क्षमा / राजेन्द्र वर्मा
"हैलो... हाँ, सुरेन्द्र! मैं के.पी. बोल रहा हूँ। तुम जल्द-से-जल्द आ जाओ. अम्मा सीरियस हैं।"
"अच्छा, अभी निकलता हूँ।" कहकर मैंने मोबाइल मेज पर रख दिया।
अम्मा की सीरियस हालत से मैं चौंका नहीं, क्योंकि उनका लीवर काम नहीं कर रहा था। डॉक्टर ने एक तरह से जवाब ही दे दिया था। बस, तसल्ली के लिए दवाइयाँ लिख दी थीं। हास्पिटल से घर ले जाने की सलाह भी शायद इसीलिए दी थी। ऊपरी तौर पर ज़रूर कहा था, 'घबराने की कोई बात नहीं। घर पर अच्छी तरह देखभाल हो सकेगी।' लेकिन, जल्द आने की बात सुन मेरा माथा ठनका। ...फिर ये फोन के.पी. ने क्यों किया? छोटे भाई या बापू ने क्यों नहीं? पिताजी को मैं बापू कहता हूँ।
के.पी. मेरे दोस्त हैं। ... हो न हो, अम्मा न रही हों और ख़बर सुनकर मैं कहीं विचलित न हो जाऊँ, इसलिए उन्होंने सीरियस हालत की बात कही हो। ऐसे मौक़े पर क़रीबी दोस्त या रिश्तेदार ही तो सूचना देते हैं।
मैंने पत्नी को मोबाइल लगाया, पर नहीं लगा। भाई को लगाया, वह भी नहीं लगा। मेरी आशंका बलवती हो उठी। के.पी. को लगाया। मिल गया। बोले-"बस, तुम आ जाओ. देर मत करो।"
मैं समझ गया-अम्मा अब दुनिया में नहीं रहीं। बेचैन हो मैंने पत्नी को फिर फोन लगाया, पर इस बार भी वह नहीं उठा। संवेदना-शून्य मोबाइल पर मुझे क्रोध आ रहा था, पर क्या कर सकता था? परिस्थितियाँ आदमी को कितना विवश कर देती है-इसका अहसास आज एक बार फिर हुआ।
आज, तीसरी बार मैं अम्मा की हालत सीरियस सुनकर गोरखपुर से लखनऊ आ रहा हूँ। पिछली बार जब ख़बर मिली थी, तो भीतर-ही-भीतर झल्ला उठा था-अम्मा अगर सीरियस हैं, तो वहाँ आकर मैं क्या कर लूँगा? जो होना होगा, होकर रहेगा! ... लेकिन यह विचार आते ही मैं अपराध-बोध से ग्रसित हो उठा था, 'भला कोई अपनी माँ के बारे में ऐसा सोचता है? छिः! तुम्हारे जैसों के कारण ही आज कलजुगी बेटों की कहावत चल रही है।'
मैं आफिस से निकलने की तैयारी करने लगा। अपने साथी आफिसर को बताया, फिर आर.एम. को। उन्होंने जाने की परमीशन दे दी। अपनी डेस्क के अर्जेण्ट काम मैंने साथी आफिसर को सौंपे, फिर स्टैंड से मोटर-साइकिल निकाल रेलवे स्टेशन के लिए चल पड़ा।
उस समय लखनऊ के लिए कोई ट्रेन न थी। मोटर साइकिल रेलवे स्टैंड पर छोड़ मैं बस स्टैंड की ओर लपका। एक बस चल पड़ी थी-शायद लखनऊ की ही थी। मैं दौड़ा, पर बस रफ्तार पकड़ चुकी थी। ...
दूसरी बस पीछे लगी थी। निराश हो उसी में बैठ गया। दोपहर के डेढ़ बज रहे थे। भूख भी लग आयी थी। सुबह नाश्ता नहीं बना पाया था। ... प्यास भी लगी थी, पर पानी की बोतल पास न थी। बगल वाले यात्री की बोतल अगली सीट की जालीदार बैक पाकेट में लटकी थी, जिसका हिलता हुआ पानी मेरी प्यास और बढ़ा रहा था। यात्री की आँखें बन्द थीं-शायद सोने का उपक्रम कर रहा था। मन हुआ कि बिना उसकी परमीशन के ही दो घूँट पानी पी लूँ, पर हाथ बढ़ते-बढ़ते रुक गया। मैं पानी पीने, न पीने की कश्मकश में था कि कंडक्टर महोदय आ गये।
कंडक्टर के मुँह में पान-मसाला भरा था। उसके टिकट सम्बन्धी इशारे पर मैंने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया-एक लखनऊ!
