क्षेत्रीय बौनेपन से खंडित अखिल भारतीयता / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


क्षेत्रीय बौनेपन से खंडित अखिल भारतीयता

प्रकाशन तिथि : 24 अगस्त 2012

क्या अगला चुनाव एक ऐसा राजनीतिक मंथन सिद्ध होगा, जिससे सिर्फ देश कल्याण का अमृत ही प्राप्त होगा और क्या उस अमृत-पात्र को दानव शक्तियां चुराने का प्रयास नहीं करेंगी? दरअसल चुनाव रूपी मंथन में इतने दोष हैं कि समुद्र ही अपना चरित्र बदल देगा। आज भारत के सामने सबसे बड़ा मुद्दा चुनाव प्रक्रिया को सुधारना है, परंतु संसद ठप कर दी गई है क्योंकि विरोधी पक्ष तुरंत चुनाव चाहता है। उसे भय है कि अगले कुछ महीनों में सरकार ऑर्डिनेंस द्वारा आर्थिक विकास के कार्यक्रम लागू कर व कुछ अपने दागदारों को दंडित कर अपनी छवि सुधार सकती है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही अनैतिकता से सत्ता का संग्राम लड़ रहे हैं और साधनों के ये दोष ही उनके साध्य को कलंकित कर सकते हैं।

किसी भी संग्राम का चरित्र दो बातों पर निर्भर करता है। एक तो यह कि शत्रु का चरित्र क्या है और वह किन हथियारों का प्रयोग कर रहा है और दूसरा यह कि हमारा चरित्र क्या है तथा हम किन हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। याद कीजिए अपने स्वाधीनता संग्राम को। विश्व इतिहास का वह सबसे विचित्र संग्राम था। अंग्रेज दमन व शोषण करते थे, परंतु कानून राज की व्यवस्था कुशलता से संचालित करते थे। अन्याय करते हुए भी उन्हें न्याय की छवि बनाए रखना आवश्यक लगता था। अपनी इसी छवि की खातिर वे गांधीजी से सम्मानजनक व्यवहार करते थे और गांधीजी ने साधन के जरा-सा कलंकित होने पर सफलता के करीब पहुंचे आंदोलन को वापस ले लिया। उनके लिए साधन की पवित्रता पर ही साध्य का मूल्यांकन आवश्यक था। इतिहास पुरोधा विपिन चंद्र ने इस संग्राम को 'वॉर ऑफ पोजिशन' कहा है। गांधीजी ने अहिंसा पर अडिग रहकर संग्राम को लंबा चलने दिया और ब्रिटेन को थका दिया। उन्होंने गति-युद्ध के बदले स्थिति-युद्ध को शस्त्र बनाया। भारतीय धैर्य के सामने अंग्रेज हार गए।

विपक्ष जानता है कि समय देने पर सोनिया गांधी अपनी इस्पाती इरादों वाली सास इंदिरा गांधी की तरह ऑर्डिनेंस से सुधार ला सकती हैं, जैसे इंदिराजी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के वक्त किया था। जब तक सोनिया गांधी इंदिराजी के कार्यों का अध्ययन नहीं करतीं, तब तक विपक्ष चैन की सांस ले सकता है। आज के संग्राम में तो दागदार, दागदार से लड़ रहा है और सफाई के स्वयंभू ठेकेदार भी अपने दाग छुपाने में सफल रहे हैं। आज स्वच्छ दिखने का भरम बनाए रखना स्वच्छ होने से ज्यादा जरूरी हो गया है क्योंकि जो दिखता है, वही बिकता है। चरित्र कमीज नहीं है, त्वचा नहीं है और केंचुल भी नहीं है। वह आंतरिक बुनावट है। जुलाहे कवि कबीर द्वारा बुना गया कपड़ा है चरित्र।

बहरहाल, मोटे तौर पर चुनाव प्रचार केवल टेलीविजन व समाचार पत्रों के माध्यम से किया जाए और सरकार मौजूद सांसद संख्या के अनुपात में राजनीतिक दलों को टेलीविजन का समय तथा अखबार का स्थान खरीदकर दे। व्यावहारिक सत्य है कि नेता को छुटभैयों की अपनी सवैतनिक फौज खड़ी करनी पड़ती है, जो चुनाव जीतने के बाद हुड़दंग करते हैं, नियम तोड़ते हैं और व्यवस्था को क्षीण कर देते हैं। चुनाव प्रक्रिया को सरल और सस्ता करके इस कार्यकर्ता फौज का सफाया करना चाहिए। समाज में सारी बुराइयां ये लोग ही लाते हैं। इनका प्रिय नेता अपराध के लिए पकड़ा जाता है और ये लोग धरना देते हैं, शहर ठप कर देते हैं। नेताओं के लिए ऐसी स्थिति बनानी होगी कि उन्हें सवैतनिक हुड़दंगियों से बचाया जा सके। हर शहर में एक मैदान निश्चित हो, ताकि नेताओं की रैलियों से सामान्य नागरिकों के जीवन में कष्ट न बढ़े।

जब तक चुनाव के साधन नहीं सुधरते, तब तक परिणाम निर्णायक सिद्ध नहीं हो सकते। आज किसी भी दल के पास एक भी ऐसा नेता नहीं है, जो देश के किसी भी क्षेत्र से चुनाव जीत सके। प्रधानमंत्री पद का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी गुजरात के बाहर बिहार या कोलकाता या चेन्नई से चुनाव नहीं जीत सकते। अब किसी भी दल के पास न इंदिरा गांधी हैं और न ही अटलबिहारी वाजपेयी। क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने बौनेपन से अखिल भारतीयता को खंडित करने का प्रयास किया है। उनके पास अखिल भारतीय लोकप्रियता नहीं है, परंतु सपने पूरे देश का नेता बनने के हैं। छोटी-सी शख्सियतों के बड़े ख्वाब देश का यथार्थ नहीं हैं।

सबसे बड़ी समस्या यह है कि प्रजातंत्र के भारतीय स्वरूप, जो सामंतवाद का मुखौटा है, की सारी कमजोरियां उजागर हो गई हैं। ये कौन लोग हैं जो चुनाव जीत रहे हैं? चुनाव के लिए उद्योगपतियों से लिया हुआ धन राष्ट्र को बहुत महंगा पड़ता है। सब विशेषज्ञ विचार करें कि चुनाव कैसे सरल व सस्ते किए जा सकते हैं।