क्षमा / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
फिक्स डिपॉजिट की रसीद देते हुए वह बोली, "बेटा, इसकी मियाद पूरी हो चुकी है। फिर से पांच साल के लिए जमा करवा देना। चार लाख हो जाएगा।"
"ठीक है मां। इसे रिनुअल करवा दूंगा।" रसीद लेते हुए श्रवण बोला। रसीद पर एवं एक आवेदन पर उसने अपनी माँ के हस्ताक्षर भी लिये और ड्यूटी के लिए निकल गया। वह उसी बैंक में ड्यूटी करता है जिसमें उसकी माँ का फिक्स डिपॉजिट है। शाम को जब वह ड्यूटी से लौटा तो रिनुअल की रसीद अपनी माँ को दे दी।
यद्यपि सास-पुतोहू में नहीं पटने के कारण बूढ़ी अलग रहती है, फिर भी कभी-कभार बेटे से बातचीत हो जाया करती है। पेंशन से वह अपना गुजर-बसर करती है और अपना सारा काम ख़ुद करती है। बेटा-पुतोहू से कभी एक चम्मच नमक की भी आशा नहीं रखती।
पांच साल बाद बूढ़ी रसीद लेकर बैंक पहुँची। मैनेजर साहब बोला, "बूढ़ी मां, आपकी यह रसीद तो फ़र्ज़ी है। पांच साल पहले ही आपकी राशि निकल चुकी है।"
बूढ़ी हा करके ताकने लगी।
"मैं जानता हूँ यह श्रवण का काम है। अभी उसे मज़ा चखाता हूँ।" मैनेजर साहब ने कहा।
"नहीं साहब, उसे क्षमा कर दीजिए।"
"आप क्षमा कर सकती है परंतु मैं तो नहीं छोडूंगा। उसकी नौकरी तो जाएगी ही वह जेल में चक्की भी पिसेगा।" मैनेजर साहब गुस्से से बड़बड़ा रहे थे। तब तक श्रवण अंदर आ चुका था। वह पीछे हाथ करके अपराधी की तरह खड़ा था। तभी बूढ़ी ने टेबल से रसीद उठाई और उसे कई टुकड़ों में फाड़ दिया। फिर बोली, "साहब, अब तो क्षमा करेंगे न?" और वह बैंक से बाहर निकल गई।