बस चल पड़ी थी। मैं अम्मा के बारे में सोच रहा था। ...
पिछली बार जब उनकी तबीयत बिगड़ी थी, तब छोटे भाई ने फोन किया था। तब भी मैं यहीं पोस्टेड था। लखनऊ के लिए तुरन्त चल पड़ा था। उस दिन सोमवार की दोपहर थी। 'गोरखनाथ एक्सप्रेस' से सुबह ही पहुँचा था। फ्लैट जाकर नहाया-धोया और नाश्ता कर आफिस पहुँचा था कि भाई का फोन आ गया।
दो-तीन अर्जेंट काम निपटाये और एक बजे के क़रीब लखनऊ की ट्रेन पकड़ ली। ...रात के नौ बजे मैं माँ के पास था।
उस समय अम्मा बेहोश थीं। कपड़ों ही में टट्टी-पेशाब हो रही थी। छोटा भाई और उसकी पत्नी उनकी सेवा में थे। अम्मा छोटे भाई के पास ही रहती थीं। मेरे साथ तो रहने को वे तैयार थीं, पर मेरी पत्नी के साथ रहना उन्हें गवारा न था।
मेरे पहुँचते ही पत्नी वहाँ पहुँच गयी थीं। मोबाइल पर मैं उन्हें अपडेट दे रहा था। घर पर बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। अगले दिन से उनके एग्ज़ाम होने वाले थे। इंटर व हाईस्कूल में पढ़ने वाले मेरे बेटों को दादी में कोई खास दिलचस्पी न थी, सिवाय इसके कि वे जल्द ठीक हो जाएँ। अम्मा छोटे भाई के बेटे को ही असली पोता मानती थीं। मेरे बेटों से वे रिश्तेदारों की तरह व्यवहार करती थीं। बच्चे भी उसी प्रकार उन्हें रेस्पांस देते थे। इसकी वज़ह मेरी पत्नी थीं। उनमें और अम्मा में कभी नहीं बनी। अम्मा को मैं क्या समझाता, पर पत्नी को समझा-समझाकर हार गया। ...
अम्मा को देख मुझे तरस आया। मेरा मन उनकी सेवा करने को हो आया, पर कुछ खास करने को था नहीं। टट्टी-पेशाब साफ करने की मुझे आवश्यकता न थी। हाथ-पैर दबाने का भी कोई काम न था। दवाइयाँ पहले ही खरीदी जा चुकी थीं और रात की खुराक अभी-अभी दी जा चुकी थी।
दो किलो सेब मैं ले आया था, जिन पर छोटे भाई के बच्चों ने तुरन्त ही कब्जा कर लिया था। उनका ऐसा करना स्वाभाविक ही था-वे अभी छोटे थे और छोटे भाई की ख़राब आर्थिक स्थिति के चलते घर में सेब कभी-कभी ही दिखते थे।
अम्मा जब कभी होश में आतीं, तो छोटे भाई तथा उसके बच्चों का नाम लेने लगतीं। मेरे बारे में जब उन्हें बताया गया कि मैं आ गया हूँ तो उन्होंने एक बार आँखें खोलीं, लेकिन जब कुछ कहना चाहा, तो आवाज़ ने साथ नहीं दिया। थोड़ी देर तक वे मुझे देखती रहीं, फिर उनकी आँखें झपक गयीं। उनकी आँखों में नमी दिखायी दे रही थी। मैं देर तक उनका माथा सहलाता रहा था।
मुहल्ले के एक एम.डी. फिजीशियन का इलाज चल रहा था, लेकिन कोई लाभ होता न दिखायी पड़ रहा था। अगले दिन सवेरे ही अम्मा को 'के.जी.एम.सी.' में भर्ती करा दिया गया था। डाक्टर ने लीवर में इन्फेक्शन की आशंका जतायी थी। तीन दिन छुट्टी लेकर मैंने ज़रूरी जाँचें करा दी थीं। दो दिन अस्पताल में रात में रुका भी, लेकिन जब डाक्टर ने कहा कि कोई सीरियस बात नहीं है, तो मैं निश्चिन्त हो गया। अम्मा भी कुछ ठीक लग रही थीं। बापू और छोटा भाई उनकी देखभाल के लिए थे ही।
मैं आफिस आ गया था। चार-पाँच फ़ाइलों का निपटारा अर्जेंट था। चीफ़ मैनेजर का फोन आया था-"माताजी बहुत सीरियस न हों, तो दो-तीन दिनों के लिए आ जाओ."
