क्षात्रधर्म का सौंदर्य / रामचन्द्र शुक्ल
जिस प्रकार लोकमर्यादा का निरूपण ब्राह्मण धर्म है, उसी प्रकार लोकमर्यादा की रक्षा क्षात्राधर्म है। पर एक के पालन का क्षेत्र तटस्थ है, दूसरे का समाज के भीतर-भीतर है। इसी से क्षात्राधर्म के सौंदर्य में जो मधुर आकर्षण है वह अधिक व्यापक, अधिक मर्मस्पर्शी और अधिक स्पष्ट है। मनुष्य की संपूर्ण रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और विकसित करने की सामर्थ्य उसमें है। कानून बनानेवाले हमारे सामने नहीं आते; पर कानून की पाबंदी करानेवाले, छोटे बड़े, सबके कार्यपथ में नित्य दिखाई पड़ते हैं। गाँवों के लोग थानेदार साहब को जितना भला या बुरा जानते हैं, उतना कौंसिल के सदस्यों को नहीं। भलाई या बुराई का जहाँ चित्र खिंचा होगा वहीं जनसाधारण की दृष्टि जाएगी और कुछ देर ठहरेगी। सत्कर्मो और दुष्कर्मो की लंबी चौड़ी फिहरिस्त किसी काम की नहीं। कर्मक्षेत्र के ऊपर अपनी गतिविधि से अनेक रंगों की जो चटकीली रेखाएँ लोग खींचते जाते हैं, उन्हीं के योग से एक गोचर चित्र का विधान होता है। ऐसे चित्र में ही हम ऐसे रूप अंकित पा सकते हैं जो हमारे मन को मोहित कर सकते हैं। हमारी घृणा को उभार सकते हैं और हमारे जीवन को सुंदर मार्ग पर ले जा सकते हैं। सात्विकता और सौंदर्य में जहाँ हमें पूर्ण अभेद मिलेगा वहीं हमारी प्रकृति का अनुरंजन होगा और हमारी प्रवृत्ति को उत्तेजना मिलेगी। इसी से कवि लोग सात्विकता को सौंदर्य के अंतर्गत ही लेकर चलते हैं। कविता, जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुख आदि का सौंदर्य चित्र में अंकित करती है उसी प्रकार औदार्य, वीरता, त्याग, दया इत्यादि का सौंदर्य भी दिखाती है। जिस प्रकार वह रौरव नरक और गंदी गलियों का जघन्य रूप दिखाती है, उसी प्रकार क्रूरों की हिंसावृत्ति और दुष्टों की ईष्या आदि का भी। कविता, सौंदर्य और सात्विकशीलता या कर्तव्य परायणता में भेद नहीं देखना चाहती। इसी से उत्कर्ष साधन के लिए कविता ने प्राय: अंत:करण के सौंदर्य और रूप सौंदर्य का मेल कराया है। राम का रूप माधुर्य, रावण का विकराल रूप अंत:करण के प्रतिबिंब मात्र हैं। बाह्य प्रकृति को भी मिला लेने से कभी कभी प्रभाव और भी बढ़ जाता है। चित्रकूट ऐसे रम्य स्थान में राम और भरत ऐसे रूपवानों के अंत:करण की छटा का क्या कहना है। शक्ति संबंध हीन सिद्धांतमार्ग निश्चयात्मिक बुद्धि को चाहे व्यक्त हों पर प्रवर्तक मन को अव्यक्त रहते हैं। वे मनोरंजनकारी तभी लगते हैं जब किसी व्यक्ति के संबंध में देखे जाते हैं। यह मनोहरता अनंत रूपों में देखी जाती है। मनुष्य जाति ने जब से होश सँभाला तब से वह इन अनंत रूपों को महात्माओं और वीरों के आचरणों तथा आख्यानों में देखती चली आ रही है। जब मनुष्य इन रूपों पर मोहित होता है तब सात्विकशीलता की ओर वह आप से आप आकर्षित होता है। शून्य सिद्धांत वाक्यों में निज की कोई आकर्षणशक्ति या प्रवृत्तिकारिणी क्षमता नहीं होती। 