क्लॉड ईथरली / गजानन माधव मुक्तिबोध

Gadya Kosh से
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पीली धूप से चमकती हुई ऊँची भीत जिसके नीले फ्रेम में काँचवाले रोशनदान दूर सड़क से दीखते हैं।

मैं सड़क पार कर लेता हूँ। जंगली, बेमहक लेकिन खूबसूरत विदेशी फूलों के नीचे ठहर-सा जाता हूँ कि जो फूल, भीत के पासवाले अहाते की आदमकद दीवार के ऊपर फैले सड़क के बाजू पर बाँहें बिछाकर झुक गये हैं। पता नहीं कैसे, किस साहस से व क्यों उसी अहाते के पास बिजली का ऊँचा खम्भा—जो पाँच-छह दिशाओं में जानेवाली सूनी सड़कों पर तारों की सीधी लकीरें भेज रहा है-मुझे दीखता है और एकाएक खयाल आता है कि दुमंजिला मकानों पर चढ़ने की एक उँची निसैनी उसी से टिकी हुई है। शायद, ऐसे मकानों की लम्ब-तड़ंग भीतों की रचना अभी पुराने ढंग से होती है।

सहज, जिज्ञासावश देखें, कहाँ, क्या होता है। दृश्य कौन-से, कौन से दिखाई देते हैं ! मैं उस निसैनी पर चढ़ जाता हूँ और सामनेवाली पीली ऊँची भीत के नीली फ्रेमवाले रोशनदान में से मेरी निगाहें पार निकल जाती हैं।

और, मैं स्तब्ध हो उठता हूँ।

छत से टँगे ढिलाई से गोल-गोल घूमते पंख के नीचे, दो पीली स्फटिक-सी तेज आँखें और लम्बी शलवटों भरा तंग मोतिया चेहरा है जो ठीक उन्हीं ऊँचे रोशनदानों में से, भीतर से बाहर, पार जाने के लिए ही मानो अपनी दृष्टि केन्द्रित कर रहा है। आँखों से आँखें लड़ पड़ती हैं। ध्यान से एक-दूसरे की ओर देखती हैं। स्तब्ध एकाग्र।

आश्चर्य ?

साँस के साथ शब्द निकले। ऐसी ही कोई आवाज उसने भी की होगी !

चेहरा बहुत बुरा नहीं है, अच्छा है, भला आदमी मालूम होता है। पैण्ट पर शर्ट ढीली पड़ गयी है। लेकिन यह क्या !

मैं नीचे उतर पड़ता हूँ। चुपचाप रास्ता चलने लगता हूँ। कम से कम दो फर्लांग दूरी पर एक आदमी मिलता है। सिर्फ एक आदमी ! इतनी बड़ी सड़क होने पर भी लोग नहीं ! क्यों नहीं ?

पूछने पर वह शख्स कहता है, "शहर तो इस पार है, उस ओर है; वहीं कहीं इस सड़क पर बिल्डिंग का पिछवाड़ा पड़ता है। देखते नहीं हो !"

मैंने उसका चेहरा देखा ध्यान से। बायीं और दाहिनी भौंहें नाक के शुरू पर मिल गयी थीं। खुरदरा चेहरा, पंजाबी कहला सकता था। पूरा जिस्म लचकदार था। वह निःसन्देह जनाना आदमी होने की सम्भावना रखता है ! नारी तुल्य पुरुष, जिनका विकास किशोर काव्य में विशेषज्ञों का विषय है।

इतने में, मैंने उससे स्वाभाविक रूप से, अति सहज बनकर पूछा, "यह पीली बिल्डिंग कौन-सी है।" उसने मुझे पर अविश्वास करते हुए कहा, "जानते नहीं हो ? यह पागलखाना है-प्रसिद्ध पागलखाना !"

"अच्छा...!" का एक लहरदार डैश लगाकर मैं चुप हो गया और नीची निगाह किये चलने लगा।

और फिर हम दोनों के बीच दूरियाँ चौड़ी होकर गोल होने लगीं। हमारे साथ हमारे सिफर भी चलने लगे।

अपने-अपने शून्यों की खिड़कियाँ खोलकर मैंने—हम दोनों ने—एक-दूसरे की तरफ देखा कि आपस में बात कर सकते हैं या नहीं ! कि इतने में उसने मुझसे पूछा, "आप क्या काम करते हैं ?"