पहली बार जब मैंने अम्मा की बीमारी की बात सुनी थी, तब मैं गोरखपुर से 35 किमी। दूर एक गाँव की शाखा में पोस्टेड था। तब भी अकेले रहता था, पर उस समय तक मोबाइल फ़ोन प्रचलन में नहीं था। लैंड लाइन अक्सर खराब रहती थी।
सूचना मिलने पर जब घर पहुँचा, तो पाया कि अम्मा की बिगड़ी तबीयत ठीक हो चुकी थी। बेड रूम में वे छोटे भाई के तीन साल के बेटे के साथ खेल रही थीं। बापू ड्राइंग रूम में टी.वी. देख रहे थे।
मुझे यह सब देख अच्छा न लगा। कितना ज़रूरी काम छोड़कर मैं आया था-किसी से भला क्या मतलब! आने वाले संडे को डिपार्टमेंटल इक्ज़ाम था। आज थर्सडे था। बड़ी मुश्किल से तीन दिन की छुट्टी मिली थी जिसे मैं अम्मा की बीमारी के बहाने कतई खर्च नहीं कर सकता था। कल ही गोरखपुर वापस जाने के लिए मैंने बड़े बेटे से रिज़र्वेशन कराने को कह दिया था। मेरे लिए यह इक्ज़ाम पास करना बहुत ज़रूरी था। इससे न केवल मेरा प्रमोशन होता, बल्कि मुझे गाँव से शहर में पोस्टिंग का अवसर भी मिलता। वरना उस गाँव की ब्रांच में कम-स-कम तीन साल और सड़ना था।
मेरा आना और दूसरे ही दिन वापस जाना, अम्मा-बापू दोनों को अच्छा नहीं लगा था। छोटे भाई ने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। वह प्रायः चुप रहता था, भले ही उसके भीतर कुछ चल रहा हो।
यह वही छोटा भाई है जो गाँव में अम्मा-बापू के साथ रहता था और जिसे मैं अपने विवाह के बाद ही लखनऊ ले आया था ताकि यहाँ पढ़ाई कर वह अपना भविष्य सँवार सके. उस समय वह आठवीं में फेल हो गया था और सप्लीमेंट्री की तैयारी कर रहा था। मैंने बापू से जब उसे लखनऊ साथ ले जाने की बात की, तो वे बच्चों की तरह खिल उठे थे। अम्मा ज़रूर दुविधा में थीं। लेकिन सवेरे वे छोटे भाई को अपने हाथों तैयार कर रही थीं। ...
लखनऊ में उसका एडमीशन आठवीं में ही कराया ताकि वह अच्छे नम्बरों से पास हो सके और नाइन्थ में किसी ठीक-ठाक स्कूल में उसका एडमीशन हो सके. आठवीं में जब उसकी फ़र्स्ट डिवीज़न आ गयी, तब मुझे भी तसल्ली हुई कि उसका एडमीशन किसी अच्छे कालेज में हो सकेगा, लेकिन यह मेरा भ्रम ही साबित हुआ। नाइन्थ में उसका एडमीशन औसत दर्जे के एक कालेज में ही हो सका। उसने 'साइन्स साइड' से पढ़ने की इच्छा जतायी थी। हालांकि मेरा विचार उसे आर्ट्स के सब्जेक्ट्स दिलाने का था, पर फिर सोचा कि हाईस्कूल साइंस साइड से पास होना ज़रूरी है। किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में जनरल नॉलेज के प्रश्नों में हाईस्कूल स्टैंडर्ड तक के सवाल ज़रूर रहते हैं। हाईस्कूल में जैसे नम्बर आयेंगे, वैसा आगे सोचेंगे।
पाँच-छह महीने की कोचिंग के बावजूद हाईस्कूल में भाई की सेकेंड डिवीजन ही आ पायी थी। फ़र्स्ट इयर में मैंने उसका एडमीशन कामर्स साइड से कराने पर ज़ोर दिया, लेकिन उसकी और घरवालों की इच्छा के चलते, बायो ग्रुप में एडमीशन कराना पड़ा। वह डॉक्टर बनना चाहता था। उसके डॉक्टर बनने पर मुझे सबसे ज़्यादा ख़ुशी होती, लेकिन उसकी अब तक की परफार्मेंन्स देखकर भरोसा करना मुश्किल था। आठवीं में जिसकी सप्लीमेंट्री और हाईस्कूल में सेकेंड डिवीजन आयी हो, उस पर डॉक्टर बनने का भरोसा कैसे होता? लेकिन अम्मा की प्रबल इच्छा थी कि भाई को डॉक्टर बनाने के हिसाब से पढ़ाया जाये। इसके लिए कोचिंग का खर्च घर से आयेगा।
मैंने भाई को सलाह दी थी कि उसे लक्ष्य बड़ा ज़रूर रखना चाहिए, लेकिन इतना बड़ा भी नहीं, जो पूरा न हो सके. हमें अपनी सीमाएँ और क्षमताएँ देख अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए. मेरी इस बात पर वह तो कुछ न बोला, लेकिन अम्मा मुझ पर बिगड़ पड़ीं-"तुम्हारी भी तो इंटर में थर्ड डिवीजन आयी थी, लेकिन आज तुम बैंक में बाबू हो कि नहीं!"
