तत्त्व होते हैं। यह कहा जा सकता है कि अभिव्यंजना या निरूपण भी व्यावहारिक तथ्य हैं जो भौतिक तथ्य भी कहे जाते हैं। यदि हम इन तथ्यों को किसी उपाय से स्थायी बनाने में सफल हो सके तो पूर्व विद्यमान स्वयंप्रकाश ज्ञान या अभिव्यंजना की उपलब्धि करके उसका पुनरुत्पादन सदैव सम्भव होगा। ऐसे (पुनर्सृजित) भौतिक तथ्य भौतिक उत्प्रेरक होते हैं।

पद्य, गद्य, गीत, त्रासदी (tragedy), कॉमेडी (comedy) कहलाने वाले शब्दों के संयोजन (combination) पुनरुत्पादन के ऐसे ही उद्दीपक तत्त्व हैं। ये कला की भौतिक गतिविधियाँ हैं जो पुनरुत्पादन को प्रोत्साहित करती हैं। यदि इन्हें या शारीरिक रचना तंत्र को स्मरण अंग के साथ नष्ट कर दिया जाए तो कोई भी पुनरुत्पादन या निरूपण नहीं हो सकता। कलात्मक पुनरुत्पादन की उद्दीपक ऐसी गतिविधियाँ लोकप्रिय रूप में सुंदर वस्तुएँ या भौतिक रूप से सुंदर कहलाती हैं। लेकिन शब्द (वस्तुत:) वाचिक विरोधाभास होते हैं, क्योंकि 'सुंदर' केवल एक भौतिक तथ्य नहीं है, यह केवल वस्तुओं से ही संबंधित नहीं है। बल्कि मनुष्य की आन्तरिक गतिविधि और आत्मिकऊर्जा से भी इसका संबंध है। ये शब्द प्राय: व्यावहारिक आनंद के सरल तथ्यों को ही निर्दिष्ट करते हैं। क्रोचे किसी ऐसी कलात्मकता की ओर संकेत नहीं करता जो प्राकृतिक दृश्य को ही सुंदर कहती है जहाँ की हरियाली पर ऑंखें ठहर जाती हैं, जहाँ शारीरिक चेष्टाएँ सामान्य हो जाती हैं, जहाँ का रमणीय सौरभ आनंददायी प्रभाव उत्पन्न करता है।

प्राकृतिक वस्तुओं का आनंद कलात्मक रूप से लेने के लिए उनके वाह्य तथा ऐतिहासिक यथार्थ से उन्हें बाहर निकाल लेना चाहिए और उनके अस्तित्व से उनके रंग रूप या उद्गम को पृथक् कर लेना चाहिए। कल्पना के योग के अभाव में प्रकृति का कोई भी अंश इतना सुंदर नहीं होता है।

कलात्मक पुनरुत्पादन के लिए प्राकृतिक सौंदर्य मात्र एक उत्प्रेरक है जो पूर्ववर्ती उत्पादन की पूर्वधारणा करता है। कल्पना के कलात्मक स्वयंप्रकाश ज्ञान के बिना प्रकृति अकेली कुछ भी नहीं कर सकती। प्रत्येक व्यक्ति अभिव्यंजना में उस प्राकृतिक तथ्य की ओर संकेत करता है जो उसके मन में है। एक कलाकार किसी उल्लसित प्राकृतिक छवि के प्रति सुध बुध खो देता है, कोई अन्य रद्दी की दुकान के प्रति,कोई अन्य किसी युवती की मनोहर मुखाकृति के प्रति तो कोई अन्य किसी बदमाश की भद्दी सूरत के प्रति आकर्षित होता है। ये सभी तब तक बहस करेंगे जब तक सौन्दर्यपरक ज्ञान की पर्याप्त खुराक उन्हें नहीं दे दी जाती,जो उन्हें यह पहचानने लायक बना देगा कि सभी सही हैं। मनुष्य द्वारा सृजित कृत्रिम सौंदर्य पुनरुत्पादन के लिए अत्यधिक लचीली और प्रभावोत्पादक सामग्री है। कृत्रिम सौंदर्य में रचनाएँ अर्थात् अक्षर सांगीतिक सुर, शब्द, इत्यादि सम्मिलित नहीं होते, क्योंकि ये केवल संकेत होते हैं।

सौंदर्यशास्त्रियों का मुक्त और बद्ध सौंदर्य

(Free and not true beauty of Aestheticisms)

'बद्ध' सौंदर्य वे सौंदर्य हैं जो दोहरे उद्देश्य (कलात्मक और कुछ व्यावहारिक) की सिद्धि करते हैं, जैसे स्थापत्य कला का सौंदर्य, जिसमें आवास स्थल के रूप में उसकी उपयुक्तता कलात्मक पक्ष को सीमित कर देती है। क्रोचे इस अन्तर्विरोध (contradiction) को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। वह कहता है कि कलात्मक और व्यावहारिक के मध्यn का अन्तर्विरोध उन्हें स्वयंप्रकाश ज्ञान और कलात्मक मूर्तीकरण की सामग्री के रूप में ग्रहण करते हुए दिखाया जा सकता है। क्योंकि कलात्मकमूर्तीकरण ही व्यावहारिक अन्त रखनेवाली वस्तु का सही गंतव्य है। उस वस्तु को कलात्मक स्वयंप्रकाश ज्ञान का उपकरण बनाने के लिए उसमें (भवन) किसी और वस्तु को जोड़ने की कोई आवश्यकता क्रोचे को नहीं दिखती है। अनगढ़ झोपड़ियाँ और महल, चर्च और बैरकें, तलवारें और हल साफ सुथरे या अलंकृत होने के कारण सुंदर नहीं हैं, बल्कि जिस उद्देश्य से वे निर्मित किए गए हैं उसकी जितनी अभिव्यंजना कर पाते हैं उतने सुंदर हैं। कोई पोशाक मात्र इस कारण सुन्दर होती है कि वह निश्चित दशाओं में निश्चित व्यक्ति हेतु पूर्णत: उपयुक्त होती है।


(अनुमानित रचना काल 1935)

[चिन्तामणि, भाग-4]