मैंने झेंपकर कहा, "मैं ? उठाईगिरी समझिए।"

"समझें क्यों ? जो हैं सो बताइए।"

"पता नहीं क्यों, मैं बहुत ईमानदारी की जिन्दगी जीता हूँ; झूठ नहीं बोला करता, पर स्त्री को नहीं देखता; रिश्वत नहीं लेता; भ्रष्टाचारी नहीं हूँ; दगा या फरेब नहीं करता; अलबत्ता कर्ज मुझ पर जरूर है जो मैं चुका नहीं पाता। फिर भी कमाई की रकम कर्ज में जाती है।

इस पर भी मैं यह सोचता हूँ कि बुनियादी तौर से बेईमान हूँ। इसीलिए, मैंने अपने को पुलिस की जबान में उठाईगिरा कहा। मैं लेखक हूँ। अब बताइए, आप क्या हैं ?"

वह सिर्फ हँस दिया। कहा कुछ नहीं। जरा देर से उसका मुँह खुला। उसने कहा, "मैं भी आप ही हूँ।"

एकदम दबकर मैंने उससे शेकहैण्ड किया (दिल में भीतर से किसी ने कचोट लिया। हाल ही में निसैनी पर चढ़कर मैंने उस रोशनदान में से एक आदमी की सूरत देखी थी; वह चोरी नहीं तो क्या था। सन्दिग्धावस्था में उस साले ने मुझे देख लिया।)

"बड़ी अच्छी बात है। मुझे भी इस धन्धे में दिलचस्पी है, हम लेखकों का पेशा इससे कुछ मिलता जुलता है।"

इतने में भीमाकार पत्थरों की विक्टोरियन बिल्डिंग के दृश्य दूर से झलक रहे थे। हम खड़े हो गये हैं। एक बड़े-से पेड़ के नीचे पान की दूकान थी वहाँ। वहाँ एक सिलेटी रंग की औरत मिस्सी और काजल लगाये हुए बैठी हुई थी।

मेरे मुँह से अचानक निकल पड़ा, "तो यहाँ भी पान की दूकान है ?"

उसने सिर्फ इतना ही कहा, "हाँ, यहाँ भी।"

और मैं उन अधविलायती नंगी औरतों की तस्वीरें देखने लगा जो उस दूकान की शौकत को बढ़ा रही थीं।

दूकान में आईना लगा था। लहर थीं धुँधली, पीछे के मसाले के दोष से। ज्यों ही उसमें मैं अपना मुँह देखता, बिगड़ा नजर आता। कभी मोटा, लम्बा तो कभी चौड़ा। कभी नाक एकदम छोटी, तो एकदम लम्बी और मोटी ! मन में बड़ी वितृष्णा भर उठी। रास्ता लम्बा था, सूनी दुपहर। कपड़े पसीने से भीतर चिपचिया रहे थे। ऐसे मौके पर दो बातें करनेवाला आदमी मिल जाना समय और रास्ता कटने का साधन होता है।

उससे वह औरत कुछ मजाक करती रही। इतने में चार-पाँच आदमी और आ गये। वे सब घेरे खड़े रहे। चुपचाप कुछ बातें हुईं। मैंने गौर नहीं किया। मैं इन सब बातों से दूर रहता हूँ। जो सुनाई दिया उससे यह जाहिर हुआ कि वे या तो निचले तबके में पुलिस के इनफार्मर्स हैं या ऐसे ही कुछ !

हम दोनों ने अपने-अपने और एक-दूसरे के चेहरे देखे ! दोनों खराब नजर आये। दोनों रूप बदलने लगे। दोनों हँस पड़े और यही मजाक चलता रहा।

पान खाकर हम लोग आगे बढ़े। पता नहीं क्यों मुझे अपने अनजबी साथी के जनानेपन में कोई ईश्वरीय अर्थ दिखाई दिया। जो आदमी आत्मा की आवाज दाब देता है, विवेक चेतना को घुटाले में डाल देता है। उसे क्या कहा जाए ! वैसे, वह शख्त भला मालूम होता था। फिर क्या कारण है कि उसने यह पेशा इख्तियार किया ! साहसी, हाँ, कुछ साहसिक लोग पत्रकार या गुप्तचर या ऐसे ही कुछ हो जाते हैं, अपनी आँखों में महत्त्वपूर्ण बनने के लिए, अस्तित्व की तीखी संवेदनाएँ अनुभव करने और करते रहने के लिए !