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, "मेरी बात और थी। वह दस साल पहले की बात थी। मेरी इंटर में थर्ड डिवीज़न आयी ज़रूर थी, पर मैं क्या थर्ड डिवीज़न के ही लायक़ था? मुझे अगर वे सुविधाएँ मिली होतीं जो आज भाई को मिल रही हैं, तो मैं कम-से-कम फ़र्स्ट डिवीज़न लाता। ... फिर एक्जाम में मेरी तबीयत भी तो ख़राब हो गयी थी। जब पेपर ख़राब हो जायेंगे, तो डिवीज़न कहाँ से आयेगी? ... उसके बाद मैंने कितनी मेहनत की, मैं ही जानता हूँ!"
लेकिन मेरी एक न सुनी गयी और भाई ने वही करवाया, जो वह चाहता था। फ़र्स्ट इयर में भी उसकी सेकेंड डिवीज़न आयी थी, फिर भी वह अम्मा-बापू का चहेता बना हुआ था। इंटर फाइनल में एडमीशन होने के साथ ही उसने कोचिंग ज्वाइन कर ली। फीस थी—पाँच सौ प्रति माह!
उस समय कट-पिट कर मुझे आठ सौ बीस रुपये सैलरी मिलती थी। एक कमरे के किराये के मकान में हम लोग रहते थे। मकान का किराया ही दो सौ था। तब तक हमारे एक बेटा भी हो चुका था। हम लोग कितनी ही किफ़ायत करते, महीने के आख़िरी हफ़्ते में सौ-दो सौ का उधार चढ़ जाता। ऐसे में कोचिंग की फ़ीस कहाँ से निकलती? पहले महीने तो मैंने किसी तरह फ़ीस दे दी, पर अगले महीने की फ़ीस के लिए भाई को गाँव जाना पड़ा, पर वहाँ भी पैसे न मिले। उसे खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। हफ़्ते-भर बाद बापू ख़ुद पैसों का इंतज़ाम करके आये।
जिस मकान में हम लोग रहते थे, उसमें एक कमरा, एक बरामदा, किचन और लैटरीन-बाथरूम था। दिन में तो छोटा भाई कमरे ही में जैसे-तैसे पढ़ाई करता, लेकिन रात में उसे किचन में सोना पड़ता-बरसात और जाड़ों में। गर्मियों में तो खुला आसमान सभी के लिए था।
इसी बीच हमारे दूसरे बेटे ने जन्म लिया। बड़ा बेटा तीन साल का हो रहा था, वह स्कूल जाने लगा था। मेरी अनुपस्थिति में छोटू को सँभालने का जिम्मा भाई पर था। तभी खाने-पीने की व्यवस्था होती। तब गैस सिलिंडर भी नहीं था। मिट्टी के तेल के लिए अक्सर लाइन लगानी पड़ती थी। न मिलने पर अँगीठी सुलगानी पड़ती।
कुल मिलाकर भाई को पढ़ने में असुविधा थी-पैसों की किल्लत अलग! किसी तरह गाड़ी घिसट रही थी। वैसे देखा जाए तो सारी किल्लतों की जड़ में पैसा ही था। पैसा हो, तो ज़िन्दगी आसान हो जाती है। ज़्यादा पैसा आदमी को भले ही बिगाड़ दे, मगर ज़रूरत-भर का पैसा भी अगर न मिले, तो उसका बिगड़ना तय ही है।
बापू के नाम से मैंने एक कमरे के मकान के एलाटमेंट के लिए हाउसिंग बोर्ड में फॉर्म डाल रखा था। संयोग से वह एलॉट हो गया। कब्ज़ा लेने के लिए पांच-छः हजार रुपये चाहिए थे। अम्मा-बापू को मुझसे सारी रकम की उम्मीद थी, लेकिन जब मैंने अपनी ख़स्ता हालत बतायी, तो उन्होंने मुझसे आधे की अपेक्षा की। ... न चाहते हुए भी मैंने ब्याज पर तीन हज़ार रुपये उठाये। मकान का कब्ज़ा मिल गया।