'सदा सच बोलो', दूसरों की भलाई करो', 'क्षमा करना सीखो', ऐसे कोरे वाक्यों को किसी को बार-बार बकते सुन वैसा ही बुरा लगता है जैसा किसी बेहूदे की बात सुनकर। जो इसी प्रकार की बातें करता चला जाय, उसे चुप कर देना चाहिए और कहना चाहिए कि, “तुम्हें बोलने की तमीज़ नहीं, तुम कोल-भीलों के पास जाओ ये बातें हम पहले से जानते हैं। मानव जीवन के क्षेत्र में हम इनके सौंदर्य की छटा देखना चाहते हैं। यदि तुममें दिखाने की शक्ति या प्रतिभा हो तो दिखाओ, नहीं चुपचाप अपना रास्ता लो।” संसार से तटस्थ रहकर शांति सुखपूर्वक लोक व्यव्हार संबंधी उपदेश देनेवालों का उतना अधिक महत्व हमारे हिन्दू धर्म में नहीं है जितना संसार के भीतर घुसकर उसके व्यवहारों के बीच सात्विक सौंदर्य की ज्योति जगानेवालों का है। हमारे यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने गए हैं। अपने जीवन द्वारा कर्म सौंदर्य संघटित करनेवाले ही अवतार कहे गए हैं। कर्म सौंदर्य के योग से उनके व्यक्तित्व में इतना माधुर्य आ गया है कि हमारा हृदय आप से आप उनकी ओर खिंचा पड़ता है। जो कुछ हम करते हैं, ख़ेलना कूदना, हँसना बोलना, क्रोध करना, शोक करना, प्रेम करना, विनोद करना उन सब में सौंदर्य लाते हुए हम जिन्हें देखते हैं उन्हीं की ओर ढल सकते हैं। वे हमें दूर से रास्ता दिखानेवाला नहीं हैं, आप रास्तों में चलकर हमें अपने पीछे खींचनेवाले हैं। जो उनके व्यक्तित्व पर मोहित न हो वह नि:संदेह जड़ है
“सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन तन पुलक नयन जल, सो नर खेहर खाउ।
सिसुपन में पितु मातु बंधु गुरु, सेवक सचिव सखाउड्ड
कहत राम विधुवदन रिसौंहैं, सपनेहु लख्यो न काउ।
सिला साप संताप विगत भईं, परसत पावन पाउड्ड
दई सुगति सो न हेरि हरखि हिय, चरन छुए पछताउ।
भव धानु भंगि निदरि भूपति, भृगु नाथ खाय गए ताउ
छमि अपराध, छमाइ पाइ परि, इतौ न अनत समाउ
कह्यो राज, बन दियो नारि बस, गरि गलानि गयो राउ,
ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों, निज तन मरम कुघाउ
कपि सेवाबस भए कनौड़े, कह्यो पवनसुत आउ,
दैवे को न कछू ऋनियाँ हौं, धानिक तु पत्र लिखाउ
--ग़ो. तुलसीदास
[ जो उनका नाम लेकर पुलकित होता है, जो उनके व्यक्तित्व पर मोहित होता है, उसके सुधारने की बहुत कुछ आशा हो सकती है। जो संसार या मनुष्यत्व का सर्वथा... ]
निर्लिप्त रहकर दूसरों का गला काटनेवालों से लिप्त रहकर दूसरों की भलाई करनेवाले कहीं अच्छे हैं। क्षात्राधर्म ऐकान्तिक नहीं है, उसका संबंध लोकरक्षा से है। अत: वह जनता के संपूर्ण जीवन को स्पर्श करनेवाला है। 'कोई राजा होगा तो अपने घर का होगा, 'इस से बढ़कर झूठ बात शायद ही कोई और मिले। झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती। क्षात्रा जीवन के व्यापकत्व के कारण ही हमारे मुख्य अवतार राम और कृष्ण क्षत्रिय हैं। कर्म सौंदर्य की योजना जितने रूपों में क्षात्रा जीवन में संभव है, उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुखभोग के साथ परदु:ख कातरता, प्रताप के साथ कठिन धर्म पथ का अवलंबन इत्यादि कर्म सौंदर्य के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष योग और कहाँ घट सकते हैं? इस व्यापार युग में, इस वणिग्धर्म प्रधान युग में, क्षात्रा धर्म की चर्चा करना शायद गई बात का रोना समझा जाय पर आधुनिक व्यापार की अन्याय रक्षा भी शास्त्रो द्वारा ही की जाती है। क्षात्राधर्म का उपयोग कहीं नहीं गया है क़ेवल धर्म के साथ उसका असहयोग हो गया है। आजकल