क्वीन कंगना रनोट और जयललिता बायोपिक / जयप्रकाश चौकसे

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क्वीन कंगना रनोट और जयललिता बायोपिक
प्रकाशन तिथि : 29 मार्च 2019


क्वीन कंगना रनोट दक्षिण भारत की राजनीति की महारानी जयललिता के बायोपिक में अभिनय करने जा रही हैं और इस फिल्म की पटकथा भी 'बाहुबली' एसएस राजामौली की टीम के वे ही सदस्य लिख रहे हैं, जिन्होंने कंगना अभिनीत 'झांसी की रानी' लिखी थी। जयललिता ने अपने अड़सठ वर्ष के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे। अपनी 34 वर्ष की राजनीति में वे 14 साल से ज्यादा तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं। इस दरमियान उन पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकदमा भी चला। कुछ समय उन्होंने जेल में बिताया और बाद में भ्रष्टाचार के आरोप रद्द भी कर दिए गए। जललिलता ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का समर्थन किया और कुछ समय बाद समर्थन वापस लेकर सरकार को गिरा भी दिया।

बताते हैं कि वे जब भी मुख्यमंत्री रहीं, उन्होंने केवल एक रुपए वेतन ही लिया परंतु अपने दत्तक पुत्र का विवाह इतने धूमधाम से किया मानो किसी सफल औद्योगिक घराने के राजकुमार का विवाह हो रहा हो। वे दक्षिण के सबसे अधिक लोकप्रिय सितारे एमजी रामचंद्रन की निकटतम मित्र रहीं और उनसे राजनीतिक विरासत भी प्राप्त की है। ज्ञातव्य है कि एमजी रामचंद्रन विवाहित थे और जयललिता उनकी अंतरंग मित्र। एमजीआर की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने उनका स्थान लेना चाहा परंतु अवाम जयललिता को उनका उत्तराधिकारी मानता रहा। मुख्यमंत्री रहते उन्होंने आम आदमी की भलाई की इतनी योजनाएं चलाईं कि वे 'अम्मा' की तरह पूजनीय हो गईं। इन योजनाओं के तहत भोजन के पैकेट और पानी की बोतलों पर 'अम्मा' का लेबल लगा होता था।

उनके प्रशंसक कुछ इस तरह के भक्त रहे कि जहर पर 'अम्मा' का लेबल चस्पा हो तो उसे भी पी जाते। अवाम में इस तरह का उन्माद जगाना आसान काम नहीं होता। इस मामले में कुछ हद तक 'अम्मा' इंदिरा गांधी की तरह रहीं और दोनों के बीच यह समानता भी थी कि अपने-अपने मंत्रिमंडल में उन्हें एकमात्र 'मर्द' भी कहकर संबोधित किया गया। स्त्री के प्रति यह दृष्टिकोण ही हमारा खोखलापन उजागर करता है। तर्कसम्मत वैज्ञानिक विचार प्रक्रिया को कुचलकर कूपमंडुकता को बढ़ावा देने के षड्यंत्र का ही हिस्सा है महिला का दमन और शोषण करते रहना।

जयललिता अभिनीत उनके प्रारंभिक दौर की एक फिल्म के अधिकांश दृश्यों में जललिता के हाथ में एक कोड़ा होता था। 'इंडिया टुडे' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर वह प्रकाशित भी हुआ था। दरअसल, कोड़ा उनकी विचार प्रक्रिया का प्रतीक भी रहा है। उन्हें सिनेमा से गहरा प्रेम रहा है। एक बार उन्होंने यह प्रयास भी किया था कि सरकार के सारे विभाग अपना प्रशासनिक काम एक भवन से करें ताकि आम आदमी को एक विभाग से दूसरे विभाग में भागते हुए समय नष्ट नहीं करना पड़े। इस तरह करने में प्रशासनिक खर्च में भी कमी आएगी और अवाम को भागमभाग भी नहीं करनी पड़ेगी। इस तरह की पुनर्रचना के कारण खाली हुए भवनों को सिनेमाघर में बदल दिया जाए। उन्होंने यह नियम भी बनाया था कि सिनेमाघर की 60 फीसदी सीटों के लिए टिकिट दर अस्सी रुपए से अधिक नहीं रखी जाएगी। शेष 40 प्रतिशत सीटों पर अधिक दाम के टिकिट बेचे जा सकते हैं। अवाम के मनपसंद मनोरंजन को वे अवाम के लिए सुलभ एवं सस्ता बनाना चाहती थीं।

कंगना रनोट भी जयललिता की तरह हमेशा अपने हाथ में 'कोड़ा' रखती हैं और अपने क्षेत्र में वे 'मर्द' ही रही हैं। खबर है कि इस भूमिका के लिए कंगना को 24 करोड़ रुपए का मेहनताना दिया जा रहा है। किसी भी महिला कलाकार द्वारा लिया जाने वाला यह मेहनताना सबसे अधिक है। यह भी गौरतलब है कि कंगना रनोट अपने संघर्ष के समय फुटपाथ पर सोई हैं और उन्होंने फांके भी मारे हैं। गैर फिल्मी परिवार से आई कंगना ने कठोर संघर्ष किया है। सबसे बड़ी बात यह है कि 'क्वीन' कंगना का कोई दरबार नहीं है, कोई सचिव नहीं है। कंगना अपनी बहन रांगोली के साथ मिलकर सारा कामकाज संभालती है। उन्होंने किसी प्रचारक को भी नियुक्त नहीं किया है।

विद्या बालन का कुछ शारीरिक साम्य जयललिता से है परंतु कंगना को इसलिए चुना गया है कि उनकी विचार प्रक्रिया जयललिता से कुछ हद तक समान है, गोयाकि 'कोड़ा' हमेशा हाथ में होना चाहिए। विद्या बालन अभिनीत फिल्म वितरण बाजार में अधिक दाम नहीं पाती। कंगना आज भी दर्शक को सिनेमाघर तक लाने में सक्षम हैं।