हम लोग नये मकान में जाने की तैयारी कर रहे थे कि भाई ने कहा कि वह कहीं और कमरा लेकर रहना चाहता है ताकि पढ़ाई में सहुलियत हो। उसकी बात जायज़ थी, लेकिन गड़बड़ यह थी कि वह किराये पर रहे और हम लोग उस मकान में रहें जो बापू के नाम था। लिहाजा, यह तय पाया गया कि भाई नये मकान में रहे और हम लोग जहाँ रह रहे हैं, वहीं रहते रहें। खाना-पीना इसी मकान में ही रहेगा, क्योंकि दोनों मकानों के बीच की दूरी बमुश्किल दो किमी। थी। यह व्यवस्था न केवल भाई को खाना बनाने के झंझट से मुक्त रखती, बल्कि उसकी पढ़ाई में भी मददगार साबित होती। ...लेकिन, होनी तो कुछ और थी।
गृह-प्रवेश में अम्मा ने वह भूमिका निभायी जिसकी किसी को भी उम्मीद न थी। इसमें बापू की सहमति भी रही होगी, लेकिन मैं बापू को दोष नहीं दूँगा। वे अम्मा के आगे अक्सर बेबस हो जाते थे। ... घर से राशन-पानी के साथ-साथ बर्तन भी आ गये थे। कुछ दिन अम्मा-बापू भाई के साथ रहे और खाना वग़ैरह बनाया-खिलाया। यह सब देख मेरी पत्नी ने आशंका व्यक्त की थी कि अब भाई-भाई के बीच बँटवारा होकर रहेगा।
मैंने उसे डाँटते हुए कहा कि यह तब तक ही चल रहा है, जब तक अम्मा-बापू यहाँ रह रहे हैं और जैसे ही ये लोग गाँव लौटेंगे, छोटे भाई का खाना-पीना अपने साथ हो जायेगा। लेकिन, वह अपनी बात पर अड़ी रही।
आख़िर उसकी बात सच निकली। स्त्रियों में पारिवारिक बिखराव सूँघने की शक्ति शायद अधिक होती है। अम्मा-बापू के गाँव लौटने के बाद भाई ने खाना स्वयं बनाना शुरू कर दिया-कभी खिचड़ी, तो कभी सब्ज़ी-रोटी. मैं लगभग रोज़-ही ऑफिस से लौटते समय भाई के मकान पर हो लेता, कभी घर आकर सपरिवार हो लेता। भाई से नाराज होते हुए भी पत्नी को भाई पर तरस आता, लेकिन वह चुप रहती। मैं अभी भी आशान्वित था कि हम लोग फिर से साथ रहेंगे। लेकिन भाई का इरादा पक्का था-वह अकेले ही रहेगा, भले-ही अपने मकान में या किराये पर!
देखते-ही-देखते, दो भाइयों के बीच बँटवारा हो चुका था।
मैंने अम्मा से भाई को समझाने को कहा, तो वे मुझ पर ही बिगड़ने लगीं-"तुम तो पढ़े-लिखे हो, फिर ऐसी नौबत क्यों आयी कि मेरा बच्चा तुमसे अलग रहना चाहता है! तुम बहूरानी और बच्चों के साथ खुश रहो। अब हम खुद ही अपने बच्चे के साथ रहेंगे।"
जब हम सब एक साथ रहते थे, तो पत्नी और भाई के बीच शीत युद्ध चलता रहता था, लेकिन मेरे घर में घुसते-ही वह दिखावटी प्रेम में बदल जाता था। जब से वह नये मकान में रहने लगा था, उसके पास भाभी और भतीजों के लिए समय न निकलता। इस बावत पत्नी की शिकायत पर मैं भाई ही का पक्ष लेता-"अरे, टाइम ही कहाँ मिलता होगा बेचारे को? कालेज, कोचिंग, खाना-पानी और दोस्त वगैरह में कब समय बीत जाता है, तुम्हें क्या पता! तुमने इंटर की पढ़ाई की हो तब जानो!"