मनुष्य की सारी बातें धातु के ठीकरों पर ठहरा दी गई हैं। सबकी टकटकी टके की ओर लगी हुई है। जो बातें पारस्परिक प्रेम की दृष्टि से, न्याय की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से की जाती थीं, वे भी रुपये पैसे की दृष्टि से होने लगी हैं। पैसे से राज सम्मान की प्राप्ति, विद्या की प्राप्ति और न्याय तक की प्राप्ति होती है। जिनके पास कुछ रुपया है वे बड़े-बड़े विद्यालयों में अपने लड़कों को भेज सकते हैं, न्यायालयों में फीस देकर अपने मुकदमे दाखिल कर सकते हैं और महँगे वकील बैरिस्टर करके बढ़िया खासा निर्णय करा सकते हैं, अत्यंत भीरु और कायर होकर बहादुर कहला सकते हैं। राजधर्म, आचार्य धर्म, वीर धर्म सब पर सोने का पानी फिर गया, सब टकाधर्म हो गए। धन की पैठ मनुष्य के सब कार्य क्षेत्रों में करा देने से, उसके प्रभाव को इतना अधिक विस्तृत कर देने से, ब्राह्मण धर्म और क्षात्राधर्म दोनों का लोप हो गया क़ेवल वणिग्धर्म रह गया। व्यापार नीति राजनीति का प्रधान अंग हो गई है। बडे-बड़े राज्य माल की बिक्री के लिए लड़नेवाले सौदागर हो गए हैं। अब सदा एक देश दूसरे देशों का चुपचाप दबे पाँव धन हरण करने की ताक में लगा रहता है। कोई कोई देश लोभ वश इतना अधिक माल तैयार करते हैं कि उसे किसी देश के गले मढ़ने की फिक्र में दिन रात मरते रहते हैं। जब तक यह व्यापारोन्माद दूर न होगा तब तक इस पृथ्वी पर सुखशांति न होगी। दूर यह अवश्य होगा, पर जिस प्रकार और सब पागलपन दूर होते हैं उसी प्रकार। क्षात्रा धर्म की संसार में फिर प्रतिष्ठा होगी। चोरी का बदला डकैती से लिया जायगा। संसार में मनुष्य मात्र की समानवृत्ति कभी नहीं हो सकती। वृत्तियों की भिन्नता के बीच जो धर्म मार्ग निकल सकेगा वही अधिक चलता होगा। जिसमें शिष्टों के आदर, दीनों पर दया, दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा वही सर्वांगपूर्ण लोकधर्म का मार्ग होगा। क्षात्राधर्म पालन की आवश्यकता संसार में सब दिन बनी रहेगी। किसी अनाथ अबला पर अत्याचार करने पर एक कूटपिशाच को हम उद्यत देख रहे हैं। समझाना बुझाना या तो व्यर्थ है अथवा इतना समय ही नहीं है। ऐसी दशा में यदि उस अबला की रक्षा इष्ट है तो हमें चटपट उस कर्म में प्रवृत्त होना होगा जिससे उस दुष्ट को बाधा पहुँचे। उस समय का हमारा क्रोध कितना सुन्दर और अक्रोध कितना घृणित होगा। 'दशवदन निधनकारी' राम के क्रोध के सौंदर्य पर कौन मोहित न होगा? इसी प्रकार मोहित होकर हम राम, कृष्ण आदि अपने अवतारों या इष्टदेवों के सामीप्य लाभ का श्रवण कीर्तन, स्मरण आदि द्वारा प्रयत्न करते रहते हैं। इष्ट के कार्यक्षेत्र में हमें और भी कई प्रकार के लोग मिलते हैं, जिनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे हमें पूर्ण घृणा होती है। इनके द्वारा हमारे इष्टदेव के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास दिखाई पड़ता है इनके बीच उनका रंग और भी खुल पड़ता है। राम भी हमारे काम के हैं, रावण भी हमारे काम का है। एक में हम अपने लिए प्रवृत्ति का क्रम पाते हैं, दूसरे में निवृत्ति का। जीवन में इस प्रवृत्ति और निवृत्ति का प्रवाह साथ-साथ चलता रहता है। दुराचारी भी यदि अपने दुराचार का फल संसार के सामने