लेकिन प्रश्न यह है कि वे वैसा क्यों करते हैं ! किसी भीतरी न्यूनता के भाव पर विजय प्राप्त करने का यह एक तरीका भी हो सकता है। फिर भी, उसके दूसरे रास्ते भी हो सकते हैं। यही पेशा क्यों ? इसलिए, उसमें पेट और प्रवृत्ति का समन्वय है ! जो हो, इस शख्त का जनानापन खास मानी रखता है।

हमने वह रास्ता पार कर लिया और अब हम फिर से फैशनेबल रास्ते पर आ गये, जिसके दोनों ओर युकलिप्टस के पेड़ कतार बाँधे खड़े थे। मैंने पूछा, "यह रास्ता कहाँ जाता है ? उसने कहा, "पागलखाने की ओर।" मैं जाने क्यों सन्नाटे में आ गया।

विषय बदलने के लिए मैने कहा, "तुम यह धन्धा कब से कर रहे हो ?"

उसने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो यह सवाल उसे नागवार गुजरा हो।

मैं कुछ नहीं बोला। चुपचाप चला, चलता रहा। लगभग पाँच मिनट बाद जब हम उस भैरों के गेरुए, सुनहले, पन्नी जड़े पत्थर तक पहुँच गये, जो इस अत्याधिक युग में एक तार के खन्भे के पास श्रद्धापूर्वक स्थापित किया गया था, उसने "कहा मेरा किस्सा मुख्तसर है। लार्ज शरम दिखावे की चीजें हैं। तुम मेरे दोस्त हो, इसलिए कह रहा हूँ। मैं एक बहुत बड़े करोड़पति सेठ का लड़का हूँ। उनके घर में जो काम करनेवालियाँ हुआ करती थीं, उनमें से एक मेरी माँ है, जो अभी भी वहीं है। मैं, घर से दूर, पाला-पोसा गया, मेरे पिता के खर्चे से ! माँ पिलाने आती। उसी के कहने से मैंने बमुश्किल तमाम मैट्रिक किया। फिर, किसी सिफारिश से सी.आई.डी. की ट्रेनिंग में चला गया। तबसे यही काम कर रहा हूँ। बाद में पता चला कि वहाँ का खर्च भी वही सेठ देता है। उसका हाथ मुझ पर अभी तक है। तुम उठाईगिरे हो, इसलिए कहा ! अरे ! वैसें तो तुम लेखक-वेखक भी हो। बहुत से लेखक और पत्रकार इनफॉर्मर हैं ! तो इसलिए मैंने सोचा, चलो अच्छा हुआ। एक साथी मिल गया।"

उस आदमी में मेरी दिलचस्पी बहुत बढ़ गयी। डर भी लगा। घृणा भी हुई। किस आदमी से पाला पड़ा। फिर भी, उस अहाते पर चढ़कर मैं झाँक चुका था इसलिए एक अनदिखती जंजीर से बँध तो गया ही था।

उस जनाने ने कहना जारी रखा, "उस पागलखाने में कई ऐसे लोग डाल दिये गये हैं जो सचमुच आज की निगाह से बड़े पागल हैं। लेकिन उन्हें पागल कहने की इच्छा रखने के लिए आज की निगाह होना जरूरी है।"

मैंने उकसाते हुए कहा, "आज की निगाह से क्या मतलब ?"

उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखें डालकर उसने कहना शुरू किया, "जो आदमी आत्मा की आवाज कभी कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उसने छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज विरोधी तत्त्वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदी आत्मा की आवाज जरूरत से ज्यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में सन्त हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।"

मुझे शक हुआ कि मैं किसी फैण्टेसी में रह रहा हूँ। यह कोई ऐसा वैसा कोई गुप्तचर नहीं है। या तो यह खुद पागल है या कोई पहुँचा हुआ आदमी है ! लेकिन वह पागल भी नहीं है न वह पहुँचा हुआ है। वह तो सिर्फ जनाना आदमी है या वैज्ञानिक शब्दावली प्रयोग करूँ तो यह कहना होगा कि वह है तो जवान पट्ठा लेकिन उसमें जो लचक है वह औरत के चलने की याद दिलाती है!

मैंने उसे पूछा, "तुमने कहीं ट्रेनिंग पायी है ?"

"सिर्फ तजुर्बे से सीखा है ! मुझे इनाम भी मिला है।"

मैंने कहा, "अच्छा !"