पत्नी चुप हो जाती। जानती थी, मुझसे जीत न पायेगी, पर उसकी त्योरियाँ चढ़ी रहतीं। मैं उसे समझाता कि परिवार में आपसी प्रेम की क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है। पर उस दिन मेरे भी मन में दरार पड़ गयी जब पत्नी ने फिर भाई की शिकायत की और मैंने उसे झिड़क दिया था। फिर वह बिफर पड़ी थी-"हाँ, मैं तो गँवार हूँ ही! तुम्हारे कारन मैं कुछ नहीं कहती, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं अंधी-बहरी हूँ। अपने बच्चों का दूध छीनकर जिसको खिलाया-पिलाया, अब वह पहचानता तक नहीं! आज डंडैया बाज़ार में दिखा था। मेरा बच्चा 'चाचा-चाचा' कहता रह गया और उसने देखा तक नहीं! अब वह हमसे एक पैसा पा जाए, तो जानूँ! तुम्हें मेरी कसम है कि उसे एक रुपया भी दो।"
मामले की नजाकत भाँप मैंने बात आगे नहीं बढ़ायी, लेकिन यह बात गले नहीं उतर रही थी कि मैं भाई की आर्थिक सहायता न करूँ!
एक दिन पत्नी जब अच्छे मूड में थी, तो मैंने उसकी क़सम तुड़वायी। फिर हम दोनों ने भाई के घर जाकर चाय पी. चाय भाई ने बनायी, पत्नी को नहीं बनाने दी। थोड़ी-बहुत बातचीत भी हुई, पर अभी भी दोनों के मन साफ न थे। मैंने भाई को डाँटा और उससे माफ़ी मँगवाई. इससे पत्नी के दिल पर मरहम लगा और उसके मन में देवर के प्रति सोया ममत्व जाग उठा।
भाई मुझसे क़रीब दस साल छोटा है। पत्नी उसे अपने बेटे ही की तरह मानती आयी थी, पर इधर साल-भर के उसके व्यवहार ने पत्नी के मन में परायेपन की पौध रोप दी थी। वह अभी भी चाहती थी कि भाई का खाना-पीना हमारे ही साथ हो, लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया-"भाभी, मैं आपके आगे मुँह नहीं खोल सकता, लेकिन अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ। इसलिए मैं जो कर रहा हूँ, करने दीजिए!"
जब भाभी-देवर संवाद चल रहा था, तब मैं घर के बाहर था। कान उधर ही लगे थे। भाई की बात सुन मैं अवाक् रह गया। किशोर वय, ज़िन्दगी की गाड़ी को पटरी पर दौड़ा भी सकती है और उसे उतार भी सकती है। इसलिए मैंने ज़्यादा दख़लन्दाज़ी करना ठीक नहीं समझा। न चाहते हुए भी मैंने मामले को भाग्य-भरोसे छोड़ दिया।
आख़िर वही हुआ, जिसकी मुझे आशंका थी। इंटरमीडिएट में उसकी थर्ड डिवीज़न आयी। दो सालों की कोचिंग के बावजूद पी.एम.टी. में उसका सेलेक्शन नहीं हुआ। ... हारकर उसने बी.ए. किया। बाद में एम.ए. भी किया, लेकिन एक क्लर्क की नौकरी न पा सका। ... किसी तरह शादी हुई. एक बेटा और एक बेटी है। दोनों अपनी वय से अधिक समझदार हैं। दोनों, भाई की आर्थिक स्थिति बखूबी जानते हैं कि वह कैसे ट्यूशन पढ़ा-पढ़ाकर उन्हें पाल रहा है। ... मुझे यह कतई अच्छा नहीं लगता कि भाई मेहमान की तरह घर पर आये, लेकिन वह तो वह, उसके बच्चे भी ऐसा करते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं, यह आज तक मैं न समझ पाया।
मेरी सहानुभूति भाई के साथ अवश्य है, पर उस पर ग़ुस्सा भी कम नहीं आता। शुरू से ही उसने मेरी एक न मानी। उसे कामर्स के साथ इंटर करने को कहा, पर उसने ज़िदकर साइंस ली। अकेले रहने को मना किया, पर वह अड़ा रहा। पी.एम.टी. में जब वह दुबारा फेल हुआ, तो उससे टाइप-शार्टहैंड सीखने को कहा, पर उसने कान न दिया। बी.ए. करने के बाद उसे एल-एल.बी. करने को कहा, पर उसने एडमिशन टेस्ट की तैयारी न की। झूठे स्वाभिमान की ख़ातिर मुझसे आर्थिक सहायता भी नहीं लेता। कभी हजार-पाँच सौ देता हूँ तो मुश्किल से लेता है।
नादानी चाहे बच्चों की हो या माँ-बाप की, बरबाद बच्चे ही होते हैं-यह अभी तक सुनता आया था, आज अपने घर में इसे देख भी लिया।
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"बस स्टैंड आ गया। आप लोग चाय-पानी कर लीजिए, पन्द्रह-बीस मिनट का टाइम है।" कंडक्टर की एनाउंसमेंट से मेरी तन्द्रा टूटी.