पूर्ण रूप से भोग लेता है तो संसार के लिए उपयोगी ठहर जाता है। राम के हाथ से मारे जाने से रावण का जीवन भी सफल हो गया। यदि पापी अपने पाप का फल एकांत में या अपनी आत्मा में भोग कर चला जाता है तो वह अपने जीवन की सामाजिक उपयोगिता की एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है। पाप का फल छिपानेवाला पाप छिपानेवाले से अधिक अपराधी है। पर ऐसे बहुत से लोग हैं जो किसी का घर जलाते हाथ जलता है तो कहते हैं कि होम करते जला है। यदि कहीं पाप है, अन्याय है, अत्याचार है तो उनका फल उत्पन्न करना और संसार के समक्ष रखना लोकरक्षा का कार्य है। अपने ऊपर किए जानेवाले अत्याचार और अन्याय का फल ईश्वर के ऊपर छोड़ देना व्यक्तिगत आत्मोन्नति के लिए चाहे श्रेष्ठ हो पर यदि अन्यायी या अत्याचारी अपना हाथ नहीं खींचता है तो लोकसंग्रह की दृष्टि से वह उसी प्रकार आलस्य या कायरपन है जिस प्रकार अपने ऊपर किए हुए उपकार का कुछ भी बदला न देना कृतघ्नता है। दुराचारियों के जीवन का सामाजिक उपयोग करने के लिए ही श्रीकृष्ण भगवान् ने अजुर्न को युद्ध में प्रवृत्त किया। यदि अधर्म में तत्पर कौरवों का नाश न होता और पांडव जीवन भर मारे-मारे ही फिरते तो संसार में अन्याय और अधर्म की ऐसी लीक खींच जाती जो मिटाए न मिटती। जिस समाज में सुख और वैभव के रंग में रंगी अधर्म की ऐसी लीक दिखाई पड़े उसमें रक्षा करनेवाली आत्मा का अभाव तथा विश्वात्मा की विशेष कला के अवतार की आवश्यकता समझनी चाहिए। रामलीला, कृष्णलीला आदि सामीप्य सिद्धि के विधान हैं। रामलीला द्वारा लोग वर्ष में एक बार अपने पूज्य देव की आदर्श मानवलीला का माधुर्य देखते हैं। जिस समय दूर-दूर के गाँवों के लोग एक मैदान में इकट्ठे होते हैं तथा एक ओर जटा मुकुटधारी विजयी राम लक्ष्मण की मधुर मूर्ति देखते हैं और दूसरी ओर तीरों से विधा रावण का विकराल शरीर जलता देखते हैं उस समय वे धर्म के सौंदर्य पर लुब्ध और अधर्म की घोरता पर क्षुब्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार जब हम कृष्णलीला में जीवन की प्रफुल्लता के साथ धर्मरक्षा के अलौकिक बल का विकास देखते हैं तब जीवनधारण की हमारी अभिलाषा दूनी चौगुनी हो जाती है। हिन्दू जाति इन्हीं की भक्ति और प्रेम के बल से इतनी प्रतिकूल अवस्थाओं के बीच अपना अस्तित्व बचाती चली आई। इन्हीं की आकर्षण शक्ति से वह इधर-उधर ढलने नहीं पाई। राम और कृष्ण को बिना रक्त के ऑंसू बहाये छोड़ना हिन्दू जाति के लिए सहज नहीं था, क्योंकि ये अवतार अलग टीले पर चढ़ खड़े होकर उपदेश देनेवाले नहीं थे, बल्कि मानव जीवन में पूर्ण रूप से सम्मिलित होकर उसके एक-एक अंश की मनोहरता दिखानेवाले थे। मंगल के अवसरों पर इनके गीत गाये जाते हैं। विमाताओं की कुटिलता की, बड़ों के आदर की, दुष्टों के दमन की, जीवन के कष्ट की, घर की, वन की, संपद की, विपद की जहाँ चर्चा होती है वहाँ इनका स्मरण किया जाता है। आज संसार के बीच अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए जिस युद्ध में हम प्रवृत्त हैं उसमें विजय प्राप्त करने की कामना से हम मर्यादा पुरुषोत्तम की भूभारहारिणी विजय का स्मरण करते हैं और कहते हैं, भगवान रामचन्द्र की जय!
(स्वदेश, अक्टूबर 1921)
[ चिंतामणि, भाग-3 ]