बस बस्ती पहुँच चुकी थी। मुझे ज़ोरों की भूख-प्यास लगी हुई थी। यह समझते हुए भी कि माँ अब दुनिया में नहीं है, मैंने एक समोसा खाया और चाय पी. फिर सिगरेट सुलगा कर बस के पास खड़े हो ड्राइवर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। पत्नी को मोबाइल लगाया। बात हुई. माँ के न रहने की पुष्टि हो गयी।
सिगरेट के धुंए से-से मुँह कसैला हो गया। अचानक अहसास हुआ कि कसैलेपन में भी स्वाद होता है-अकेलेपन का स्वाद! मन की रिक्तता का स्वाद! कटु वास्तविकता का स्वाद! अन्तिम ष्वास तक साथ निभाने वाला स्वाद! क्या कभी इस स्वाद से पीछा छुड़ाया जा सकता है?
बस चल पड़ी। खिड़की की ओर मेरी सीट थी। आबादी निकल गयी। सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ों को पिछाड़ते हुए बस दौड़ रही थी। मेरा मन कभी बस के ड्राईवर पर दृष्टि गड़ाता, तो कभी पेड़-पौधों पर। मैं स्वयं को इन्हीं के बीच में दौड़ता-घिसटता पाता। ...मैं अपने मन की थाह लेता। अम्मा की मृत्यु से वह आहत तो है, पर पता नहीं, इतना क्यों नहीं कि कलेजा मुँह को आने लगे!
मेरी कल्पना में भाई का घर घूम गया—अम्मा बाहर के कमरे में लिटायी हुई हैं। सिरहाने घी का दीपक जल रहा है। चार-छह लोग चबूतरे पर बैठे हैं। सभी दुखी दिख रहे है। कुछ वाकई दुखी हैं-बापू की आँखें डबडबायी हुई हैं। भाई रो रहा है। उसकी पत्नी और बच्चे भी रो रहे हैं। पत्नी की आँखें भी नम हैं, पर इस नमी में कई सवाल भी चिपके हैं—मुझसे इस मकान में रहने के लिए क्यों नहीं कहा गया? देवर के अलग होने पर मुझे डाँटा क्यों नहीं गया? देवर को क्यों नहीं फटकारा गया कि उसकी हमारे घर से बाहर निकलने की हिम्मत कैसे पड़ी? ...मेरे दोनों बेटों की आंखें भी नम हैं, लेकिन उनकी आँखों में भी जैसे एक सवाल है—दादी ने कब हमें सुमित (भाई का बेटा) की तरह हमें छाती से कब लगाया?
बस फैजाबाद में रुकी हुई है। सवारियाँ चाय-पानी पी रही हैं। पड़ोसी पैसेन्जर मुझसे चाय-पानी के लिए कह रहा है। औपचारिकता में भी मुझे आग्रह की झलक दिखलायी पड़ रही है। बस से उतर पानी की बोतल खरीदता हूँ। चाय का आर्डर देकर पानी के तीन-चार घूँट पीता हूँ। फिर चाय पीकर सिगरेट पीता हूँ। ... फिर वही कसैलापन। ...
पड़ोस वाला यात्री बता रहा है कि वह कानपुर का रहने वाला है और देवरिया में नौकरी करता है। वहाँ अकेले ही रहता है। तीन महीने बाद वह घर जा रहा है-एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर! वह अक्सर ऐसा ही करता है। जब अकेले रहते-रहते ऊब जाता है, तो हफ़्ते-भर की छुट्टी लेकर घर चला जाता है। माँ-बाप और बच्चों के बीच रहकर वह अपना सब दुख-दर्द भूल जाता है। ... मैं सोच में पड़ जाता हूँ—अपनों के बीच रहकर क्या वाक़ई दुख-दर्द भूला जा सकता है? शायद ऐसा होता हो, पर मेरे भाग्य में नहीं। मैं भाग्यवादी नहीं हूँ, पर डाँवाडोल हो रहा हूँ। यथार्थ पर जब वश न चले, तो आदमी भाग्यवादी न हो, तो क्या हो?
बस फिर चल पड़ी। मैं लखनऊ आने का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहा हूँ। ...अभी तो भिटरिया भी नहीं आया। लखनऊ आने में अभी दो-ढाई घंटे लगेंगे। भिटरिया में भी बस चाय-पानी के लिए रुकती है। बस के रुकने की बात सोच मुझे उलझन होने लगती है। उलझन से उबरने के लिए मैं बस की खिड़की से पेड़-पौधों, खेत-खलिहानों, गाँवों को देखने लगता हूँ। सभी उल्टी दिशा में बेतहाशा भाग रहे हैं, जैसे कहना चाहते हों-तुम्हारी गतिशीलता हमें स्वीकार्य नहीं! हम जहाँ हैं, वहीं ठीक हैं। ... मेरा मन दार्शनिक होता जा रहा है। बस के आस-पास की दुनिया जैसे माया-मोह हो और मैं उससे दूर भागता जा रहा हूँ। गन्तव्य का वह कौन-सा बिन्दु है, मैं जिसके पार चले जाना चाहता हूँ।
होते-करते बादशाहनगर आ गया। यह वही स्टॉप है, जहाँ से घर नज़दीक है। बस से उतरकर रिक्शा लेता हूँ-गोलमार्केट तक। वहाँ से घर के पास के लिए टेम्पो। टेम्पो-स्टैंड पहुँचता हूँ। टेम्पो में बैठता हूँ। अभी उसमें तीन सवारियाँ बैठी हैं। यह जानते हुए कि आठ सवारियों के बिना वह हिलेगा नहीं, मैं उसे जल्दी चलने को कहता हूँ, पर मेरे कहने का कोई असर नहीं। मैं गुस्साने लगता हूँ, पर पास बैठी सवारियाँ मुझे समझाती हैं-सवारी पूरी होंगी, तभी तो चलेगा! मैं चुप रह जाता हूँ।
भाई के घर वाली रोड पर पहुँच गया हूँ। घर से सौ कदम पहले ही के.पी. मिल जाते हैं। आँखों में शून्यता लिये वे मेरे हाथ पकड़ लेते हैं। फिर बिना कुछ कहे मेरी जेब में पाँच-पाँच सौ के दस-बारह नोट ठूस देते हैं। वे मेरी माली हालत जानते हैं। मैं मना नहीं कर पाता। ...मैं उन्हें मन-ही-मन धन्यवाद देता हूँ। वे मेरे कंधे पर हाथ रखे-रखे साथ चल रहे हैं। आस-पास के मकान वाले मुझे कोई ख़ास नहीं जानते, पर वे मुझे नमस्कार करते हैं। मैं भी सिर झुकाकर उनका अभिवादन स्वीकार करता हूँ।
भाई का घर बिल्कुल उसी तरह है, जैसा मेरी कल्पना में था। बाहर भीड़ जमा है। बीस-पचीस कुर्सियाँ पड़ी हैं, पर अधिकांश खाली हैं। लोग बेतरतीब खड़े हैं। दो-चार रिश्तेदार भी हैं। मैं उन्हें देख-भर लेता हूँ, पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त कर पाता। पड़ोस की औरतें आ-जा रही हैं।
बापू चुपचाप चबूतरे पर बैठे हैं। बुझी हुई आँखों से वे मुझे देखते हैं। मैं उनके गले लिपट जाता हूँ। रोने का प्रयास करता हूँ, पर आवाज़ नहीं फूटती। बापू को धीरज बँधाने के लिए मैं कुछ कहना चाहता हूँ, पर शब्द साथ नहीं देते। ... अचानक रुलाई फूटती है। मैं मुँह फिरा लेता हूँ। रुमाल से आँखें पोछ मैं कमरे में दाखिल होता हूँ। बड़ा बेटा साथ हो लेता है, छोटा बाहर ही है। कमरे में भाई, उसकी पत्नी और मेरी पत्नी हैं। सभी के चेहरों पर गहन उदासी है। रोते-रोते उनके आँसू सूख गये हैं।
माँ का चेहरा ढका हुआ है, लेकिन मैं उनका चेहरा पढ़ रहा हूँ। मानो वे कह रही हों-'अरे! तू आ गया, लेकिन इतनी देर कहाँ कर दी?'
मैं उनके पाँव पकड़ कर रह जाता हूँ।